दार्जिलिंग की पहाड़ियों पर दुर्लभ हिमालयन सैलामैंडर के संरक्षण का प्रयास करता समुदाय और चुनौतियां

भारत में मुख्य रूप दार्जिलिंग की पहाड़ियों और उससे लगे नेपाल के क्षेत्र में पाए जाना वाला हिमालयन सैलामैंडर की संख्या में विभिन्न मानव रचित कारणों गिरावट देखी गयी थी। लेकिन अब स्थानीय युवा इसके संरक्षण का काम कर रहे हैं।

Update: 2025-10-13 06:44 GMT

हिमायन सैलामैंडर 1 एंड 2 नेपाल फोटो क्रेडिट बिबेक गौतम: हिमालयन सैलामैंडर का एक दृश्य। फोटो क्रेडिट - बिबेक गौतम।

दार्जिलिंग: दार्जिलिंग की पहाड़ियों पर बसे एक गांव के निवासी सपन भंडारी (44 वर्ष) बातचीत के दौरान थोड़ा भावुक होकर कहते हैं “हम बचें या न बचें, यह हिमालयन सैलामैंडर बचना चाहिए”।

अपने गांव पुरानो स्कूल डारा से करीब सात किमी दूर दार्जिलिंग जिले के सुखियापोखरी ब्लॉक क्षेत्र के राड्गभांड्ग गोपालधारा पंचायत में पड़ने वाली नाखापानी झील में इस साल गर्मियों में एक दिन इस इण्डियास्पेंड हिंदी को हिमालयन सैलामैंडर (tylototriton verrucosus) दिखाते हुए कहते हैं, “इसके जीवित रहने के लिए उचित जलवायु, साफ-सफाई, पानी होना चाहिए। इसे जमीन भी चाहिए और पानी भी, क्योंकि यह उभयचर है। यह बिना पानी के सर्वाइव नहीं कर सकता है।”

सपन एक स्थानीय निवासी है जो कि गोरखा समुदाय से आते है और या समुदाय हिमालयन सैलामैंडर को बचाने का प्रयास कर रहा हैं।

भारत में हिमालयन सैलामैंडर भारतीय वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के शिड्यूल - 1 में आता है। जबकि आइयूसीएन ने इसे वर्ष 2020 में संकटग्रस्त प्रजातियों की रेड लिस्ट के लिए मूल्यांकित किया। आइयूसीएन की रेड लिस्ट में इसे संवेदनशील मानदंड B1ab(iii) (Vulnerable under criteria B1ab(iii))के तहत सूचीबद्ध किया गया है।

आइयूसीएन के द्वारा इंडियास्पेंड हिंदी को उपलब्ध करायी गई जानकारी के अनुसार, भारत (पश्चिम बंगाल), भूटान व नेपाल में इसका निवास है और भारत के मणिपुर राज्य में इसकी उपस्थिति अनिश्चित है। इसकी उपस्थिति समुद्र तल से 1110 मीटर से अधिकतम 2120 मीटर की ऊंचाई पर दर्ज की गई है।

समुदाय की पहल, बदलाव की शुरुआत

वर्ष 2022 की शुरुआती गर्मियों में पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के दो ब्लॉक मिरिक व सुखियापोखरी के कुछ गांवों के स्थानीय युवाओं ने एक पहल की और नाखापानी सैलामैंडर संरक्षण कमेटी का गठन किया। नाखापानी झील सुखियापोखरी ब्लॉक के आखिरी छोर पर है और उससे लगी सड़क के उस पार से मिरिक ब्लॉक का क्षेत्र शुरू हो जाता है, इसलिए दोनों ब्लॉक के गांव इसके आसपास स्थित हैं।

33 वर्षीय दीपेश गिरि को नाखापानी सैलामैंडर संरक्षण कमेटी का संयोजक बनाया गया। इस कमेटी ने अपनी छोटी-छोटी गतिविधियों के जरिये लोगों को जागरूक करने का प्रयास शुरू किया। इनके प्रयास में युवाओं के द्वारा की गई पहल, स्थानीय पंचायत निकाय की सहभागिता, सरकारी अधिकारियों का ध्यान आकर्षण, राजनीतिक नेतृत्व का समर्थन हासिल करना व चाय बागानों से सहयोग बढाना और एनजीओ व मीडिया की सहभागिता बढाने की कवायद भी शामिल है।

दीपेश कहते हैं, “नाखापानी झील तो सुखियापोखरी ब्लॉक क्षेत्र के आखिरी छोर पर है और इससे लगा मिरिक ब्लॉक है, इसलिए हम दोनों ब्लॉक के आसपास के गांवों के ग्रामीणों को इसके संरक्षण के लिए जागरूक करते हैं। जागरूकता और स्वच्छता अभियान चलाते हैं, झील के आसपास पेड़-पौधे लगाकर एक प्राकृतिक इकोसिस्टम विकसित करने का प्रयास करते हैं। इस साल पर्यावरण दिवस के मौके पर खासतौर पर हमने ऐसा आयोजन किया”।

इस कमेटी के द्वारा प्लास्टिक कचरा जमा न हो इसके लिए लोगों को जागरूक किया गया है, लोगों में एक हद तक जागरूकता भी आयी है। बीडीओ को पत्र लिख कर संरक्षण प्रयासों में मदद का आग्रह भी किया गया है।

दीपेश कहते हैं कि गोपालधारा चाय बागान प्रबंधन से भी इस जीव के संरक्षण प्रयासों में मदद की जरूरत है, पहले वे हमारी बातों को नहीं सुनते थे और न ही सहयोग करते थे, लेकिन राजनीतिक दबाव बनने व गोरखालैंड टेरोटेरियल एडमिनिस्ट्रेशन के हस्तक्षेप से वे हमारी बातें अब सुनने लगे हैं।

इस क्षेत्र की 35 वर्षीया प्रधान छोल्टेम लामा (राड़्गभाड़्ग गोपालधारा पंचायत की प्रधान) कहती हैं, “हम समुदाय को सैलामैंडर के संरक्षण के लिए वेस्ट मैनजमेंट और ग्रे वाटर मैनेजमेंट (कचरा प्रबंधन व दूषित जल प्रबंधन) के लिए जागरूक करते हैं, लोगों ने दूषित जल के लिए सोकपिट बनवाया है, ताकि गंदा पानी सैलामैंडर के आवास क्षेत्र में न जाए”। वे चिंता जताते हुए कहती हैं, “गर्मियों में बारिश शुरू होने के बाद से नाखापानी झील में पानी रहता है, लेकिन ठंड के मौसम की शुरुआत में पानी सूख जाता है और यह सैलामैंडर के लिए अच्छी स्थिति नहीं होती। ऐसे में हम कोशिश कर रहे हैं कि वहां पाइप लाइन से पानी पहुंच सके। समुदाय की सामूहिक कोशिशों का नतीजा है कि ब्लॉक प्रशासन वहां सैलामैंडर से संबंधित जागरूकता वाला बोर्ड लगवाने को तैयार हुआ है”।

हिमालयन सैलामैंडर दार्जिलिंग में हिमालयन सैलामैंडर की एक तसवीर। फोटो क्रेडिट - दिपेश गिरि।

सैलामैंडर के संरक्षण में पर्यटकों की आवाजाही भी एक चुनौती
एक स्थानीय कैंटीन संचालक सोबन तमांग (45) कहते हैं, “यहां रोड के दूसरी ओर ओकायटी चाय बागान है और इस ओर गोपालधारा चाय बागान है। चाय बागान गार्डेन देखने यहां पर्यटक बहुत अधिक संख्या में आते हैं और उन्हें हम रोक नहीं सकते। ऐसे में उनकी आवाजाही भी सैलामैंडर के लिए चुनौतीपूर्ण स्थिति बनाती है”।

गोपालधारा चाय बागान के कर्मी प्रदीप राय ने कहा, “कुछ स्वयंसेवी संगठनों ने यहां सैलामैंडर संरक्षण के लिए प्रयास किया है, जैसे उन्होंने यहां डस्टबीन दिया है और कचरे

दीपेश गिरि ऐसा ही एक उदाहरण बताते हैं कहते है कि सुकिया जोड़पोखरी में भी पहले हिमालयन सैलामैंडर मिलता था, लेकिन उस प्राकृतिक तालाब को सीमेंटेड करवा दिया गया, जिसके बाद सैलामैंडर ने वहां रहना बंद कर दिया। वे कहते हैं, इसी तरह पहले मेरे गांव ओकायटी टी इस्टेट, बैदार दारा में मेरे घर के पास भी सैलामैंडर मिलता था, लेकिन अब नहीं मिलता है।

दीपेश कहते हैं कि गर्मियां शुरू होने पर जब झील व तालाब में पानी भर जाता है तो सैलामैंडर दिखने लगते हैं, फिर सितंबर के बाद पानी नहीं रहने पर वे जमीन के अंदर हाइबर्नेशन में चले जाते हैं, हालांकि उनके बहुत सारे बच्चे जो जमीन के अंदर नहीं पा पाते हैं, वे मर जाते हैं। वे कहते हैं कि हमने इस इलाके में कई दूसरे सैलामैंडर साइट चिह्नित किया है, लेकिन हम उसके बारे में लोगों को नहीं बताते क्योंकि इससे वहां मानव गतिविधियां बढ जाएंगी और उन्हें दिक्कत होगी।

स्थानीय समुदाय के लिए सिर्फ पानी की स्वच्छता के संकेतक के रूप में ही नहीं बल्कि कई रूपों में सैलामैंडर सहायक होते हैं। सैलामैंडर मच्छरों, कीटों, मक्खियों को खाकर उनकी आबादी को नियंत्रित करने में मदद करते हैं। वे शिकारी होने के साथ शिकार भी हैं और फूड चैन को बनाए रखने व जैव विविधता में मदद करते हैं। पर्यावरणीय परिवर्तनों के प्रति उनकी संवेदनशीलता उन्हें पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य और जल गुणवत्ता का उत्कृष्ट संकेतक बनाती है। सैलामैंडर जब मिट्टी और पत्तियों के बीच से गुजरते हैं उसके अंदर हवा के संचरण में मदद करते हैं और सूक्ष्मजीवी गतिविधि को बढावा देते हैं।

सरकार की ओर से किये जा रहे प्रयास

दार्जिलिंग जिले के अंदर पड़ने वाले कुर्सियांग फॉरेस्ट डिवीजन के डीएफओ (वन प्रमंडल पदाधिकारी) देवेश पांडेय ने इंडियास्पेंड हिंदी को बताया, “कुर्सियांग वन प्रमंडल क्षेत्र में हिमलायन सैलामैंडर के 23 चिह्नित साइट्स हैं, जिनमें 17 में अभी भी हिमालयन सैलामैंडर दिखते हैं। वे कहते हैं कि समय गुजरने के साथ उनके बहुत सारे हेबीटेट डिस्टर्ब (आवास में व्यवधान होना) हो गए और दूसरों पर भी खतरा है”। वे कहते हैं कि कंक्रीटकरण, आधारभूत संरचना के निर्माण चाय बागानों में अत्यधिक कीटनाशक का प्रयोग उनके खतरे को बढाते हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि बीते सालों में तेजी से दार्जिलिंग जिले के चाय बागान कीटनाशक मुक्त चाय की खेती करने की ओर आगे बढे हैं, हालांकि अभी भी कुछ बागान ऐसे हैं, जो कीटनाशक के प्रयोग से मुक्त नहीं हुए हैं।

पांडेय ने बताया, “2000 के दशक की शुरुआत में हिमालयन सैलामैंडर का सर्वे हुआ था, उसके बाद इस तरह की पहल नहीं हुई है, लेकिन हम उनके उनके हेबीटेट को प्रोटेक्टेड एरिया या वन्य जीव अभ्यारण्य घोषित किए जाने की पहल कर संरक्षण की कोशिश कर रहे हैं। इसके लिए दार्जिलिंग जिला प्रशासन से हम समन्वय के साथ काम कर रहे हैं”।

डीएफओ देवेश पांडेय कहते हैं कि सैलामैंडर ढाई हजार लाख साल या 2500 मिलियन साल पहले से धरती पर हैं और डायनासोर से पहले की प्रजाति है। उन्होंने इंडियास्पेंड हिंदी से बताया, “बायोडायवर्सिटी फंड (जैवविविधता कोष) के जरिये मिटिगेशन (नुकसान के प्रभाव को कम करना) के उपाय करेंगे। हमने इसके लिए कुछ कदम उठाये हैं, जैसे उनके अनुकूल घास लगवाना आदि”। वे कहते हैं कि सैलामैंडर जैव पारिस्थितिकी के संकेतक (इंडिकेटर) हैं, अगर किसी जगह यह पाया जा रहा है तो इसका मतलब है कि वहां पर हवा-पानी शुद्ध है। ये मिट्टी में छोटे-छोटे छिद्र बनाते हैं, जिससे उसकी गुणवत्ता बढ जाती है।

उन्होंने बताया कि वन विभाग सैलामैंडर स्थलों के आसपास सफाई अभियान व स्थानीय समुदाय के लिए जागरूकता अभियान भी संचालित करता है।

दार्जिलिंग के पद्मजा नायडू हिमालयन ज्यूलॉलिकल पॉर्क में हिमालयन सैलामैंडर के प्रजनन एवं सरंक्षण हेतु पहल की गई है

एक्सपर्ट का क्या कहना है?

भारतीय वन्यजीव संस्थान (वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया) की ओर से हिमालयन सैलामैंडर पर रिसर्च (Status Survey and Conservation of Himalayan Crocodile Salamander (Tylototriton verrucosus) in the Eastern Himalayas) करने वाली श्रुति सेनगुप्ता ने इंडियास्पेंड को इस मुद्दे पर बताया, “सरकार स्थानीय लोगों के पारंपरिक ज्ञान और उस क्षेत्र के साथ उनके दैनिक संपर्क का उपयोग करके उनके साथ साझेदारी कर सकती है। उदाहरण के लिए, ग्रामीण सैलामैंडर के देखे जाने की सूचना दे सकते हैं, उनकी आबादी पर नज़र रखने में मदद कर सकते हैं और आर्द्रभूमि के संरक्षक बन सकते हैं। स्थानीय गैर-सरकारी संगठन और स्कूल, मिरिक और पोखरियाबोंग में सैलामैंडर संरक्षण पर ज़ोर देने वाले सामुदायिक प्रयासों के उदाहरण का अनुसरण करते हुए, जागरूकता अभियान और आवास पुनर्स्थापन परियोजनाओं का नेतृत्व कर सकते हैं”।

श्रुति सेनगुप्ता के रिसर्च में उल्लेख है कि हिमालयन सैलामैंडर भारत में पायी जाने वाली सैलामैंडर की एकमात्र प्रजाति है।

वे इस मामले में मीडिया की भूमिका को रेखांकित करते हुए कहती हैं, “मीडिया सैलामैंडर की विशिष्ट स्थिति, उसके सामने आने वाले खतरों और सफल सामुदायिक पहलों को सामने लाकर इसके संरक्षण प्रयासों को बढ़ावा दे सकता है। सटीक रिपोर्टिंग सैलामैंडर के खतरनाक होने जैसी भ्रांतियों को दूर करेगी और एक सकारात्मक संरक्षण नीति को बढ़ावा देगी”।

वे अपने जमीनी अनुभव के आधार पर कहती हैं, “मैंने जो सबसे बड़ा खतरा देखा, वह है मानवीय गतिविधियों के कारण आवास का नुकसान और परिवर्तन, क्योंकि मनुष्य और सैलामैंडर एक ही स्थान साझा करते हैं। इस समस्या से निपटने के लिए, हमें स्थानीय समुदायों को उसके बारे में शिक्षित और जागरूक करना होगा ताकि वे इस जीव को समझें और उसकी रक्षा करें”। एक अन्य प्रमुख मुद्दा पर्यटन के लिए ऊँचाई पर स्थित आर्द्रभूमियों के स्वरूप में बदलाव है, जिसमें सीमेंट के तालाबों का निर्माण और सजावटी मछलियों को लाना शामिल है जो सैलामैंडर के प्रजनन स्थलों को नष्ट कर देती हैं। इन आर्द्रभूमियों के संरक्षण के लिए व अंडे देने के लिए देशी जलीय वनस्पतियाँ लगाना और मानसून के दौरान सैलामैंडर को तालाबों तक पहुँचने से रोकने वाली किसी भी बाधा को हटाना शामिल है।

श्रुति सेनगुप्ता ने इंडियास्पेंड हिंदी के सवालों पर अपने लिखित जवाब में बताया, “अपने फील्ड वर्क के दौरान, मैंने देखा कि हिमालयी सैलामैंडर कई वजहों से दबाव में हैं। तालाबों को सीमेंट से पक्का करने, विदेशी मछलियाँ डालने या कृषि रसायनों और अपशिष्ट जल से आर्द्रभूमि को सूखाकर प्रदूषित करने पर उनके आर्द्रभूमि आवास क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। उनके प्रजनन क्षेत्रों से होकर गुजरने वाली सड़कों के कारण भी कई सैलामैंडर मारे जाते हैं। इसके अलावा, लोग अक्सर सैलामैंडर के बारे में मिथकों पर विश्वास कर लेते हैं और कभी-कभी उन्हें मार भी देते हैं, और सैलामैंडर आबादी के अलग-थलग इलाके उन्हें और भी असुरक्षित बना देते हैं। इसे बदलने के लिए, हमें आवास-संरक्षण नियमों को लागू करना होगा, तालाबों को पक्का करने और मछलियों को लाने पर प्रतिबंध लगाना होगा, आर्द्रभूमि स्थलों के पास कीटनाशकों को नियंत्रित करना होगा, वन्यजीव क्रॉसिंग स्थापित करनी होगी और सैलामैंडर सड़कों पर गति सीमा कम करनी होगी, और ऐसा अभियान चलाना होगा जो मिथकों को तोड़े। कैप्टिव ब्रिडिंग प्रोग्राम अवैध संग्रहण को कम करने में भी मदद कर सकते हैं। चूँकि हिमालयन सैलामैंडर भारत और नेपाल दोनों देशों में पाए जाते हैं, इसलिए एक संयुक्त निगरानी नेटवर्क, डेटा साझाकरण और सहयोगात्मक अनुसंधान यह सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण होंगे कि इनकी सभी आबादी को वह सुरक्षा मिले जिसके वे हकदार हैं।

समुदाय की भूमिका महत्वपूर्ण

हिमालयन सैलामैंडर के संरक्षण के लिए द हैबिटेट ट्रस्ट से इस साल अनुदान पाने वाले दार्जिलिंग जिले के सुखिया पोखरी के निवासी नोएल गिरि (34 वर्षीय) ने इंडियास्पेंड हिंदी के सवालों के जवाब में कहा, "स्थानीय समुदाय हिमालयन सैलामैंडर के नाज़ुक आवास के संरक्षक के रूप में कार्य करके इसके संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। उनके योगदानों में प्रजनन तालाबों और प्राकृतिक झरनों की सुरक्षा, आवास में व्यवधान कम करना, पर्यावरण अनुकूल पर्यटन प्रथाओं को बढावा देना और आर्द्रभूमि या वेटलैंड को सूखाने या पर्यावरणीय दृष्टिकोण से संवेदनशील क्षेत्र में इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास को रोकना या हतोत्साहित करना शामिल हो सकता है। खास कर युवा वर्ग और होम स्टे संचालक संरक्षण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को अपनी दैनिक अभ्यास में शामिल कर सकते हैं"। नोएल गिरि दार्जिलिंग में हिमालयन सैलामैंडर के संरक्षण के लिए प्रयास कर रहे हैं और इस क्षेत्र के पर्यावरणीय व ग्रामीण मुद्दों पर केंद्रित अध्ययन किया है।

नोएल कहते हैं, "हिमलायन सैलामैंडर के संरक्षण के लिए छोटे पैमाने पर प्रयास उभर रहे हैं, खासकर होमस्टे संचालकों और युवा समूहों के बीच। यह शुरुआती पहल एक आधार प्रदान करती है, जिस पर व्यापक अधिक संगठित समुदाय नेतृत्व वाले संरक्षण प्रयासों को विकसित किया जा सकता है"।

हिमालयन सैलामैंडर दार्जिलिंग में हिमालयन सैलामैंडर की एक तसवीर। फोटो क्रेडिट - दिपेश गिरि।

वैश्विक संकट और संरक्षण की अंतरराष्ट्रीय और साझा पहल की जरूरत

अध्ययन बताते हैं कि उभयचर सबसे अधिक संकटग्रस्त कशेरुकी वर्ग है, जिसमें वैश्विक स्तर पर 40.7 प्रतिशत प्रजातियां संकटग्रस्त हैं। इसमें भी वैश्विक स्तर पर सैलामैंडर की स्थिति विशेष तौर पर पर बिगड़ रही है।

नेपाल में हिमालयन सैलामैंडर के संरक्षण के लिए काम करने वाले व एम्फीबियन सर्वाइवल अलायंस से संबद्ध विवेक गौतम ने इंडियास्पेंड हिंदी को बताया, “इस प्रजाति के संरक्षण में स्थानीय समुदाय की भूमिका काफी महत्वपूर्ण होती है। हिमालयन सैलामैंडर मुख्यतः औपचारिक संरक्षित क्षेत्र प्रणालियों से बाहर रहते हैं। इसलिए, इस प्रजाति और इसके आवास के प्रभावी संरक्षण के लिए स्थानीय समुदायों की भागीदारी आवश्यक है”।

विवेक कहते हैं, “समुदाय प्रदूषण, अतिक्रमण, असंतुलित भूमि उपयोग प्रथाओं को रोक कर तालाबों और नदियों जैसे महत्वपूर्ण सैलामैंडर प्रजनन आवासों की सुरक्षा कर सकते हैं। स्थानीय हितधारक व समुदाय आर्द्रभूमि को सूखाने, जंगल में आग लगाने और वनों की कटाई जैसी विनाशकारी गतिविधियों को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं जो सैलामैंडर की आबादी के लिए खतरा हैं”।

विवेक अपने अनुभव के आधार पर बताते हैं, “सैलामैंडर आबादी की निगरानी के लिए समुदाय के सदस्यों को प्रशिक्षित करने से संरक्षण के लिए मूल्यवान डेटा उपलब्ध हो सकता है और साथ ही संरक्षण को बढ़ावा मिल सकता है। समुदाय के नेतृत्व वाले पुनर्स्थापना प्रयास, जिनमें वर्षा जल संचयन तालाबों का निर्माण, आर्द्रभूमि पुनर्वास और पेड़-पौधों के संवर्द्धन प्रयास शामिल हैं, उनसे सैलामैंडर के लिए उपयुक्त आवास स्थिति बनाए रखने में मदद मिलती है”। समुदाय की भूमिका को अधिक प्रभावी ढंग से चिह्नित करने के लिए जागरूकता अभियान, पर्यावरण शिक्षा, क्षमता वर्द्धन और संरक्षण लक्ष्यों के अनुरूप आजीविका गतिविधियों को बढावा देने - जिससे समुदाय को उनके संरक्षण में प्रत्यक्ष लाभ दिखे - को प्रोत्साहन जरूरी है।

उन्होंने नेपाल में किए जा रहे प्रयासों के संदर्भ में कहा, “हमारी जारी परियोजना में स्थानीय समुदाय व उपयोगकर्ता समूह सक्रिय रूप से सैलामैंडर के प्रजनन तालाबों का रखरखाव करता है जो दोहरा उद्देश्य पूरा करते हैं - सैलामैंडर के प्रजनन का समर्थन करना और जंगल की आग को नियंत्रित करने के लिए जलाशयों के रूप में कार्य करना। यह एकीकृत दृष्टिकोण न केवल सैलामैंडर को लाभ पहुंचाता है बल्कि जंगल की आग के खतरों के प्रति सामुदायिक लचीलापन भी बढाता है और प्रजातियों एवं आवास संरक्षण में सामुदायिक सहभागिता का एक सफल मॉडल प्रदर्शित करता है”।

वे हिमालयन सैलामैंडर संरक्षण के लिए सीमा पार पहल को महत्वपूर्ण मानते हैं और कहते हैं कि भारत व नेपाल में सैलामैंडर की आबादी, आवास की स्थिति और उभरते खतरों पर नजर रखने के लिए संयुक्त आवास निगरानी आवश्यक है। दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय अनुसंधान पहल होनी चाहिए। भारत व नेपाल के गांवों के बीच बेस्ट प्राइक्टिस का सामुदायिक आदान-प्रदान कार्यक्रम होना चाहिए और सुसंगत नीतिगत ढांचा होना चाहिए।

वे कहते हैं कि कृषि क्षेत्र विस्तार, आधारभूत संरचना निर्माण व विकास, रियल एस्टेट विकास के कारण भूमि उपयोग में परिवर्तन होता है और इससे उनके आवास विनाश की स्थिति उत्पन्न होती है। आर्द्रभूमि का क्षरण और उनका व्यवसायीकरण मसलन मछली पालन तालाब में रूपांतरण या मनोरंजक नौका विहार स्थलों में बदलना भी उनके लिए नुकसानदायक है।

विवेक गौतम बताते हैं कि नेपाल में एक स्थानीय गैर सरकारी संगठन बीआरसीएस (Biodiversity Research and Conservation Society) वर्ष 2020 से हिमालयन सैलामैंडर के संरक्षण के लिए काम कर रहा है।

नोएल गिरि भी कहते हैं, “यह देखते हुए कि हिमालयन सैलामैंडर भारत और नेपाल के बीच फैले हुए हैं, इसलिए इनके दीर्घकालिक अस्तित्व के लिए सीमा-पार सहयोग जरूरी है, हालांकि वर्तमान में कोई औपचारिक भारत-नेपाल पहल मौजूद नहीं है। दोनों देश मिल कर संयुक्त अनुसंधान और निगरानी, उनके आवास गलियारे की रक्षा में समन्वय, नीतिगत सामंजस्य और भारतीय व नेपाली समुदाय के बीच नॉलेज एक्सचेंज की पहल कर सकते हैं”।

(यह स्टोरी प्रॉमिस ऑफ कॉमन्स फेलोशिप द्वारा समर्थित है, जो कॉमन्स के महत्व और इसके सामुदायिक प्रबंधन पर केंद्रित है।)



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