भविष्य का भूजल अभी खर्च कर रहा लखनऊ शहर

लखनऊ समेत देश के कई बड़े शहर भूजल संकट के मुहाने पर खड़े हैं। केंद्रीय भूमिजल बोर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले एक दशक में लखनऊ शहर का भूजल स्तर अपने अब तक के निचले स्तर पर पहुंच चुका है। शहर की हर 10 में से 9 हाउसिंग सोसाइटी पीने के पानी के लिए भूजल पर निर्भर है। 10 में से 7 कमर्शियल यूज़र जैसे होटेल, अस्पताल, दफ्तर, मॉल, स्कूल, भूजल पर ही निर्भर हैं। लखनऊ शहर के हर 10 में से 7 घर पीने के पानी के लिए भूजल पर निर्भर हैं। एनजीटी ने इस मामले का स्वतः संज्ञान भी लिया है।

Update: 2024-10-13 09:58 GMT

लखनऊ के गोमती नगर में पानी की सप्लाई करते एक निजी कंपनी के कर्मचारी। तस्वीर साभार: सौरभ शर्मा

लखनऊ: लखनऊ शहर के बीचों-बीच गोमती नदी की धारा समय के साथ सिमट रही है। यही हाल कुकरैल नदी, बक्शी का तालाब समेत अन्य नदियों, तालाबों, कुओं का है। इन सबको पानी देने वाला और पूरे लखनऊ शहर की प्यास बुझाने वाला भूजल लगातार नीचे जा रहा है। ये खतरा खुली आंखों से तो दिखाई नहीं दे रहा लेकिन इससे जुड़े आंकड़े और इस पर नज़र रखने वाले विशेषज्ञ लगातार इस विषय पर आगाह कर रहे हैं।

केंद्रीय भूमिजल बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी) की 2013 से 2023 तक की पिछली पांच रिपोर्टें बताती हैं कि पिछले एक दशक में लखनऊ शहर का भूजल स्तर अपने अब तक के निचले स्तर पर पहुंच चुका है।

वर्ष 2023 में लखनऊ ज़िले को भूजल दोहन के लिहाज से सुरक्षित श्रेणी में रखा गया है। ग्रामीण इलाकों को छोड़ दें तो लखनऊ शहर में तकरीबन 105 फीसदी की दर से भूजल दोहन किया जा रहा है। यानी बारिश समेत अन्य स्रोतों से जितना भूजल रिचार्ज होता है उससे अधिक निकाला जा रहा है। लखनऊ शहर लगातार अति गंभीर (Over-Exploited) श्रेणी में बना हुआ है।

भूजल दोहन यानी धरती से जल निकालने की स्थिति के आधार पर 4 श्रेणियां तय की गई हैं। 70% या उससे कम सुरक्षित, 70-90% सेमी क्रिटिकल, 90-100% क्रिटिकल और 100% से अधिक भूजल निकाला जा रहा है तो अति गंभीर (Over-Exploited) श्रेणी।

उत्तर प्रदेश की सालाना भूजल रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2023 में लखनऊ शहर में सिंचाई के लिए शून्य, उद्योगों के लिए 4.28 और पेयजल के लिए 7,892 यानी तकरीबन 7,896 हेक्टेअर प्रति मीटर (78,960 मिलियन लीटर) पानी निकाला गया। जबकि 7,546 हेक्टेअर प्रति मीटर (75,460 मिलियन लीटर) रिचार्ज किया।

उत्तर प्रदेश भूजल विभाग से सेवानिवृत्त हाइड्रोलॉजिस्ट और ग्राउंड वाटर एक्शन ग्रुप के संयोजक आरएस सिन्हा कहते हैं “लखनऊ शहर अति-गंभीर श्रेणी में है। यानी धरती के भीतर अगर 100 लीटर पानी भरा गया तो उससे अधिक निकाल लिया गया”।

“सीजीडब्ल्यूबी डायनमिक रिसोर्स के आधार पर डेटा जारी करता है। यानी बारिश और अन्य स्रोतों से हर साल जो पानी जमीन के भीतर जाकर सतह के नजदीक मौजूद जलभृत (shallow aquifer) को रिचार्ज करता है। शहरों में पार्क या थोड़ी बहुत उपलब्ध खुली जगहों से रिचार्ज के लिए बहुत कम जगह बची है। इसलिए शहरों में बारिश से भूजल रिचार्ज न के बराबर हो जाता है। मौजूदा परिस्थितियों के आधार पर हम कह सकते हैं कि लखनऊ शहर में बारिश से भूजल रिचार्ज नहीं हो रहा है। इसलिए डायनमिक रिसोर्स की भविष्य के लिए भूजल की शून्य उपलब्धता है। हम
स्थैतिक संसाधन
(static resources), जो धरती से 300 मीटर गहराई तक स्थित है, उसका दोहन कर रहे हैं”, सिन्हा उत्तर प्रदेश में भूजल स्तर को लेकर लिखी रिपोर्ट में भी इस पर बात करते हैं।
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बढ़ता शहर, घटता भूजल

भूमिगत जल की प्रचुरता ने लखनऊ को बागों का शहर बनाया। शहर को विकसित होने, गोमती नदी के आर और पार शहर को बढ़ने और निर्माण में मदद की। आंकड़े बताते हैं कि शहर का भूजल स्तर अधिकांश हिस्सों में गिरावट की ओर है। वर्ष 2006 मानसून के बाद तकरीबन 30 वर्ग किमी. क्षेत्र में भूजल 25 मीटर से नीचे था। 2015 मानसून के बाद इसका दायरा बढ़कर 125 वर्ग किमी हो गया।

इन आंकड़ों की तस्दीक लखनऊ शहर के त्रिवेणी नगर निवासी केके श्रीवास्तव के अनुभव से भी होती है। उनके घर सबमर्सिबल और सरकारी पेयजल सप्लाई दोनों है। वह बताते हैं “मैंने वर्ष 2000 में यहां अपना मकान बनवाया था। पानी के लिए 60 मीटर पर बोरिंग की थी और 13 मीटर पर पाइप डालकर मोटर लगाई थी। साल दर साल पाइप नीचे करते-करते 60 मीटर पर पहुंच गई। अब गर्मियों में इस बोरिंग से पानी नहीं मिलता”।

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वर्ष 2015 में किए गए एक आकलन के मुताबिक लखनऊ जल संस्थान शहर में रोजाना 400 मिलियन लीटर रोजाना (एमएलडी) से अधिक पानी की आपूर्ति भूजल से कर रहा था। इसके अलावा निजी-सरकारी ट्यूबवेल और छोटे-बड़े बोरिंग के ज़रिये रोजाना 350 एमएलडी या इससे अधिक भूजल दोहन किया जा रहा था। लगभग 300 ओलंपिक साइज स्विमिंग पूल जितना पानी हर रोज धरती से निकाला जा रहा था।

वर्ष 2021 में सिर्फ लखनऊ जल संस्थान करीब 404 एमएलडी भूजल से और 400 एमएलडी-नहर के जल से आपूर्ति कर रहा था। इस रिपोर्ट में निजी-सरकारी इमारतों में लगे ट्यूबवेल का आकलन शामिल नहीं है। यानी लगभग 322 ओलंपिक साइज स्विमिंग पूल जितना पानी हर रोज निकाला जा रहा था। मांग और आपूर्ति में 6 एमएलडी का अंतर था।

अनुमान है कि वर्ष 2025 तक लखनऊ शहर में पानी की मांग बढ़कर सालाना 945 एमएलडी तक पहुंच जाएगी। यानी हर रोज लगभग 378 ओलंपिक साइज स्विमिंग पूल जितना पानी धरती से निकाला जाएगा। मांग और आपूर्ति का अंतर 33 एमएलडी हो सकता है।

ये आंकड़े लखनऊ जल संस्थान के हैं जबकि शहर में पानी की जरूरत पूरी करने के लिए अनगिनत समर्सिबल पंप लगे हैं। जिनका डेटा मौजूदा नहीं है। भूजल विभाग की रिपोर्टें इसका उल्लेख करती हैं।

लखनऊ शहर में हर 10 में से 7 घर पेयजल के लिए भूजल पर निर्भर करते हैं।

डाटा से बाहर भूजल की सच्चाई

स्कूल ऑफ अर्थ एंड इनवायरमेंटल साइंस में प्रोफेसर वेंकटेश दत्ता कहते हैं “हमारे अध्ययन के मुताबिक 85 प्रतिशत लखनऊ शहर पीने के पानी के लिए भूजल पर निर्भर करता है। इसके साथ ही जितने भी नए निर्माण हो रहे हैं, नए टाउनशिप आ रहे हैं, सभी भूजल पर निर्भर हैं। शहर का अनियोजित विकास और अनियोजित तरह से चल रहे छोटे-बड़े उद्यम सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज नहीं हैं, उनके भूजल दोहन से जुड़े आंकड़े भी रिकॉर्ड में नहीं हैं। इसका एक छोटा उदाहरण है, शहर में हजारों की संख्या में चौपहिया वाहनों के लिए सर्विसिंग और धुलाई सेंटर”।

उदाहरण

इस मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश में मार्च 2023 तक 40 लाख (4 मिलियन) से अधिक चौपहिया वाहन रजिस्टर्ड थे। सबसे ज्यादा चौपहिया वाहन लखनऊ में हैं। एक मोटे अनुमान के मुताबिक एक वाहन एक साल में एक बार की धुलाई में औसतन 100 लीटर पानी इस्तेमाल करता है। तो 4 मिलियन कारें 400 मिलियन लीटर भूजल, साल में एक बार, कम से कम इस्तेमाल करती हैं। यह तकरीबन 160 ओलंपिक स्वीमिंग पूल जितना भूजल है, जो डेटा से नदारद है।

वेंकटेश कहते हैं “भूजल का उपलब्ध डेटा इस कहानी का एक हिस्साभर है”।

अंधाधुंध भूजल दोहन से लखनऊ के जलभृत (aquifer) में भारी गिरावट आई है। इस स्थिति का राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने खुद संज्ञान लिया। एक मीडिया रिपोर्ट का संज्ञान लेते हुए मई 2024 में ने लखनऊ नगर निगम, लखनऊ विकास प्राधिकरण, सीजीडब्ल्यूबी, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से जवाब मांगा।

4 सितंबर को इस पर हुई सुनवाई के दौरान जवाब दाखिल न करने पर लखनऊ के ज़िलाधिकारी समेत अन्य अधिकारियों पर 5 हजार रुपए का जुर्माना लगाया। एनजीटी में सिर्फ यूपीपीसीबी ने जवाब दाखिल किया। इस मामले पर अगली सुनाई दिसंबर 2024 में होगी।

यूपीपीसीबी ने एनजीटी में शहर में बड़े पैमाने पर भूजल दोहन करने वाली 19 इकाइयों का ब्योरा दिया। जो रोजाना 34,704 किलोलीटर भूजल लेती हैं। इनमें से 7 इकाइयां तकरीबन 7,458 किलोलीटर ट्रीट किया हुआ अपशिष्ट जल रिसाइकल करती हैं। इनमें डेयरी, मिल्क प्रोसेसिंग, एयर क्राफ्ट, बैटरी सेल, आटो मोबाइल, पेस्टीसाइड, बड़े होटेल और मॉल जैसी इकाइयां शामिल हैं।

लखनऊ शहर की आर्थिकी भूजल पर टिकी है। इसकी पुष्टि 2021 में जल शक्ति मंत्रालय के सहयोग से किए गए द एनर्जी एंड रिसोर्स इंस्टीट्यूट(टेरी) और दिल्ली विश्वविद्यालय के एक विशेष अध्ययन से भी होती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक शहर की हर 10 में से 9 हाउसिंग सोसाइटी पीने के पानी के लिए भूजल पर निर्भर है। 10 में से 7 कमर्शियल यूज़र जैसे होटेल, अस्पताल, दफ्तर, मॉल, स्कूल, भूजल पर ही निर्भर हैं। लखनऊ शहर के हर 10 में से 7 घर पीने के पानी के लिए भूजल पर निर्भर हैं।

ये रिपोर्ट आगाह करती है कि यदि मौजूदा स्तर पर ही भूजल निकाला जाता रहा तो वर्ष 2031 तक मौजूदा स्तर से भूजल में 20-25 मीटर की गिरावट और आएगी। यानी चारबाग़ लखनऊ विश्वविद्यालय, कैंट जैसे इलाकों में पानी 60 मीटर गहराई पहुंच जाएगा। यह संकट की स्थिति होगी।

लुप्त होते कुएं और बढ़ते बोरवेल

सालाना 70 सेंटीमीटर से 1 मीटर तक की गिरावट झेल रहे लखनऊ में तकरीबन एक सदी पहले तक कुएं पानी का अहम स्रोत हुआ करते थे। भूजल विभाग के लखनऊ नोडल अधिकारी आदित्य कुमार पांडे बताते हैं कि अब लखनऊ शहर के भीतर एक भी कुआं सरकारी रिकॉर्ड में नहीं है। लेकिन जिले में गुसाईगंज और मोहनलाल गंज में दो कुएं अब भी जीवित हैं और इनकी निगरानी की जा रही है।

एचआर नेविल की 1904 में प्रकाशित डिस्ट्रिक्ट गेज़ेटियर ऑफ द यूनाइटेड प्रॉविन्स-लखनऊ में जिले में कम से कम 6,564 पक्के और 10,466 कच्चे कुओं की बात कही गई है।

इसी उद्देश्य से उत्तर प्रदेश में वर्ष 2019 में ग्राउंड वाटर एक्ट लाया गया और रोजाना 10 किलो लीटर (10,000 लीटर) या इससे अधिक भूजल दोहन करने वाली सभी इकाइयों का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य किया गया। ताकि कमर्शियल, इंडस्ट्रियल, इन्फ्रास्ट्रक्चर या बल्क यूज़र (बड़े पैमाने पर भूजल का इस्तेमाल करने वाले) को पंजीकृत कर नियमित किया जा सके।

उत्तर प्रदेश भूजल विभाग में लखनऊ जिले के नोडल अधिकारी और असिस्टेंट इंजीनियर आदित्य कुमार पांडे कहते हैं “अभी हम बड़े पैमाने पर भूजल दोहन करने वाली इकाइयों को पंजीकृत करने का लक्ष्य लेकर आगे बढ़ रहे हैं और इसके शुरुआती चरण में है। अस्पताल, स्कूल, कार धुलाई के सर्विसिंग सेंटर में पानी की खपत अपेक्षाकृत कम होती है और हमारा ध्यान अभी बड़ी इकाइयों को रेग्यूलेट करने पर है”।

आदित्य यह भी बताते हैं कि कमर्शियल, इन्फ्रास्ट्रक्चर, बल्क यू़ज़र इकाइयों के आंकड़े भूजल रिपोर्ट में इंडस्ट्रियल नहीं बल्कि घरेलू खपत में दर्ज होते हैं। विशेषज्ञ इंडस्ट्रीज़ के भूजल दोहन की अपेक्षाकृत कम मात्रा को भी सवालिया निगाहों से देखते हैं।

भूजल आकलन की विश्वसनीयता!

वर्ष 1996 में केंद्र सरकार ने भूजल आकलन समिति (GEC) गठित कर राष्ट्रीय स्तर पर भूजल संसाधनों के आकलन के लिए GEC-1997 पद्धति बनाई। ताकि भूजल रिचार्ज और दोहन का आकलन किया जा सके और इसी आधार पर इन्हें सुरक्षित, अर्ध-गंभीर, गंभीर और अति-दोहित श्रेणियों में बांटा जा सके। GEC-1997 पद्धति से 2000, 2004, 2009, 2011, और 2013 में भूजल संसाधनों का आकलन किया गया।

वर्ष 2015 में कुछ नए संशोधन के साथ GEC-2015 पद्धति लाई गई। इसमें शहरी क्षेत्रों के लिए एक नई आकलन प्रक्रिया जोड़ी गई।

उत्तर प्रदेश भूजल विभाग से सेवानिवृत्त हाइड्रोलॉजिस्ट और ग्राउंड वाटर एक्शन ग्रुप के संयोजक आरएस सिन्हा इस नई पद्धति पर सवाल उठाते हैं। “GEC-1997 में भूजल आकलन की एक महत्वपूर्ण केटेग्री भूजल में गिरावट का रुझान था। इससे पता चलता था कि समय के साथ भूजल की किसी यूनिट में गिरावट है या नहीं। इससे भूजल दोहन की स्थिति पता चलती थी। लेकिन जीईसी-2015 में ये केटेग्री हटा दी गई। जबकि भविष्य में भूजल की उपलब्धता के आकलन के लिए ये महत्वपूर्ण जानकारी थी”।

सिन्हा कहते हैं कि शहरी क्षेत्र में भूजल रिचार्ज से जुड़ी जीईसी-2015 की पद्धति ज़मीनी हालात से मेल नहीं खाती। इसमें माना गया कि शहरों में बारिश का 30% भूजल को रिचार्ज करता है। लेकिन कंक्रीट के शहरों को देखते हुए यह अनुमान बहुत ही अधिक और अवास्तविक लगता है। इसी तरह, अन्य स्रोत जैसे पाइपलाइन से सीपेज, सीवेज और बाढ़ के आंकड़ों से भूजल रिचार्ज का अनुमान भी अवास्तविक लगता है।

सीजीडब्ल्यूबी की रिपोर्ट में लखनऊ शहर में भूजल स्तर में सुधार दर्शाया गया है। वर्ष 2017 की रिपोर्ट में शहर में 176% की दर से भूजल दोहन किया जा रहा था। 2023 में यह घटकर 105% पर आ गया। डॉ सिन्हा इस आकलन पर संदेह जताते हैं और कहते हैं “लखनऊ समेत उत्तर प्रदेश के कानपुर, मेरठ, नोएडा, ग़ाज़ियाबाद, वाराणसी जैसे सभी बड़े शहर में भूजल गिरावट का रुझान है”।


बेपानी होते शहर

लखनऊ समेत देश के कई बड़े शहर भूजल संकट के मुहाने पर खड़े हैं। भारत दुनिया में सबसे ज्यादा भूजल दोहन करने वाला देश है। सीजीडब्ल्यूबी की वर्ष 2023 की रिपोर्ट का आकलन बताता है कि लखनऊ, दिल्ली, इंदौर, बंगलुरू समेत 122 शहर उपलब्ध भूजल का 90% से ज्यादा दोहन कर रहे हैं। जो कि सुरक्षित सीमा से कहीं अधिक है। जबकि 195 शहर 70% से अधिक भूजल दोहन कर रहे हैं। 32 शहरों में भविष्य के लिए भूजल उपलब्धता शून्य दर्शायी गई है।

वहीं, उत्तर प्रदेश देश में सबसे ज्यादा भूजल दोहन करने वाला राज्य है। राज्य की हर 10 में से 3 इकाई भूजल दोहन के लिहाज से असुरक्षित है। भूजल स्तर की जांच के लिए राज्य को कुल 836 इकाइयों में बांटा गया है। इनमें से 559 सुरक्षित इकाइयां हैं। 172 सेमी क्रिटिकल, 43 क्रिटिकल और 62 अति-शोषित (Over-Exploited) हैं।

बेहतर भविष्य के लिए

रसातल की ओर बढ़ते भूजल में सुधार के लिए केंद्र और राज्य सरकार कई योजनाओं पर कार्य कर रही है। जल-जीवन मिशन, अटल भूजल योजना, अमृत सरोवर योजना जैसी कई पहल शुरू की गई हैं। डॉ सिन्हा कहते हैं कि ग्रामीण परिवारों के घरों तक नल पहुंचाने के लिए लाया गया जल-जीवन मिशन भी भूजल पर ही निर्भर है।

भूजल संकट से निपटने के लिए लखनऊ में रूफटॉप रेन वाटर हार्वेस्टिंग पर ज़ोर दिया जा रहा है। भूजल नीति में भी 200 वर्ग मीटर से अधिक क्षेत्र वाले रिहायशी घरों, सरकारी इमारतों, कॉलोनियों में रेन वाटर हार्वेस्टिंग अनिवार्य किया गया है।

लखनऊ विकास प्राधिकरण शहर की छोटी झीलों को पुनर्जीवित करने का अभियान चला रहा है। कुकरैल नदी को पुनर्जीवित करने का अभियान भी इसमें शामिल है।

प्रोफेसर वेंकटेश दत्ता सुझाव देते हैं कि शहर की सभी बड़ी कॉलोनियों, बहुमंज़िला इमारतों और सार्वजनिक स्थलों पर भूजल स्तर दर्शाने की व्यवस्था होनी चाहिए। ये हमें भविष्य को लेकर आगाह करेगा।

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