बढ़ती इनफर्टिलिटी के बीच औरत की निजी लड़ाई और समाज

भारत में इनफर्टिलिटी, पीसीओएस और आईवीएफ का दायरा बढ़ता जा रहा है। लेकिन क्या हमारी नीतियाँ, मेडिकल सिस्टम और सामाजिक सोच भी उसी तेज़ी से बदल रहे है?;

Update: 2025-08-04 04:36 GMT

सरकारी पॉलीक्लीनिक में लगा हुआ पोस्टर जो कि हाई रिस्क प्रेगनेंसी को दर्शाता है। 

भोपाल: ज़ेबा (28) जब साल 2018 में पहली बार गर्भवती हुईं तो उन्हें कई बार ब्लीडिंग और पेट में तेज़ दर्द की शिकायत होती रही और वजह नामालूम रही। आख़िरकार ग्वालियर में डॉक्टर को दिखाने पर मालूम हुआ कि उन्हें एक्टोपिक प्रेगनेंसी है। इस वक़्त तक ज़ेबा तीन महीने की प्रेग्नेंट थीं, उन्हें फ़ौरन ऑपरेशन की सलाह दी गयी। कम उम्र की वजह से परिवार चाहता था कि दवाईओं से एबॉर्शन हो जाए, हालाँकि ट्यूब फट जाने के ख़तरे से ये मुमकिन नहीं था और उन्हें ऑपरेशन से ही गुज़रना पड़ा। इसके बाद कई बार उनकी प्रेगनेंसी पॉज़िटिव तो आयी लेकिन गर्भ ज़्यादा दिन नहीं ठहरा। कई जाँचें होने पर भी वजह नहीं पता चली।

एक्टोपिक प्रेग्नेंसी एक संभावित जानलेवा स्थिति है, जो 1–2% गर्भधारण में होती है। ज़्यादातर मामलों में भ्रूण फॉलोपियन ट्यूब में ठहरता है, जबकि क़रीब 10% में यह सर्विक्स, अंडाशय, गर्भाशय की दीवार, फॉलोपियन ट्यूब का इंटरस्टिशियल हिस्सा, पेट या पुराने सी-सेक्शन के निशान में होता है।

दुनिया में हर 6 में से एक इंसान इनफर्टिलिटी से जूझता है, ज़ेबा भी उनमें से एक

डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट ‘इनफर्टिलिटी प्रिवलेंस एस्टिमेट्स 1990-2021 (पृष्ट संख्या 13) के मुताबिक़, दुनिया में हर छह में से एक इंसान अपनी ज़िंदगी के किसी न किसी दौर में इनफर्टिलिटी का सामना कर चुका है। यानी पूरी दुनिया में जीवनकाल में गर्भधारण न हो पाने की दर लगभग 17.5% है (विश्वास स्तर: 15.0% से 20.3% के बीच)। अगर किसी ख़ास अवधि की बात करें, तो गर्भधारण में दिक़्क़त की दर करीब 12.6% है (विश्वास स्तर: 10.7% से 14.6% के बीच)।

इनफर्टिलिटी प्रिवलेंस एस्टिमेट्स 1990-2021

इनफर्टिलिटी या गर्भधारण में परेशानी होना पुरूष या महिला के प्रजनन तंत्र से जुड़ी एक बीमारी होती है। 12 महीने या उससे ज़्यादा वक़्त तक नियमित बिना किसी बचाव के संबंध बनाने के बावजूद अगर कोई कपल गर्भधारण नहीं कर पाता है, तो उसे इंफर्टिलिटी माना जाता है। महिला और पुरूष में कभी-कभी अज्ञात कारण भी इसकी वजह हो सकते हैं। कुछ मामलों में इनफर्टिलिटी को रोका भी जा सकता है। आमतौर पर इसका इलाज इन-विट्रो फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ) और दूसरी मेडिकल तकनीकों से किया जाता है।

ज़ेबा कहती हैं कि उन्होंने भोपाल में एक प्राइवेट हॉस्पिटल में दिखाया, जहाँ उनकी और उनके शौहर की जाँचें हुईं। आईयूआई जो कि एक तरह का एआरटी ट्रीटमेंट है– करवाने पर भी सफ़लता नहीं हुई तो हमने थोड़ा ब्रेक लेने का फ़ैसला किया। “दुबारा डॉक्टर के पास जाने पर उन्होंने सीधे आईवीएफ की सलाह दी। मेरा ट्रीटमेंट 2020 में शुरू हुआ और 2023 में मेरी जुड़वाँ बेटियाँ हुईं। वैसे तो कहा जाता है कि आईवीएफ डेढ़ से ढाई लाख में हो जाता है लेकिन मेरे केस में 8-10 लाख की कॉस्ट पड़ी। दवाइयाँ और वजाइना के ज़रिए जो इंजेक्शंस लगते थे, वो एक आम इंसान नहीं अफ़्फोर्ड कर सकता। डॉक्टर कहती थीं कुछ आयरन, कैल्शियम की दवाई सरकारी भी ले सकते हैं लेकिन जब इंसान इतना पैसा खर्च कर रहा होता है तो वो दवाई क्यों सरकारी लेगा। हमें कई लोगों ने बहुत टोका कि आईवीएफ की तरफ़ न जाएँ, लेकिन हम ने साइंस को तरजीह दी। आजकल बहुत कपल्स इनफर्टिलिटी से जूझ रहे हैं। हम समझते हैं आईवीएफ उनके लिए किसी नेमत से कम नहीं है।”

माँ बनने पर ज़ेबा जितना खुश थीं, उसके साथ एक लंबी राह चलने की लरज़िश भी थी, जिसे वो अपने शौहर के बिना तय नहीं कर पातीं। अपनी बेटियों को देखती हैं, तो उन्हें लगता है कि एक औरत की ज़िद थी, जिससे उनके नसीब निखरे।

बदलती इनफर्टिलिटी दर और आईवीएफ की ओर बढ़ता भारत

एक अध्ययन के मुताबिक़, भारत की जनगणना (1981, 1991, 2001) के अनुमान बताते हैं कि प्रजनन आयु की विवाहित महिलाओं में इनफर्टिलिटी बढ़ी है। 1981 में यह दर 13% थी, जो 2001 तक बढ़कर 16% हो गई। हालाँकि, 1998–99 से 2005–06 के बीच इसमें थोड़ी गिरावट देखी गई। भारत में हुई एक और स्टडी के मुताबिक़, लगभग 8% विवाहित महिलाएँ प्राथमिक या द्वितीयक इनफर्टिलिटी से जूझ रही थीं, जिनमें से 5.8% द्वितीयक इनफर्टिलिटी के मामले थे। इस अध्ययन में यह भी पाया गया कि प्राथमिक इनफर्टिलिटी की दर कम उम्र की महिलाओं में अधिक थी, जबकि द्वितीयक इनफर्टिलिटी का प्रतिशत उम्रदराज़ महिलाओं में ज़्यादा था।
जिन कपल्स को गर्भधारण में दिक़्क़त पेश आती है, वो असिस्टेड रीप्रोडक्टिव टेक्नोलॉजी (एएआरटी) का इस्तेमाल कर सकते हैं। इसमें अंडाणु (एग्स) और शुक्राणु (स्पर्म) को मिलाकर लैब में भ्रूण (एम्ब्र्योस) बनाया जाता है और फिर उसे महिला के गर्भ में डाला जाता है। इन विट्रो फर्टिलाइज़ेशन (आईवीएफ) इसकी सबसे आम और सफल तकनीक है। कई बार इसमें डोनर अंडाणु, डोनर शुक्राणु या पहले से फ्रीज़ किए भ्रूण का उपयोग होता है। कुछ मामलों में सरोगेट या जेस्टेशनल कैरियर की मदद ली जाती है। एएआरटी का सबसे बड़ा जोखिम जुड़वां या अधिक गर्भधारण है, जिसे भ्रूण की संख्या सीमित करके रोका जा सकता है।

Ernst & Young के अनुसार, 2020 तक भारत में IVF साइकिल्स की संख्या 2.6 लाख तक पहुंच सकती थी। सोर्स: Call for Action: Expanding IVF Treatment in India, Ernst & Young की 2015 की रिपोर्ट।

एक दशक पहले जब Ernst & Young ने भारत में IVF साइकिल्स के सालाना 20% बढ़ने की उम्मीद जताई थी, तब ये तकनीक सिर्फ़ बड़े शहरों और चुनिंदा लोगों की पहुंच में थी। अब, IMARC के मुताबिक़, 2024 में IVF बाज़ार का आकार 864.6 मिलियन डॉलर हो चुका है और 2033 तक बढ़कर 3,458.3 मिलियन डॉलर पहुंचने की संभावना है, यानी 2025 से 2033 के बीच इसकी औसत वार्षिक वृद्धि दर (CAGR) 15.4% रहने की संभावना है।

माँ बनने की बदलती परिभाषा के साथ बदलते सवाल

शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में प्रजनन प्रवृत्तियाँ. स्त्रोत: एनएफएचएस -5 

एनएफएचएस- 5 के मुताबिक़, भारत में महिलाओं के बच्चों को जन्म देने की औसत संख्या यानी कुल प्रजनन दर (TFR) समय के साथ घट गई है। 1992-93 में यह औसत 3.4 बच्चे थी, जो 2019-21 में घटकर 2.0 रह गई। गाँव में रहने वाली महिलाओं की यह औसत 3.7 से घटकर 2.1 हो गई, जबकि शहरों में यह 2.7 से घटकर 1.6 रह गई है। हर सर्वे में यह देखा गया है कि चाहे महिला गाँव में हो या शहर में, सबसे ज़्यादा बच्चे वो 20 से 24 साल की उम्र में पैदा करती है। इसके बाद उम्र बढ़ने पर बच्चों की संख्या धीरे-धीरे कम हो जाती है।

ज़ेबा को भी ट्रिप्लेट प्रेगनेंसी हुई थी। शुरूआती दौर में ही एक मिसकैरेज हो गया था, बाद में ट्विन बेटियाँ हुईं। उन्होंने अपने एग्स भी फ्रीज़ करवा लिए थे जिसकी कुछ एक्स्ट्रा कॉस्ट लगी थी। अब अगर वो माँ बनना चाहेंगी तो उन्हें दुबारा तकलीफ़देह प्रोसेस से नहीं गुज़रना पड़ेगा।

2010 में भारत में लगभग 500 एआरटी केंद्र थे, जबकि 2019 में इनकी संख्या बढ़कर 1500 हो गई।

भारत में उपलब्ध सहायक प्रजनन तकनीक (ART) सुविधाओं की संख्या. सोर्स: https://artsurrogacy.gov.in/

भोपाल में सरकारी पॉलीक्लिनिक में काम करने वाली गाइनेकोलॉजिस्ट डॉक्टर साधना लोहया कहती हैं, आईवीएफ एक वरदान है, लेकिन ये एक आर्टिफ़िशियल प्रक्रिया है। इसमें महिला के अंडाणु और पुरुष के शुक्राणु को बाहर मिलाया जाता है। हर महिला को नेचुरल प्रोसेस पर ज़ोर देना चाहिए। तकनीक आगे बढ़ती है, लेकिन शरीर की सीमाएं अब भी वैसी ही हैं। बायोलॉजिकल क्लॉक रूकती नहीं। वे कहती हैं कि माँ बनने की आदर्श उम्र 22 से 28 साल के बीच होती है। 35 के बाद अंडाणु बनना कम हो जाता है, और 37 के बाद सेहतमंद अंडाणु मिलना मुश्किल हो जाता है। "आजकल कई महिलाएं 35 की उम्र में शादी करती हैं और 40 तक बच्चा नहीं प्लान करतीं। उस वक़्त हम चाहें भी तो मदद नहीं कर सकते, क्योंकि तब अंडाणु ही नहीं बनते।”

स्कूलिंग के आधार पर महिलाओं की पहली शादी की औसत उम्र. स्त्रोत: एनएफएचएस 5 

एनएफएचएस 5 के मुताबिक़, शहरी इलाकों की महिलाएँ गाँव की महिलाओं की तुलना में देर से शादी करती हैं। 25 से 49 साल की उम्र की महिलाओं में पहली शादी की औसत उम्र शहरी महिलाओं के लिए 20.1 साल है, जबकि ग्रामीण महिलाओं के लिए ये उम्र 18.2 साल है, यानी करीब दो साल का फर्क। जिन महिलाओं ने 12 या उससे ज़्यादा साल की पढ़ाई की है, उनकी शादी देर से होती है। जो महिलाएँ कभी स्कूल नहीं गयीं, उनकी पहली शादी की औसत उम्र 17.1 साल है। वहीं जो महिलाएं बारहवीं तक पढ़ी हैं, उनकी शादी की औसत उम्र 22.8 साल है। मज़हब के हिसाब से देखा जाए, तो जैन महिलाओं की शादी में सबसे ज़्यादा देरी होती है, जिनमें औसत उम्र 22.7 साल होती है। इसके बाद ईसाई महिलाएं (21.7 साल) और सिख महिलाएं (21.2 साल) हैं। बाक़ी धर्मों की महिलाओं की पहली शादी की औसत उम्र 18.7 से 19.7 साल के बीच है। आर्थिक स्थिति का भी असर साफ दिखता है। जो महिलाएँ सबसे अमीर तबके से आती हैं, उनकी शादी की औसत उम्र 21.1 साल है। जबकि बाकी आर्थिक तबकों की महिलाओं की शादी की उम्र 17.5 से 19.3 साल के बीच है।

फर्टिलिटी क्षमता प्रभावित करती पीसीओएस की समस्या

“जब मेरी नैचुरल प्रेगनेंसी हुई, तो मुझे यक़ीन ही नहीं हुआ,” हिबा हैरानी और राहत के साथ बताती हैं। “मैं तो नाउम्मीद हो गयी थी कि शायद अब कभी माँ नहीं बन पाऊँगी। इसलिए ये ख़बर किसी चमत्कार से कम नहीं थी। हिबा (24) की कहानी अपने जिस्म से यक़ीन उठ जाने के डर से शुरू होती है। “लोग कहते थे कि तुम जैसी लड़कियाँ माँ नहीं बन पाती, या मुश्किल से बनती हैं।” हिबा अकेली नहीं हैं। भारत में हज़ारों महिलाएँ इसी ख़ामोश लड़ाई का हिस्सा हैं, जिनकी तकलीफ़ें अक्सर एक रिपोर्ट, दवा या ताने में सिमट जाती हैं।

पीसीओएस (PCOS) यानी पॉलीसिस्टिक ओवरी सिंड्रोम से जूझते हुए हिबा ने अनियमित पीरियड्स, चेहरे पर बाल, थकन, वज़न बढ़ना, सब कुछ झेला। बार-बार डॉक्टर बदलने के साथ वो खुद को भी कोसती रहीं।

पीसीओएस सेहत से जुड़ी एक ऐसी समस्या है जो प्रजनन की आयु में महिलाओं में होती है और सबसे आम हार्मोनल गड़बड़ियों में से एक है। यह बीमारी लगभग 6 से 13 फ़ीसदी महिलाओं को प्रभावित करती है, और अंदाज़न है कि 70 प्रतिशत मामलों का पता ही नहीं चल पाता। कुछ जातीय समूहों में इसकी दर और ज़्यादा होती है, और उनमें मेटाबॉलिज़्म से जुड़ी दिक्कतें भी ज़्यादा देखने को मिलती हैं। महिला के जिस्म और मानसिक स्थिति पर इसका असर पड़ता है। मोटापा, शरीर को लेकर असहजता और मां बनने में मुश्किलें, इन सब वजहों से महिलाओं को तनाव और सामाजिक बदनामी का सामना करना पड़ सकता है।

मध्य प्रदेश में प्रजनन प्रवृत्ति: कुल प्रजनन दर (प्रत्येक महिला पर बच्चों की संख्या. सोर्स: एनएफएचएस- 5 मध्यप्रदेश

मध्य प्रदेश में कुल प्रजनन दर (TFR) 2.0 है, यानी प्रति महिला औसतन दो बच्चे। यह प्रजनन का प्रतिस्थापन स्तर (रिप्लेसमेंट लेवल) से कम है। NFHS-4 से NFHS-5 के बीच यह दर 0.3 कम हुई है। शहरी इलाकों में यह दर 1.6 है, जबकि ग्रामीण इलाकों में 2.1, जो दोनों ही प्रतिस्थापन स्तर से नीचे हैं। सर्वे से ठीक पहले तीन सालों में हुए जन्मों में से 12% बच्चे चौथे या उससे अधिक क्रम के थे, जबकि NFHS-4 में यह आंकड़ा 14% था।

“मुझे हमेशा से ही इर्रेगुलर पीरियड्स की शिकायत रही, ये हॉर्मोनल इम्बैलेंस की वजह से था। कई डॉक्टर्स बदलने पर भी फ़ायदा नहीं हुआ, यहाँ तक कि किसी डॉक्टर ने सोनोग्राफी करवाने का भी नहीं कहा। शादी के चार महीने तक पीरियड्स ही नहीं आये तो मुझे घबराहट हुई,” हिबा बतातीं हैं। उनकी शादी 2022 में हुई थी। उससे कुछ वक़्त पहले से ही उन्हें अपने जिस्म में बदलाव होते हुए नज़र आ रहे थे। उनका वज़न बढ़ने लगा था, पीरियड्स में हद्द से ज़्यादा दर्द, चेहरे पर डबल चीन, फेशियल हेयर, पेट पर मर्दो जैसे बाल। जिस्म में इस तरह के बदलाव उनके लिए बहुत डरावने हो गए थे।

पीसीओएस के आम लक्षणों में अनियमित माहवारी, चेहरे या जिस्म पर ज़्यादा बाल आना, और वज़न बढ़ना शामिल हैं। यह महिलाओं में सबसे आम एंडोक्राइन यानी हार्मोन से जुड़ा रोग है और इनफर्टिलिटी (माँ बनने में दिक़्क़त) की सबसे बड़ी वजहों, में से एक मानी जाती है। दुनियाभर में पीसीओएस की दर 6% से 26% के बीच है, जबकि भारत में यह 3.7% से 22.5% तक पाई गई है। इसके पीछे कई वजहें होती हैं—जैसे आनुवंशिकता, हार्मोनल असंतुलन, कम सक्रिय जीवनशैली, असंतुलित खानपान और बढ़ता मोटापा।

सरकारी पॉलीक्लिनिक में लगा हुआ पोस्टर जो कि प्रेगनेंसी लोस्स दर्शाता है।

अपने ही जिस्म से संकोची होती महिलाएँ

आम लड़कियों की तरह हिबा ने भी स्किनकेयर और जिम का रास्ता चुना। “रेगुलर थ्रेडिंग से अपर लिप्स पर मर्दों की मूँछों जैसी हरी परत बन गयी थी। मेरी शक्ल-सूरत को लेकर लोगों की बातों ने मुझे बहुत ही ज़्यादा संकोची और असहज बना दिया था कि इतना मोटापा शादी में नुक़सान देगा। खाने-पीने पर टोकने लगे थे। मैंने लेज़र ट्रीटमेंट तक करवा लिया था। बाद में सोनोग्राफी में पता चला कि मेरी ओवरी में फॉलिकल्स तो बन रहे हैं, लेकिन पीरियड्स न आने की वजह से वे बाहर नहीं निकल पा रहे थे। इसी कारण दाहिनी ओवरी में सूजन आ गई थी। डॉक्टर ने मुझे दवाइयों के साथ-साथ लाइफस्टाइल और खानपान में बदलाव की सलाह दी।”

ओवरी में छोटे-छोटे फॉलिकल्स होते हैं, जो अंडे को पकने और बाहर निकलने की प्रक्रिया में मदद करते हैं। लेकिन जब पीरियड्स नहीं आते, तो ये फॉलिकल्स ओवरी में ही जमा रह जाते हैं, जिससे सूजन आ सकती है और प्रेग्नेंसी में मुश्किलें बढ़ जाती हैं। डॉक्टर्स ने हिबा को बताया कि वक़्त रहते अगर इसे कंट्रोल कर लिया जाए तो इलाज मुमकिन है। इसके लिए एक हेल्दी रूटीन, खानपान, और एक्सरसाइज़ ज़रूरी है।

यही डर हिबा के साथ थे कि उनके पति उनके बारे में क्या सोचेंगे। “वो दिखने में खूबसूरत हैं और मैं उस वक़्त खुद को बिखरा हुआ महसूस कर रही थी। मैं उनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाने के शक में थी, जिसमें सबसे ज़्यादा ख़ौफ़ माँ बनने को ले कर था। अगर आसानी से प्रेग्नेंट नहीं हुई तो न जाने कौन से इलाज से गुज़रना पड़ेगा। कहीं माँ न बन पाने की वजह से शौहर कोई दूसरा रास्ता न चुन लें। लेकिन शुक्र है कि नेचुरल दवाईयों और लाइफ स्टाइल चेंज ने बहुत फ़ायदा किया। डॉक्टर ने भी कहा कि पीसीओएस का ये मतलब नहीं है कि आप माँ नहीं बन सकतीं। एक ओवरी में दिक़्क़त है तो दूसरी है न। डॉक्टर ने एक डाइट चार्ट भी दिया—ज़्यादा पानी पीना, फाइबर और सब्ज़ियाँ खाना, बीज शामिल करना, और नींद का ध्यान रखना। पीसीओएस की वजह से मुझे एसिडिटी रहती थी, लेकिन गुनगुना पानी पीने से राहत मिली।”

घर की आर्थिक स्थिति और उम्र के हिसाब से प्रजनन दर में बदलाव. स्त्रोत: एनएफएचएस 5

NFHS-3 से NFHS-5 के बीच सभी उम्र की महिलाओं में प्रजनन दर में गिरावट आई है। 15 से 19 साल की लड़कियों में यह दर 90 से घटकर 43 हो गई है। 20 से 24 साल की महिलाओं में यह 209 से घटकर 165 हो गई, जबकि 25 से 29 साल की महिलाओं में यह दर 139 से घटकर 122 हो गई है। यह आंकड़े दिखाते हैं कि पहले की तुलना में अब महिलाएं कम उम्र में कम बच्चे पैदा कर रही हैं।

सामान्य और असामान्य के बीच का ज़रूरी फ़र्क़

सरकारी पॉलीक्लीनिक में प्रदर्शित लोकल-मेड सेनेटरी नैपकिन्स जो मेंस्ट्रुअल और रेप्रोडक्टरी हेल्थ के लिए ज़रूरी है। 

डॉक्टर लोहया कहती हैं कि लड़कियों को किशोरावस्था से ही मेंस्ट्रुएशन और प्रजनन से जुड़ी ज़रूरी बातें सिखानी चाहिए। अगर उन्हें यह पता ही नहीं कि क्या सामान्य है, तो वे असामान्यता को कैसे पहचानेंगी? आधा-अधूरा ज्ञान ख़तरनाक होता है, इसलिए सही समय पर जानकारी मिलनी चाहिए। पीसीओएस और पीसीओडी (पॉलीसिस्टिक ओवेरियन डिज़ीज़) एक गंभीर समस्या है। लड़कियों को यह समझना चाहिए कि चेहरे पर बाल आना सामान्य नहीं है। अगर मूँछ की तरह बाल हों जिसे हर्टुइस्म कहते हैं, या पेट, छाती, गर्दन पर मोटे बाल हों, तो यह हार्मोनल गड़बड़ी का संकेत हो सकता है, जो पीसीओडी का लक्षण है।

वे बताती हैं, “हमारे पास आने वाली 40% महिलाएँ पहले से पीसीओएस से जूझ रही होती हैं। कई लड़कियाँ बार-बार सलून से फेशियल हेयर हटवाती हैं, लेकिन उन्हें इसके पीछे हार्मोनल कारणों का पता नहीं होता। इलाज न होने पर यह मिसकैरेज या गर्भधारण में मुश्किलें पैदा कर सकता है। ब्यूटी पार्लर में काम करने वालों को ट्रेनिंग मिलनी चाहिए ताकि वे लड़कियों को गायनोकोलॉजिस्ट से मिलने की सलाह दे सकें। ये इंसुलिन रेसिस्टेंस और टाइप 2 डायबिटीज़ के ख़तरे को बढ़ाता है, जो अंडोत्सर्जन (ओव्यूलेशन) को भी प्रभावित करता है, जिससे पीरियड्स अनियमित हो सकते हैं और गर्भधारण में कठिनाई आ सकती है।

डब्लूएचओ के मुताबिक़, पीसीओएस एक ऐसी बीमारी है जो लंबे समय तक चलती है और इसका पूरा इलाज मुमकिन नहीं है। लेकिन कुछ लक्षणों को दवाइयों, लाइफ़स्टाइल में बदलाव और फर्टिलिटी ट्रीटमेंट से बेहतर किया जा सकता है। इसका सही कारण अभी तक पता नहीं चला है, लेकिन जिन महिलाओं के परिवार में पहले से यह बीमारी रही हो या जिन्हें टाइप 2 डायबिटीज़ हो, उन्हें पीसीओएस होने का ख़तरा ज़्यादा रहता है।

हिबा की तरह नायरा की ज़िंदगी भी पीसीओएस के साए में बीती। लेकिन उनकी राह और भी चुप्पी से भरी थी। भोपाल के ही एक इलाक़े में रहने वाली नायरा (28) कहती हैं कि सही खानपान और वर्ज़िश कितनी ज़रूरी है, इसका एहसास तब होता है जब जिस्म जवाब देने लगता है। उनकी ज़िंदगी इसकी मिसाल है। नायरा को बरसों तक नहीं मालूम था कि उनका जिस्म पीसीओएस से जूझ रहा है वो लगातार अपने सिम्पटम्स को नज़रअंदाज़ कर रही थीं। जब तक उन्हें मालूम हुआ तब तक बहुत कुछ बदल चूका था।

"मेरे पीरियड्स अक्सर टाइम पर नहीं आते थे, लेकिन कुछ सही नहीं है इसके बारे में कभी सोचा ही नहीं, क्यूँकि शादी से पहले गायनेक के पास जाना हमारे समाज में आज भी एक स्टिग्मा है। किसी को पता लग जाता है तो समझते हैं कोई बीमारी है। फिर लड़कियों की शादी में दिक़्क़त होती है,” नायरा बताती हैं। उनकी शादी को 2 साल गुज़र चुके हैं, जिसमें वो एक के बाद एक कई मिसकैरेज झेल चुकी हैं। वो अब प्रेग्नेंट हैं, और प्रोजेस्टोन सपोर्ट पर हैं।

यूवीआई द्वारा किये गए एक हालिया सर्वे के मुताबिक़ इन बीमारियों के बारे में लोगों में बहुत काम जानकारी है।

विभिन्न बीमारियों की जागरूकता और प्रसार. स्त्रोत: यूवीआई

यूवीआई की विमेंस सेक्शुअल एंड रिप्रोडक्टिव हेल्थ रिपोर्ट इंडिया के मुताबिक़, महिलाओं में प्रजनन से जुड़ी बीमारियों को लेकर जागरूकता बहुत कम है। 60% से ज़्यादा महिलाओं को PCOS के बारे में पता ही नहीं होता। जिन महिलाओं को इसकी जानकारी है, उनमें से सिर्फ 15% को इसकी सही से पहचान हो पाई है। असल में यह बीमारी कहीं ज़्यादा आम है, लेकिन सामने नहीं आ पाती। हाइपोथायरॉइडिज़्म को लेकर जागरूकता और भी कम है—60% से ज़्यादा महिलाएं इस बीमारी से अनजान हैं। एंडोमेट्रियोसिस और वेजिनिस्मस जैसी स्थितियों को जानने वाली महिलाओं की संख्या तो 30% से भी कम है।

ट्रॉमा महिलाएँ झेलती हैं लेकिन लोग सिर्फ बच्चों का पूछते हैं

“शादी से पहले तो समाज बिलकुल ख़ामोश रहता है, एक लड़की को उसके ही जिस्म से से बेगाना बना कर रख दिया जाता है। लेकिन शादी के बाद अचानक सवाल शुरू हो जाते हैं कि “अभी तक कुछ खबर नहीं है?” “डॉक्टर को दिखाया?” जैसे औरत मशीन हो, जिसका काम सिर्फ बच्चा पैदा करना हो।” बुज़ुर्ग तो कहते हैं कि हमने तो 10 बच्चे पैदा किए, आज कल की लड़कियों के तो बड़े नाटक हैं। क्या वो मेरी ज़िंदगी जी रही थीं?" नायरा मुस्कुराते हुए कहती हैं। उनकी आवाज़ में थकान भी थी। "अब की लड़कियाँ काम करती हैं, देर से शादी करती हैं, प्रदूषण में जीती हैं। हम वो नहीं हैं जो पहले थे। हर मिसकैरेज से एक अलग ट्रॉमा होता है। हर कोशिश के साथ एक नया दिल टूटता है। लेकिन लोग सिर्फ बच्चे की बात करते हैं, उस औरत की हालत की नहीं। जब फ़ीटस एक अनाज के दाने के बराबर होता है, तब से एक औरत के जिस्म में बदलाव होते हैं। लोग कहते हैं, ‘तुमसे उम्मीद थी। पर जिसने खोया है, उसका क्या?" नायरा पूछती हैं।

महिलाओं द्वारा लिए जाने वाले लोकप्रिय इलाज और महिलाओं द्वारा अनुभव किए जाने वाले प्रमुख लक्षण. स्त्रोत: यूवीआई

नायरा आगे कहती हैं कि हम लड़कियाँ आजकल बॉलीवुड स्टार्स से इंस्पिरेशन लेती हैं, लेकिन ज़मीन पर अक्सर टूट जाती हैं। "आजकल शादी और माँ बनने का फैसला प्लान करके लिया जाता है। हमारे जैसे लोग सोचते हैं, जब करियर सेट हो जाए, तब बच्चा भी हो जाएगा। लेकिन जिन से हम प्रेरणा लेते हैं, वो सेलेब्रिटीज़ पहले ही अपने अंडाणु सुरक्षित करवा चुकी होती हैं। हम उनका मुक़ाबला नहीं कर सकते।

इनफर्टिलिटी कोई मामूली बीमारी नहीं है। हालाँकि ये पुरूषों में भी होती है लेकिन एक औरत के लिए ये उसके शरीर, पहचान और प्रजनन क्षमता से जुड़ा ऐसा अनुभव है, जो सिर्फ अस्पतालों में नहीं, रिश्तों, समाज और उसके अंदर की आवाज़ों में भी गूंजता है। इस लड़ाई में दवाइयाँ ज़रूरी हैं, लेकिन उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है समझ, सहानुभूति और सही जानकारी। जब तक हम मासिक धर्म, इनफर्टिलिटी, और औरत के जिस्म से जुड़ी बातों पर खुलकर नहीं बोलेंगे, तब तक वो चुपचाप तकलीफ़ें सहती रहेंगी। बदलाव सिर्फ इलाज से नहीं आएगा, बल्कि उस सोच से आएगा जो एक औरत की थकान को 'नाटक' नहीं, उसकी हिम्मत माने।

नोट: इनफर्टिलिटी एक मेडिकल कंडीशन है, जो औरतों और मर्दों दोनों को हो सकती है। हमने इस रिपोर्ट में औरतों की कहानियाँ इसलिए सामने रखी हैं क्योंकि समाज में सबसे ज़्यादा सवाल, शर्म और ताने उन्हीं के हिस्से आते हैं। इनफर्टिलिटी को कलंक की निगाह से देखना समाज में अन्याय को बढ़ावा देने जैसा है।


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