खनन विस्थापन के कारण झारखंड के आदिवासी- मूल निवासी अपनी पैतृक भूमि छोड़ने को मजबूर
झारखंड में कोयला खनन ने आदिवासी व स्थानीय समुदायों को अपनी जमीन से उजड़ने पर मजबूर कर दिया है। वहीं, अन्य राज्यों से प्रवासी लोग खनन उद्योग द्वारा सृजित आजीविका के अवसरों की तलाश में दशकों से झारखंड आते रहे हैं। इसने राज्य की जनसांख्यिकी (डेमोग्राफी) को प्रभावित किया है।;
हजारीबाग/पाकुड़/रांचीः झारखंड के हजारीबाग जिले के बड़कागांव ब्लॉक की सिंदवारी पंचायत के सोनबरसा गांव के निवासी 36 वर्षीय सुरेश राम अब उस भूमि के गार्ड की नौकरी करते हैं, जिसके वे एक दशक पहले तक मालिक हुआ करते थे। उनकी जमीन कोयला परियोजनाओं के लिए अधिकृत कर ली गई है और वे उसी कोयला खनन प्रोजेक्ट में गार्ड के रूप में नौकरी कर रहे हैं।
इंडियास्पेंड हिंदी से बातचीत में वे बताते हैं कि एनटीपीसी के पकरी बरवाडीह कोयला परियोजना के लिए दो चरणों में उनकी पुरखों की जमीन अधिग्रहित की गई। 2016 में इस जमीन को नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन (एनटीपीसी) की पकरी बरवाडीह कोयला खनन परियोजना ने अधिग्रहित कर लिया था। सुरेश का कहना है कि उन्होंने बेहतर भविष्य की उम्मीद में यह सौदा किया। अनुसूचित जाति से ताल्लुक रखने वाले सुरेश ने मुआवज़े की राशि का इस्तेमाल बड़कागांव बाज़ार के पास ज़मीन खरीदने में किया। आमतौर पर उस समय एक वयस्क को मुआवज़े के तौर पर विस्थापित होने के दौरान 9.85 लाख रुपये मिलते थे, साथ ही ज़मीन और घर के बदले में पैसे भी मिलते थे, जैसा कि उन लोगों के अनुसार होता है जिन्होंने अपनी ज़मीन खो दी है। वर्तमान में मुआवज़ा राशि 10.85 लाख रुपये है।
बसने के लिए नई जमीन खरीदने के बावजूद इस पूरे क्षेत्र में कोयला परियोजनाओं के विस्तार के मद्देनजर सुरेश को लगता है कि भविष्य में वहां से भी विस्थापित होना पड़ सकता है। सुरेश की तरह इस इलाके में अनेकों युवक हैं जो तेजी से यहां कोयला परियोजनाओं के लिए हो रहे विस्तार में गार्ड के रूप में नौकरी कर रहे हैं और यह उनकी आजीविका का नया आधार है। हमारी रिपोर्टिंग में पाया गया कि सुरेश की कहानी झारखंड के कोयला क्षेत्र के कई लोगों की कहानी से मिलती-जुलती है।
विस्थापितों का कहना है कि कुशल नौकरियाँ ज्यादातर दूसरे राज्यों से आने वाले लोगों को मिलती हैं, जबकि स्थानीय लोग, खास तौर पर अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति के लोग अपने पुरखों के मूल निवास स्थल से विस्थापित हो जाते हैं। कई लोग जिन्होंने अपनी पैतृक जमीन छोड़ दी है, वे आजीविका के अवसरों की तलाश में राज्य से बाहर चले जाते हैं।
झारखंड पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन नीति 2008 में कहा गया है, "प्राकृतिक न्याय की मांग है कि झारखंड में होने वाली किसी भी विकास गतिविधि का लाभ परियोजना से प्रभावित स्थानीय लोगों को भी मिलना चाहिए, जो अपनी जमीन, जंगल, जल संसाधन और अन्य प्राकृतिक संसाधनों का त्याग करते हैं, जबकि बाहर से आने वाले प्रवासी या निवेशक ऐसा नहीं करते"। लोगों के पिछले अनुभव से पता चलता है कि झारखंड में विभिन्न परियोजनाओं के कारण विस्थापित हुए अधिकांश लोगों का न तो उचित पुनर्वास हुआ है और न ही उन्हें फिर से बसाया गया है। इस प्रकार विस्थापन के कारण स्थानीय लोगों को आजीविका की तलाश में राज्य से कहीं और पलायन करना पड़ा है। इस नीति में कहा गया है, "झारखंड के लोगों, खासकर आदिवासियों की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक पहचान प्रवासी समूहों के कारण प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुई है"।
झारखंड में कोयला खनन के लिए ली गई जमीन का आकार
झारखंड के 24 में 12 जिलों में कोयला खदानें हैं, जिसमें 11 जिलों की खदानें ऑपरेशनल (धनबाद, बोकारो, रांची, रामगढ़, हजारीबाग, गिरिडीह, गोड्डा, पाकुड़, देवघर लातेहार, चतरा एवं पलामू, इसमें वर्तमान में पलामू की खदान ऑपरेशनल नहीं है) हैं।
झारखंड में पहले से कोल इंडिया लिमिटेड की तीन सहायक कंपनियां सेंट्रल कोलफील्ड्स लिमिटेड (सीसीएल), भारत कोकिंग कोल लिमिटेड (बीसीसीएल) और इस्टर्न कोलफील्ड लिमिटेड (इसीएल) कोयला खनन करती रहीं हैं।
इंडियास्पेंड हिंदी द्वारा की गई गणना के मुताबिक राज्य में इन तीन कोयला खनन कंपनियों के लिए अबतक कम से कम 75033.53 हेक्टेयर (1, 85, 411.72 एकड़) जमीन का अधिग्रहण किया गया है। इसमें बीसीसीएल के नियंत्रण वाले वेस्ट झरिया कोल माइनिंग एरिया की मुनीडीह कोयला खदान और बीसीसीएल के ही ब्लॉक - ई कोयला खनन क्षेत्र के लिए अधिग्रहित की गई भूमि का ब्यौरा शामिल नहीं है। राज्य में सीसीएल के द्वारा 44825.71 हेक्टेयर (110791.45 एकड़), इसीएल के द्वारा 5670 हेक्टेयर (14010.87 एकड़)और बीसीसीएल के द्वारा कम से कम 24,573.8 हेक्टेयर (60723.18 एकड़) जमीन का अधिग्रहण किया गया है।
हालांकि सरकार द्वारा निजी कंपनियों को वाणिज्यिक कोयला खनन की अनुमति दिए जाने के बाद अब कोयला खनन का परिदृश्य बदल रहा है और कई निजी कंपनियों को झारखंड में कोल ब्लॉक आवंटित किये गये हैं। भारत सरकार के नियंत्रण वाली बिजली उत्पादक कंपनी एनटीपीसी भी सीधे तौर पर खुद के थर्मल पॉवर के लिए कोयला खदानें ले रही है, जो परंपरागत रूप से कोल इंडिया की कंपनियों की आपूर्ति पर निर्भर रहती रही है। वर्ष 2029-30 तक देश में कोयले का उत्पादन 1.5 बिलियन टन तक बढ़ने का अनुमान है, जो वर्ष 2023-24 के 1012.14 मिलियन टन से करीब डेढ़ गुणा अधिक होगा। जाहिर है कि उत्पादन वृद्धि में झारखंड का भी योगदान होगा और इसका यहां प्रभाव भी पड़ेगा।
कोयला के अलावा दो प्रमुख खनिजों बॉक्साइट और आयरन ओर का झारखंड में व्यापक स्तर पर खनन होता है, जिससे लोग प्रभावित होते हैं। हालांकि इसके अलावा भी कई दूसरे खनिजों जैसे कॉपर ओर, गोल्ड ओर, लाइम स्टोन, ग्रेफाइट आदि का खनन होता है। राज्य में आयरन ओर का खनन सिंहभूम क्षेत्र में होता है और इसके कुल 15 लीज हैं, जिसके लिए 16 गांवों में 8407.209 हेक्टेयर (20, 774.64 एकड़) जमीन अधिग्रहित की गई है।
झारखंड में तीन जिलों गुमला, लोहरदगा व लातेहार में कम से कम 4266.02 हेक्टेयर भूमि पर बॉक्साइट खनन का लीज है।
यानी राज्य में तीन प्रमुख प्रमुख खनिजों (मेजर मिनरल) के लिए अबतक कम से कम 87,706.759 हेक्टेयर (216727.929 एकड़) भूमि अधिग्रहित की गई है। इस आकार की परिकल्पना आप ऐसे कर सकते हैं कि यह बेंगलुरु शहर (74100 हेक्टेयर) से भी आकार में बड़ा है। अधिग्रहित भूमि से बड़ी संख्या में लोगों को विस्थापित किया गया और वहां की जैव विविधता नष्ट हुई।
इस आंकड़े में बीसीसीएल की कुछ पुरानी कोयला खदानों सहित, नई व एनटीपीसी एवं निजी क्षेत्र की कोयला खदानों का ब्यौरा, तीन प्रमुख खनिजों को छोड़ अन्य खनिजों, पॉवर प्लांट, उद्योगों एवं डेम जैसी आधारभूत संरचनाओं के लिए अधिग्रहित भूमि का ब्यौरा शामिल नहीं है।
पुनर्वास के टूटे वादे
झारखंड का बड़कागांव क्षेत्र में कोयला परियोजनाओं का तेजी से विस्तार हो रहा है। यह अपेक्षाकृत एक नया कोयला खनन क्षेत्र है। सेंट्रल माइन प्लानिंग एंड डिजाइन इंस्टीट्यूट (सीएमपीडीआई) द्वारा चिह्नित कोयला क्षेत्रों में विसंगति है, जैसा कि लोक हित वाले एक पर्यावरणीय कानून समूह, लीगल इनिशिएटिव फॉर फॉरेस्ट एंड एनवायरनमेंट (लाइफ) द्वारा किए गए अध्ययन में पाया गया है। इस इलाके में चिह्नित कोयला खदानों की संख्या बहुत अधिक है। उत्तरी करणपुरा कोलफील्ड में लगभग 57 कोयला ब्लॉक और दक्षिणी करणपुरा कोलफील्ड में 26 कोयला ब्लॉक हैं। बड़कागांव करणपुरा क्षेत्र के अंतर्गत आता है।
हजारीबाग, रामगढ़, रांची, लातेहार और चतरा जिले में फैले करणपुरा कोलफील्ड में कम से कम 203 गांव शामिल हैं।
“लाइफ” के अध्ययन के अनुसार, अकेले करणपुरा कोलफील्ड 1,420 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला है, जो राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के लगभग बराबर है। इसमें से 425.37 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र है।
आजादी बचाओ आंदोलन के संयोजक और बड़कागांव क्षेत्र के निवासी मिथिलेश दांगी कहते हैं, “करणपुरा घाटी में 83 कोयला ब्लॉक चिह्नित किए गए हैं और एक बार सभी कोयला ब्लॉक शुरू हो जाने के बाद पूरे बड़कागांव ब्लॉक में एक भी गांव नहीं बचेगा, सभी को विस्थापित होना पड़ेगा”।
उदाहरण के तौर पर अगर हम सिर्फ एनटीपीसी के नियंत्रण वाली मात्र एक पकरी बरवाडीह कोयला खनन परियोजना की बात करें तो इसके लिए 3319.42 हेक्टेयर (8202.458 एकड़) जमीन का अधिग्रहण किया जाएगा, जिसकी प्रक्रिया बीते कुछ सालों से निरंतर जारी है। पकरी बरवाडीह कोयला खनन परियोजना उत्तरी करणपुरा कोल माइनिंग एरिया के अंतर्गत आती है।
पकरी बरवाडीह कोयला खदान का विस्तार कम से कम 19 गांवों में है, जहां से लोगों का विस्थापन जारी है। इनमें कई गांव पूरी तरह खत्म हो गये हैं और वहां की आबादी विस्थापित हो चुकी है। एनटीपीसी के एक दस्तावेज में उल्लेख है कि पकरी बरवाडीह कोयला खदान का विस्तार बड़कागांव, इतिज, चिरुआडीह, उरूब, चेपा, कलां, नगड़ी, जुगड़ा, सिंदवारी, चुरचू, आराहरा, सोनबरसा, पकड़ी बरवाडीह, चेपा खुर्द, देवरा कलां, लौकरा, लंगतु, केरी, डाड़ी कलां गांव में है। इनमें इतिज, चुरचू, उरूब जैसे गांव से लोगों का विस्थापन हो गया है, जबकि कई दूसरे गांवों से विस्थापित होने का क्रम जारी है और उनका एक हिस्सा कोयला खनन परियोजना में समाहित हो चुका है। पकरी बरवाडीह कोयला खनन परियोजना को मिली पर्यावरणीय मंजूरी के अनुसार, इसके पहले चरण के लिए कुल 3319.42 हेक्टेयर जमीन लीज (अधिग्रहण) पर ली जाएगी, जिसमें 1950.51 हेक्टेयर कृषि भूमि, 101.22 हेक्टेयर मानव बसावट वाली जमीन के अलावा 643.9 हेक्टेयर वन भूमि एवं अन्य प्रकृति की जमीन शामिल हैं।
भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन में उचित मुआवज़ा और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013 (आर एफसीटीएलएआरआर) के बजाय, लोक सेवा उपक्रमों द्वारा कोयला परियोजनाओं के लिए भूमि का अधिग्रहण कोयला धारक क्षेत्र (अधिग्रहण और विकास) अधिनियम, 1957 (सीबीए, 1957) के तहत किया जाता है। इस अधिनियम में सामाजिक प्रभाव आकलन की आवश्यकता नहीं है। “मुआवजे का एकमात्र रूप मौद्रिक(नकद) है, जिसमें भूमि का बाजार मूल्य, किसी भी खड़ी फसल या पेड़ को नुकसान, भूमि पर किसी भी अचल संपत्ति को नुकसान और प्रभावित भूमि मालिक के निवास स्थान या व्यवसाय को बदलने के लिए उचित खर्च शामिल हैं। हालांकि, व्यवहार में भूमि का बाजार मूल्य उस तिथि पर तय होता है जिस दिन सरकार (सरकार का उपक्रम) भूमि अधिग्रहण करने की अपनी मंशा घोषित करती है, न कि वास्तविक अधिग्रहण की तिथि पर,” 2022 के ऑक्सफोर्ड वर्किंग पेपर में पाया गया।
इसके अलावा, सीबीए, 1957 में किसी ऐसे व्यक्ति के लिए कोई सुरक्षा नहीं है जो पहले से ही विस्थापित हो चुका है। 2013 के कानून में कहा गया है कि या तो पहले विस्थापित हुए लोगों को फिर से विस्थापित नहीं किया जाएगा या उन्हें दोगुना मुआवजा दिया जाएगा। पकरी बरवाडीह खदान के लिए अपनी जमीन खोने वालों का कहना है कि मुआवजे के लिए पूर्व-निर्धारित दर 20-24 लाख रुपये प्रति एकड़ के बीच है, और प्रति वयस्क व्यक्ति की राशि वर्तमान में 10.85 लाख रुपये है।
कोयला बड़े पैमाने पर खनन किया जाने वाला खनिज है और कोयला क्षेत्र (अधिग्रहण एवं विकास) अधिनियम, 1957 के तहत कोयला परियोजनाओं के लिए जमीन ली जाती है और उससे व्यापक स्तर पर लोगों का विस्थापन होता है।
केंद्र सरकार ने कोयला क्षेत्र (अधिग्रहण एवं विकास) संशोधन विधेयक, 2024 (Coal Bearing Areas (Acquisition and Development) Amendment Bill, 2024)का ड्राफ्ट आम नागरिकों की टिप्पणियों व सुझावों के लिए जारी किया, जिस पर 27 दिसंबर 2024 तक सुझाव मांगे गए।
जो क्षेत्र कोयला खनन के अंतर्गत नहीं आते हैं, उनके लिए 2013 का भूमि अधिग्रहण कानून या पुराना 1894 का भूमि अधिग्रहण कानून लागू किया जाता है।
दाड़ी कलां पंचायत के मंझली दाड़ी गांव की 40 वर्षीया पूनम देवी पकरी बरवाडीह कोयला खनन के कारण अपने परिवार के विस्थापन को याद करती हैं। जब उनकी ज़मीन अधिग्रहित की गई थी, तब उन्हें रोजगार देने का वादा किया गया था। पूनम एनटीपीसी के लिए कांट्रेक्ट के तहत खनन करने वाले कंपनी त्रिवेणी सैनिक द्वारा स्थापित एक कपड़ा कारखाने में काम करती थीं, जबकि उनके पति 42 वर्षीय विजय कुमार महतो खदान में बुलडोजर चलाते हैं। कुछ सालों तक काम करने के बाद वर्ष 2024 में कपड़ा कारखाना बंद हो गया और पूनम की नौकरी चली गई।
हजारीबाग की उपायुक्त नैंसी सहाय ने इंडियास्पेंड हिंदी से बातचीत में, स्वीकार किया कि खनन कंपनी त्रिवेणी सैनिक के द्वारा विस्थापित महिलाओं के लिए शुरू की गई रोजगार पहल बंद कर दी गई है, जिससे प्रभावित महिलाओं के लिए मुश्किलें पैदा हुई हैं। उन्होंने कहा कि प्रशासन उनके लिए वैकल्पिक रोजगार के अवसर तलाश रहा है। उन्होंने यह भी बताया कि जैसे-जैसे परिवार विस्थापित होते हैं, उनकी पहचान सुनिश्चित करने के लिए उन्हें विस्थापन कार्ड जारी किए जाते हैं और यह एक सतत प्रक्रिया है।
सोनबरसा गांव के दंपती अंदू राम 60 वर्ष व आनंदी देवी 55 वर्ष ने 2016 में पकरी बरवाडीह परियोजना के कारण अपनी ज़मीन गांव दी और उन्हें जल्द ही गांव में अपना पैतृक मकान भी खाली करना होगा। ज़मीन के पैसे से उन्होंने हजारीबाग के दामोडीह में ज़मीन खरीदी, जो उनकी पैतृक ज़मीन से लगभग 20 किलोमीटर दूर है।
आनंदी देवी कहती हैं, “गांव को छोड़ कर बहुत सारे लोग दूसरी जगह बसने चले गये, जिसे जहां जमीन मिली वह वहां चल गया, हमलोगों को भी जाना होगा”। अंदू राम कहते हैं कि सरकार की विस्थापन नीति ठीक नहीं है, विस्थापित होने के बाद लोकल लोगों को रोजगार नहीं मिलता है, कंपनी वाले बाहर वालों को काम पर रखने को प्राथमिकता देते हैं। कोयला परियोजनाओं से प्रभावित स्थानीय लोग आरोप लगाते हैं कि उन्हें अकुशल रोजगार दिया जाता है और कुशल कामगार बाहर से रखे जाते हैं।
झारखंड जनाधिकार महासभा के सदस्य प्रवीर पीटर इंडियास्पेंड हिंदी से बातचीत में कहते हैं, “स्थानीय लोगों के शिक्षा का स्तर कम होने से उन्हें नुकसान अधिक होता है और खनन प्रभावित पहली पीढ़ी अगर नौकरी पाती भी है तो उसकी अगली पीढ़ी नौकरी नहीं पा पाती है, सरकारी कंपनियां अब थर्ड पार्टी (निजी कंपनियों) के जरिये खनन का काम करवाने लगी हैं, जिससे रोजगार और आजीविका का संकट और बढ़ा है”।
बड़कागांव से सटे केराडारी ब्लॉक में स्थित देवरिया खुर्द गांव में, जहां पकरी बरवाडीह खदान का विस्तार किया जाएगा, 58 वर्षीय भीखलाल यादव कहते हैं, ष्हमारे परिवार की संयुक्त भूमि एनटीपीसी ने अधिग्रहित कर ली है, और अब हमारे परिवार के पास केवल 10 कट्ठा जमीन बची है।ष् झारखंड के भूमि राजस्व विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार, लगभग 79 कट्ठा जमीन एक हेक्टेयर होती है।
बड़कागांव से सटे केरेडारी ब्लॉक के देवरिया खुर्द गांव के 58 वर्षीय भीखलाल यादव कहते हैं, हमारे गोतिया की साझा जमीन थी, जिसे एनटीपीसी कंपनी ने अधिग्रहित कर लिया और अब हमारे परिवार के पास 10 कट्ठा जमीन बची है। झारखंड के भूमि राजस्व विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार, लगभग 79 कट्ठा जमीन एक हेक्टेयर होती है।
भीखलाल यादव की 26 वर्षीया बहू सोनिया कुमारी कहती हैं, आधे देविरया खुर्द की नापी हो गई है, लोगों को मुआवजा भी मिला है, अगर हमलोगों की यह जमीन भी चली गई तो बहुत दिक्कत होगी, हमें बैठने के लिए भी सोचना होगा। सोनिया आठ साल पहले भीखलाल यादव के बेटे अजय यादव से शादी कर इस घर में आयी थीं। वे कहती हैं, हम अगर दूसरे गांव बसने जाएंगे तो बहुत दिक्कत होगी, यहां हम गाय-बकरी रखते हैं, वहां रख पाएंगे क्या? वे कहती हैं, अधिग्रहित जमीन का जिस दर से मुआवजा मिलता है, उसकी तुलना में दूसरी जगह नई जमीन बहुत महंगे में मिलती है। वे व अन्य स्थानीय विस्थापित लोग कहते हैं कि आसपास के इलाके में जमीन की कीमत तीन से 20 लाख रुपये प्रति कट्ठा है और कीमत क्षेत्र व सड़क मार्ग से उसके जुड़ाव पर निर्भर करती है। जबकि हजारीबाग जिला भू अर्जन कार्यालय से मिली जानकारी के अनुसार, मुआवजा की दर 20 से 24 लाख रुपये प्रति एकड़ (00 .40 हेक्टेयर) है। झारखंड में करीब ढाई ढाई एकड़ का एक हेक्टेयर होता है और एक एकड़ में 32 कट्ठा होते हैं।
स्थानीय लोगों के लिए जमीन का नुकसान पहचान के संकट से भी जुड़ा है। इसी गांव (देवरिया खुर्द) के 45 वर्षीय शिक्षक रामनरेश यादव कहते हैं, “कोयला खनन परियोजनाओं के विस्तार के लिए जमीन अधिग्रहण से यहां के लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है, लोगों का खतियान खत्म हो जाने से उनके सामने पहचान का संकट उत्पन्न हो जाता है। जाति प्रमाण पत्र, आवासीय प्रमाण पत्र बनाने के लिए खतियान की जरूरत होती है, लेकिन जब वह लोगों के पास नहीं होगा तो दिक्कत आएगी”।
रामनरेश यादव बताते हैं कि पकरी बरवाडीह खदान व उसके ओबी (खदान का ओवर बर्डन) की धूल हवा में उड़ कर व पानी के साथ बह कर हमारे गांव के बचे खेतों में आता है, जिससे उनकी उर्वरता खत्म हो रही है और फसलें प्रभावित हो रही हैं। वे कहते हैं, “यहां की जमीन बहुत उर्वर रही है; गेहूं, चना होता था, अब नही होता, चना को सिर्फ छींट देने से वह हो जाता था, पर अब ऐसा नहीं है।”।
लखनऊ विश्वविद्यालय की शोधार्थी पूनम त्रिपाठी द्वारा 2018 में किए गए अध्ययन में पाया गया कि विस्थापन के कारण बेघर होना, बेरोजगारी, खाद्य असुरक्षा, सामुदायिक संपत्ति तक पहुंच का नुकसान, सामाजिक विघटन और अनुसूचित जनजातियों में बीमारियों और मृत्यु दर में वृद्धि हुई है।
हजारीबाग के जिला भूमि अधिग्रहण अधिकारी निर्भय कुमार ने इंडियास्पेंड हिंदी से कहा, “कोयला परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण अलग-अलग तरीकों से किया जाता है और हम केवल भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत अधिग्रहित की जाने वाली भूमि से संबंधित मामलों को ही देखते हैं। सीबीए 1957, वन भूमि या सरकारी भूमि से संबंधित मामले हमारे अधिकार क्षेत्र से बाहर हैं। पकरी बरवाडीह कोयला परियोजना को 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून से पहले मंजूरी दी गई थी, इसलिए वहां भूमि का अधिग्रहण 1894 के भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत किया जा रहा है। अबतक, हमारे विभाग के माध्यम से 743.64 एकड़ (300.94 हेक्टेयर) भूमि का अधिग्रहण किया गया है और 688.56 एकड़ (278.65 हेक्टेयर) के लिए भुगतान किया गया है, जबकि 55.07 एकड़ (22.28 हेक्टेयर) भूमि का मुआवजा अभी भी लंबित है”। अन्य क्षेत्र जो सीधे खनन क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं, वहां भूमि अधिग्रहण के लिए सीबीए, 1957 का उपयोग किया जाता है।
उन्होंने प्रभावित परिवारों की संख्या बताने में यह कहकर असमर्थता जाहिर की कि एक ही परिवार में वयस्क सदस्यों के आधार पर कई शाखाएं होती हैं, इसलिए सही संख्या बता पाना मुश्किल है।ं साथ ही उनके विभाग द्वारा सभी भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जाता है।
विस्थापित होने वाले प्रत्येक 18 वर्ष के व्यक्ति को एक अलग परिवारिक इकाई माना जाता है और वह मुआवजे के लिए पात्र होता है। लेकिन उम्र निर्धारित करने के लिए कटऑफ तिथि क्या होनी चाहिए, इस पर असहमति है। उदाहरण के लिए, यदि कागजों पर 40 साल पहले भूमि अधिग्रहित की गई थी, लेकिन परिवार को केवल चार साल पहले अपनी भूमि छोड़ने के लिए कहा गया तो प्रभावित परिवारों की मांग है कि उस समय के सभी वयस्कों को मुआवजा का पात्र माना जाए, न कि उस तारीख को जब औपचारिक रूप से भूमि अधिग्रहण किया गया था।
विस्थापित परिवारों में वयस्क परिवार के सदस्यों की संख्या निर्धारित करने की कटऑफ तिथि के बारे में हजारीबाग की उपायुक्त नैंसी सहाय ने कहा, यह एक नीतिगत मामला है, और हम इसमें ज्यादा हस्तक्षेप नहीं कर सकते। वर्तमान में भूमि अधिग्रहण की अधिसूचना की तिथि को कटऑफ तिथि माना जाता है।
हजारीबाग की उपायुक्त नैंसी सहाय ने इंडियास्पेंड से बातचीत में कहा, “विस्थापन हमारे जिले में बहुत बड़ी चुनौती है, 2014 के बाद से जिले में कई नए माइनिंग प्रोजेक्ट आए हैं और कई आने वाले हैं। ऐसे में हमारे लिए संतुलन बनाना एक चुनौती होती है, हमें यह देखना पड़ता है कि जो हमारे लोग विस्थापित हो रहे हैं उनके हितों की रक्षा कैसे हो और यह भी देखना होता है कि देश के आर्थिक विकास व ऊर्जा जरूरतों के लिए ये डेवपलमेंट प्रोजेक्ट भारत सरकार की महत्वपूर्ण पहल हैं। हमें दोनों के बीच संतुलन बनाना होता है।
सहाय कहती हैं कि कुछ गांवों में माइनिंग व ऐसे प्रोजेक्ट के लिए जमीन अधिग्रहण का विरोध होता है तो कई जगह दिक्कतें कम आती हैं। वे कहती हैं, अधिग्रहित की जाने वाली जमीन के मुआवजे के लिए भी जिरह होती है और यह लोगों के असंतोष की एक वजह होती है।
लघु खनन का लोगों व पर्यावरण पर प्रभाव
पत्थर का खनन आमतौर पर कोयले की तुलना में छोटे भूखंडों में किया जाता है। हालांकि राज्य के कुछ हिस्सों में बड़ी संख्या में पत्थर की खदानों और अनियंत्रित खनन के कारण, इसका असर अधिक व्यापक क्षेत्र में नजर आता है, जैसा कि आंकड़ों से पता चलता है। दुमका सर्कल में, लघु खनिजों के लिए 1,507 खनन पट्टे हैं, जिनमें सबसे अधिक संख्या साहिबगंज (456, जिनमें से 83 चालू हैं) में है, उसके बाद पाकुड़ (415, जिनमें से 99 चालू हैं) और दुमका (306, जिनमें से 43 चालू हैं) हैं।
उत्तरी छोटानागपुर क्षेत्र में हजारीबाग जिले से लगभग 330 किलोमीटर दूर संताल परगना क्षेत्र में स्थित पाकुड़ जिला व अपने पड़ोसी जिले साहिबगंज के साथ पत्थर खनन का एक प्रमुख केंद्र है।
पाकुड़ जिले के पाकुड़ प्रखंड के सालबोनी गांव के 34 वर्षीय बाबूजी हेम्ब्रम कहते हैं, हमारे गांव की जमीन पत्थर की खदानों के लिए ले ली गई है और चूंकि स्थानीय स्तर पर कोई रोजगार नहीं है, इसलिए लोग काम के लिए बाहर जाते हैं, जो लोग यहां रहते हैं वे पत्थर की खदानों में मजदूरी करते हैं, जबकि खदान मालिक इन खदानों से पैसे कमाते हैं। उनका कहना है कि पत्थर के क्रशर से निकलने वाली धूल और खनन के कारण स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं पैदा होती हैं, जबकि इलाके में इस वजह से जल स्तर भी नीचे चला गया है।
नवीनगर पंचायत के मुखिया मनोज किस्कू कहते हैं, इस इलाके के 30 से 40 प्रतिशत संताल आदिवासी काम के लिए बाहर जाते हैं, क्योंकि उन्हें स्थानीय स्तर पर रोजगार नहीं मिलता। वे मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, केरल और तमिलनाडु जाते हैं। उनका कहना है कि पत्थर खनन के कारण बासमाता, पीपलजोरी, सालबोनी और खपराजोला समेत इलाके के कई गांवों के लोग घर छोड़कर चले गए हैं।
पाकुड़ जिले के ही हिरणपुर प्रखंड के तालपहाड़ी गांव में एक आदिवासी युवक ने नाम का उल्लेखन नहीं करने की शर्त पर कहा, हमारे गांव के आसपास पत्थर खनन और क्रशर के कारण गायों के चरने के लिए जगह नहीं बची है। हमलोगों ने इसका विरोध किया था, लेकिन गांव के कुछ दबंग लोग खनन करने वालों से मिले हुए हैं।
विस्थापन आयोग का प्रस्ताव व और तकनीकी दिक्कतें
नेसार अहमद द्वारा भारतीय सामाजिक संस्थान, नई दिल्ली के लिए 2003 में किए गए एक अध्ययन, जिसका शीर्षक था महिलाएं, खनन और विस्थापन, में पाया गया कि 1951 से 1995 के बीच एकीकृत हजारीबाग जिले में 1,14,878 लोग विस्थापित हुए, जिनमें से लगभग 41 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति और 11 प्रतिशत अनुसूचित जाति समुदायों से थे। अध्ययन में यह भी कहा गया है कि आदिवासी आबादी राष्ट्रीय आबादी का 7.5 प्रतिशत है, जबकि वे 1990 तक विस्थापित लोगों का 40 प्रतिशत हिस्सा हैं।
झारखंड पुनर्वास और पुनर्स्थापन नीति 2008 में औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया में अनुसूचित जनजातियों और स्थानीय समुदायों के हितों की रक्षा करने की सिफारिश की गई है। नीति में खनन और औद्योगिक उद्देश्यों के लिए आदिवासियों से अधिग्रहित भूमि के बजाय बंजर, खाली और गैर-कृषि भूमि का उपयोग करने का सुझाव दिया गया है।
जुलाई 2024 में झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के नेतृत्व वाली सरकार ने विस्थापित व्यक्तियों के बारे में डेटा एकत्र करने और सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण कराने के लिए विस्थापन आयोग की घोषणा की थी।
झारखंड के भू राजस्व मंत्री दीपक बिरुआ ने इंडियास्पेंड हिंदी से बातचीत में कहा, “हम विस्थापन आयोग के गठन और उसके स्वरूप के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा कर रहे है और इस संबंध में निकट भविष्य में निर्णय लेंगे। हम यह डेटा जुटाएंगे कि राज्य में विभिन्न खनन, औद्योगिक व संरचनागत परियोजनाओं से कितने परिवार व लोग विस्थापित हुए हैं। बिरुआ ने कहा कि फिलहाल इस संबंध में कोई पक्का आंकड़ा नहीं है”। इस सवाल पर कि इस प्रक्रिया में कितना वक्त लगेगा, मंत्री ने कहा, “हम अभी कोई समय सीमा नहीं बता सकते हैं, लेकिन हम जल्द इस दिशा में पहल करेंगे”।
भू राजस्व विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने इंडियास्पेंड हिंदी को बताया कि देश के किसी राज्य में फिलहाल विस्थापन आयोग नहीं है, जिसके मॉडल का हम अनुकरण कर सकें। इसलिए फिलहाल इसके गठन को लेकर नियमावली बनाने की प्रक्रिया की दिशा में हमने कदम बढाया है। उक्त अधिकारी ने कहा कि बहुत सारी परियोजनाएं बहुत पहले की हैं, ऐसे में प्रभावितों का आंकड़ा जुटाना एक मशक्कत भरा काम है, लेकिन संबंधित विभाग के साथ इसके लिए पहल की जाएगी, जैसे खनन विस्थापितों के लिए खनन विभाग के साथ और डेम जैसी परियोजनाओं के लिए सिंचाई विभाग के साथ।
झारखंड जंगल बचाओ आंदोलन के संस्थापक संजय बसु मलिक ने विस्थापन आयोग की संरचना के बारे में उनका विचार व नजरिया पूछे जाने पर कहा, “सरकार ने अभी तक ऐसे आयोग के बारे में नागरिक समाज से संपर्क नहीं किया है”। मलिक कहते हैं, “झारखंड के गठन के 24 साल बाद भी, राज्य पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम (पेसा अधिनियम), 1996 के लिए नियम बनाने में विफल रहा है, जो अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभाओं को मजबूत करता है। इन क्षेत्रों में भूमि अधिग्रहण करने से पहले ग्राम सभा की अनुमति की आवश्यकता होती है। लेकिन चूंकि राज्यों में यह कानून स्वतः लागू नहीं होता है, इसलिए पेसा वर्तमान में नियमावली के अभाव में झारखंड पर लागू नहीं है। राज्य सरकार दिसंबर 2024 तक अधिनियम की नियमावलीं को अंतिम रूप दे रही थी। मलिक कहते हैं कि ऐसी परिस्थिति में, 2006 का वन अधिकार अधिनियम ग्रामीणों के लिए अपनी भूमि की रक्षा करने का एक शक्तिशाली साधन है। यदि ग्रामीण वन भूमि अधिकार के लिए आवेदन करते हैं तो यह भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया में बाधा बन सकता है।