बंगाल में कोयला बेल्ट गांवों में खनन से कैसे बेरोजगारी और प्रदूषण बढ़ा
कोयला खदान के लिए जमीन देने वाले परिवारों का कहना है कि उन्हें पर्याप्त मुआवजा और नौकरी नहीं मिली।
आसनसोल। 18 लोगों के परिवार वाले मंसूर आलम अपनी 15 बीघा यानी लगभग 9 एकड़ जमीन गंवा चुके हैं। मंसूर कहते हैं, 'जहां पर भी इंडस्ट्री है, वहां विकास नहीं हो सकता'। दरअसल, मंसूर की यह जमीन उनके हाथ से तब जाती रही जब आरपी संजीव गोयनका ग्रुप की कंपनी इंटीग्रेटेड कोल माइनिंग लिमिटेड (आईसीएमएल) ने पश्चिम बंगाल के पश्चिमी बर्धमान इलाके में अपनी सरिसतोल्ली कोल माइन को साल 2000 में शुरू किया।
बाराबानी और जमुरिया सामुदायिक विकास ब्लॉक क्षेत्र के कम से कम 700 परिवारों ने अपनी जमीनें और आजीविका खो दी है। मंसूर आलम का यह बयान झूठ सा लगता है कि ये जमीनें कोयले की इस खदान की वजह से छिनी हैं।
पिछली दो शताब्दियों में पश्चिम बंगाल के पश्चिम बर्धमान जिले के आसनसोल-रानीगंज बेल्ट में व्यापक स्तर पर कोयले का खनन होता रहा है। भारत में कोयले का व्यावसायिक स्तर पर खनन आज के आसनसोल जिले के रानीगंज ब्लॉक में साल 1774 में शुरू हुआ। पश्चिम बंगाल में कोयला खनन की निजी कंपनियों के अलावा कोल इंडिया लिमिटेड के मालिकाना हक वाली कंपनी ईस्टर्न कोलफील्ड लिमिटेड के द्वारा संचालित कुल 107 सरकारी कोयला खदाने हैं। आईसीएमएल का यह प्रोजेक्ट खास है, क्योंकि यह पहला ऐसा निजी कोयला खदान है जिसका इस्तेमाल बिजली उत्पादन के लिए होता है।
सितंबर 1997 में, आईसीएमएल ने 10 गांवों के लोगों की जमीनों का अधिग्रहण करने के लिए पहला नोटिस दिया। साल 2002 में आईसीएमएल ने आरपी संजीव गोयनक ग्रुप की फ्लैगशिप कंपनी कलकत्ता इलेक्ट्रिक सप्लाई कॉर्पोरेशन (सीईएससी) के पावर प्लांट को कोयला सप्लाई करने के लिए अपनी खदान में काम शुरू कर दिया।आईसीएमएल के मुताबिक, 613 हेक्टेयर जमीन वाली एक खदान में "जमीन के नीचे 170 मीटर तक की खुदाई का काम होता है और हर साल 1.8 मीट्रिक टन कोयले का उत्पादन होता है"। कंपनी इस खदान को क्षेत्र की सबसे सुरक्षित खदान होने का दावा और इस पर गर्व करती है, क्योंकि साल 2019 में ईस्टर्न कोलफील्ड लिमिटेड के 'सालाना सुरक्षा सप्ताह' में इस खदान को 13 पुरस्कार मिले थे।
हालांकि, आसपास के इलाकों रखाकुरा, दिघुली, रशूनपुर, जमग्राम, मदनपुर, आनंदग्राम और सरिसतौली गांवों के लोग इसके इतर अलग ही कहानी बयां करते हैं। हमारी ग्राउंड रिपोर्ट में, आईसीएमएल के बुरे प्रभाव झेल रहे लोगों ने नौकरी, पुनर्वास से जुड़े झूठे वादों और स्थानीय विकास के दावों की पोल खोल दी। साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, बाराबनी में आदिवासियों और अनुसूचित जातियों की संख्या लगभग 43 प्रतिशत और जमुरिया में लगभग 39 प्रतिशत है।
कोलकाता स्थिति आईसीएमएल के मुख्य दफ्तर में कई बार फोन करने के बावजूद कोई भी अधिकारी हमसे बात करने को तैयार नहीं हुआ। ऑफिस के ईमेल पर भी सवाल भेजे गए, लेकिन खबर को प्रकाशित किए जाने तक, हमें कोई जवाब नहीं मिल सका है। आईसीएमएल की ओर से कोई भी जवाब मिलने पर इस स्टोरी को अपडेट किया जाएगा।
भारत में ऊर्जा के स्रोतों में कोयला प्रमुख है। देश की ऊर्जा से जुड़ी ज़रूरतों का 55 प्रतिशत हिस्सा सिर्फ़ कोयले से ही पूरा होता है। साल 2020-21 में भारत में 71.60 करोड़ टन कोयले का उत्पादन हुआ। कोयले की वजह से पर्यावरण को होने वाले नुकसान को देखते हुए, भारत आने वाले समय में ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों का इस्तेमाल बढ़ाने पर ध्यान दे रहा है।
मौजूदा समय में भारत में काम कर रहे थर्मल पावर प्लांट 1.1 गीगाटन कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन हर साल करते हैं। यह पूरी दुनिया में होने वाले ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन का 2-5 प्रतिशत है। साल 2021 में ग्लॉसगो में हुए दुनिया के सबसे बड़े पर्यावरण सम्मेलन 26वें कॉन्फ्रेंस ऑफ़ पार्टीज़ में वादा किया है कि साल 2070 तक वह अपने कार्बन उत्सर्जन को शून्य (नेट जीरो एमिशन) कर देगा।
पश्चिम बंगाल सरकार, बीरभूम जिले में स्थित देओचा पचामी क्षेत्र जो कि एशिया के सबसे बड़ा कोयला रिजर्व है, में एक खदान शुरू करने के बारे में सोच रही है। इस बीच आईसीएमएल की सरिसितोली खदान में ओपन कास्ट माइनिंग को लेकर आसनसोल के लोगों का अनुभव एक चेतावनी दे रहा है।
रोजगार की कमी
रखाकुरा गांव के निवासी मंसूर आलम कहते हैं, 'एक बोवाल (उपजाऊ जमीन) के लिए हमें 18,000 रुपये, कनाली (औसत गुणवत्ता वाली जमीन) के लिए 12,000 रुपये और डांगा (खराब जमीन) के लिए 6000 रुपये प्रति बीघा के हिसाब से दिए गए थे।' मंसूर आगे कहते हैं, 'उन्होंने (आईसीएमएल) ने वादा किया था कि अगर हम खदान के लिए छह बीघा या उससे ज़्यादा जमीन देते हैं, तो परिवार से एक व्यक्ति को नौकरी मिलेगी। लेकिन हकीकत ये है कि हमारे गांव के 100 लोगों को भी नौकरी नहीं मिली। उन्होंने कोलकाता को रौशन करने के लिए हमारी जमीनें खोद डालीं। ये किस तरह का विकास है?'
आलम के पड़ोसी नेपाल बौरी कहते हैं कि पहले इस इलाके में रोजी-रोटी का मुख्य ज़रिया खेती था, लेकिन 'आईसीएमएल ने सब कुछ बर्बाद कर दिया।' नेपाल आगे कहते हैं, 'मैं जमीदार की जमीन पर काम करता था। अब उनके पास जमीन नहीं है और मेरे पास कोई काम नहीं है'।
आईसीएमएल खदान में पक्की नौकरी पाने में कामयाब रहे लोग भी अब बिगड़ते हालात की चर्चा करते हैं। मुजीबुर कहते हैं, 'जब मैंने नौकरी शुरू की थी, तब मेरे सैलरी लगभग 14,000 रुपये थी, अब यह घटकर 8,000 रुपये हो गई है।' मुजीबुर के परिवार ने 28 बीघा जमीन दी है और बदले में उन्हें दो लाख रुपये और दो नौकरियां मिली हैं।
जमीन चली जाने और रोजगार के अभाव की इस दोहरी मार की वजह से इलाके में व्यापक स्तर पर पलायन हुआ है। बर्धवान यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर राखी मंडल और बिस्वरंजन मिस्त्री ने साल 2021 में एक रिसर्च पेपर में लिखा, 'पिछले 50 सालों में विकास से जुड़े प्रोजेक्ट जैसे कि बांध निर्माण, खदानों का विकास, औद्योगिक विकास और वाइल्ड लाइफ सैंक्चरी स्थापित किए जाने की वजह से पूरे भारत में 2.13 करोड़ लोगों का पलायन हुआ है। '
रानीगंज कोलफील्ड इलाके की जमीनी हकीकत के हिसाब से इन प्रोफेसर ने अपने रिसर्च पेपर में लिखा, 'औद्योगिक विकास के बाद खदान से जुड़े काम, लोगों के पलायन की दूसरी सबसे बड़ी (12%) वजह हैं।' इन प्रोफेसर ने अपने अध्ययन का केंद्र रानीगंज में स्थित सोनेपुर-बजारी ओपेन कास्ट कोयला खदानों पर रखा। इसमें आईसीएमएल खदान शामिल नहीं है।
साइकल और मोटरसाइकल पर कोयले के बोरे ढो रहे लोगों की ओर इशारा करते हुए 54 साल के नेपाल बौरी कहते हैं, 'लोगों ने अपना घर चलाने के लिए नए-नए तरीके खोज निकाले हैं'। इन साइकल और मोटरसाइकल पर आम तौर पर लोग 150 किलो कोयले से भरे बोरे लादकर लाते ले जाते हैं। नेपाल कहते हैं, 'कोयले का अवैध कारोबार बहुत फला-फूला है। आखिर लोग और करें भी क्या? खेती अब कोई विकल्प बचा नहीं है, आईसीएमएल हमें नौकरी देगा नहीं और नई उम्र के लोग इतने पढ़े-लिखे भी नहीं हैं कि वे नौकरी की तलाश में कहीं बाहर जा सकें।'
कोयले की तस्करी
प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया की 2019 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, आसनसोल-रानीगंज इलाके में कोयले की 3,500 अवैध खदाने चलती हैं और लगभग 35,000 से ज़्यादा लोग सीधे तौर पर इनमें काम करते हैं। वहीं, 40,000 अन्य लोग परोक्ष तौर पर इससे रोजगार पाते हैं।
आईसीएमएल ने अपनी खुली खदानें बनाने के लिए मिट्टी खोदी और उसे बाहर छोड़ दिया। लोग इसी मिट्टी में कोयला ढूंढने लगे। औद्योगिक प्रोजेक्ट की वजह से प्रभावित लोगों के हक के लिए काम करने वाली पर्यावरण संस्था प्रोजेक्ट अफेक्टेड पीपल्स असोसिएशन (पीएपीए) से जुड़े स्थानीय कार्यकर्ता मानिक बौरी समझाते हैं, 'स्थानीय महिलाएं और बच्चों ने मिट्टी में यह कोयला खोजना शुरू किया। ये लोग कोयले के टुकड़े अपने घर उठा ले जाते हैं।' पुरुषों ने इस कोयले को पैक करना और बाजार में भेजना शुरू कर दिया है।
मानिक बौरी बताते हैं कि सड़कों की हालत खराब होने की वजह से, आईसीएमएल के ओवरलोड ट्रकों में से कोयले के टुकड़े गिरते रहते हैं। इस कोयले को भी स्थानीय लोग इकट्ठा कर लेते हैं। इसके अलावा ये लोग आईसीएमएल के गार्ड्स को रिश्वत देकर भी कोयला चुरा लाते हैं। रखाकुरा गांव के लगभग हर घर में कोयले से भरी बोरियां मिल जाएंगी। इसके अलावा, आम लोगों को कोयले से भरी बोरियां लाते और ले जाते भी देखा जा सकता है।रिसर्चर कुंतल लाहिरी दत्त ने इकनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली में 2007 में शामिल किए गए अपने रिसर्च पेपर 'इलीगल कोल माइनिंग इन ईस्टर्न इंडिया: रीथिंकिंग लेजिटमेसी ऐंड लिमिट्स ऑफ जस्टिस' में पाया कि आसनसोल-रानीगंज क्षेत्र में, साल 2003-04 में सिर्फ़ एक साल के भीतर लगभग 25 लाख टन कोयला साइकल से ही ढोया गया। कुंतल ने अपने रिसर्च पेपर में आगे लिखा कि सिर्फ़ आसनसोल-रानीगंज ही नहीं भारत के हर कोल बेल्ट में कोयले की तस्करी लोगों के जीवन का हिस्सा बन गया है। उन्होंने यह भी लिखा कि कोयले का अवैध कारोबार "अन्यायपूर्ण राष्ट्रीय खनन कानूनों के खिलाफ़, स्थानीय पर लोगों का विरोध जताने का तरीका भी है "।
कोयले के इस अवैध कारोबार के लिए कुंतल लाहिरी दत्ता कई वजहों को जिम्मेदार मानती हैं। इसमें 'गरीब लोगों के लिए सुरक्षा की कमी, औपचारिक खदानों में सामाजिक और पर्यावरण को लेकर घिनौनी रवायतें, खदान के इंजीनियरों और तकनीकी विशेषज्ञों की ओर से सामाजिक प्रभाव पर ध्यान न देना, कोल इंडिया लिमिटेड में जारी लाइसेंस 'राज' और अर्थव्यवस्था का अनौपचारिक होना शामिल है।'
भूगोल की जानकार श्रीनिता मंडल ने कहा कि कोयले की तस्करी के फलने-फूलने के पीछे पर्यावरण संकट के बाद सामाजिक-आर्थिक कारक भी मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं। 2017 में जर्नल ऑफ़ रूरल डेवलपमेंट में प्रकाशित अपने रिसर्च पेपर 'ट्राइबल डिस्पोजेशन थ्रू लैंड एक्विजिशन: अ स्टडी ऑफ ओपन कास्ट माइन इन वेस्टर बंगाल' में श्रीनिता ने कहा था, 'खनन सेक्टर के विस्तार की वजह से कृषि क्षेत्र सिमट गया, इस वजह से स्थानीय लोग दूसरे क्षेत्रों में नौकरी या रोजगार के लिए मजबूर हो गए। इस एकल उद्योग वाले क्षेत्र में इसके अलावा उनके पास विकल्प भी क्या था? यही कारण है कि वे खनन से जुड़े कामों में मजदूर के तौर पर काम करने लगे।'
मानिक बौरी कहते हैं कि बाराबानी और जमुरिया इलाके में कोयले से जुड़ी यह समानांतर अर्थव्यवस्था अब लोगों की ज़रूरत जैसी बन गई है। वह दावा कहते हैं, 'जब से खनन शुरू हुआ, इस क्षेत्र में कोयला ही सबकुछ है। आईसीएमएल ने वादा किया था कि लोगों की दैनिक ज़रूरतों के लिए कोयला उपलब्ध रहेगा, लेकिन वे अपना यह वादा निभाने में नाकाम रहे हैं।' मानिक आगे बताते हैं, 'न तो हमें आईसीएमएल का कोयला मिलता है और न हमारे पास इतने पैसे हैं कि गैस सिलिंडर खरीद सकें। दूसरा कोई रास्ता ही नहीं है। सरकार सोचती है कि कोयले से जुड़े माफियाओं को गिरफ्तार करके समस्या दूर हो सकती है, लेकिन ऐसा होगा नहीं। इससे लाखों लोगों की जिंदगी जुड़ी हुई है।'
गांव वाले बोले- न उस समय कोई 'उचित' सामाजिक मूल्यांकन हुआ और न अब कोई पुनर्वास होता है
श्रीनिता और कुंतल लाहिरी-दत्त दोनों यही समझाती हैं कि साल 1993 में राष्ट्रीय खनिज नीति (एनएमपी) की घोषणा के बाद से ही भारतीय और वैश्विक स्तर के निजी क्षेत्र की कंपनियों के कोयले के खनन क्षेत्र में आने से कोयले की खदान वाले क्षेत्रों में लोगों की जिंदगी दूभर होती गई है। कुंतल नीति निर्माताओं से कहती हैं कि कोयले की किसी भी खदान को निजी क्षेत्र के हवाले करने से पहले 'खदान वाले क्षेत्र में सामाजिक असलियत को समझें'। वह आगे कहती हैं कि एनएमपी ने 'सामाजिक प्रभावों के मूल्यांकन की ज़रूरतों और संभावनों को कम कर दिया है।'
मानव वैज्ञानिक समरेंद्र दास और फेलिक्स पैडेल ने अपनी किताब 'आउट ऑफ दिस अर्थ: ईस्ट इंडिया आदिवासी ऐंड अल्युमिनियम कार्टेल' में पूरे भारत में खनन क्षेत्र से जुड़े निजी क्षेत्र के खिलाड़ियों और एनएमपी के लिंक को समझाया है। उन्होंने अपनी किताब में लिखा है, 'नई खनिज नीति का लक्ष्य खनन को प्रोत्साहित करना और खनिज की खोज के साथ-साथ असल में खनन शुरू करने की प्रक्रिया को तेज करना है। नीति के मुताबिक, खनन कंपनियों के लिए सरकार का रोल 'मददकर्ता' का है और उसे सीधे तौर पर इसमें शामिल होने से दूर ही रखा गया है, ताकि प्रक्रिया उदारवादी बनी रहे।'
रशूनपुर गांव में रहने वाले एक व्यक्ति ने अपनी पहचान गोपनीय रखने की शर्त पर हमसे बात की और कहा, 'अगर उन्हें स्थानीय हकीकतों के बारे में पता होता, तो उन्होंने हमारे लिए सुरक्षित स्थानों पर घर का इंतजाम किया होता क्योंकि हमारे घर टूट गए हैं। हमें इस आईसीएमएल प्रोजेक्ट से कुछ भी नहीं मिला। इसने हमसे सबकुछ छीन लिया।' इसी के बारे में मानिक बौरी कहते हैं कि आईसीएमएल ने जमीन पर कोई ठीक सामाजिक या पर्यावरणीय मूल्यांकन नहीं कराया। मानिक आगे कहते हैं, 'उन्होंने स्थानीय लोगों को सीधे नोटिस और आदेश थमा दिए। पंचायत या ब्लॉक के स्तर पर भी किसी भी तरह की कोई चर्चा नहीं की गई।'
पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) ने एन्वारनमेंटल इंपैक्ट असेसमेंट (ईआईए) नोटिफिकेशन 1994 के मुताबिक, आईसीएमएल को खुली खदानों के लिए पर्यावरण संबंधी मंज़ूरी दी है।
मानिक बौरी कहते हैं कि सही तरीके से कोई मूल्यांकन रिपोर्ट न तैयार किए जाने की वजह से उन लोगों का पुनर्वास नहीं हो पा रहा है जिनके घर कोयले की खदान में विस्फोट की वजह से क्षतिग्रस्त हो गए। मैप वर्ल्ड फोरम रिसर्च पेपर के मुताबिक, खनन से जुड़ी गतिविधियों जैसे कि जमीन के नीचे विस्फोट की वजह से आसनसोल-रानीगंज क्षेत्र में लगभग 43% घर ऐसे हैं जिनमें दरारें आ गई हैं या किसी अन्य तरीके से नुकसान पहुंचा है।
बाराबानी के बीडीओ सुरजीत घोष बताते हैं कि केंद्र सरकार से ज़रूरी मंज़ूरी मिलने के बाद ही आईसीएमएल अपना काम कर रही है। लोगों के इस दावे कि कंपनी ने अपने ईआईए को फेरबदल कर दिया है, के बारे में सुरजीत घोष कहते हैं, 'मुझे नहीं लगता कि इसमें हमारा कोई रोल है। ये सब तो पर्यावरण मंत्रालय और आईसीएमएल के बीच की बात है। वे जो कुछ भी कर रहे हैं उसकी अनुमति केंद्र सरकार ने दी है।'
इस बारे में बात करने के लिए हमने पर्यावरण मंत्रालय के क्षेत्रीय दफ़्तर (आरओ) और भुवनेश्वर में बैठने वाले क्षेत्रीय अधिकारी संदीप नंदी को फोन किया, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला। बता दें कि पश्चिम बंगाल इसी क्षेत्रीय दफ़्तर के कार्य क्षेत्र में आता है। हमने पर्यावरण मंत्रालय के अडिशनल प्रिंसिपल चीफ़ सेक्रेटरी ऑफ़ फॉरेस्ट्स, आर के डे को ईमेल करके इन आरोपों के बारे में उनकी टिप्पणी मांगी है कि आईसीएमएल ने जमीन पर पर्यावरण और सामाजिक मूल्यांकन नहीं है। उनकी ओर से जवाब मिलने पर इस स्टोरी को अपडेट किया जाएगा।
पहचान छिपाने की शर्त पर हमसे बात करने वाले रशूनपुर गांव के निवासी ने बताया, 'सरिसतोली खदान में धमाके की वजह से कई घर टूट-फूट गए थे। इसके बाद, प्रभावित लोगों के लिए आईसीएमएल ने क्वार्टर तैयार किए। लेकिन उन एक मंजिला घरों पर टिन शेड नुमा पक्की छतें ढाल दी गईं, इस वजह से लोगों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया।' इस शख्स ने आगे बताया, 'लोगों ने उनसे कहा कि समतल छतों वाले घर दिए जाएं, ताकि उन पर और मंजिलें भी बनाई जा सकें, लेकिन आईसीएमएल ने एक नहीं सुनी। केंद्र और राज्य दोनों सरकारों ने हमारी मदद के लिए कुछ नहीं किया है। अब सैकड़ों घर खाली पड़े हैं और हम यहां बड़ी सी खुली खदान के बगल में रहे हैं। मुझे नहीं पता कि इसमें आईसीएमएल का कितना नुकसान हुआ है।'
दूसरी तरफ, चुरुलिया ग्राम पंचायत के वाइस चेयरमैन और तृणमूल कांग्रेस के नेता प्रदीप कुमार मुखर्जी आईसीएमएल की ओर से दिए गए घर को स्वीकार न करने के लिए लोगों को ही जिम्मेदार ठहराते हैं। प्रदीप का कहना है, 'उनकी मांग में कोई तर्क ही नहीं है। हमें नहीं लगता कि उन क्वार्टर में किसी भी प्रकार की दिक्कत है। हम जानते हैं कि जब किसी भी क्षेत्र में खनन होता है, तो दिक्कतें आ सकती हैं। लोगों को अब तक अडजस्ट कर लेना चाहिए था।'
महिलाएं और उन पर मंडराता अवैध ईंट भट्ठों का खतरा
खदानों से सबसे ज़्यादा प्रभावित महिलाएं हुई हैं। स्थानीय लोग बताते हैं कि इससे पहले, इस क्षेत्र में खेती और जंगल आधारित आजीविका प्रचलित थी और महिलाएं इन कामों में लगी रहती थीं। हालांकि, जब से आईसीएमएल का प्रोजेक्ट यहां शुरू हुआ है, महिलाएं को दूसरे कामों की तलाश करनी पड़ रही है। स्थानीय निवासी बताते हैं कि कि बाराबानी क्षेत्र में साल 2001 में महिला मजदूरों की संख्या 6078 थी जो 2011 में बढ़कर 7219 हो गई, लेकिन इसका मुख्य कारण यह है कि कई महिलाएं अब अवैध ईंट भट्टों या कोयला खदानों में सस्ते मजदूर के तौर पर काम करती हैं जो कि बेहद असुरक्षित और नुकसानदायक हालात वाला है।
मंसूर आलम कहते हैं कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि आईसीएमएल ने अपना वह वादा नहीं निभाया जिसके तहत महिलाओं को व्यावसायिक ट्रेनिंग दी जानी थी। मंसूर आगे कहते हैं, 'आईसीएमएल ने हमसे वादा किया किया था कि हमारी महिलाओं को व्यावसायिक कोर्स की ट्रेनिंग दी जाएगी जिससे वे दूसरे रोजगार शुरू कर सकें, लेकिन ये सब एक भद्दा मजाक साबित हुआ। पहले महिलाएं खेती के काम में लगी थीं, लेकिन आईसीएमएल के आने के बाद उन्हें खेतों और जंगलों में जो काम मिलता था वो भी खत्म हो गया। पुरुष तो आसनसोल, बर्धमान, और पास के दूसरे शहरों की फैक्ट्रियों या अन्य जगहों पर काम के लिए चले गए, लेकिन महिलाएं ज़्यादातर अवैध ईंट उद्योंगों में काम करती हैं। इसके अलावा, जिनको कोई काम नहीं मिल पाता है उनके लिए कोयले से जुड़ा कोई न कोई काम तो है ही।'
चुरुलिया ग्राम पंचायत के प्रदीप मुखर्जी इस दावे को खारिज करते हैं। उनका कहना है कि आईसीएमएल की ओर से महिलाओं को 'हथकरघा और सिलाई' जैसे कई व्यासायिक कोर्स की ट्रेनिंग दी गई है। वह आगे कहते हैं, 'रखाकुरा, आनंदपुर और अन्य कई गावों की महिलाओं को ट्रेनिंग मिली है और वे अपने रोजगार कर रही हैं। मुझे नहीं पता है कि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) की सरकार के समय कंपनी ने कैसे काम किया, लेकिन 2011 के बाद से आईसीएमएल ने लोगों को कई फायदे दिए हैं।'
रखाकुरा गांव की निवासी मजगुरा बीबी कहती हैं कि वह पक्की नौकरी की हकदा हैं, लेकिन सिर्फ़ एक महिला को नौकरी मिली है। वह बताती हैं, 'मेरे पिता ने 6 बीघे से ज़्यादा जमीन दी थी, लेकिन नौकरी नहीं मिली। उन्होंने (आईसीएमएल के अदिकारियों ने) कोई कारण भी नहीं बताया। अब मेरे बेटे कोयले के अवैध डंपरों में काम कर रहे हैं। आज तक आईसीएमएल ने दूसरी किसी भी महिला को अपनी खुली खदान के लिए नौकरी नहीं दी है। यही वजह है कि महिलाओं के पास अवैध ईंट उद्योंगों में काम करने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है।'
दुर्गापुर गर्वनमेंट कॉलेज की प्रोफ़ेसर देबलीना कार और देबनाथ पालित के मुताबिक, आसनसोल सब डिवीजन और आसपास के इलाकों के 69% लोगों का मानना है कि आय के लिए दूसरे वैकल्पिक स्रोत तलाशना ही उनके लिए एकमात्र विकल्प है। रानीगंज कोलफ़ील्ड इलाके में सर्वे करने के बाद प्रोफे़सर देबलीना और देबनाथ ने 2014 के अपने एक रिसर्च पेपर में लिखा था कि स्थानीय लोगों के लिए ईंट उद्योगों में काम करना पहली पंसद बन गया, क्योंकि 'अगर कोई विकल्प मौजूद होता है, तो उस हालत में कोयले से जुड़े कामों को आय के स्रोत में बहुत कम तरजीह दी जाती है।'
नतीजा यह रहा कि इस इलाके में सैकड़ों अवैध ईंट उद्योग स्थापित हो गए हैं। साल 2017 की एक बंगाली न्यूज़ रिपोर्ट के मुताबिक, सिर्फ़ आसनसोल सब डिवीज़न में ही ऐसे 600 अवैध ईंट उद्योग काम कर रहे थे। स्थानीय लोगों का कहना है कि अब यह संख्या 1000 के आसपास पहुंच गई है। बाराबानी ब्लॉक के बौरी पाड़ा गांव में रहने वाली 60 साल की कालो मोनी पास के ही एक ईंट उद्योग में काम करती हैं। वह कहती हैं, 'हमारे पास ईंट उद्योग में काम करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। हमें यहां दूसरा कोई काम भी नहीं मिलता है।' कालो मोनी यह नहीं जानतीं कि वह जिस ईंट उद्योग में काम करती हैं, वो अवैध है या नहीं, लेकिन वह इतना कहती हैं कि 'मेरा ठेकेदार मुझे सही समय पर पैसे देता है।'
बाराबानी के बीडीओ सुरजीत घोष ने क्षेत्र में लगातार बढ़ते अवैध ईंट उद्योग के बारे में कोई भी टिप्पणी करने से इनकार कर दिया। कालो मोनी को राज्य सरकार की ओर से विधवा पेंशन भी मिलती है, लेकिन उन्होंने बताया कि उनके घर में गैस सिलिंडर नहीं है। यही वजह है कि वह खाना बनाने के लिए स्थानीय लोगों से कोयला खरीदती हैं। यह कोयला वे लोग तस्करों से खरीदते हैं।
बड़ी समस्या है प्रदूषण
जैसा कि बौरी पाड़ा गांव का नाम ही बताता है कि यह बौरी जाति के लोगों का गांव है। भारत की जाति व्यवस्था में यह जाति निचले पायदान पर आता है। अन्य अनुसूचित जातियों की तरह ही बौरी जाति के लोग भी कई पीढ़ियों से गरीब रहे हैं। ये लोग बाराबानी रेलवे स्टेशन के बगल में आईसीएमएल की जगहों पर रहते हैं। इन्हीं जगहों से कंपनी का कोयला पश्चिम बंगाल के दूसरे भागों में भेजा जाता है। बौरी पाड़ां के लोग न सिर्फ़ पैसों की कमी और सामाजिक समस्याओं से जूझते हैं बल्कि भयानक स्तर का प्रदूषण भी इनके लिए बड़ी समस्या है।
आईसीएमएल का साइडिंग एरिया और बौरी पाड़ा को अलग करने के लिए के बीच में ईंट की एक टूटी-फूटी दीवार है। ऐसा ही कुछ रेलवे ट्रैक के दूसरी तरफ भी है। स्थानीय लोग यहां के निवासियों की जाति के हिसाब से इस इलाके को 'चमार पाड़ा' कहते हैं, जो कि अनुसूचित जाति का ही एक हिस्सा हैं। इन लोगों के इलाके और 24 घंटे चलने वाले कोल डंपर के बीच भी एक ऐसी ही ईंट की दीवार है।
बौरी पाड़ा में रहने वाले चंदन ने बताया, 'यहां के पेड़ों का रंग भी काला पड़ गया है। यहां पत्तियां भी ढंग से नहीं बढ़ती हैं। यहां तक कि हमारे घरों के अंदर की चीजें भी काली पड़ जाती हैं। हम कोयले में ही सांस लेते हैं। इस सबके बावजूद किसी ने आईसीएमएल के खिलाफ बोलने की हिम्मत नहीं की है। जब से आईसीएमएल ने यहां काम शुरू किया, तब से ही हम और चमार पाड़ा के लोग यहां काम कर रहे हैं।'
यहां मुस्लिम, सवर्ण बरनवाल और अन्य गैर बंगाली जातियों के लोगों की बस्तियां भी हैं, लेकिन वे कोयले के कहर से काफ़ी हद तक बच जाते हैं क्योंकि बौरी पाड़ां और चमार पाड़ा एक तरह से बफ़र का काम करते हैं। विश्व भारती यूनिवर्सिटी की शर्मिला चंद्रा साल 2015 में इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एन्वायरनमेंटल प्लानिंग ऐंड मैनेजमेंट में प्रकाशित अपने रिसर्च पेपर 'द वलनरेबल माइनिंग कम्युनिटी' में कहती हैं कि भारत में खनन क्षेत्र से सबसे ज़्यादा प्रभावित गरीब और आदिवासी लोग हैं।
माइन्स, मिनरल्स ऐंड पीपल (एमएमऐंडपी), 'खनन के प्रभावों से चिंतित व्यक्तियों, संस्थाओं और समुदायों' का एक समूह है। इसी से जुड़े पर्यावरण कार्यकर्ता स्वराज दास कहते हैं, 'कोयले की खदानों और साइडिंग के आसपास के गांवों में रहने वाले कई लोग फेफड़े से जुड़ी गंभीर बीमारियों से जूझते हैं। स्थानीय अस्पतालों या प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में बैठने वाले डॉक्टर के पास पर्याप्त उपकरण नहीं होते हैं कि वे इनसे जुड़ी बीमारियों का पता लगा सकें। इसी वजह से लोगों को कभी पता ही नहीं चलता कि वे उनकी सेहत को कितना बड़ा खतरा है। नतीजतन, वे इसका कोई सही इलाज भी नहीं करा पाते हैं।'
स्वराज दास आगे कहते हैं, 'बाराबानी में आईसीएमएल साइडिंग के पास प्रदूषण का स्तर बर्दाश्त के बाहर है। लोग लगातार कोयले वाली सांसें ले रहे हैं और आईसीएमएल को इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ता है। वे जो भी कर रहे हैं वह पूरी तरह से गैर-कानूनी है।' दिघुली गांव के रहने वाले एक शख्स ने कहा, 'हम में से ज़्यादातर लोगों को अस्थमा है। हर घर में कम से कम एक व्यक्ति ऐसा है, जिसे सांस लेने में परेशानी होती है।'
शर्मिला चंद्रा ने साल 2015 के अपने रिसर्च पेपर में लिखा था, 'कोयले की धूल वाली सांस लेना एक सतत प्रक्रिया है जिसकी वजह से कोयले से जुड़े काम करने वाले लोगों को न्यूमोकोनियोसिस (सीडब्ल्यूपी) यानी फेफड़े काले पड़ जाना जैसी बीमारियां हो जाती हैं।' चंद्रा आगे लिखती हैं, 'पश्चिम बंगाल के रानीगंज कोल फील्ड इलाके के रातीबाटी, नरसामुंडा, सिआरसोल, निंगा, सतग्राम, बाराचाक, फतेहपुर, मंगलपुर और बर्धेमा गांवों के लोग इस बीमारी से गंभीर रूप से ग्रसित हैं।'
पारिस्थितिकी पर पड़ रहे अन्य प्रभाव
इस सबके अलावा, जल प्रदूषण और भूजल की कमी की वजह से स्थानीय लोगों की समस्या बढ़ गई है। बौरी पाड़ा के चंदन कहते हैं, 'यहां के 150 परिवारों के लिए पानी की सिर्फ़ एक टोंटी चालू है। पानी सुबह 7 से 9 के बीच सिर्फ़ दो घंटे के लिए ही आता है। आप बताइए कि क्या सिर्फ़ इतने कम समय में इतने सारे लोगों के लिए पूरे दिन भर का पानी इकट्ठा किया जा सकता है?'
ऊपर जिस वर्ल्ड मैप फोरम के रिसर्च पेपर की बात की गई है, उसके मुताबिक जमीन के नीचे खनन की वजह से स्थानीय कुओं और तालाबों में पानी का स्तर काफी कम हो गया है। एक अनुमान के मुताबिक, आसनसोल के 31.25% और रानीगंज के 32% परिवार पीने के पानी की गंभीर समस्या से जूझ रहे हैं।
मानिक बौरी कहते हैं, 'पहले पानी 40-50 फीट पर ही मिल जाता था। अब तो 100-150 फीट पर भी पानी मिलना मुश्किल है।' चुरुलिया ग्राम पंचायत के प्रदीप मुखर्जी इस बात से सहमत नहीं हैं कि यहां पीने के पानी की कोई समस्या है। वह कहते हैं, 'हमने लगभग हर गांव में पीने के पानी के कनेक्शन उपलब्ध कराए हैं। हां, कुछ गांवों में पर्याप्त सुविधाएं नहीं हैं, लेकिन हम इस बारे में काम कर रहे हैं। यहां पानी कोई बड़ां मुद्दा नहीं है।'
कोयले की खदानों की वजह से पारिस्थितिकी से जुड़ी अन्य समस्याओं का हवाला देते हुए मैप वर्ल्ड फोरम के रिसर्च पेपर में कहा गया कि लगातार खनन और गड्ढे बनाने से जंगल और खेती खराब हो गई है। इलाके में जैव विविधता कम हुई है, जमीन पर कचरा पड़ा हुआ है और समय के साथ जमीन के उर्वरता कम होती जा रही है।
रशूनपुर गांव के रहने वाले शख्स ने कहा कि पहले आईसीएमएल की खदान के एक तरफ जंगल हुआ करता था, जहां पहले तेंदुए भी देखे जाते थे। वह कहते हैं, 'जंगह में महुआ के कई पेड़ थे और हजारों लोगों का जीवन उन पर निर्भर था। आईसीएमएल ने मुआवजे के रूप में पेड़ लगाने का भी वादा किया था, लेकिन उसने कुछ नहीं किया।'
(हम प्रतिक्रिया का स्वागत करते हैं। कृपया response@indiaspend.org पर लिखें। हम भाषा और व्याकरण के लिए प्रतिक्रियाओं को संपादित करने का अधिकार सुरक्षित रखते हैं।)