टीबी का इलाज मुफ्त, फिर भी 45% मरीजों के परिवारों पर 'भारी' आर्थिक बोझ

सरकार राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण कार्यक्रम के तहत टीबी का मुफ्त इलाज मुहैया कराती है, लेकिन जिन घरों में टीबी (तपेदिक) के मरीज हैं, उन्हें इलाज के दौरान प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष खर्चों में 74,000 रुपये तक खर्च करने पड़ जाते हैं।

Update: 2024-12-15 06:22 GMT

नई दिल्ली: ग्लोबल हेल्थ रिसर्च एंड पॉलिसी जर्नल में इस सप्ताह प्रकाशित एक नए अध्ययन से पता चला है कि लगभग 45% टीबी (तपेदिक) मरीजों के परिवारों को भारी आर्थिक बोझ को सामना करना पड़ा और उनकी सलाना कमाई का 20% से अधिक हिस्सा सिर्फ इलाज में लग गया। अध्ययन के मुताबिक, सबसे गरीब और अस्पताल में भर्ती मरीजों के परिवार वालों को इस तरह के भारी खर्चों का सामना करने की संभावना सबसे अधिक होती है।

यह अध्ययन भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के राष्ट्रीय महामारी विज्ञान संस्थान (ICMR-NIE) द्वारा किया गया था। NIE की मुख्य जांचकर्ता और वैज्ञानिक, जयश्री कथैरेसन ने कहा कि टीबी के इलाज पर होने वाले खर्चों का अनुमान लगाने के लिए पहले भी कई अध्ययन (जैसे यह और यह) हुए हैं, लेकिन उनके अध्ययन में राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्व करने वाला अनुमान लगाया गया है। उन्होंने यह भी कहा कि अध्ययन टीबी के निदान और देखभाल के लिए कई महत्वपूर्ण नीतियों को लागू करने के बाद किया गया, जैसे सक्रिय रूप से मरीजों की पहचान करना और निक्षय पोषण योजना, जिसमें इलाज की अवधि के दौरान रोगी को हर महीने 1,000 रुपये पोषण सहायता के रूप में मिलते हैं।

कथैरेसन ने ईमेल पर बात करते हुए बताया, “हमारी रिसर्च से पता चला है कि 2022 तक भी लोगों को टीबी के इलाज पर बहुत ज्यादा पैसे खर्च करने पड़ रहे थे। सरकार की नई योजनाओं और सुविधाओं के आने के बाद, यह रिसर्च एक आधार का काम करेगी जिससे हम देख पाएंगे कि ये नई योजनाएं कितनी कारगर साबित हो रही हैं।” इस रिसर्च के लिए, 2022 और 2023 में 11 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 1407 मरीजों से उनके घरों पर जाकर बात की गई थी।

रिसर्च में पाया गया कि पोषण की कमी और टीबी होने का खतरा आपस में जुड़े हुए हैं। टीबी के मरीजों को इलाज के लिए औसतन $386.1(32,000 रुपये से ज्यादा) खर्च करने पड़े। सबसे कम खर्च $130.8 (लगभग 11,000 रुपये) और सबसे अधिक खर्च $876.9 (74,000 रुपये से ज्यादा) तक पहुंच गया। यह खर्च टीबी के निदान से पहले हुए मेडिकल और दूसरे खर्चों को छोड़कर है।

इंडियास्पेंड ने अक्टूबर 2022 में रिपोर्ट की थी कि पोषण की कमी से व्यक्ति को टीबी होने का खतरा बढ़ जाता है, जबकि टीबी होने से कुपोषण का खतरा बढ़ जाता है। कुपोषित मरीजों को टीबी से ठीक होने में भी काफी मुश्किलें आती हैं।

अप्रत्यक्ष खर्चें ज्यादा

अध्ययन के मुताबिक, इन खर्चों में से लगभग दो-तिहाई अप्रत्यक्ष लागतों के कारण थे, जो उत्पादकता में कमी के कारण हुए - यानी, बीमारी से पहले की आय की तुलना में टीबी हो जाने के बाद आय का नुकसान। अप्रत्यक्ष लागतें इसलिए बढ़ीं क्योंकि कई टीबी मरीजों को कम वेतन वाली नौकरियां लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। वे असंगठित क्षेत्र में थे, जहां उन्हें छुट्टी के लिए पैसे नहीं मिलते थे या कंपनी की तरफ से बीमा जैसी कोई सुविधा नहीं थी। अध्ययन में शामिल केवल 55.9% टीबी मरीज ही काम कर पा रहे थे और 33.6% अपने परिवार में अकेले कमाने वाले थे।

कथैरेसन ने कहा, “मैं अभी भी कहूंगी कि हम उत्पादकता के पूरे नुकसान को नहीं पकड़ पाए हैं , क्योंकि हमने सिर्फ इलाज के दौरान होने वाले नुकसान को ही गिना है। हमारी रिसर्च में यह भी पता चला है कि उत्पादकता और आय का नुकसान इलाज के नतीजे से कहीं आगे तक जाता है। यानी लोगों की कमाई का नुकसान इलाज के बाद भी होता रहता है। कुछ लोग तो कभी भी पहले की तरह काम नहीं कर पाते हैं।”

लगभग 12% मरीजों ने खर्चों को पूरा करने के लिए अलग-अलग तरीके अपनाए, जैसे कि ज्यादा ब्याज पर लोन लेना या अपनी चीजें बेचना। साथ ही बचत के खत्म होने की वजह से भी उन्हें नुकसान हुआ।

टीबी से प्रभावित परिवार

अध्ययन में कहा गया है कि टीबी के मरीज निदान से पहले भी काफी पैसा खर्च कर देते हैं, खासतौर पर वो 60% संभावित टीबी मरीज, जो पहले निजी क्षेत्र में इलाज के लिए जाते हैं।

2021 में, कई महीनों की बीमारी के बाद, मुंबई के 24 वर्षीय निवासी नितिन को एक प्राइवेट अस्पताल में पल्मोनरी टीबी का पता चला। (गोपनीयता बनाए रखने के लिए उनका नाम बदल दिया गया है।)

नितिन ने बताया "मुझे दो हफ्ते अस्पताल में रहना पड़ा। मेरे पिताजी रिक्शा चलाते हैं, लेकिन लॉकडाउन की वजह से वो भी घर पर थे। हमने अस्पताल में रहने और सीटी स्कैन, एक्स-रे और खून की जांच पर ही लगभग 72,000 रुपये खर्च कर दिए थे।"

हालांकि अस्पताल में ही उन्हें टीबी का पता चला, लेकिन वहां इलाज से उन्हें आराम नहीं मिला था। नितिन ने बताया, "मुझे लगातार उल्टियां हो रही थीं और मेरा वजन बहुत तेजी से गिर रहा था। मेरा वजन 30 किलो तक रह गया था। तब मैंने सरकारी अस्पताल में जाने का फैसला किया। वहां से मुझे सेवरी के टीबी अस्पताल में भेज दिया गया।"

नगर निगम के सेवरी अस्पताल में नितिन दो महीने से ज्यादा समय के लिए भर्ती रहे। जब डॉक्टरों ने देखा कि रिफैम्पिसिन नाम की पहली दवा से उनके लिवर को नुकसान हो रहा है, तो उन्होंने स्ट्रेप्टोमाइसिन के इंजेक्शन लगाना शुरू किया। यह इंजेक्शन उन्हें हर हफ्ते तीन बार लगवाने होते थे और इसके लिए हर बार उन्हें एक लोकल डॉक्टर को 200 रुपये देने पड़ते थे। अब नितिन ठीक तो हैं, लेकिन उन्होंने लगभग 2 लाख रुपये खर्च कर दिए, जबकि उसे सरकार के राष्ट्रीय क्षय रोग नियंत्रण कार्यक्रम (NTEP) के तहत मुफ्त इलाज मिल रहा था। इस योजना का मकसद “2025 तक देश से टीबी को पूरी तरह से खत्म करना है।” यह कार्यक्रम पूरे देश में टीबी की मुफ्त जांच और उपचार सेवाएं प्रदान करता है।

बाद में, उनकी भाभी को पेट की टीबी हो गई, जिसके लिए उनके परिवार ने 1.5 लाख रुपये और खर्च किए। अभी इसी महीने, उनकी दो साल की बच्ची को भी टीबी का पता चला है और उसका इलाज जल्द ही शुरू होगा।

अस्पताल में भर्ती होने पर सबसे अधिक खर्च

अध्ययन में कहा गया है कि टीबी के जिन मरीजो को अस्पताल में भर्ती (18.3%) कराया गया था, उन्होंने औसतन 74,000 रुपये ($882.3) खर्च किए, जबकि अस्पताल में भर्ती न होने वाले लोगों ने लगभग 27,000 रुपये ($317.5) खर्च किए।

मंगलुरु के येनेपोया मेडिकल कॉलेज में सामुदायिक चिकित्सा विभाग की प्रोफेसर माधवी भार्गवा ने कहा, "भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में टीबी के मरीजों के लिए पर्याप्त देखभाल सुविधाएं नहीं हैं। अस्पतालों को चिंता है कि बीमारी दूसरे मरीजों में भी फैल जाएगी।" वह आगे कहती हैं, "इसलिए जिन टीबी मरीजों को अस्पताल में भर्ती होने की जरूरत होती है, उन्हें ज्यादातर प्राइवेट अस्पतालों में भेज दिया जाता है।" भार्गवा झारखंड में RATIONS ट्रायल की सह-प्रमुख जांचकर्ता हैं। इस रिसर्च से पता चला था कि पोषण सहायता से घर के बाकी सदस्यों में टीबी होने का खतरा 40-50% तक कम करने में मदद मिली और मरीजों की मृत्यु दर में भी कमी आई।

उन्होंने आगे कहा कि टीबी के मरीजों को अस्पताल में भर्ती होने के सामान्य कारणों में ऑक्सीजन का स्तर कम होना, ब्लड प्रेशर कम होना, गंभीर कुपोषण जिसके लिए पोषण देखभाल की आवश्यकता होती है, गंभीर एनीमिया, हीमोप्टाइसिस (बलगम में अत्यधिक खून) और टीबी दवाओं के प्रतिकूल प्रभाव शामिल हैं।

मीरा यादव ‘ग्लोबल कोएलिशन ऑफ टीबी एडवोकेट्स’ का हिस्सा हैं। उनके पास अक्सर ऐसे मरीजों के फोन आते हैं जिन्हें टीबी की दवाओं के साइड इफेक्ट्स की वजह से अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था। उन्होंने कहा, "दवाओं से कुछ लोगों को देखने या सुनने में परेशानी होने लगती है, जिसके लिए वे प्राइवेट इलाज कराते हैं। मैं एक ऐसी महिला को जानती हूं जिसे स्पाइन में टीबी है और उनके पैर की नसें खराब हो चुकी हैं। उन्हें चलने के लिए भी काफी ज्यादा फिजियोथेरेपी करवानी पड़ रही है।"

अध्ययन में यह भी पता चला कि ड्रग रेजिस्टेंट टीबी (टीबी की दवाइयों का असर जिन लोगों पर कम होता है), एचआईवी और डायबिटीज वाले लोगों के उपचार की लागत बढ़ जाती है।

कथैरेसन के मुताबिक, उन्होंने सरकार को सुझाव दिया है कि वो इन चीजों पर ध्यान दे: सार्वजनिक- निजी भागीदारी को मजबूत करना, जांच जल्दी से हो सके इसलिए अच्छी मशीनों का इस्तेमाल करना और टीबी के साथ दूसरी बीमारियों की भी जांच और इलाज करना।

मरीज की व्यक्तिगत जरूरत के अनुसार देखभाल

पिछले साल, ICMR-NIE ने टीबी के मरीजों के लिए अलग-अलग तरीके से देखभाल पर एक अध्ययन प्रकाशित किया था। इसका मतलब है कि मरीजों का जल्द निदान किया जाना और यह देखना कि किन मरीजों को ज्यादा खतरा है और अगर जरूरी हो तो उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना।

छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के एक ग्रामीण अस्पताल ‘जन स्वास्थ्य सहयोग’ में डॉक्टर गजानन फुटके ने कहा कि कुपोषित टीबी रोगियों को विशेष रूप से उच्च जोखिम होता है।

फुटके ने कहा, “कुपोषित मरीजों (जिनका बॉडी मास इंडेक्स 16 से कम है) का इलाज करना ऐसा है जैसे आईसीयू में किसी मरीज का इलाज करना। इसके लिए विशेष नर्सिंग देखभाल की भी आवश्यकता होती है। उनकी इलेक्ट्रोलाइट इम्बैलेंस, हाइपोथर्मिया, हाइपोग्लाइसीमिया की जांच भी जानी चाहिए। उन्हें खून चढ़ाने और नॉन इनवेसिव वेंटिलेशन यानी ऑक्सीजन देने की भी जरूरत पड़ सकती है। उनकी मृत्यु दर बहुत अधिक होती है।" उन्होंने आगे बताया कि इस तरह की सुविधाएं जिला अस्पतालों में या टीबी के ज्यादा मरीजों वाले सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में भी उपलब्ध होनी चाहिए।

कथैरेसन ने कहा कि टीबी का निदान और देखभाल किस तरह की परिस्थितियों में हो रहा है, इसे समझने की जरूरत है। वह आगे कहती हैं, “राष्ट्रीय नीतियां बहुत हैं, लेकिन हमें ऐसी रणनीतियों की आवश्यकता है जो स्थानीय चुनौतियों के अनुकूल हों।”

संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों (UN SDG) में 2030 तक टीबी महामारी को समाप्त करना शामिल है। लक्ष्यों के अनुसार, 2015 में टीबी से जितनी मौतें और नए मामले हुए थे, उनकी तुलना में प्रति वर्ष 100,000 आबादी पर टीबी से होने वाली मौतों में 90% और नए मामलों में 80% की कमी लानी होगी। इंडियास्पेंड ने जून 2024 में इससे संबंधित रिपोर्ट दी थी।

भारत का लक्ष्य इस UN SDG लक्ष्य को 2025 तक, यानी वैश्विक लक्ष्य से पांच साल पहले हासिल करना है। इंडियास्पेंड ने मई 2023 में रिपोर्ट किया था कि भारत में टीबी के मामले कम होने की रफ्तार लगभग दुनिया के बराबर ही है, जहां 2% की कमी आई है। लेकिन यह गिरावट, 2025 तक WHO द्वारा लक्षित 10% की गिरावट और 2035 तक टीबी को समाप्त करने के लिए अगले दशक के लिए अनुमानित 17% की गिरावट से काफी कम है।

इंडियास्पेंड ने अध्ययन के निष्कर्षों पर टिप्पणी के लिए सेंट्रल टीबी डिवीजन की उप-महानिदेशक उर्वशी सिंह से संपर्क किया है। प्रतिक्रिया मिलने पर इस स्टोरी को अपडेट कर दिया जाएगा


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