कम भुगतान, कम सम्मान: भारत के जिलों में मुफ्त कानूनी सहायता की गुणवत्ता खराब क्यों है?
वैसे तो भारत में फ्री कानूनी सहायता एक अधिकार है, लेकिन वकील बताते हैं कि कम पैसे, भुगतान में बहुत देरी और सम्मान में कमी की वजह से इसकी गुणवत्ता जरूर प्रभावित होती है
दिल्ली: दिल्ली के कड़कड़डूमा जिला न्यायालय में आयुष* फ्री कानूनी सहायता देने वाले आपराधिक मामलों के वकील हैं और उन लोगों की मदद करते हैं जो वकीलों का खर्च नहीं उठा सकते. उन्होंने इंडिया स्पेंड को बताया कि वे हर महीने औसतन लगभग 5,000 रुपए कमाते हैं.
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश उदय यू. ललित ने अप्रैल 2022 में अपने एक बयान में कहा, "गरीबों को कानूनी सहायता देने का मतलब खराब कानूनी सहायता नहीं है." कर्नाटक में एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कहा कि अगर हम किसी को कानूनी सहायता दे रहे हैं कि तो वह बेहतर मानक, बेहतर गुणवत्ता और बेहतर स्तर होना चाहिए.
इंडिया स्पेंड ने आयुष सहित फ्री कानूनी सहायता देने वाले कई वकीलों से बात की तो उन्होंने कहा कि कानूनी सहायता प्रणाली का हिस्सा बनने के एवज में उन्हें जो पैसे मिलते हैं, वह बहुत कम है. वे कहते हैं कि वेतन काम के अनुरूप नहीं है या वकील बनने के लिए उन्होंने जो मेहनत की, उसकी अपेक्षा कम है. ऐसे में वकीलों को जो पैसे मिलते भी हैं, तो उसमें बहुत देरी होती है. इसके अलावा फ्री कानूनी सहायता देने वाले वकीलों को निजी वकीलों जितना सम्मान भी नहीं मिलता और उन्हें कोई सामाजिक सुरक्षा लाभ नहीं मिलता है क्योंकि वे कर्मचारी नहीं हैं.
"यदि वकीलों को अच्छा पैसा नहीं दिया जाएगा तो एक सक्षम वकील खुद को एक पैनल वकील/मुफ्त कानूनी सहायक वकील के रूप में सूचीबद्ध क्यों करेगा?" दिल्ली में नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में कानूनी शिक्षा और शोध के प्रोफेसर जीत मान सिंह कहते हैं. "इस प्रकार सेवा की गुणवत्ता बिगड़ती रहती है."
भारत की कानूनी सहायता प्रणाली
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22 (1) और 14 के तहत कानूनी सहायता एक अधिकार है और अनुच्छेद 39-ए जरूरतमंद नागरिकों को मुफ्त कानूनी सहायता के प्रावधान की वकालत करता है। कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 के तहत मुफ्त विधिक सेवाएं दी जाती हैं और इसे राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) के तहत संचालित किया जाता है.
कैदी, विचाराधीन कैदी और याचिकाकर्ता जो निजी वकील का खर्च नहीं उठा सकते वे भारत के प्रत्येक जिला न्यायालय में स्थित NALSA विंग के माध्यम से फ्री कानूनी मदद ले सकते हैं. हर राज्य का अपना राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण होता है. मार्च 2022 तक भारत में पैनल अधिवक्ता या फ्री में कानूनी मदद देने वाले वकीलों की संख्या 50,394 (46,385 जिला + 4,009 हाई न्यायालय) हैं। कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (सीएचआरआई) की 2018 के एक अध्ययन के अनुसार भारत में प्रति 18,609 जनसंख्या पर फ्री कानूनी सहायता करने वाले वकीलों की संख्या एक या प्रति 100,000 जनसंख्या पर पांच ही है.
फ्री कानूनी सहायता देने के लिए राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण इन पैनल रिटेनर वकीलों को भी नियुक्त करती है, जिन्हें एक निश्चित अवधि के लिए रखा जाता है, और हर महीने पैसे दिये जाते हैं. एक पैनल वकील जिसे रिटेनर के आधार पर काम पर नहीं रखा जाता है उसे प्रति सुनवाई के हिसाब से भुगतान किया जाता है. मुकदमे लड़ने के अलावा ये वकील प्रशासनिक कार्यों, जेल यात्राओं आदि में भी मदद करते हैं.
निजी वकीलों की अपेक्षा फीस बहुत कम
राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण कानूनी सहायता देने वाले पैनल वकीलों के लिए न्यूनतम वेतन का सुझाव देता है. उदाहरण के लिए, तलाक, कस्टडी, मेमो ऑफ अपील, रिट याचिका आदि जैसे मामलों का मसौदा तैयार करने के लिए पैनल वकीलों के लिए न्यूनतम मानदेय 1,500 रुपए है, जबकि मामलों की सुनवाई के लिए यह प्रति मामले 10,000 रुपए है। जबकि प्राइवेट वकील इन्हीं मामलों के लिए अपने अनुभव और क्षमता के आधार पर कम से कम 20,000 से लेकर 1 लाख रुपए तक की फीस लेता है. वकीलों ने इंडियास्पेंड को बताया.
दिल्ली में पैनल वकील आयुष का कहना है कि चाहे कितनी ही सुनवाई क्यों न हो, प्रति केस मिलने वाली फीस की राशि सीमित है. दिल्ली में मजिस्ट्रेट अदालत में एक आपराधिक मामले के लिए 18,000 रुपए की सीमा है। "ऐसे में अगर मैं किसी मामले की 30 प्रभावी सुनवाई के लिए उपस्थित होता हूं, तो मुझे 21,600 रुपए (720 रुपये प्रति सुनवाई) मिलना चाहिए, लेकिन मुझे केवल 18,000 रुपए मिलेंगे क्योंकि यह अधिकतम सीमा है ... आप इसे कैसे उचित कह सकते हैं?"
एक वकील जो फ्री में कानूनी सहायता देते हैं, डीएलएसए के डर से अपना नाम बताने की शर्त पर कहा कि वकीलों को वादियों के दस्तावेजों की छपाई या फोटोकॉपी तक के लिए अपनी जेब से खर्च करना पड़ता है. मसौदा तैयार करने के लिए भी कई बार अपने पास खर्च करना पड़ता है. दिल्ली, चमोली, मणिपुर, सिरसा और यूपी जिला अदालतों के लगभग सभी डीएलएसए के पैनल वकीलों ने यही बात दुहराई.
नई दिल्ली डीएलएसए के अधीक्षक अमित तंवर कहते हैं, "पैनल वकील प्रिंटआउट जैसी चीजों के लिए एडवांस में आवेदन कर सकते हैं." लेकिन पैनल के वकीलों ने कहा कि अक्सर प्रशासनिक कारणों से पेशगी जारी नहीं की जाती है.
लगभग 20% कानूनी सहायता सलाहकारों ने बुनियादी ढांचे की कमी की पहचान की, जैसे कि वादियों के साथ बातचीत करने के लिए कोई तय कमरा ना होना. 23% ने कम मानदेय को दोषी ठहराया. 34% ने प्रोसेसिंग फीस में देरी के बारे में शिकायत की, जैसा कि एनएलयू दिल्ली के सिंह ने कहा. जिन्होंने 2020 में भारत में कानूनी सहायता सेवाओं की गुणवत्ता और उस पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन किया था.
मंजू द्विवेदी आगरा में जिला स्तर पर एक मुफ्त कानूनी वकील हैं जो पिछले 10 वर्षों से रिटेनर के रूप में प्रति माह 5,000 रुपए कमाती हैं.
एनएएलएसए के दिशा-निर्देशों के अनुसार एक रिटेनर वकील को जिला स्तर पर 15,000 रुपए प्रति माह और तालुका स्तर पर 10,000 रुपए प्रति महीने से कम नहीं मिलना चाहिए.
एक तो पैसे कम मिलते हैं, वह भी समय से नहीं मिलता. उदाहरण के लिए बिहार ने सीएचआरआई की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार निर्देश दिया था कि यदि रिटेनर वकील महीने में 10 दिन अदालत में उपस्थित नहीं होते हैं तो उन्हें उस महीने का मानदेय नहीं मिलेगा. सीएचआरआई की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि उत्तर प्रदेश (यूपी) ने सितंबर 2015 के एक पत्र में कहा कि रिटेनर वकीलों को भुगतान 13वें वित्त आयोग कोष (2010-2014) के तहत किया गया था और चूंकि यह अवधि समाप्त हो गई थी, इसलिए यूपी सरकार को और फंड नहीं मिला. ऐसे में भविष्य में और रिटेनर वकीलों को काम नहीं देना चाहिए.
कम फीस शुल्क कानूनी सहायता सलाहकारों की संख्या को प्रभावित करता है. उदाहरण के लिए उत्तराखंड को ही ले लीजिए. चमोली जिले के कानूनी सहायता देने वाले वकील ज्ञानेंद्र सिंह ने कहा कि जिले में केवल दो पैनल वकील हैं और इस तरह दोनों पर काम का बोझ अधिक है. सिंह कहते हैं कि यह भुगतान बहुत ही कम है और दीवानी मामलों के लिए अधिकतम सीमा 3,000 रुपए प्रति मामला और जेल यात्रा के लिए 750 रुपए प्रति माह है जिसकी अधिकतम सीमा 3,000 रुपए ही है.
हमने चमोली डीएलएसए सचिव सिमरनजीत कौर से फोन पर संपर्क किया, लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। जवाब मिलने पर हम खबर में अपडेट कर देंगे.
कम वेतन भी वकीलों को निराश करता है क्योंकि यह वकील बनने तक हुए उनके खर्च की भरपाई नहीं कर पाता. आयुष ने पांच साल कॉलेज में पढ़ाई कि और प्रति वर्ष लगभग 1 लाख रुपए खर्च किए. यही नहीं, पैनल वकील के लिए योग्य होने से पहले तीन साल तक काम भी किया. "फिर आप एक अच्छे वकील से इतने कम वेतन पर काम करने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?" आयुष ने पूछा। वह अपने खाली समय में नियमित निजी प्रैक्टिस करते हैं 30,000 से 40,000 रुपए कमाते हैं. वहीं बतौर मुफ्त कानूनी सलाहकार वकील के रूप में 4,000 से 5,000 रुपए ही मिलते हैं.
चूंकि पैनल के वकीलों को मुफ्त कानूनी सलाहकार के लिए अपने प्रतिबद्ध समय के बाहर अभ्यास करने की अनुमति है, इसलिए कई लोग अपनी आजीविका के लिए अपने निजी अभ्यास पर अधिक भरोसा करते हैं, जो कानूनी सहायता की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं, वे कहते हैं.
भुगतान में देरी
नि: शुल्क कानूनी सलाहकारों को भुगतान के लिए बिल जमा करने होते हैं जो कि एक थकाऊ प्रक्रिया है. इसके लिए वकीलों को बिल की मंजूरी प्राप्त करने के लिए आवश्यक मुहरबंद/प्रमाणित आदेश की जरूरत पड़ती है. इसके अलावा मामला अंतिम रूप से निपटाए जाने के बाद ही बिल जमा होता है जिसे साल के अंदर (दिल्ली में) ही सबमिट करना होता है, जिसका डीएलएसए के सचिव से लिखित रूप से प्रमाणित होना आवश्यक है.
नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड के अनुसार अधीनस्थ/तालुका स्तर पर सिविल और आपराधिक, दोनों मामलों में से लगभग 60% मामलों को निपटाने में एक वर्ष से अधिक का समय लगता है.
सिरसा जिला अदालत के एक पैनल वकील सतिंदर सिंह घीक ने इंडियास्पेंड को बताया कि उन्हें नौ महीनों में दाखिल किए गए छह-सात बिलों में से केवल एक बिल का भुगतान मिला था.
सिंपल सिंह जो फ्रंट-ऑफिस स्टाफ (पैनल वकीलों की जिम्मेदारियों में से एक) के रूप में काम करते हैं, ने कहा, "भले ही हमें कम भुगतान किया जाता है, कम से कम बिलों को समय पर मंजूरी दी जानी चाहिए".
जब सिरसा की डीएलएसए सचिव अनुराधा (वह एक नाम ही लिखती हैं) से भुगतान में देरी के कारण को समझने के लिए संपर्क किया गया तो उन्होंने जवाब दिया, "केवल नालसा ही इसका जवाब दे सकती है. हम यहां सूचीबद्ध पैनल के वकीलों के प्रामाणिक बिलों की जांच और उन्हें पास करने के लिए हैं."
नालसा सचिव अशोक कुमार जैन ने इस खबर को प्रकाशित होने तक हमें कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी. प्रतिक्रिया मिलने पर हम खबर अपडेट करेंगे.
कानूनी सहायता के लिए अनुदान
वर्ष 2018 सीएचआरआई के अध्ययन के अनुसार 29 राज्यों और सात केंद्र शासित प्रदेशों सहित भारत में कानूनी सहायता पर प्रति व्यक्ति खर्च 0.75 रुपए है जो दुनिया में सबसे कम है. 2019-20 में टाटा ट्रस्ट्स की इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2020 के अनुसार भारत में कानूनी सहायता पर प्रति व्यक्ति खर्च 1.05 रुपए था.
कानूनी सेवा संस्थान को नालसा और राज्य बजट, दोनों से पैसे मिलते हैं.
वर्ष 2004 में ओडिशा हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एस मुरलीधर (जब वे दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायाधीश थे) के किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि अधिकांश पैसा कानूनी सहायता के बजाय प्रशासनिक सेवाओं के लिए उपयोग किया जाता है.
काम के आवंटन में पक्षपात
फ्रंट डेस्क पर मदद करने जेल जाने आदि जैसे कामों से कानूनी सहायता सलाहकार को अधिक पैसा बनाने में मदद मिल सकती है, लेकिन वकीलों का कहना है कि इस काम को आवंटित करने में पक्षपात होता है और ये काम जिला विधिक सेवा प्राधिकरण अपने पसंदीदा लोगों को सौंप देता है. हम सिरसा में डीएलएसए सचिव अनुराधा के पास पहुंचे. उन्होंने इस तरह के आरोपों को यह कहते हुए खारिज कर दिया, "मैं अपने जिले के लिए बोल सकती हूं. दूसरे छोर पर खड़ा कोई पूर्वाग्रहित व्यक्ति इस पर सवाल उठा सकता है, लेकिन हम योग्यता के आधार पर कामों का आवंटन करते हैं न कि पक्षपात करते हुए पसंदीदा लोगों को तवज्जो देते हैं."
कभी-कभी वकीलों को उनकी क्षमता के स्तर से नीचे के काम करने के लिए कहा जाता है. "हेल्प डेस्क और लोक अदालतों (विवाद निवारण तंत्र) में कई मौकों पर हमें ट्रैफ़िक चालान, बिजली बिल और यहां तक कि आधार कार्ड बनाने के लिए कहा जाता है. क्या यह लोक अदालतों का उपयोग करने का सही तरीका है?" साकेत जिला अदालत में प्रैक्टिस करने वाले एक वकील ने कहा.
कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं
पैनल अधिवक्ताओं की नियुक्ति बतौर स्थाई कर्मचारी नहीं होती. इस तरह वे छुट्टी या सामाजिक सुरक्षा के दायरे में नहीं आते.
सीमा* सात साल से जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड लीगल एड सर्विसेज से बतौर पैनल एडवोकेट जुड़ी हुई हैं. "जब मैं गर्भवती हुई तो मैं मातृत्व अवकाश चाहती थी। लेकिन मुझे नहीं मिला. वास्तव में छुट्टी जैसी कोई व्यवस्था है ही नहीं," उन्होंने कहा.
जब डीएलएसए दिल्ली के अधीक्षक अमित तंवर से इस मुद्दे के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बताया कि चूंकि ये अधिवक्ता सूचीबद्ध हैं और नालसा द्वारा नियुक्त नहीं हैं, इसलिए कोई छुट्टी नहीं है.
सीमा कहती हैं, ''पैनल में शामिल होना अनुबंध पर होने जैसा है.
सितंबर 2022 में NALSA ने कानूनी सहायता रक्षा परामर्श प्रणाली के तहत बचाव पक्ष के वकील की रिक्तियों की घोषणा की है जिसमें आपराधिक अनुभाग में स्थायी मुफ्त कानूनी सहायता देने वाले वकीलों को नियुक्त करने के लिए आवेदन आमंत्रित किए गए हैं. इन वकीलों का वेतन 20,000 रुपए से लेकर 1 लाख रुपए प्रति माह तक होगा. यह उन राज्यों की आबादी पर निर्भर करेगा जहां उन्हें तैनात किया जाएगा. उनके पास भी छुट्टियां होंगी, हालांकि मातृत्व अवकाश का कोई जिक्र नहीं है.
लखनऊ में उत्तर प्रदेश राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण ने अगस्त 2022 में इस पद के लिए विज्ञापन भी दिया है.
एनएलयू के प्रोफेसर सिंह ने कहा, "निश्चित पदों के लिए नया विज्ञापन पैनल के वकीलों की स्थिति में सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है." हालांकि, भुगतान के लिए एक त्वरित प्रक्रिया सुनिश्चित करने के लिए एक मजबूत संरचना और एक शिकायत निवारण तंत्र भी आवश्यक है."
फ्री कानूनी सहायता: आजीविका या सामाजिक कार्य?
कानूनी सहायता प्रणाली का हिस्सा रहे कई लोगों का कहना है कि वहां काम को आजीविका के स्रोत के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए, बल्कि उन लोगों की मदद करने के इरादे से किया जाना चाहिए जो वकील का खर्च नहीं उठा सकते हैं और इससे कानून को समझने में भी मदद मिलती है.
नई दिल्ली के साकेत कोर्ट में वकील विक्रांत चौधरी कहते हैं, ''मुफ्त कानूनी सहायता सेवा के लिए आपको अच्छे मानदेय की उम्मीद नहीं करनी चाहिए.'' "यह सामाजिक कार्य है और इसे पैसे कमाने के तरीके के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए."
एस. तिवारी जो अब साकेत कोर्ट में प्रैक्टिस कर रहे एक वरिष्ठ आपराधिक वकील हैं, ने कहा: "मुफ्त कानूनी सहायता के रूप में मैंने जो कुछ भी सीखा, वह मैं कहीं और से नहीं सीख सकता था. मैं अभी भी उन अभ्यासों के लिए आभारी महसूस करता हूं, जिन्होंने मेरे बनने की राह को तेज किया और अब मैं एक सफल फौजदारी वकील हूं."
लेकिन न तो तिवारी और न ही चौधरी कानूनी सहायता वकीलों के रूप में काम करना जारी रखते हैं, जब तक कि अदालत ऐसा करने के लिए नहीं कहता.
इसी तरह लखनऊ के एक फ्री कानूनी सहायता देने वाले वकील ने कहा कि वे इसमें शामिल होने के लिए सहमत हुए थे क्योंकि वे वास्तव में जरूरतमंदों की मदद करना चाहते थे, लेकिन देरी से भुगतान और बुनियादी ढांचे की कमी, अदालत में वरिष्ठों से कम सम्मान ने उन्हें डेढ़ साल के भीतर ही छोड़ने पर मजबूर कर दिया.
"हमारे मुद्दे ज्यादातर अनसुने होते हैं. हमसे सबसे अच्छे की उम्मीद कैसे की जा सकती है?" आयुष कहते हैं.
साकेत जिला अदालत के एक पैनल वकील नमन जैन ने कहा, अगर न्यायिक प्रणाली से उनके काम को मान्यता दी जाती तो इन सभी मुद्दों को अभी भी अनदेखा किया जा सकता था. जैन ने कहा, "मेरा मानना है कि बोनस, पुरस्कार या किसी अन्य के रूप में हमारे काम की कोई विश्वसनीय स्वीकृति हो सकती है तो यह हमें जारी रखने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है. लेकिन वास्तविकता यह है कि हमें अदालती सुनवाई में भी स्वीकार नहीं किया जाता है." "एक न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट के सामने एक नियमित या एक निजी वकील के साथ जिस तरह का व्यवहार होता है, हमें उस ध्यान या प्राथमिकता का आधा भी नहीं मिलता है. हमारी मुफ्त कानूनी सेवा के लिए कोई सम्मान नहीं है."
नोट- *बदला हुआ नाम