दिल्ली की महिलाओं पर महामारी की गाज, छीन लिया रोज़गार

कोविड-19 महामारी ने दिल्ली जैसे महानगरों में जीवनयापन करने वाली महिलाओं को खासा नुकसान पहुंचाया। एक तरफ जहां संगठित क्षेत्र में नौकरी करने वाली महिलाओं को वेतन कटौती और छटनी के रूप में मुश्किलों का सामना करना पड़ा, वहीं असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं का रोज़गार छिन गया जिससे भोजन और बच्चों की शिक्षा जैसी मूलभूत ज़रूरतों की पूर्ति पर भी ग्रहण लग गया।

By :  Megha
Update: 2021-02-15 13:38 GMT

नई दिल्ली : "लॉकडाउन के दौरान कोई कामकाज नहीं बचा था। हमारे लिए दिन में एक बार भोजन करना भी मुश्किल हो गया था। कुछ दिनों तक मैं रिठाला के एक औद्योगिक क्षेत्र में कचरे के ढेरों और गलियों में कबाड़ खोजने जाती थी, जिसे बेचा जा सके। लेकिन पिछले कुछ महीनों में कबाड़ की कीमत भी कम हो गई है और इन दिनों कबाड़ को खोजना भी ज्यादा मुश्किल हो गया है। लॉकडाउन से पहले जहां मैं 35-40 रुपये प्रति किलोग्राम में कबाड़ बेचती थी, लॉकडाउन में दाम घटकर 10 रुपये प्रति किलोग्राम रह गया है।"

उपरोक्त शब्द हैं, 29 वर्षीय लुतफुन निशा के, जो उत्तर-पश्चिम दिल्ली में कचरा इकट्ठा करने का काम करती है। यह ऐसा इलाका है जहां राष्ट्रीय राजधानी की लगभग 20% आबादी रहती है। इन्हीं में से एक है निशा, जो अपने माता-पिता व आठ साल के बेटे के साथ 90 वर्ग फुट की एक झुग्गी में रहती हैं। दिसंबर 2020 की बात है। निशा ने इंडियास्पेंड को फोन पर बताया कि हमें पिछले वर्ष बमुश्किल भोजन मिला था। पहले वह हर महीने कुछ हजार रूपये तक कमा लेती थी और किसी तरह गुजारा चल जाता था, लेकिन अब एक महीने में आधा किलो चावल प्रति व्यक्ति से घटकर चौथाई किलो पर आ गया है। लॉकडाउन के दौरान एक वक्त भी पेट भरकर खाना नहीं मिला। यूएन वूमेन की सितंबर 2020 की एक रिपोर्ट के अनुसार, कोविड-19 महामारी के पहले महीने में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं की आमदनी में 60% तक की कमी हुई थी। वैश्विक स्तर पर असंगठित अर्थव्यवस्था में शामिल लगभग 74 करोड़ महिलाओं में से लुतफुन निशा भी एक हैं।

भारत की राजधानी और देश के सर्वाधिक आबादी वाले राज्य दिल्ली में करीब 97.5% शहरी आबादी निवास करती है। जहां मई से अगस्त 2020 के बीच अनलॉक के पहले तीन चरणों के दौरान श्रम बल भागीदारी दर (एलएफपीआर) 33% के साथ सबसे कम और बेरोज़गारी दर (23.3%) चौथे स्थान पर सबसे अधिक रही थी। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकनॉमी (सीएमआईई) के आंकड़ों में बताया गया। एलएफपीआर भारत में काम करने वाले सभी उम्र के लोगों का अनुपात है जिनके पास या तो रोज़गार है या नौकरी की तलाश में हैं। बेरोज़गारी दर, श्रम बल में उन लोगों का अनुपात है जिनके पास नौकरी नहीं है। सीएमआईई के आंकड़ों के अनुसार, लैंगिक आधार पर दिल्ली में पुरुषों की 57% एलएफपीआर की तुलना में महिला एलएफपीआर 5.5% है, जबकि पुरुषों की 21% की बेरोज़गारी दर की तुलना में महिलाओं के लिए यह आंकड़ा 47% का है।

पीएलएफएस, 2018-19 के आंकड़ों पर गौर करें तो तब भारत की एलएफपीआर 50.2% थी। ऐसा लगता है कि महामारी की वजह से बेरोज़गारी और बढ़ गई। सीएमआईई के अनुसार मई से अगस्त 2020 के बीच एलएफपीआर घटकर 40.2% रह गई। महिलाओं की श्रम भागीदारी दर 9.3% थी और इसकी तुलना में पुरुषों के लिए यह आंकड़ा 67.4% का था। शहरों में महिलाओं की बेरोज़गारी दर 21.9% रही और इसकी तुलना में शहरों में पुरुषों के लिए यह दर 11.7% की थी।

दुनिया भर में और भारत में भी यह बात किसी से छिपी नहीं है कि महिलाओं को बेहतर नौकरियाँ कम ही दी जाती हैं और नौकरियों जैसे ही कम होती हैं उन्हें ही सबसे पहले बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। "दिल्ली में नौकरियाँ खोजने वाले लोगों (पहले के निवासी और शहर में नए आने वाले दोनों) और नौकरियों की कुल उपलब्धता के बीच गहरी खाई है। पहले से चली आ रही आर्थिक मंदी और अब महामारी की वजह से स्थिति बहुत ही खराब हुई है। आने वाले वक्त में इस बात की आशंका प्रबल है कि इसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा महिलाओं को ही भुगतना होगा", ऐसी विकास अर्थ-शास्त्री जयंती घोष का कहना है।

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इस रिपोर्ट में हमने राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली जिसे एक विश्व-स्तरीय शहर कह सकते हैं, में महिला कर्मियों की स्थिति की समीक्षा की है जहां रोज़गार की दर 1981 से ही लगभग स्थिर रही हैं। महिलाओं की कामकाज में भागीदारी लंबे समय से कम दिख रही है, लेकिन महामारी ने तो बची-खुची चीजें भी लगभग खत्म सी कर दी है। निश्चित रूप से दिल्ली में असंगठित क्षेत्र के कर्मियों को बड़ा नुकसान हुआ है और बहुत सी महिलाओं ने अपनी नौकरी या कामकाज गँवाना है। संगठित क्षेत्र में भी महिलाओं ने काफी मुश्किलों का सामना किया है जिनमें वेतन कटौती से लेकर छटनी तक शामिल हैं। बिना भुगतान वाले घरेलू कार्य का बोझ बढ़ने से संकट और बढ़ा है। "दिल्ली के संदर्भ में बात करें तो नौकरी पर जाने के लिए यात्रा में अधिक समय लगना, कार्य के घंटे और सुरक्षा जैसे मुद्दों से महिलाओं को काफी जूझना पड़ा है जिससे श्रम बल में उनकी हिस्सेदारी में काफी कमी दर्ज की गई है।", पॉपुलेशन फ़ाउंडेशन ऑफ इंडिया की वरिष्ठ मैनेजर, संघमित्रा सिंह का कहती हैं।

एक से अधिक शिफ्ट में कार्य करना बड़ी चुनौती

दिल्ली के ओखला औद्योगिक क्षेत्र में रहने वाली 38 साल की दुर्गा देवी नेहरू प्लेस और ग्रेटर कैलाश में तीन घरों में घरेलू कार्य करती हैं। लॉकडाउन की घोषणा होने के दिन ही उसे तीनों घरों के मालिकों ने काम पर आने से मना कर दिया। अपने दुख-दर्द को बयान करते हुए दुर्गा ने बताया, "मैं एक दशक से अधिक समय से इन घरों में कार्य कर रही थी और मुझे कुल 9,000 रुपये की आमदनी होती थी। अचानक से यह काम खत्म हो गया। लॉकडाउन के दौरान कोई वेतन भी इन लोगों ने मुझे नहीं दिया।"

दुर्गा देवी, जो बिहार के मधुबनी के गाँव से 20 साल पहले आयी थीं, दिल्ली के ओखला में अपने घर पर

तीन बच्चों की मां, दुर्गा बिहार के मधुबनी से 20 साल पहले आई थी। हालांकि पति की सिक्योरिटी गार्ड के तौर पर नौकरी तो बची रही, लेकिन दोबारा काम शुरू होने में छह महीने लग गए। ये दौर बेहद मुश्किल के थे। भोजन तक में "कटौतियां" करनी पड़ी मसलन भोजन में दो के बजाय एक आलू खाना।

"मेरे बच्चों को ऑनलाइन पढ़ाई के लिए एक कंप्यूटर की जरूरत थी। हम इसे नहीं खरीदते तो उसकी पढ़ाई पर असर पड़ता", इंडियास्पेंड से बातचीत में दुर्गा ने बताया। यूएन वूमेन की रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया भर में 72% घरेलू कर्मियों ने कोविड-19 महामारी के कारण अपनी नौकरियां खो दी, जिनमें से 80% महिलाएं है।

नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस के एक सर्वे टाइम यूज इन इंडिया-2019 के अनुसार, महिलाएं घर पर बिना भुगतान वाले घरेलू कार्य में लगभग पांच घंटे लगाती हैं और इसकी तुलना में पुरुष केवल डेढ़ घंटा ही लगाते हैं। दुर्गा के जीवन की ही दिनचर्या ले लें, वह सुबह 5.30 बजे उठ जाती हैं और 8.30 पर कार्य शुरू करने से पहले अपने परिवार के लिए खाना पकाकर और सफाई करके जाती हैं। शाम को घर लौटने के बाद वह रात का भी भोजन बनाती हैं और अपने बच्चों की देखभाल भी करती हैं। दुर्गा बताती हैं, "मुझे कोई छुट्टियाँ नहीं मिलती, वीकेंड पर भी नहीं। जब बच्चों की परीक्षाएं या स्कूल से जुड़े मसले होते हैं तो मुझे एक दिन की छुट्टी लेनी पड़ती है और उसके लिए मेरा पैसा काट लिया जाता है।"

एक और अहम बात यह भी है कि महामारी की वजह से घर में देखभाल की ज़िम्मेदारी काफी बढ़ गई है और इसका बोझ महिलाओं को ही उठाना पड़ता है। "आर्थिक सुरक्षा की कमी के साथ ही देखभाल का बोझ अधिक होने से बहुत सी महिलाओं के रोज़गार के बाजार से पूरी तरह बाहर होने का खतरा मंडराने लगा है। पिछली महामारियों पर गौर करें तो तय मानिए, इससे इन महिलाओं के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को भी नुकसान होगा। दिल्ली में अधिकतर नौकरियाँ सर्विस सेक्टर में हैं। जिनके लिए उच्च शैक्षिक योग्यताओं की जरूरत है, जो समाज के कमजोर तबक़ों से आने वाली महिलाओं के लिए हासिल करना मुश्किल होगा", संघमित्रा सिंह इस बारे में बात करते हुए कहती है। महामारी के दौरान, नौकरियाँ गँवाने की शुरुआत महिलाओं से ही सबसे पहले शुरू हुई थी और इसके साथ ही उन्होंने 'टाइम पोवर्टी' का भी सामना किया। टाइम पोवर्टी का मतलब घर की देखभाल करने में अधिक समय बिताने और घरेलू काम करने से है जिसके लिए उन्हें कोई भुगतान नहीं मिलता है।

"यह एक कड़वा सच है कि महिलाओं के समय को अहमियत नहीं दी जाती है। खाना पकाने और सफाई में तकनीकी चीजों को छोड़ दिया जाए तो, चार दशक पहले जब रसोई में प्रेशर कुकर का बहुत कम इस्तेमाल होता था, क्या तब पुरुष रसोई के काम में महिलाओं की मदद करते थे? जवाब है- न के बराबर। दरअसल भारत में अन्य विकासशील देशों की तुलना में घरेलू कार्य में पुरुषों की भागीदारी सबसे कम है।" रांची यूनिवर्सिटी के अर्थ-शास्त्र विभाग में अतिथि प्रोफेसर जीन ड्रेज का ऐसा मानना है।

जीवन को मुश्किल बनाती नौकरी की अनिश्चितता

मेहर-उन-निसा अपने और अपने पडोसी के बच्चों के साथ दिल्ली के ओखला में अपने घर पर । वो कुछ साल पहले अच्छी ज़िन्दगी की तलाश में बिहार के मोतिहारी से दिल्ली आयी थीं ।

दिल्ली के ओखला स्थित किराये के घर में अपने और पड़ोसी के बच्चों के साथ बैठी मेहर-उन-निसा अपने परिवार के लिए बेहतर जीवन की उम्मीद लेकर कुछ साल पहले ही बिहार के मोतिहारी जिले से राजधानी दिल्ली आई थी। यहां एक गारमेंट फ़ैक्टरी में उन्हें नौकरी मिली। लेकिन इससे वो अपने महीने का खर्चा बहुत मुश्किल से चला पाती हैं।

30 साल की मेहर-उन-निसा इन दिनों एक 'अर्जेंट शिपमेंट' के चलते वस्त्र निर्यात की फ़ैक्टरी में नौकरी करती है। जिसमें उन्हें सुबह 9.30 बजे से शाम के 6.30 बजे तक कपड़ों पर कढ़ाई का काम करना होता है। इसके अलावा दो घंटे का ओवर-टाइम भी उपलब्धता के आधार पर करती हैं। मेहर-उन-निसा का साफ-तौर पर कहना है कि अगर वह नौकरी नहीं करेगी तो उसे भोजन नहीं मिलेगा। पांच लोगों के परिवार में मेहर अकेली कमाने वाली है। पिछले साल मार्च से जून के बीच उसके पास कोई नौकरी नहीं थी और स्वयंसेवकों की ओर से मिलने वाले भोजन पर परिवार का गुजारा होता था। उसके 50 वर्षीय पति को डायबिटीज़ है और घुटने में लगातार दर्द की वजह से वह कोई काम नहीं कर सकें। वह अपने मासिक वेतन 6,000 रुपये और ओवर-टाइम मिलने पर 7,000 रुपये पर ही आश्रित है। जिससे वह अपने तीन बच्चों के भोजन और 2,000 रुपये घर का किराया चुकाती है। देर शाम को घर जाते हुए मेहर ने इंडियास्पेंड को फोन पर बताया, "मैं कोई बचत नहीं कर पाती। आमतौर पर फ़ैक्टरी से मुझे घर छोड़ा जाता है लेकिन कुछ दिनों से यह सुविधा नहीं मिल रही है। मुझे एक ऑटोरिक्शा लेना पड़ता है, जो काफी महँगा पड़ता है।"

वर्ल्ड बैंक ने पिछले वर्ष अक्टूबर में कहा था, महामारी के नकारात्मक आर्थिक प्रभाव से 2020 में 8.8 करोड़ और लोग गरीबी के कुचक्र में फँस जाएंगे। यूएन वूमेन की रिपोर्ट में यह आंकड़ा करीब 9.6 करोड़ बताया गया है, जिनमें 4.7 करोड़ महिलाएं और लड़कियाँ हैं। दक्षिण एशिया में महामारी से पूर्व महिला गरीबी दर 2021 में 10% होने का अनुमान था, लेकिन अब यह 13% पर पहुंच सकता है। 2030 तक दुनिया की गरीब महिलाओं में से 18.6% दक्षिण एशिया में होंगी, यह महामारी के पहले के अनुमानों से 2.8% अधिक है। यूएन वूमेन की मानें तो 2021 में, दुनिया भर में हर 100 पुरुषों पर 118 महिलाएं गरीबी में होंगी। यह अनुपात 2030 तक बढ़कर 121:100 हो सकता है।

आज़ादी के 73 साल बाद भी लिंग भेद बरकरार

आज़ादी के 73 साल बाद भी भारत में महिलाओं के कार्य में सबसे बड़ी बाधा समाज का लैंगिक ढाँचा है। महिलाओं के कार्य को पहचान न मिलना और उनके लिए कार्य स्थितियाँ और श्रम का विभाजन जैसी कमियाँ आज भी बरकरार हैं। "महिलाओं की अधिकतर आर्थिक गतिविधि दिखती नहीं है। सांस्कृतिक रुकावटें राज्यों और क्षेत्र के अनुसार अलग-अलग हैं। उदाहरण के लिए, दक्षिण भारत में स्थिति उत्तर भारत की तुलना में काफी अलग है", ऐसा जयंती घोष महिलाओं की स्थिति के बारे में बात करते हुए कहती हैं।, महिलाओं में एक और बड़ी समस्या शारीरिक सुरक्षा की है जो कार्यस्थल पर जाने और वापस लौटने को लेकर है। "ग्रामीण क्षेत्रों में एक विशेष आयु के बाद लड़कियों को स्कूल नहीं भेजा जाता, क्योंकि उनपर यह रोक होती है कि वे कितनी दूर तक यात्रा कर सकती हैं। यह एक नियंत्रण का मामला भी है कि परिवार की अनुमति के बिना आप यात्रा नहीं कर सकते। आने-जाने पर काफी नियंत्रण रखा जाता है", इस बारे में घोष आगे बताती हैं।

पॉपुलेशन फ़ाउंडेशन ऑफ इंडिया की संघमित्रा सिंह कहती हैं कि इस लिहाज से दिल्ली बहुत अलग नहीं है जहां ट्रांसपोर्ट सिस्टम और आवाजाही की समस्या है। यह कामकाजी महिलाओं के लिए अवसरों में बड़ी रुकावट के तौर पर है। ये रुकावटें ग्रामीण क्षेत्रों या कम आमदनी वाले वर्ग में महिलाओं तक ही सीमित नहीं हैं। हरियाणा में गुरुग्राम की 42 वर्षीय दिव्या शेषन एक मानव संसाधन प्रोफेशनल और एकल मां हैं। लॉकडाउन के दौरान दिव्या की नौकरी चली गई थी। दिव्या बताती हैं, "मैं एक स्टार्टअप में नौकरी करती थी और मुझे समय पर वेतन नहीं मिलता था। महामारी शुरू होने पर वेतन मिलना बंद हो गया था। कुछ समय बाद एक अन्य नौकरी मिली लेकिन वेतन 40% घट गया था। मेरे पास 15 वर्ष का अनुभव है और मुझसे पहला प्रश्न यह पूछा गया कि क्या अपनी आयु और एक बच्चे को देखते हुए ठीक से नौकरी कर सकेंगी। वे ऐसी स्थिति में एक पुरुष से कभी यह सवाल नहीं पूछते।"

लॉकडाउन में घर से कार्य करने के दौरान, दिव्या से पूछा गया था कि खाना, सफाई और उनके बेटे की पढ़ाई का ध्यान कौन रखेगा। दिव्या ने कहा, भारत में महिलाओं के कार्य के प्रत्येक कदम पर रुकावटें हैं, जिसमें जातिवाद भी शामिल है। इसके साथ ही एक गलत धारणा यह भी है कि विकल्प मिलने पर कंपनियां एकल मां की बजाय एकल महिला को प्राथमिकता देती हैं। जयंती घोष बताती हैं, दोहरे मापदंड के ये उदाहरण एक बड़ी रुकावट हैं और इन्हें सामने लाना बहुत जरूरी है। इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि कोविड-19 के दौरान मध्यम वर्ग के लोगों का उनके घरेलू सहायकों के साथ व्यवहार कैसा रहा। महामारी के सबसे बुरे दौर में, इन सहायकों को वेतन नहीं दिया गया और उन्हें घर में आने की अनुमति भी नहीं थी। इस परिस्थिति में घर की महिलाओं ने भी उन्हें संदेह की नज़रों से देखा था।

भारतीय समाज को कामकाजी महिलाओं के प्रति नज़रिया बदलने की जरूरत है। जीवन की बुनियादी सुविधाओं से जुड़े क्षेत्रों में सिंगल वूमन को काफी मुश्किलातों का सामना करना पड़ता है। मसलन, चाहे वो सरकारी विभाग के अधिकारी हों या फिर बैंकों से जुड़े मसले महिलाओं की खुद की पहचान को अभी भी अनदेखा किया जाता है, ऐसा दिव्या का मानना है। एक सरकारी दफ्तर में मेरे पूर्व पति का नाम मेरे बेटे के एक फॉर्म में भरने को कहा गया वो भी स्वर्गीय लगाकर, जबकि वो जिंदा हैं। इसी तरह बैंक के लोन अधिकारी मेरे खुद के अपार्टमेंट के कोलेटरेल सिक्योरिटी को दरकिनार कर बैकअप आय को लेकर प्रताड़ित करने की कोशिश की। मुझे एक सलाहकार ने सलाह भी दी कि नौकरी पाने से पहले मुझे एक ग्रूमिंग सेशन की सख्त जरूरत है। यहां मेरा सवाल यही है कि क्या एच.आर. के पद को पाने के लिए मुझे इंटरव्यू में आकर्षक दिखना जरूरी है? बात यहीं खत्म नहीं होती है। हमारे पड़ोसी ने एक कैमरा लगा रखा है सिर्फ ये देखने के लिए कि मेरे घर कौन आता-जाता है। बहरहाल, कामकाजी महिलाओं और खासतौर से सिंगल वूमन के लिए अभी भी दिल्ली जैसे महानगरों में नौकरी करना और अपने तरीके से जीने की आज़ादी नहीं है, अपने अनुभवों को साझा करते हुए दिव्या आगे बताती है।

(यह खबर इंडियास्पेंड में प्रकाशित की गई खबर का हिंदी अनुवाद है।)

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