कर्ज़ और बेरोजगारी के बोझ तले दबे बनारस के बुनकर, अमेरिकी टैरिफ ने बढ़ाई मुश्किलें
बनारसी साड़ियों की सुंदरता और चमक-धमक लोगों को सजह ही लुभाती है। इन कलात्मक साड़ियों को तैयार करने वाले लाखों हाथ मुसीबत में हैं। कर्ज व बेरोजगारी की समस्या से जूझ रहे बनारसी बुनकरों पर अमेरिकी टैरिफ की दोहरी पड़ी है। बनारसी सिल्क और इसके बने उत्पादों की मांग एशिया, यूरोप, खाड़ी देश, उत्तरी-दक्षिणी अमेरिकी देशों में अधिक है। अमेरिकी टैरिफ के लागू होने से निर्यात को झटका लगा है और बनारस के बुनकर इलाकों में हथकरघों की खटर-पटर धीमी से पड़ गई है।;
वाराणसी में पावरलूम मशीन पर खड़े बुनकर मैनुद्दीन को महीने में सात-आठ दिन खाली हाथ बैठना पड़ रहा है. फोटो : पवन कुमार मौर्य।
वाराणसी: प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र वाराणसी (बनारस) यूं तो अपनी संकरी गलियों, खानपान, और मंदिरों के लिए मशहूर है और यहाँ की हथकरघों पर बुनी गयी रेशम की बनारसी साड़ियों ने इस शहर को देश-विदेश में अलग पहचान दिलाई है लेकिन हाल की अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के बढ़ाये हुए टैरिफ ने यहाँ के बुनकरों को एक दो राहे पर लाकर खड़ा कर दिया हैं ।
पूर्वी उत्तर प्रदेश में बसे इस शहर में बनारसी साड़ी के मरकज के नाम से सुविख्यात बजरडीहा, लोहता, पीलीकोठी, शिवाला समेत कई इलाके तकरीबन एक दशक से अपनी पहचान और बिनकारी फ़नकारों को बचाने की जद्दोजहद में है। ऐसे में अब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की व्यापार संतुलन नीति के तहत लागू किया गया यह 26 फीसदी टैरिफ भले ही आर्थिक दृष्टिकोण से अमेरिका के लिए लाभकारी हो, लेकिन भारतीय कपड़ा उद्योग के लिए यह एक गंभीर संकट का संकेत है। टैरिफ नीति की सीधी मार बनारस व पूर्वांचल की बुनकर बस्तियों पर पड़ रही है, जहां पहले से ही शिक्षा, सुविधा, साफ़ पेयजल, सफाई, चिकित्सा और आजीविका का संकट है।
बनारसी साड़ी बुनाई का एक बड़ा केंद्र बजरडीहा की सुनसान गलियां। फोटो : पवन कुमार मौर्य।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की भारत पर 26 प्रतिशत रेसिप्रोकल टैरिफ लगाने की घोषणा से बनारसी साड़ी के निर्यातक, निर्माता, उद्यमी, कारीगर और बुनकर असमंजस की स्थिति में हैं। टैरिफ की अनिश्चितता से बनारसी साड़ी उद्योग पर काले बादल मंडरा रहे हैं। अमेरिकी टैरिफ की घोषणा के कुछ ही दिनों में बनारसी साड़ी (सिल्क) निर्यातकों को करोड़ों रुपए का झटका लगा है, तो वहीं करोड़ों के ऑर्डर अटक गए हैं। इसका असर बिनकारी उद्योग के अग्रणी मोर्चे पर खड़े लाखों बुनकरों के जीवन पर देखने को मिल रहा है।
अपने हथकरघे पर चिंता में डूबा एक बुनकर। फोटो : पवन कुमार मौर्य।
बुनकर मोहम्मद शोएब बताते हैं “पहले की तरह बुनकरी में अब काम नहीं रहा गया है। पहले महीने के तीस दिनों काम रहता था, लेकिन अब हफ्ते के तीन-चार दिन ही काम मिल पाता है। इससे आमदनी कम हो गई. किसी तरह से परिवार का भरण-पोषण चल रहा है। मजदूरी भी जस का तस है। प्रति महीने नौ से दस हजार रुपए की कमाई से घर के खर्च, बच्चों की स्कूल फ़ीस, इलाज-दवाई और अन्य जरूरतें बड़ी मुश्किल से पूरी हो पा रही है। अब गद्दीदार कहते हैं कि टैरिफ लगाने से माल नहीं बिक रहा है। अमेरिकी टैक्स भी हमारी रोजी-रोटी को प्रभावित कर रहा है।
टैरिफ की घोषणा के बाद काम की गति धीमी
बुनकर अनिसूर्रहमान कहते हैं “समय से मजदूरी का भुगतान न होने और जो मजदूरी मिलती भी है, वह मंहगाई के हिसाब से परिवार के लिए नाकाफ़ी है। इस वजह से मेरे भाई गुलजार अहमद और मुमताज़ अहमद कई साल पहले सूरत चले गए। वहां रंगाई और साड़ी पैकिंग का काम करते हैं। पहले समूचे मोहल्ले में हथकरघे और पावरलूम मशीन से साड़ियों की बुनाई से दिन-रात चहल-पहल रहती थी। गलियों में लोगों के गुजरने और बच्चों की धमा-चौकड़ी से ताजापन बना रहता था, लेकिन टैरिफ की घोषणा के बाद से काम ठंडा पड़ा हुआ है और इन दिनों हर जगह सूनापन है।”
फंस गई है पूंजी
बनारसी साड़ी के निर्यातक सफीउर्रहमान का गोदाम तैयार बनारसी साड़ियों की रैक से भरा पड़ा है। अमेरिकी टैरिफ की घोषणा के बाद ऑर्डर होल्ड होने से तैयार माल गोदाम में स्टॉक है। वह कहते हैं “एक दशक से बुनकरी का धंधा घाटे में चल रहा है। कोविड-19 की महामारी से इंडस्ट्री किसी तरह से संभली है। चुनौतियों के बढ़ने और काम के घटने से बुनकर अपने व परिवार को जिंदा रखने के लिए जद्दोजहद कर रहा है।”
“मनमोहन सिंह सरकार के बाद बुनकरी बेमौज हो गई है। काम नहीं है, जो थोड़ा बहुत काम है भी तो उचित पारिश्रमिक नहीं है। कारीगर यदि सौ पीस साड़ी तैयार कर रहे हैं तो महज 10 बिक रहा है। अमेरिकी टैरिक की खबर के बाद बड़े निर्यातक फोन कर ऑर्डर को होल्ड करने के लिए कह रहे हैं। इससे तैयार करोड़ों रुपए का माल मेरे यहां पड़ा हुआ है। इससे बड़े पैमाने पर मेरी पूंजी फंस गई है।”बनारसी साड़ी के बुनाई से पहले ताना-बाना कसते बुनकर। टैरिफ की घोषणा की चिंता इनके चेहरे पर पसरी हुई है। फोटो : पवन कुमार मौर्य।
निर्यातक सैयद हसन के अनुसार बनारस, मऊ, मिर्जापुर और भदोही में बने बुनकर उत्पाद और बनारसी साड़ी का अमेरिका मुरीद है। इसलिए यहां मांग अधिक रहती है. लेकिन, इनकी एक खास बात यह है कि बनारसी साड़ी और सिल्क के अन्य उत्पाद ऑर्डर पर विशेष डिजाइन, धागे, कपड़े और साइज को डिमांड के आधार पर तैयार किया जाता है। ऐसे में अचानक से बढ़े टैरिफ से इस तरह के ऑर्डर फ़िलहाल होल्ड हो गए हैं। इधर, हथकरघों और बुनाई कारखानों में इस तरह के ऑर्डर लगभग तैयार हो चुके हैं। इनके न बिकने से घाटा तय है और कम दाम पर खुले बाजार में बेचना पड़ेगा।
कर्ज़ के बोझ में दबते बुनकर
कम आमदनी और आसमान छूती मंहगाई में कर्ज लेना निम्न आय वर्ग की विवशता है. बुनकरों के ऊपर कर्ज़ के दबाव को इस प्रकार समझा जा सकता है कि, बुनकरों का कोई भी काम बगैर कर्ज-उधार के पूरा ही नहीं हो पाता है.
बुनकर वसीम अहमद कहते हैं “शादी-ब्याह, बच्चों के स्कूल की फ़ीस भरने, बीमारी और मौत के मौके पर कर्ज़ लेना गरीब बुनकरों मज़बूरी होती है। इस कर्ज़ की शुरुआत वास्तव में एक बुनकर के जन्म से ही होती है अर्थात जब भी कोई व्यक्ति तानी या मजूरी पर साड़ी बिनने की शुरुआत करता है तो गिरस्ता से कर्ज़ लेता है जिसे स्थानीय ज़बान में ‘बाकी’ कहते हैं। यह बाकी हर बुनकर-मजूर पर चढ़ी रहती है। आमतौर पर यह होता है कि किसी बुनकर ने अन्य गिरस्ता से बाकी ले रखा होता है लेकिन उसके शोषण या किसी अन्य परेशानी से ऊबकर या गिरस्ता द्वारा बाकी चुकाने के दबाव पर वह दूसरे गिरस्ता की शरण में जाता है और उससे बाकी लेकर पहले का चुकाता है। इस प्रकार गिरस्ता बदल जाता है लेकिन कर्ज़ का बोझ हमेशा लदा रहता है।
लोहता क्षेत्र के कोटवां निवासी बुनकर गुलाम सरवर डेढ़ लाख रुपए के कर्ज में डूबे हैं। फोटो: पवन कुमार मौर्य।
‘कर्ज लेकर बिजली बिल जमा करो’
उत्तर प्रदेश में बुनकर बिजली बिल की बढ़ी दर से परेशान हैं। बुनकरों का मानना है कि नई बिजली बिल रेट से बुनकरी उद्योग को जबरदस्त झटका लगा है। पावरलूम मशीन पर बुनाई करने वाले बुनकर मैनुद्दीन कहते हैं “मैं जितना कमाते नहीं उतना बिजली बिल जमा करता हूं। काम नहीं मिलने पर पावरलूम बंद रहता है। कोई आमदनी नहीं होती फिर भी बिजली का बिल जमा करना पड़ता है। एक दशक पहले बिजली बिल 72 रुपए प्रति पावरलूम मशीन था, जिसे एकाएक बढ़कर 430 रुपए प्रति मशीन कर दिया गया।”
घाटा होने पर अपनी मशीनें बेचकर दूसरों के पावरलूम मशीन पर मजदूरी करने वाले निसार अहमद। फोटो : पवन कुमार मौर्य।
निसार अहमद जो कुछ साल पहले तक 1.25 लाख रुपए निवेश कर अपना पावरलूम चलाकर परिवार को आगे बढ़ने में जुटे थे। बिजली महँगी होने व घाटा लगने पर उन्होंने मशीन को महज 60 हजार रुपए में कबाड़ को बेच दिया। अब दूसरे के पावरलूम मशीन पर मजदूरी करते हैं।
निसार “इंडियास्पेंड हिंदी” से कहते हैं “बनारस के बुनकरों के स्थिति दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही है। अब टैरिफ के लागू होने से गद्दीदार (बड़े व्यापारी) काम देने में सर्तक हो गए हैं। पहले के पारिश्रमिक का भुगतान भी लटका हुआ है। बुनकरों के जीवन स्तर को उठाने के लिए सरकार द्वारा कई प्रयास किये जा रहे हैं, लेकिन इन प्रयासों का लाभ कुछ लोगों तक ही सिमित है।”
थर्ड पार्टी बिक्री प्रभावित
अमेरिका ने बांग्लादेश, पाकिस्तान, चीन, इंडोनेशिया, वियतनाम, ताइवान और जापान समेत अन्य देशों पर भी टैरिफ लगाया है। यूपीया संगठन का कहना है कि जापान, बांग्लादेश, वियतनाम और इंडोनेशिया के बड़े निर्यातक भारत, खासकर वाराणसी, मऊ, भदोही और मिर्जापुर में बने सिल्क उत्पाद मंगवाते हैं और इन्हें अमेरिका को निर्यात करते हैं। इसे थर्ड पार्टी एक्सपोर्ट कहते हैं। चुकी, अमेरिका ने इन देशों पर भी टैरिफ लगाया है , इससे इन देशों पर भी ट्रंप टैरिफ की मार पड़ी है।
बनारस के बुनकर इलाके कोटवा में काम न होने से खाली हाथ बैठी महिला। फोटो : पवन कुमार मौर्य।
दोराहे पर खड़ी है बनारसी बुनकरी
बनारस पावरलूम वीवर्स एसोसिएशन के महामंत्री अतीक अंसारी कहते हैं, "हाल के एक दशक में निर्यात नीतियों की कमियों का नकरात्मक असर बनारसी साड़ी इंडस्ट्री पर पड़ा है। शुरुआत में एक पावरलूम के बिजली का रेट 72 रुपए था, जो अब 1500 रुपए हो गया है। इसमें भी जो पावरलूम बंद पड़े हैं, बिजली विभाग के कर्मचारी जबरिया बिल पकड़ा के चले जाते हैं। हमारी शिकायत का मुक्कमल जवाब कोई अधिकारी और मंत्री नहीं दे पा रहा है। लिहाजा, बनारसी बुनकरी अब दोराहे पर आकर खड़ी हो चुकी है। इस उद्योग में चुनौतियां क्या कम थी, जो अब टैरिफ की मार भी झेलनी पड़ रही है।"
बनारसी साड़ी बनाने में जुटा एक बुनकर। फोटो : पवन कुमार मौर्य।
बनारस साड़ी का दुनिया में सबसे बड़ा बाजार अमेरिका
अमरेश कुशवाहा रामनगर में बनारसी साड़ी बुनाई केंद्र चलाते हैं और बनारसी साड़ी के व्यवसायी भी है। अमरेश ने “इंडियास्पेंड हिंदी” को बताया कि “अमेरिकी टैरिफ के लगने से बनारसी साड़ियां महंगी हो जाएगी। इस स्थिति में खरीददार कम होगी तो डिमांड भी कम होगा। डिमांड कम होने से उत्पादन कम करेंगे। इससे कारीगर ही नहीं अपितु बुनकर, रँगाईकर्मी, ताना-बानाकर्मी समेत सभी के जीवन व आमदनी पर असर पड़ेगा। मसलन, बनारस बुनकरी उद्योग में मंदी की वजह से बेरोजगारी बढ़ जाएगी। बनारस साड़ी का दुनिया में सबसे बड़ा बाजार अमेरिका है। इसके बाद यूरोप और खाड़ी देशों का नंबर आता है।”
बाएं से दूसरे बनारसी साड़ी के व्यवसायी अमरेश कुशवाहा।
अशोक धवन वर्तमान में बीजेपी से एमएलसी भी हैं और बनारसी साड़ी वस्त्र उद्योग संघ के संरक्षक भी हैं। अशोक धवन का कहना है कि “बुनकरों के पास काम नहीं है और बनारसी साड़ी कारोबारी के पास बिल्कुल भी ग्राहक नहीं है। बनारस में आने वाले पर्यटकों में से 10% भी बनारसी साड़ी की तरफ नहीं आ पा रहे हैं। जिसकी वजह से बनारसी साड़ी कारोबार एक बार फिर से बदहाली की स्थिति की तरफ जा रहा है।
अशोक धवन का कहना है कि स्थिति बदलना बेहद जरूरी है' क्योंकि ना ही बुनकरों का पलायन रुक रहा है और ना ही युवा पीढ़ी इस तरफ आना चाह रही है। बनारसी साड़ी की असली पहचान पावर लूम नहीं बल्कि हथकरघे हैं।”
हाथों से बनने वाली साड़ी की तरफ आज के युवा बुनकर आना नहीं चाहते वह कम समय में ज्यादा काम करने के लिए पावर लूम की तरफ जा रहे हैं और धीरे-धीरे हाथों से बनने वाली साड़ी हथकरघे बंद हो रहे हैं। इन्हें वापस लाना बेहद जरूरी है।
बुनकरों की जो स्थिति है वह बहुत खराब है और प्रतिदिन लूम पर काम करने वाले बुनकरों को अच्छे खासे पैसे मिलने के बाद भी वह बनारस छोड़कर दूसरे शहरों की तरफ जा रहे हैं। अशोक धवन का कहना है कि यह संख्या बहुत बड़ी है।
बुनकर यहां से सूरत समेत अन्य शहरों की तरफ जाकर वहां काम करना बेहतर समझ रहे हैं। सूरत की साड़ियां आज भी बनारस को बड़ी चोट पहुंचा रही है और जीआई टैग होने के बाद भी बनारसी साड़ी के नाम से दूसरे जगह की साड़ियां तेजी से बिक रही है और बनारस कि यह साड़ियां पीछे रह जा रही है। ऐसे में अब अमेरिकी टैरिफ की मार से बुनकर परेशान व चिंतित हैं।