पंजाब के किसानों के लिए रासायनिक खेती छोड़ना क्यों कठिन है?

पंजाब में रासायनिक खेती के लिए उर्वरकों, कीटनाशकों और बड़ी मशीनरी का सबसे अधिक उपयोग होता है, जिससे किसानों का जैविक और प्राकृतिक खेती में परिवर्तन करना मुश्किल हो जाता है

Update: 2023-04-03 06:07 GMT

शेर सिंह जालंधर जिले के मीरपुर गांव में अपने खेत में। वह एक जैविक किसान हैं लेकिन रसायनों का उपयोग करने वाली खेती की तुलना में उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। अगस्त 2022 में ली गई तस्वीर

चंडीगढ़: पंजाब के पश्चिमी फिरोजपुर जिले के सोहनगढ़ रट्टेवाला गांव के 63 वर्षीय अशोक कुमार ने 2012 में अपने तीन एकड़ खेत में जैविक खेती शुरू की थी। उन्होंने ऐसा अच्छे स्वास्थ्य और स्वच्छ पर्यावरण के लिए किया था। वह अपने परिवार के लिए भोजन तो उगाते ही थे, साथ ही में जैविक उत्पाद चाहने वाले लोगों के लिए बिक्री भी करते थे। 2016 तक उन्होंने अपने पूरे 16 एकड़ खेत में रसायन मुक्त फल, सब्जी, अनाज और तिलहन उगाने का फैसला किया, लेकिन उन्हें अपेक्षाकृत उपज नहीं मिला।

उन्होंने इंडियास्पेंड को बताया, "मैंने निकट के मुक्तसर शहर में छह अन्य जैविक किसानों के साथ एक दुकान खोली। हम अपनी उपज को जालंधर के एक साप्ताहिक जैविक बाजार में भी ले गए। लेकिन ऐसा करने के बावजूद हमारी बिक्री में वृद्धि नहीं हुई। ऊपर से बहुत प्रयास, समय और लागत लगने के बावजूद हमारा नुकसान ही हुआ, ग्राहक मिलते ही नहीं थे।"

उन्होंने कहा, "हमें अपनी दुकान बंद करनी पड़ी और मैंने अपने परिवार की खपत के लिए फिर से सिर्फ तीन एकड़ खेत में ही जैविक खेती को सीमित कर दिया। बाकी जमीन को मैंने एक अन्य किसान को पट्टे पर दे दी, जो रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग करता है।"

हालांकि अशोक की कहानी उन सभी किसानों की नहीं है, जो पंजाब में रसायन मुक्त जैविक खेती करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनमें से कई उनकी इस स्थिति से अपने आपको जोड़ रहे होंगे। रसायन मुक्त प्राकृतिक खेती के लिए उनका जुनून राज्य की पुरानी कृषि संस्कृति के विपरीत है। भारत में 'जैविक' और 'प्राकृतिक' खेती शब्दों का अदल-बदलकर उपयोग किया जाता है, जिसमें किसान कई अलग-अलग मिश्रित विधियों का उपयोग करते हैं।

अगर सख्ती से परिभाषित किया जाए तो प्राकृतिक खेती में उर्वरकों को खरीदने की बजाय खेत और स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र से प्राप्त जैव-इनपुट से तैयार किया जाता है। शास्त्रीय तौर पर जैविक खेती को उत्पाद और विपणन के दृष्टिकोण से अधिक परिभाषित किया जाता है, लेकिन धरातल पर इन शब्दों का प्रयोग अधिक लचीले ढंग से होता है।

यह जैविक खेती पर चल रही हमारी सीरीज़ की चौथी रिपोर्ट है और इसमें इस बात की पड़ताल की गई है कि भारत का खाद्य कटोरा माने जाने वाले पंजाब में किसानों के लिए रसायन मुक्त खेती की ओर बढ़ना क्यों कठिन है, जबकि अभी केंद्र सरकार द्वारा प्राकृतिक खेती को नीतिगत करके इस पर और खासा जोर दिया जा रहा है।

जैविक उत्पाद की दुकान स्थापित करने में अशोक के साझेदार रहे किसान कमलजीत हेयर ने इंडियास्पेंड को बताया, "पंजाब का कृषि पारिस्थितिकी तंत्र रासायनिक खेती के आसपास बनाया गया है क्योंकि पंजाब हरित क्रांति के दौरान अग्रणी राज्य था। इस मॉडल को राज्य और बाजार दोनों द्वारा समर्थित किया जाता है। यह मॉडल गेहूं और चावल के एक निश्चित उत्पादन को सुनिश्चित करता है, इसलिए यहां रासायनिक खेती करना बहुत आसान और लाभकारी है। इसके विपरीत जैविक खेती में रासायनिक खेती की तुलना में कम से कम 10 गुना अधिक प्रयास की आवश्यकता होती है क्योंकि यह श्रमसाध्य कार्य है और इसमें लाभ बहुत मामूली होता है।"

पूर्वोत्तर राज्यों को छोड़ दें तो पंजाब सबसे कम जैविक खेती करने वाले भारतीय राज्यों में से एक है।


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पंजाब को रासायनिक खेती से दूर होने की क्यों जरूरत है?

1960-70 के दशक के 'हरित क्रांति' के दौरान गेहूं और चावल के उत्पादन को बढ़ाने के लिए भारत ने नई संकर बीजों का आयात किया था, जिसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत रियायती दरों पर बेचा जाता था।

नदियों, उपजाऊ मिट्टी और अधिक पानी की उपलब्धता के कारण पंजाब को नई किस्म की बीजों को आजमाने के लिए प्रमुख क्षेत्र के रूप में चुना गया। नए बीजों को अतिरिक्त उपज देने के लिए रासायनिक उर्वरकों और पानी की पर्याप्त खुराक की आवश्यकता थी। भारत सरकार ने नए बीजों में सुधार के लिए अनुसंधान के अलावा उन पर सब्सिडी देना भी शुरू कर दिया और उसे लोगों तक पहुंचाया। पीडीएस के लिए होने वाली सुनिश्चित खरीद ने किसानों को इस क्रांति में भाग लेने के लिए और उत्साहित किया।

आज लगभग 60 वर्षों की सघन खेती के बाद पंजाब आर्थिक रूप से विकसित तो हुआ है, लेकिन राज्य पर एक कृषि-पारिस्थितिकी संकट भी उठ खड़ा हुआ है। कृषि-रसायनों का अत्यधिक उपयोग पर्यावरण को जहरीला बनाता है। इसके अलावा गेहूं-चावल फसल चक्र पर उच्च निर्भरता जैव विविधता और मिट्टी के स्वास्थ्य को प्रभावित करती है। महंगी मशीनरी से खेती तो आसान होती है लेकिन इससे किसान ऋणी भी हो जाते हैं।

हालांकि पंजाब में औसत कृषि आय देश में सबसे अधिक बनी हुई है, लेकिन यह धीरे-धीरे कम भी हो रही है। राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन द्वारा ग्रामीण भारत के कृषि परिवारों, भूमि और पशुधन की स्थिति पर किए गए 2019 के सर्वेक्षण के अनुसार, राज्य में 2013-14 की तुलना में इसकी वृद्धि दर धीमी हो गई है। हालांकि जिस तरह से कृषि की जा रही है, उसमें अभी तक कोई व्यवधान नहीं आया है।

पंजाब में देश के फसली क्षेत्र का 4% हिस्सा होता है, लेकिन यहां पर रासायनिक कीटनाशकों का 8% उपयोग किया जाता है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट द्वारा किए गए 2005 के एक अध्ययन के आधार पर 2016 में संसदीय स्थायी समिति द्वारा एक कृषि रिपोर्ट पेश किया गया, जिसमें पंजाब के ग्रामीणों के खून के सैंपल में 6 से 13 कीटनाशकों के अवशेष पाए गए। भारत में रासायनिक उर्वरक खपत दर का राष्ट्रीय औसत 128 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है, जो पंजाब में बढ़कर सर्वाधिक 213 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो जाता है।

इसके अलावा उर्वरकों के उपयोग में भी काफी असंतुलन है। कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम के 4:2:1 के वांछनीय अनुपात के मुकाबले पंजाब का अनुपात 31:8:1 जितना अधिक है। रिपोर्ट के अनुसार, "सूक्ष्म पोषक उर्वरकों का अपर्याप्त उपयोग कई क्षेत्रों की मिट्टी में जरूरी तत्वों की कमी को बढ़ा रहा है। इस मिट्टी पर उगाई जाने वाली फसलों में आमतौर पर सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी होती है। पोषक तत्वों की कमी से मनुष्यों और जानवरों में कुपोषण और स्वास्थ्य संबंधी विकार पैदा होते हैं।"

ग्रीनपीस के 2009 के एक अध्य्यन के अनुसार, “पंजाब में नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग से राज्य के भूजल में नाइट्रेट का स्तर भी बढ़ रहा है, जो कैंसर और ब्लू बेबी सिंड्रोम (खून में हीमोग्लोबिन द्वारा ऑक्सीजन ले जाने की क्षमता कम होना) जैसी बीमारियों का कारण बनता है।” अध्ययन में यह भी पाया गया कि पंजाब के तीन जिलों के सभी सैंपल कुओं में से लगभग 20 फीसदी में नाइट्रेट का स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा अनुशंसित सुरक्षा सीमा से अधिक था। यह नाइट्रेट प्रदूषण स्पष्ट रूप से सिंथेटिक नाइट्रोजन उर्वरकों के उपयोग से जुड़ा हुआ है क्योंकि अध्ययन में उन खेतों में उच्च नाइट्रेट स्तर पाए गए जिनमें उर्वरकों का अधिक उपयोग किया गया था।

2018 के ‘पंजाब राज्य किसान नीति’ के मसौदे में कृषि रसायनों के उपयोग में 10% की वार्षिक कमी का प्रस्ताव किया गया था।

पंजाब के फिरोजपुर जिले के सोहनगढ़ रट्टेवाला गांव में कमलजीत हेयर अपने फार्म पर (तस्वीर- 3 अगस्त, 2022)

रसायन मुक्त खेती की ओर बढ़ने में आने वाली समस्याएं

भारत में जैविक खेती के तहत प्रमाणित क्षेत्र 2011-12 के लगभग 345,000 हेक्टेयर से बढ़कर 2020-21 में 2.66 मिलियन हेक्टेयर हो गया। हालांकि यह आसान नहीं था। कृषिविदों ने हमें बताया कि फसल की उपज में कमी, खरपतवारों का प्रकोप और खेतिहर मजदूरों की कमी जैविक खेती में आने वाली प्रमुख समस्याएं हैं।

पंजाब के फरीदकोट जिले के जैतो गांव में जैविक खेती के लिए अभियान चलाने वाले गैर लाभकारी संगठन खेती विरासत मिशन (केवीएम) के कार्यकारी निदेशक उमेंद्र दत्त ने इंडियास्पेंड को बताया, "स्वास्थ्य और पर्यावरण संबंधी कई लाभों के बावजूद जैविक किसानों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। दशकों से रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल करने वाली भूमि को अपनी उर्वरता को ठीक करने के लिए कम से कम तीन साल की आवश्यकता होती है।"

"इसके अलावा जैविक खेती में शारीरिक श्रम और मेहनत की भी अधिक आवश्यकता होती है। बीजों के उपचार से लेकर खाद निर्माण, फसल के पैटर्न का चयन, नियमित निगरानी, ​​डी-वीडिंग, मल्चिंग, कंपोस्टिंग और सावधानी से कटाई जैसी गतिविधियां रसायन मुक्त खेती के लिए बुनियादी आवश्यकताओं में शामिल है। इस श्रम-गहन प्रक्रिया के लिए खेतिहर मजदूरों को भी ढूंढ़ना बहुत मुश्किल काम है," वह आगे कहते हैं।

इसके अलावा जैविक खेती के लिए कृषि मशीनें भी आसानी से उपलब्ध नहीं है क्योंकि जैविक खेती में आमतौर पर मिश्रित फसलें उगाई जाती हैं, जबकि अधिकांश कृषि मशीनें एक फसल वाले गेहूं और चावल के खेतों के लिए डिज़ाइन की जाती हैं।

कपूरथला और पटियाला जिलों में 11 एकड़ में जैविक खेती करने वाले पूर्व आईटी इंजीनियर और अब किसान राहुल शर्मा कहते हैं, "मैं ऐसे कंबाइन हार्वेस्टर को किराए पर नहीं ले सकता, जिससे रासायनिक खेत में भी काम होता हो क्योंकि उन खेतों से अनाज मेरे खेतों में प्रवेश कर सकता है, जो मेरी बीजों की शुद्धता को प्रभावित करेगा। इसका मतलब यह भी है कि छोटी और हाथ से चलने वाली मशीनों के लिए मुझे किराए पर मजदूरों को लाना होगा क्योंकि बिजली से चलने वाली मशीनें या तो उपलब्ध नहीं हैं या उन पर सब्सिडी नहीं मिलता है।"

चंडीगढ़ के एक जैविक खेत में निराई-गुड़ाई और मिट्टी तैयार करते खेतिहर मजदूर बब्बन (तस्वीर- 13 अगस्त, 2022)

जालंधर जिले के मीरपुर गांव के शेर सिंह को बरसात के मौसम में अपने छह एकड़ खेत में खरपतवार का प्रबंधन करने में मुश्किल होती है। वह बताते हैं, "मैं अपनी सब्जियों की सिंचाई के लिए स्प्रिंकलर का उपयोग करता हूं क्योंकि इससे खरपतवारों को नियंत्रित करने में मदद मिलती है, लेकिन जब बारिश होती है तो संक्रमण कई गुना बढ़ जाता है। रासायनिक खेती करने वाला कोई व्यक्ति बस कुछ रसायन फेंक देता है और उससे काम चला लेता है, जबकि मुझे इसके लिए शारीरिक श्रम करना पड़ता है। जैविक खेती न केवल एक धीमी बल्कि महंगी प्रक्रिया भी है। यदि सरकार मनरेगा [ग्रामीण नौकरी गारंटी कार्यक्रम] के तहत श्रमिकों को जैविक खेती में सहायता करने की अनुमति देती है तो श्रमिकों की इस कमी को पूरा किया जा सकता है। हम सरकार को इन श्रमिकों के दैनिक वेतन का एक हिस्सा भुगतान कर सकते हैं।"

पंजाब में कुल श्रमिकों में से केवल 35% खेती का काम करते हैं, जबकि राष्ट्रीय औसत 54.6% है। इसका एक कारण राज्य में मशीनों का अत्यधिक प्रयोग है। पंजाब में लगभग 450,000 ट्रैक्टर हैं। राष्ट्रीय औसत प्रति 62 हेक्टेयर की तुलना में राज्य में प्रत्येक 9 हेक्टेयर खेती योग्य भूमि के लिए एक ट्रैक्टर है। 2000 और 2019 के बीच पंजाब में हार्वेस्टर की संख्या लगभग तीन गुना बढ़कर 800,000 हो गई। पंजाब एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी (पीएयू), लुधियाना द्वारा 2014 के एक अध्ययन के अनुसार बड़ी और महंगी मशीनरी में निवेश उच्च ऋणग्रस्तता का कारण बना है।

एसएएस 2019 के सर्वेक्षण के अनुसार पंजाब के कर्जदार किसान परिवारों की संख्या भारत में सर्वाधिक है। राज्य में लगभग 54% कृषक परिवार कर्जदार हैं, जिनका औसत कर्ज 2.03 लाख रुपये है। पीएयू के अध्ययन में पाया गया था कि किसानों द्वारा लिए गए कुल कर्ज का 52 फीसदी हिस्सा कृषि रसायन और कृषि उपकरणों के लिए लिया जाता है। छोटे किसानों के लिए यह आंकड़ा 68% तक बढ़ जाता है। इससे किसानों की स्वास्थ्य देखभाल और सामाजिक समारोह जैसे अन्य उद्देश्यों के लिए उधार लेने की क्षमता कम होती है।

पंजाब को एकल फसल से आगे बढ़ने की क्यों ज़रूरत है?

'हरित क्रांति' के कारण पंजाब में ‘गेहूं-चावल फसल चक्र’ को अपनाया गया। चावल न तो पंजाब के आहार का मुख्य हिस्सा है और न ही इस क्षेत्र की कृषि जलवायु धान उत्पादन के अनुकूल है। इंडियास्पेंड ने जून 2019 की अपनी एक रिपोर्ट में बताया कि भविष्य में अगर इस क्षेत्र में जल संकट को रोकना है तो पंजाब और हरियाणा के चावल उगाने वाले क्षेत्रों में गेहूं की खेती को प्रोत्साहित करना चाहिए। पश्चिम बंगाल के 2,169 लीटर की तुलना में पंजाब में एक किलोग्राम चावल उपजाने के लिए लगभग 4,118 लीटर पानी की आवश्यकता होती है।

1960-61 में राज्य में कुल फसली क्षेत्र के सिर्फ़ 4.8% हिस्से पर चावल की खेती होती थी। पंजाब आर्थिक सर्वेक्षण 2020-21 में उद्धृत पंजाब कृषि और किसान कल्याण निदेशालय के आंकड़ों के अनुसार 2019-20 तक यह आंकड़ा लगभग 10 गुना बढ़कर 40.1% हो गया। इसी अवधि में गेहूं का क्षेत्रफल 27.3% से बढ़कर 45% हुआ। इस प्रकार पंजाब के फसली क्षेत्र के कुल 85% हिस्से पर चावल और गेहूं की खेती होती है। सर्वेक्षण में कहा गया है कि एकल फसल उत्पादन के कारण राज्य में मक्का, बाजरा, जौ, दलहन और तिलहन की फसलें प्रभावित हुईं।

पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर रमेश अरोड़ा ने बताया, "गेहूं-चावल फसल चक्र के कारण न केवल भूजल की कमी होती है बल्कि रोग और कीट भी आसानी से फैल सकते हैं। मिश्रित फसलों के उत्पादन से इसे रोका जा सकता है। किसानों को अपने खेतों में हर दो-तीन साल में फसलों को बदलना चाहिए ताकि भूमि पर कीट और रोगजनकों को बनने से रोका जा सके। इसके अलावा अधिक से अधिक पेड़ लगाएं, जहां पर पक्षी अपना घोसला बना सकें। गौरतलब है कि पक्षी, कीटों के खिलाफ सबसे प्रभावी जैव नियंत्रक होते हैं। कीटनाशक हमारा अंतिम विकल्प होना चाहिए, लेकिन दुख की बात है कि यह हमारी पहली प्राथमिकता बन गई है।"

बिना किसी फसल चक्र के लगातार खेती करने से भी मिट्टी के पोषक तत्व कम हो जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप फसलें, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों पर अत्यधिक निर्भर हो जाती हैं। चंडीगढ़ की एक जैविक बाजार की संयोजक और ख़ुद एक जैविक किसान सीमा जॉली इंडियास्पेंड को बताती हैं, "जैविक किसान मिट्टी के स्वास्थ्य के महत्व को जानते हैं और पैदावार को बनाए रखने के लिए फसलों को बदलते रहते हैं। वे कीट नियंत्रण के प्राकृतिक तरीकों का उपयोग करते हैं और नाइट्रोजन रहित फसलों को उगाकर नियमित रूप से मिट्टी को उर्वरित करते हैं।"

राज्य सरकार ‘फसल विविधीकरण’ को बढ़ावा दे रही है, किसानों को चावल के अलावा अन्य फसलें उगाने के लिए कह रही है, लेकिन इसमें बहुत कम ही सफलता मिल पाई है। 2014-19 के दौरान फसल विविधीकरण कार्यक्रम पर 274 करोड़ रुपये खर्च करने के बाद भी पंजाब में चावल के बुवाई क्षेत्र में 7.18% की वृद्धि हुई।

2022 में पंजाब सरकार ने कथित तौर पर किसानों से गेहूं की कटाई और चावल उगाने के बीच तीसरी फसल के रूप में मूंग (हरा चना) उगाने के लिए कहा। सरकार ने वादा किया था कि अगर मूंग की फसल के बाद बासमती या पीआर 126 किस्म के चावल उगाए जाते हैं, तो फसल को एमएसपी पर खरीदा जाएगा। इन दोनों फसलों को बढ़ने में कम समय लगता है और लंबी अवधि के चावल की तुलना में कम पानी की आवश्यकता होती है। इस घोषणा के कारण मूंग की खेती का क्षेत्रफल पिछले सीजन की तुलना में 77% बढ़ गया।

यह घोषणा मुख्य रूप से किसानों की आय बढ़ाने और दालों के आयात पर राज्य की निर्भरता को कम करने के लिए किया गया था, हालांकि इससे चावल की फसल में उर्वरकों का उपयोग भी कम होगा। मूंग की फसल मिट्टी में नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करती है, जिससे सिंथेटिक नाइट्रोजन उर्वरकों की आवश्यकता कम हो जाती है। हालांकि मूंग की फसल की कटाई में खरपतवारनाशक रसायन का बड़े पैमाने पर उपयोग देखा गया है।

भारतीय किसान यूनियन (दकौंदा) के महासचिव पटियाला शहर के जगमोहन सिंह ने 2020-21 के तीन कृषि बिलों के खिलाफ किसान आंदोलन में भाग लिया था। जगमोहन सिंह का मानना है कि फसल विविधीकरण स्थायी कृषि की ओर पहला कदम हो सकता है। उन्होंने इंडियास्पेंड को बताया, "वर्तमान में अधिकांश कृषि रसायनों का उपयोग गेहूं और चावल की फसल में किया जाता है। एक बार जब सरकार वैकल्पिक फसलों को बढ़ावा देना शुरू कर देगी, तो रसायनों का उपयोग अपने आप कम हो जाएगा। हालांकि जिन फसलों को गेहूं और चावल के विकल्प के रूप में पेश किया जाता है, उन पर इन दोनों फसलों के समान आर्थिक लाभ भी मिलना चाहिए।"

जैविक किसानों को लगता है कि राज्य सरकार को बाजरे की खेती पर जोर देने की जरूरत है। आईटी इंजीनियर से किसान बने राहुल शर्मा ने कहा, "बाजरा से बहुत अधिक लाभ मिल सकता है क्योंकि बाजरे को प्रोटीन के समृद्ध स्रोत के रूप में जाना जाता है, इसके खेती में कम सिंचाई की आवश्यकता होती है और ये बिना कृषि रसायनों के उपयोग से ही फलते हैं और कोई अपशिष्ट भी नहीं छोड़ते। केवल चावल के 10% खेतों को बाजरा में स्थानांतरित करने से एक बड़ा बदलाव आ सकता है। मध्याह्न भोजन योजना के तहत बच्चों को भोजन में बाजरा दिया जा सकता है। इसलिए एक कदम से आप जैव विविधता के संरक्षण के अलावा कुपोषण, भूजल की कमी, खाद्य विषाक्तता और पुआल जलाने की समस्याओं को हल कर सकते हैं।"

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सरकारी सहयोग की जरूरत

किसानों के सामने आने वाली सबसे बड़ी समस्याओं मे से एक ये है कि जब वे जैविक खेती की तरफ बढ़ते हैं तो फसल की उपज में गिरावट आती है। किसान शेर सिंह ने बताया, "मेरा सुझाव है कि नए किसान छोटे भूखंडों से शुरुआत करें। यदि वे एक बार में रासायनिक उर्वरकों का उपयोग करना बंद कर देते हैं तो उपज का बड़ा नुकसान होगा, जिससे उन्हें निराशा होगी। हरी खाद और जैव-उर्वरकों के उपयोग के कुछ वर्षों के बाद मिट्टी अपनी प्राकृतिक उर्वरता को पुनः प्राप्त कर लेती है और उत्पादन बढ़ जाता है।"

सामाजिक कार्यकर्ता दत्त को लगता है कि किसानों को इसके लिए वित्तीय सहायता की जरूरत है। उन्होंने बताया, "निश्चित मूल्य और वैकल्पिक फसलों की खरीद के अलावा किसानों को एक पैकेज की आवश्यकता होती है। यदि सरकारों ने उन्हें हरित क्रांति के दौरान रासायनिक खेती के लिए प्रेरित किया, तो यह उनका कर्तव्य है कि वे जैविक किसानों का समर्थन करके उन्हें सहयोग करें। जो सब्सिडी रासायनिक खेती में उर्वरकों, कृषि मशीनों और अनुसंधानों पर मिलती है, उसे जैविक (और प्राकृतिक) खेती में भी मिलना चाहिए।”

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 21 मई, 2022 को कहा था कि 2020-21 में उर्वरक सब्सिडी 2.15 लाख करोड़ रुपये तक पहुंचने की उम्मीद है, जो कि 2020-21 से 64% अधिक है।

एक पैकेज को पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं से भी जोड़ा जा सकता है। किसान राहुल शर्मा ने कहा, "सरकार वर्तमान में एक ऐसी प्रणाली का समर्थन कर रही है जो सभी के लिए हानिकारक है। दूसरी ओर जैविक खेती में कम पानी और बिजली का उपयोग होता है। इसमें कोई रासायनिक प्रदूषण नहीं होता है और ना ही कोई पुआल जलता है। यह जैव विविधता को बढ़ावा देती है और मिट्टी में अधिक कार्बन जमा करते हुए अधिक पोषण प्रदान करती है। तो जैविक खेती पर सब्सिडी जैसे प्रोत्साहन गरीब और मध्यम वर्ग के परिवारों तक जैविक भोजन के पहुंच को बढ़ाएंगे।"

खाद्य और व्यापार नीति विशेषज्ञ देविंदर शर्मा को भी लगता है कि पंजाब को नई फसल किस्मों को पैदा करने की जरूरत है। उन्होंने इंडियास्पेंड को बताया, "अगर पंजाब हरित क्रांति का केंद्र हो सकता है तो यह सदाबहार क्रांति का भी केंद्र भी हो सकता है, लेकिन इसके लिए नीतिगत बदलाव और शोध की आवश्यकता होगी।"

शर्मा ने कहा कि मौजूदा बुनियादी ढांचे और विपणन नेटवर्क को जैविक खेती की ओर उन्मुख करने की जरूरत है। उन्होंने कहा, “सरकार आंध्र प्रदेश से सीख सकती है, जहां लगभग 700,000 किसान राज्य सरकार के समर्थन से जैविक खेती में स्थानांतरित हो गए हैं।”

हमने पंजाब के कृषि निदेशक गुरविंदर सिंह से इस संबंध में टिप्पणी मांगी कि राज्य सरकार कैसे जैविक खेती का समर्थन कर रहा है। उन्होंने हमें पंजाब एग्रो इंडस्ट्रीज कॉर्पोरेशन लिमिटेड से संपर्क करने के लिए कहा, जो पंजाब में जैविक खेती के लिए नोडल सरकारी एजेंसी है।

पंजाब एग्रो के प्रबंधक तरुण सेन ने कहा कि वे जैविक खेती पर प्रशिक्षण और जागरूकता शिविरों के माध्यम से किसानों को प्रेरित करते हैं। उनके पास जैविक उत्पादों के विपणन के लिए एक वितरण चैनल भी है।

पंजाब एग्रो की सहायक कंपनी पंजाब सरकार पंजाब एग्री एक्सपोर्ट कॉरपोरेशन लिमिटेड (PAGREXCO) के महाप्रबंधक ने एक ईमेल के जवाब में कहा, PAGREXCO के माध्यम से राज्य के जैविक किसानों को संस्थागत समर्थन प्रदान करके जैविक कार्यक्रम को लागू किया जा रहा है। हम जैविक प्रमाणन मानकों के अनुसार जैविक कृषि प्रबंधन और जैविक खेती से जुड़ी आदि कार्यों के लिए किसानों को प्रशिक्षित भी करते हैं।”

PAGREXCO अपने प्रमाणित जैविक किसानों से सीधे लाभकारी कीमतों पर जैविक उत्पाद खरीदता है और घरेलू व विदेशी बाजार के लिए उत्पाद का विपणन करता है। वे किसानों को जैविक उत्पादों के लिए शहरों में सरकारी विपणन यार्ड दिलाने में भी मदद करते हैं। PAGREXCO चंडीगढ़ में एक 'ऑर्गेनिक हट' चला रहा है और उस मॉडल को अन्य शहरों में दोहराया जाएगा, ऐसा महाप्रबंधक ने ईमेल में बताया।

बाजार और उपभोक्ता

चंढीगढ़ के एक गांव में एक जैविक बाजार

पर्याप्त राज्य समर्थन के अभाव में किसानों और संबंधित नागरिकों ने जैविक उत्पादों के विपणन मॉडल को स्वयं से स्थापित करने का प्रयास किया। वे साप्ताहिक जैविक बाजारों का आयोजन करने के लिए एकत्र होते थे, जिसमें किसान अपनी उपज को बिक्री के लिए पंजाब के प्रमुख शहरों में लाते थे। इस मॉडल ने अच्छा काम किया लेकिन महामारी और लॉकडाउन ने पूरे मॉडल को ध्वस्त कर दिया।

शेर सिंह ने कहा, "मैं अपनी उपज जालंधर के एक निजी स्कूल में ले जा रहा था, जहां हर रविवार को जैविक बाजार लगता था। हालांकि लॉकडाउन के बाद बाजार में तेजी नहीं आई और हमें भारी नुकसान भी उठाना पड़ा। हमारी उपज नहीं बिकी। अब मेरे पास केवल 15-20 ग्राहक रह गए हैं, जो पिछले 12 वर्षों से नियमित हैं।"

एक सप्ताहांत में चंडीगढ़ के पास कैम्बवाला गांव में एक फुटबॉल अकादमी में दो घंटे के लिए जैविक किसानों का बाजार आयोजित किया गया था। यहां के आयोजक कम बिक्री के कारण चिंतित थे। आयोजन के समन्वयकों में से एक सीमा जॉली ने कहा, "हमें सिर्फ़ 25 ग्राहक मिल रहे हैं, जो आशाजनक नहीं है। कोविड लॉकडाउन से पहले हमारे पास लगभग 100-150 खरीदार थे। हो सकता है कि लोग अभी ऑनलाइन माध्यम की ओर मुड़े हों और ब्रांडेड ऑर्गेनिक खरीद रहे हों। मुझे लगता है कि इस संबंध में सरकार को कदम उठाने और जैविक किसानों को बाजार प्रदान करने की जरूरत है, जहां उपज बेची जा सके। हम 2015 से इस बाजार को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने की कोशिश कर रहे हैं क्योंकि हमारे पास कोई स्थायी जगह नहीं है।"

साथी जैविक किसानों के साथ खोली गई दुकान में घाटा होने के बाद कमलजीत हेयर ने अब फार्म टूरिज्म की ओर रुख किया है। उनके पास खरगोश, तोते, बत्तख और मुर्गियां हैं। इसके अलावा एक हर्बल उद्यान, फलों के पेड़ और पारंपरिक वास्तुकला से बने कमरे हैं, जो शहर के उन लोगों को आकर्षित करते हैं, जो ग्रामीण जीवन का अनुभव करना चाहते हैं।

हेयर ने कहा, "मैंने सब्जियों का कारोबार भी बंद कर दिया है। सूखा राशन, तेल और अचार के लिए उपज अब खेत से उठाई जाती है, जिससे मुझे परिवहन के पैसे की बचत होती है। खेती अब लाभदायक हो गया है। हालांकि इस साल यह अभी भी पर्याप्त नहीं है और मेरे परिवार का भरण-पोषण नहीं कर सकता है।"

राहुल शर्मा, जिन्होंने चंडीगढ़ और उसके आसपास जैविक ग्राहकों का एक स्थिर आधार बनाया है, अब अपने व्यवसाय को ऑनलाइन करने के इच्छुक हैं। उन्होंने बताया, "कोई भी अभी तक जैविक खेती के कोड को नहीं सुलझा पाया है। मैं प्रयोग करने में सक्षम हूं क्योंकि खेती मेरी आय का मुख्य स्रोत नहीं है। लेकिन एक सामान्य किसान को अपने जैविक उत्पाद ऑनलाइन बेचने के लिए उन्हें एक सुसंगत उत्पादन, प्रसंस्करण और आपूर्ति श्रृंखला स्थापित करने और जीएसटी नंबर प्राप्त करने की आवश्यकता होती है। इसके अलावा इसमें FSSAI से अनुमोदन, पैकेजिंग सामग्री तैयार करना और अन्य प्रक्रियात्मक बाधाओं पर बातचीत करना भी शामिल है। एक बार ऐसा हो जाने के बाद भी वे पाएंगे कि 10 किलो गेहूं के आटे के पैक पर उतना लाभ नहीं है। जो लोग ऐसा करने में सक्षम हैं, उनके पास या तो बैंक बैलेंस है या थोक ऑर्डर हैं।"

सोहनगढ़ रटेवाला गांव के अशोक कुमार अपने सभी रासायनिक कृषि उपकरण बेचन के बाद फिर से रासायनिक खेती में वापस आने की सोच रहे हैं। उन्होंने कहा, "मैंने उन सभी मशीनों को बेच दिया था क्योंकि जैविक खेती में उनका कोई उपयोग नहीं था। धीरे-धीरे उन्हें फिर से खरीद रहा हूं ताकि रासायनिक खेती कर सकूं। मुझे खेती के अलावा और कुछ नहीं आता है, लेकिन इस बार मैं जैविक खेती नहीं करूंगा।"


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