गांवों में टीबी की जंग: बीमारी पर चुप्पी, समस्या पुरुषों की- बोझ “आशाओं” पर
भारत के हर जिले में टीबी के खिलाफ अभियान चल रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी भी समीक्षा बैठक के जरिए 2025 का लक्ष्य पूरा करने पर जोर दे रहे हैं लेकिन जमीन पर तस्वीर बहुत जटिल है। उत्तर प्रदेश से मेघालय तक सामाजिक कलंक, चुप्पी और खौफ ने टीबी को सिर्फ रोग ही नहीं, बल्कि एक सामाजिक संघर्ष बना दिया है जिसका सबसे बड़ा भार महिलाएं उठा रही हैं।;
सिद्धार्थनगर के मधुबेनिया के एक स्कूल में खड़ा निक्षय वाहन, बाहर जांच के लिए अपनी बारी आने का इंतजार करते लोग, अगली फोटो में जांच के इंतजार में बैठी एक महिला, पीछे पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की तस्वीर। स्त्रोत- अलका बरबेले
सिद्धार्थनगर, शिलॉन्ग, नई दिल्ली: टीबी मुक्त भारत के लिए असल लड़ाई जमीन पर चल रही है। ग्रामीण क्षेत्रों में लोग न इस बीमारी का नाम लेना चाहते हैं और न ही इसके बारे में कुछ सुनना चाहते हैं। वहीं प्रशासन रोग उन्मूलन के लिए हर व्यक्ति तक पहुंचना चाहता है। इस अजीबोगरीब परिस्थितियों के चलते ग्रामीण, सीमांत और आकांक्षी जिलों में एक ऐसा नया ट्रेंड शुरू हुआ है जो मरीजों के अधिकार (राइट टू पेशेंट) के पहले सिद्धांत नैतिकता पर सवाल खड़े कर रहा है लेकिन यह बड़ा बदलाव भी लेकर आ रहा है।
बीमारी का खौफ और समाज के खामोश रवैया के साथ-साथ यहां लैंगिक विरोधाभास भी मिला। इन क्षेत्रों में सबसे ज्यादा टीबी से प्रभावित पुरुष खासतौर पर बुजुर्ग नागरिक हैं लेकिन ऐसे मरीजों को घर से निकलकर स्वास्थ्य केंद्रों तक लाने की पहली जिम्मेदारी उन महिलाओं पर है जो आशा, आंगनवाड़ी और नर्स के नाते फ्रंटफुट पर है।
बीमारी के प्रति समाज का यह खामोश विरोध टीबी की लड़ाई में सबसे बड़ी बाधा भी है जिसे उजागर करने के लिए रिपोर्टर ने उत्तर प्रदेश के सीमांत क्षेत्रों और मेघालय के जनजातीय क्षेत्रों को केस स्टडी के तौर पर लिया।
नेपाल में गौतम बुद्ध की जन्मस्थली लुम्बिनी से कुछ ही किलोमीटर पहले यानी भारत का आखिरी और उत्तर प्रदेश का आकांक्षी जिला सिद्धार्थनगर इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। इस जिले का एक मधुबेनिया टोला (जिला हेडक्वार्टर से लगभग 40 किलोमीटर दूर )है जिसके सरकारी स्कूल में जब टीबी की जांच के लिए स्वास्थ्य शिविर लगा तो दर्जनों पुरुष और महिलाएं वहां पहुंचे। इनमें किसी को खांसी तो किसी को बुखार की परेशानी थी। कुछ ऐसे भी थे जिन्हें सिर्फ दवाएं चाहिए थी लेकिन किसी को नहीं पता था कि असल में वहां उनकी टीबी की जांच होनी है।मधुबेनिया के पीएम श्री कम्पोजिट विद्यालय में स्वास्थ्य जांच के लिए पहुंचे ग्रामीण। फोटो: अलका बरबेले
ठीक ऐसे ही हालात मेघालय के री भोई, पूर्वी खासी, और पूर्वी गारो जिले में भी देखे गए जहां प्रशासन को टीबी का नाम लिए बिना शिविर लगाने पड़े रहे हैं जिसकी वजह सिर्फ यही है कि लोग बीमारी से कम, टीबी कहे जाने से ज्यादा डरते हैं। री भोई के जिला अधिकारी अभिलाष बरनवाल ने इंडियास्पेंड से कहा, ' दूसरे राज्यों की तुलना में यहां जमीनी स्तर पर टीबी स्क्रीनिंग के लिए समुदाय समर्थन हासिल कर पाना कठिनाइयों से भरा है। हमें गांव के उन झोलाछाप का सहारा लेना पड़ता है जो पारंपरिक चिकित्सा के जानकार होने का दावा करते हैं।'
एक अध्ययन के अनुसार, भारत के पुरुषों में टीबी संक्रमण का जोखिम महिलाओं की तुलना में 1.26 गुना अधिक है लेकिन ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में इन मरीजों की जिम्मेदारी आशा कार्यकर्ताओं पर है जो प्रत्येक परिवार की निगरानी रखती हैं। आदिवासी क्षेत्रों में यह और भी ज्यादा मुश्किल काम है। हालांकि घर पर खुद मां और पत्नी की भूमिका निभाने के साथ ये गांव में बीमार व्यक्ति को समझा बुझाकर स्वास्थ्य जांच के लिए मनाती हैं और उन्हें साथ लेकर आती हैं। उन्हें दवा दिलवाती हैं, खानपान का ध्यान रखती हैं और कई बार खुद भी बीमारी का बोझ उठाती हैं।
टीबी का अतीत, वर्तमान और आंकड़ों की सच्चाई
ट्यूबरक्लोसिस (टीबी) एक संक्रामक बैक्टीरियल बीमारी है, जो माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस नामक बैक्टीरिया से होती है। भारत में आमतौर पर यह संक्रमण फेफड़ों को प्रभावित करता है। हालांकि यह शरीर के किसी भी अंग को चपेट में ले सकता है। रोगी के बोलने, खांसने या छींकने के चलते मुंह या नाक से निकलने वाले ड्रॉपलेट्स अन्य लोगों को भी संक्रमित कर सकते हैं।
टीबी के मुख्य तौर पर दो प्रकार होते हैं जिन्हें सक्रिय टीबी और लेटेंट टीबी के नाम से जाना जाता है। यह शरीर के किसी भी हिस्से को प्रभावित कर सकती है हालांकि भारत में सालाना मिलने वाले नए मरीजों में 80 फीसदी से ज्यादा फेफड़ों से प्रभावित टीबी संक्रमित मिल रहे हैं। इसलिए भारत में फेफड़े का टीबी सबसे आम है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, दुनिया भर में क्षय रोग (टीबी) के मामलों में काफी भिन्नता है। सबसे ज्यादा मरीज निम्न और मध्यम आय वाले देशों खासतौर पर अफ्रीका और एशिया में हैं। डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट बताती है कि 2023 में 45 फीसदी टीबी के नए मरीज दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में पाए गए। इसके बाद 24 फीसदी अफ्रीकी और 17 फीसदी मरीज पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में मिले। अगर दक्षिण पूर्व एशिया की बात करें तो भारत, इंडोनेशिया और फिलीपींस विश्व स्तर पर टीबी के सबसे अधिक मामलों वाले देशों में शामिल हैं।
स्वास्थ्य जांच के बाद एक अलग कक्ष में स्वदेशी मशीन से छाती का एक्सरे करवाता ग्रामीण। फोटो: अलका बरबेले
भारत में पहला टीबी सेनेटोरियम 1906 में अजमेर के पास तिलोनिया में खोला गया। इसके बाद अल्मोड़ा, शिमला और मदनपल्ले में सेनेटोरियम खोले गए जबकि पहली टीबी डिस्पेंसरी 1917 में मुंबई में स्थापित की गई। इससे पता चलता है कि भारत में टीबी संक्रमण की उम्र 100 साल से भी ज्यादा पुरानी है। वर्तमान में, हर तीन मिनट में दो भारतीयों की टीबी संक्रमण से मौत हो रही है।
नई दिल्ली स्थित केंद्रीय टीबी प्रभाग (सीटीडी) के मुताबिक, साल 2022 में 24.2, 2023 में 25.5 और 2024 में 26.07 लाख नए मरीजों की पहचान हुई जो पूरी दुनिया में सबसे अधिक संख्या भी है। यही कारण है कि करीब सात वर्ष पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत को टीबी से मुक्ति दिलाने के लिए साल 2025 तक लक्ष्य घोषित किया जो वैश्विक स्तर पर 2030 की तुलना में पांच साल पहले है।
इस संकल्प को पूरा करने के लिए हर जिले में अभियान चल रहे हैं। इसका परिणाम है कि 2015 से 2023 के बीच भारत में टीबी मामलों में 17.7% की गिरावट दर्ज की गई है, जो वैश्विक औसत 8.3% की तुलना में दोगुनी से भी अधिक है। इसी तरह टीबी के ना पता लग पाने वाले मामलों यानी मिसिंग केसों की संख्या 2015 में 15 लाख से घटकर 2023 में 83% की कमी के साथ 2.5 लाख रह गई है। निक्षय मित्र, पोषण आहार और निक्षय पोर्टल जैसी सरकार की पहलों को इस बदलाव का श्रेय जाता है।
डर का नाम टीबी : जहां बीमारी को बोलना मना है
'मुझे कोई बीमारी नहीं है। कल दीदी (आशा) घर आई थी तो उन्होंने यहां स्कूल में आने के लिए कहा। इसलिए मैं आई हूं। आप धीरे बोलो, छूत का नाम भी मत लो, किसी ने सुन लिया तो मेरे लिए मुसीबत हो जाएगी।' चेहरे पर गुस्सा लिए यह शब्द सिद्धार्थनगर के मधुबेनिया निवासी एक महिला के हैं जिनकी आयु करीब 45 वर्ष है। रिपोर्टर ने जब महिला से उनका नाम पूछा तो वह चुप हो गईं और गुस्से से देखने लगीं।
सिद्धार्थनगर जिले के बर्डपुर विधानसभा क्षेत्र के इस टोला में पीएम श्री कम्पोजिट विद्यालय है जहां जिला स्वास्थ्य टीम ने स्वास्थ्य शिविर लगाया है। यहां खुले मैदान में निक्षय वाहन भी खड़ा है जिस पर 'जन-जन का रखें ध्यान, टीबी-मुक्त भारत अभियान', सरकारी विज्ञापन भी चस्पा है जिसे पढ़कर कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि वाहन के बाहर ग्रामीण (पुरुष और महिलाएं) क्यों खड़े हैं? लेकिन शायद इन्हें पढ़ना नहीं आता क्योंकि पंक्ति में खड़े किसी ने भी टीबी पर बात नहीं की। ये सिर्फ रिपोर्टर की बातें सुनते रहे और वाहन में जाकर जांच कराने के बाद ठीक सामने एक कमरा (बच्चों की क्लास) में चले गए जहां स्वदेशी एआई तकनीक आधारित मशीन से छाती का एक्सरे लिया जा रहा था।
सिद्धार्थनगर जिले के बरदहा गांव के सरपंच रामबाबू जांच कराने के बाद जब बाहर आए तो उन्होंने कहा, 'हमें बस इतना पता है कि यहां हमारी सेहत की जांच करने के लिए ये लोग आए हैं। हमें किसी ने छूत रोग के बारे में नहीं बताया। हमारे गांव में ऐसा कुछ नहीं है, ये सब शहरों में होगा।' उनके सामने आशा रामवती भी खड़ी थीं लेकिन वह चुप रहीं। जब रामबाबू वहां से चले गए तो रामवती ने कहा, 'ये लोग टीबी पर बात करना पसंद नहीं करते हैं। इस गांव में अभी कोई मरीज नहीं है लेकिन पिछले महीने तीन रोगी मिले और ये सभी बुजुर्ग थे उन्हें फेफड़े का टीबी हुआ था। इनमें से एक की मौत दो दिन पहले हुई है।
मधुबेनिया के सरपंच रामबाबू स्वास्थ्य शिविर के बारे में बताते हुए, दूसरे फोटो में आशा बहन रामवती ने गांव में टीबी के प्रसार की जानकारी दी। फोटो: अलका बरबेले
सिद्धार्थनगर के जिलाधिकारी डॉ. राजा गणपति आर ने इंडियास्पेंड से कहा, 'हमारा यह जिला नीति आयोग की ओर से तय आकांक्षी श्रेणी में आता है। पिछड़ेपन से बाहर आने के लिए हम प्रशासनिक खासतौर पर स्वास्थ्य योजनाओं को लेकर काफी प्रयास कर रहे हैं लेकिन हम यह जानते हैं कि अभी इसमें बहुत वक्त लगेगा। टीबी की असल लड़ाई किसी कागज या चर्चा में नहीं बल्कि यहां ग्राउंड पर है।' पूर्वांचल का यह वही जिला है जहां मातृ मृत्यु दर 126 पूरे देश में सबसे अधिक है।
उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर जिला का मुख्यालय, दूसरे फोटो में जिलाधिकारी डॉ. राजा गणपति आर। फोटो: अलका बरबेले
बीमारी पता चलने के बाद भी हम नहीं लेते नाम...
'बाकी जगहों की तुलना में यहां छोटी छोटी आबादी में लोग रहते हैं। ये सभी जनजातीय समुदाय हैं। टीबी को यहां बहुत कलंकित माना जाता है।' इंडियास्पेंड से बातचीत में खासी पारंपरिक चिकित्सा (क्वैक) के जानकार एलिंगटन सियेम ने कहा, 'अगर नाम सुन लें तो गांव की सीमा के आसपास भी कोई नहीं जा सकता। वैसे भी ये लोग बाहर वालों से बहुत कम ही मेलजोल करना पसंद करते हैं। मैं जब भी किसी व्यक्ति में कोई लक्षण देखता हूं तो उसकी सूचना पहले हेडक्वार्टर (री भोई जिला कार्यालय) को देता हूं और फिर उसे किसी भी तरह राजी करके वहां (अस्पताल) तक ले जाता हूं। अगर जांच में टीबी पता चल भी जाए तो भी हम मरीज के आगे उसका नाम नहीं लेते हैं।'
मेघालय के री भोई जिलाधिकारी अभिलाष बरनवाल जानकारी देते हुए, दूसरे फोटो में खासी चिकित्सा के जानकार एलिंगटन सियेम। फोटो: अलका बरबेले
बातचीत के दौरान नोंगपो के नजदीक गांव फाम्सियेम के एलिंगटन सियेम री भोई के जिलाधिकारी अभिलाष बरनवाल से दो कुर्सी दूर बैठे थे। जिलाधिकारी ने बताया कि एलिंगटन सियेम जैसे करीब एक हजार खासी चिकित्सा के जानकारों का मेघालय सरकार ने समूह बनाया है। उन्हें प्रति मरीज अस्पताल तक लाने के लिए करीब 500 रुपये का पुरस्कार मिलता है। यह सभी मेघालय के घने जंगलों और गांवों में लोगों का इलाज कर रहे हैं।
उन्होंने कहा, 'हमारे पास इसके अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है जिसके जरिए उन लोगों को बाहर तक लाया जा सके। इन्हें आप आम भाषा में झोलाछाप कह सकते हैं। मैं खुद कई बार यहां के गांवों का दौरा किया है। कोरोना के समय टीकाकरण में भी हमें बहुत परेशानियां आई थी। हमने गांव से अस्पताल तक लाने जाने के लिए निशुल्क वाहन की व्यवस्था भी की है।'
उन्होंने बताया कि इन प्रयासों के चलते मेघालय के 12 जिलों के 7153 गांव अब धीरे धीरे टीबी मुक्त होने लगे हैं। यहां के अति पिछड़ा री भोई जिला में 2024 के दौरान 60 गांवों को टीबी मुक्त घोषित किया गया। इस मुहिम से पहले 2023 में केवल सात गांवों को ही यह सफलता मिल पाई थी। 60 गांवों में बीते एक साल से कोई भी नया मामला सामने नहीं आया है।
शिलांग में मेघालय राज्य का सबसे बड़ा टीबी अस्पताल, दूसरे फोटो में टीबी चैंपियन रिडालिन शुल्लाई आपबीती बताती हुई। फोटो: अलका बरबेले
मेघालय के पूर्वी खासी जिले की रिडालिन शुल्लाई ने इंडियास्पेंड से बातचीत में कहा, 'यहां टीबी संक्रमण पर कोई बात करना नहीं चाहता। यहां लोगों में काफी खौफ है, कुछ समय पहले मैं भी इनका हिस्सा थी जब मुझे टीबी हुआ। मैंने धैर्य से काम लिया क्योंकि उससे पहले मेरे एक खास दोस्त ने इस डर की वजह से आत्महत्या की है। शायद ऐसा दुर्भाग्य आपको कहीं और देखने को मिले, लेकिन सच यही है।' मेघालय सरकार ने हाल ही में रिडालिन को राज्य टीबी चैंपियन नियुक्त किया है।
सच के लिए झूठ, प्रशासन की मजबूरी या फिर नैतिक संकट?
रिपोर्टिंग के दौरान उत्तर प्रदेश और मेघालय दोनों ही राज्यों में निक्षय शिविर और वहां जांच कराने आए लोग दिखाई दिए। यहां आसपास टीबी की जन जागरूकता से जुड़े सरकारी विज्ञापन भी खूब चस्पा थे। यहां प्रत्येक व्यक्ति की खून, वजन, बीपी जैसी आम जांच के साथ-साथ एक्स-रे और बलगम टेस्ट भी कराए गए लेकिन किसी को यह स्पष्ट नहीं किया कि ये टीबी के लिए है।
सिद्धार्थनगर जिले के मधुबेनिया में खड़ा निक्षय वाहन, लोगों को टीबी जांच का पता नहीं, लेकिन वाहन पर टीबी के सरकारी विज्ञापन मौजूद, स्त्रोत - अलका बरबेले
दोनों राज्यों में प्रशासन के इस झूठ पर कई तरह के सवाल लाजमी हैं। मरीज की जानकारी के बिना स्वास्थ्य जांच कितना नैतिक है? स्क्रीनिंग के जरिए टीबी के मिसिंग केस तलाशे जा रहे हैं लेकिन उस सामाजिक कलंक पर बात क्यों नहीं कर पा रहे जिससे समाज खौफ में है? क्या प्रशासन की यह गतिविधि आम लोगों में पारदर्शिता खो रही है?
उत्तर प्रदेश और मेघालय राज्य के अधिकारियों से यह तीन कॉमन सवाल किए जिस पर उत्तर प्रदेश के राज्य टीबी अधिकारी डॉ. शैलेंद्र भटनागर ने कहा, “हमारा पहला लक्ष्य ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंच बनाना है क्योंकि हम एक भी मरीज को छोड़ना नहीं चाहते। केंद्र सरकार के रिपोर्ट कार्ड में उत्तर प्रदेश 105 फीसदी लक्ष्य के साथ पहले स्थान पर है। 2024 में 7755 ग्राम पंचायत टीबी मुक्त हुई हैं। इस साल सिद्धार्थनगर जिले से 216 पंचायतों ने आवेदन किया है।”
उन्होंने आगे कहा कि उत्तर प्रदेश में 3.72 करोड़ लोग टीबी को लेकर उच्च जोखिम की श्रेणी में है। 3.52 करोड़ की स्क्रीनिंग हुई है। 24.02 लाख लोगों की एक्सरे जांच जबकि 5.02 लाख की नैट मशीन से बलगम जांच हुई। इस तरह जांच में 1.65 लाख टीबी के नए मरीज पकड़ में आए। अगर हम शुरू में बता देंगे तो कोई भी जांच कराने नहीं आता और हम इस आंकड़े तक भी नहीं पहुंच पाते।
मेघालय के गांवों में इस तरह स्वास्थ्य शिविर लगाए जाते हैं, दूसरे फोटो में बलगम जांच के लिए नमूनों को सुरक्षित रखने वाली स्वदेशी मशीन स्कूटी पर ले जाते कर्मचारी, तीसरे फोटो में स्वदेशी मशीन का फोटो। फोटो: अलका बरबेले
मेघालय की राज्य क्षय रोग अधिकारी (एसटीओ) डॉ. एम सिम्लिह ने कहा, “व्यक्तिगत तौर पर मैं इसे झूठ का सहारा मान सकती हूं लेकिन प्रशासनिक अधिकारी के तौर पर मेरा नजरिया कुछ और है। हमारा पक्ष इसे झूठ नहीं बल्कि समुदाय के आगे प्रशासनिक मजबूरी मानता है। हमारे लिए उन लोगों तक पहुंच आसान नहीं है। अगर हमें उन्हें टीबी जांच की कहते हैं तो कोई नहीं आएगा। अगली बार हमारा वहां जाना भी मुश्किल हो सकता है। इसलिए हम उन्हें सामान्य स्वास्थ्य जांच के बारे में बताते हैं।”
हमें यही रास्ता समझ आया…
डॉ. सिम्लिह ने कहा कि मेघालय में पूर्वी खासी, री भोई, पूर्वी गारो, पश्चिमी गारो और दक्षिण गारो जिलों में टीबी का प्रकोप सबसे ज्यादा है। यहां सबसे ज्यादा जनजातीय समुदाय हैं और झूठ का सहारा लेते हुए हमने अब तक 12 जिलों के 7153 गांव टीबी मुक्त हुए हैं। हमें यही रास्ता समझ आया और हम उस पर काफी आगे निकल गए हैं।
पहली तस्वीर में शिलांग के मरीज महीने का राशन एकत्रित करते हुए, दूसरे फोटो में मेघालय के स्वास्थ्य निदेशक रामकुमार एस जानकारी देते हुए। फोटो: अलका बरबेले
मेघालय के राज्य स्वास्थ्य मिशन निदेशक राम कुमार एस ने यहां तक कहा,“हम कभी ऐसा करना नहीं चाहते। लोगों को बेहतर सेवाएं देने के लिए यह इकलौता ऐसा राज्य है जो टीबी मरीज को हर महीने तीन हजार रुपये दे रहा है। इसमें से एक हजार रुपये सीधे केंद्र सरकार की ओर से मरीज के बैंक खाते में पहुंचते हैं। इसके अलावा 10 किलो चावल, तीन किलो दाल, दो किलो राजमा और 30 अंडे की ट्रे सहित 16 किलोग्राम राशन निशुल्क दे रहा है।
फाइटर्स बोलीं- पूछने जाऊं तो गाली देते हैं लोग, कई बार हुआ झगड़ा
भारत के ग्रामीण और दुर्गम इलाकों में टीबी रोग से लड़ने की बड़ी जिम्मेदारी महिलाओं खासतौर पर आशा कार्यकर्ता पर है। उत्तर प्रदेश और मेघालय में ऐसी कई आशा कार्यकर्ता मिलीं जिन्होंने बताया कि कैसे वह हर दरवाजे पर जाकर लोगों को मनाती हैं, उनसे जांच कराने के लिए कहती हैं, दवा लेने और इलाज न छोड़ने पर जोर देती हैं।
शिलांग से करीब 80 किलोमीटर दूर लैटकोर लुमेह में आशा कार्यकर्ता केरडालिन खारमुजाई ने इंडियास्पेंड से कहा, "मेरे पास लैटकोर सब सेंटर के पांच गांव है। यह सभी जनजातीय समुदाय से हैं। मुझे उन लोगों के संपर्क में रहते हुए करीब 15 साल हो गए हैं। अब तक 75 टीबी मरीजों का इलाज भी कराया है लेकिन आज भी मुझे इन गांवों में सम्मान नहीं मिलता है।"
लैटकोर लुमेह के स्वास्थ्य केंद्र पर मिली आशा कार्यकर्ता केरडालिन खारमुजाई गांवों में महिलाओं की जिम्मेदारी और चुनौतियों के बारे में बताते हुए। फोटो: अलका बरबेले - अलका बरबेले
उन्होंने कहा, "मुझसे छूत के तौर पर व्यवहार किया जाता है। यहां लोगों को समझाने में मेरा कई बार झगड़ा होता है। एक बार मुझे चोट भी आई थी तब मुझे एक लड़के ने अपने बुजुर्ग दादा के कहने पर पीछे से डंडा मार दिया था। इन गांवों में महिलाएं कठोर नहीं है लेकिन पुरुष खासतौर पर बुजुर्ग सबसे ज्यादा अड़ियल हैं। वो गालियां भी देते हैं और झगड़ने या मारपीट के लिए तैयार रहते हैं लेकिन मैं हंसकर खुद को शांत रखते हुए उनके इलाज की कोशिश करती हूं।"
सिद्धार्थनगर में मधुबेनिया गांव की 19 वर्षीय अंजलि अब टीबी चैंपियन है। अंजलि बताती है, मुझे तीन साल पहले टीबी हुआ। मैंने जब अपने फोन पर इसके बारे में जानकारी ली तो मैंने सबसे छिपकर अपना उपचार पूरा किया। गांव में जिन परिवारों को इसका पता है, उनके यहां आज भी मुझे और मेरे परिवार को बुलावा नहीं आता है। हमें शादी ब्याह में बिलकुल अलग रखा जाता है लेकिन मेरे पिता हमेशा से मेरे साथ खड़े रहे हैं। उन्हीं की बदौलत मुझे जिला प्रशासन ने टीबी चैंपियन बनाया है।
मधुबेनिया के उप स्वास्थ्य केंद्र पर मरीज को लेकर पहुंची टीबी चैंपियन अंजली, दूसरे फोटो में अंजली जानकारी देते हुए, तीसरे फोटो में रीना और सुनीता आशा कार्यकर्ता गांवों वालों में टीबी के खौफ की जानकारी देते हुए। फोटो: अलका बरबेले
अंजलि ने कहा, "गांव के सभी लोग ऐसे नहीं है। नई पीढ़ी जिनके पास स्मार्टफोन है, वह ज्यादा समझदार हैं। यूट्यूब और इंटरनेट पर तुरंत सर्च कर लेते हैं लेकिन बाकी लोग टीबी को लांछन मानते हैं। मैं जब भी निक्षय पोषण किट देने जाती हूं तो उसे बाहर दहलीज पर ही रख लेते हैं और मुझसे बात तक नहीं करते।"
यह जंग भरोसे और चुप्पी तोड़ने की, महिलाएं ले रहीं टक्कर : स्वास्थ्य मंत्रालय
प्रशासनिक रणनीति पर उठे तीन सवाल को लेकर जब नई दिल्ली स्थित केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय में संपर्क किया तो वहां एक शीर्ष अधिकारी ने पहचान छिपाने पर बातचीत करने की सहमति दी। उन्होंने रिपोर्टर से पूरी जानकारी लेने के बाद कहा कि टीबी को खत्म करने के लिए हम सभी राज्यों के साथ मिलकर दवाइयों और योजनाओं के जरिए बहुत कुछ कर रहे हैं लेकिन उत्तर प्रदेश और मेघालय जैसे क्षेत्रों की तस्वीर हमारे संज्ञान में है।
फोटो कैप्शन : उत्तर प्रदेश और मेघालय के अलग अलग जिलों की यह तस्वीर, एक में बलगम जांच की तकनीक, दूसरे में पोषण राशन के साथ मिलने वाले अंडों को ले जाता रोगी, तीसरे फोटो में यूपी सरकार से मिलने वाली पोषण पोटली और चौथे में मधुबेनिया स्वास्थ्य केंद्र पर उपलब्ध दवाएं। फोटो: अलका बरबेले
उन्होंने कहा, "मैं बस यही कह सकता हूं कि डॉक्टर, दवा या फिर अस्पताल स्तर पर टीबी से जंग नहीं लड़ी जा सकती है। असली लड़ाई जमीन पर वहां हो रही है जहां डर, चुप्पी और बदनामी की जड़ें हैं। लोगों को बीमारी से कम, टीबी नाम से ज्यादा डर है जो जांच और इलाज में तो देर करता ही है, साथ ही बीमारी को और शरीर- समाज में भी फैलाता है।"
उन्होंने कहा कि प्रशासन या फिर सरकार ने उन हालात के आगे अपनी नीति को बदला है। भले ही सामान्य स्वास्थ्य जांच कहकर लोगों को वहां तक लाया जा रहा है। इस पर नैतिक बहस हो सकती है लेकिन यकीन मानिए यह झूठ कई जिंदगियों को बचा भी रहा है।
इस बीच मुस्कराते हुए उन्होंने ये भी कहा, "हम मंत्रालय की ओर से बार बार इसका जिक्र करते हैं और आज भी कह रहा हूं कि वहां जमीन पर इस पूरी लड़ाई में सबसे बड़ा रोल महिलाओं यानी आशा बहनों का है जो न सिर्फ इलाज तक पहुंच बना रही हैं, बल्कि कई बार अपने ही परिवार और समाज के डर से भी टक्कर ले रही हैं। मैं हर बार अपने साथियों और राज्य अधिकारियों से बैठक में कहता हूं कि यह सिर्फ टीबी के खिलाफ जंग नहीं है, यह जंग भरोसा, संवाद और खामोश समाज की उस चुप्पी को तोड़ने की है जो पूरे देश के लिए बीमारी से ज्यादा जोखिम भरी साबित होती है।"
फोटो कैप्शन : शिलांग के राज्य टीबी अस्पताल में मिला भारत की पूर्व और अब तक की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का यह संदेश, उन्होंने 70 के दशक में कहा- टीबी, देश की सबसे बड़ी सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या बनी हुई है। इस पर नियंत्रण के लिए युद्ध स्तर पर कार्य करना होगा। सरकारी, गैर सरकारी, चिकित्सा, अर्ध चिकित्सा और आम नागरिक तक की यह जिम्मेदारी है कि वह सब कुछ करे जो संभव हो सकता है। अंत में उन्होंने कहा, "हम सभी को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हमारे देश से तपेदिक का उन्मूलन हो।" यही संदेश और प्रयास 2014 में पहली बार प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार कर रही है। स्त्रोत - अलका बरबेले
USAID बंद होने से टीबी पर कितना प्रभाव पड़ा है
नई दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के सामाजिक चिकित्सा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र अध्यक्ष एवं प्रोफेसर राजीव दासगुप्ता बताते हैं कि USAID के सहयोग से भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र की कई बड़ी योजनाओं को संचालित किया जा रहा है। मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य, कुपोषण, परिवार नियोजन, किशोर स्वास्थ्य, पोलियो उन्मूलन, टीकाकरण, तपेदिक (टीबी), एड्स, रोग निगरानी, स्वास्थ्य सुरक्षा, शहरी स्वास्थ्य सहित पूरी स्वास्थ्य प्रणाली में सुधार और महामारी की तैयारी इसके प्रमुख हिस्सा है।
अगर टीबी रोग को लेकर बात करें तो USAID बंद होने से भारत में टीबी नियंत्रण कार्यक्रमों खासतौर पर कमजोर समूह में नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। USAID की वित्तीय सहायता से टीबी स्क्रीनिंग और उपचार कार्यक्रमों को समर्थन मिला, लेकिन अब इन कार्यक्रमों में कटौती की गई है।
आंकड़े बताते हैं कि 1998 से भारत में टीबी से लड़ने के लिए 140 मिलियन डॉलर से अधिक खर्च किए गए। USAID के समर्थन से 10,000 रोगियों को दवा प्रतिरोधी टीबी उपचार उपलब्ध कराया जा रहा था, जो कि अब प्रभावित हो सकता है। प्रो. राजीव दासगुप्ता बताते हैं कि भविष्य में इससे टीबी के नोटिफिकेशन पर काफी असर पड़ सकता है।
नई दिल्ली स्थित डॉ. राम मनोहर लोहिया अस्पताल (आरएमएल) के वरिष्ठ डॉ. अमित सूरी बताते हैं कि टीबी की भौगोलिक स्थिति को लेकर बहुत कम अध्ययन अब तक हुए हैं लेकिन शहरों के साथ साथ ग्रामीण क्षेत्रों में इस संक्रमण का प्रसार सबसे अधिक है। सबसे बड़ी समस्या छोटे गांव और पिछड़े जिलों में जांच सुविधाओं का अभाव या फिर इस बीमारी को सामाजिक कलंक समझना है जिसके चलते लोग स्वास्थ्य सेवाओं तक नहीं पहुंचते हैं और बीमारी पकड़ से बाहर रहती है।
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि साल 2017 से 2019 के बीच भारत के ग्रामीण क्षेत्रों पर ध्यान बढ़ाने से टीबी के नए मरीजों की संख्या में कई गुना इजाफा हुआ है। 2017 में पूरे देश में कुल 18.27 लाख टीबी मरीज मिले जिनमें 4,70,185 रोगी ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों से थे लेकिन 2018 में कुल 21.52 में से 9.05 और 2019 में कुल 21.46 में से 11.59 लाख मरीज सामने आए। 2023 में यह संख्या 16 लाख तक पहुंच गई है क्योंकि भारत सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में 50 हजार की आबादी पर एक माइक्रोस्कोपी केंद्र (डीएमसी) स्थापित किया है जो पहले एक लाख से अधिक की आबादी पर होता था।
नोट: सभी तस्वीरें और नाम लोगों की सहमति के बाद प्रकाशित की गयी है।