चक्रवातों से लेकर लू तक, कैसे जलवायु संकट भारत के बिजली क्षेत्र को प्रभावित कर रहा है
अध्ययनों से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन के कारण लगातार होने वाली चरम मौसमी घटनाएं बिजली कटौती के समय को बढ़ा रही हैं;
चंडीगढ़: 12 अक्टूबर, 2014 को चक्रवात हुदहुद ने तटीय आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम से लगभग 30 किलोमीटर दूर स्थित भीमुनिपटनम तट को काफी नुकसान पहुंचाया था। उस समय रघुनाथ की उम्र 15 साल थी।
260 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलने वाले इस तूफान ने पेड़ों, झोपड़ियों और खाने की दुकानों को तहस-नहस कर दिया था। यहां तक कि बिजली के खंभों को भी ये अपने साथ बहाकर ले गया। रघुनाथ ने इंडियास्पेंड को बताया, "पेड़ों के गिरने से सड़कें जाम हो गईं। गरीब और बेघर लोगों को राजमार्ग पर खाना बांटा जा रहा था, वहां तक पहुंचने के लिए भी उन्हें कई किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ा था।"
उन्होंने कहा, "बिजली लगभग 10 दिनों तक नहीं आई और 18 दिनों के बाद ही सही आपूर्ति बहाल हो सकी। हमारे इलाके में कई ट्रांसफार्मर फट गए और सप्लाई लाइन टूट गईं।" वह आगे कहते हैं, "हम रोशनी के लिए फिर से मशालों और केरोसिन लैंप की तरफ लौट आए। जिन लोगों के पास जनरेटर थे, उन्होंने घरेलू बिजली मोटरों को चलाने के लिए प्रति घंटे 2,000 रुपये चार्ज किए। इनसे ओवरहेड टैंक भरे जाते थे।"
विशाखापत्तनम में, चक्रवात ने 27 सबस्टेशन, 4,800 ट्रांसफार्मर और 56,000 बिजली के खंभों को नुकसान पहुंचाया। लगभग 20 किलोमीटर दूर, एनटीपीसी के सिम्हाद्री सुपर थर्मल पावर स्टेशन को 34 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ और चार दिनों तक बंद रहने के कारण 373 मिलियन यूनिट बिजली जनरेट नहीं हो पाई।
यह पहली बार नहीं था जब किसी चरम मौसम की घटना की वजह से ब्लैकआउट हुआ हो।
हाल ही में नीदरलैंड की डेल्ट यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी के एक अध्ययन में पाया गया है कि भारत में तेज बारिश (40 मिमी से अधिक) से बिजली गुल होने का समय 80-220%, तेज हवाओं (50 मीटर प्रति सेकंड से अधिक) से 20-70% और लू (40 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान) से 15-60% तक बढ़ सकता है। शहरी इलाकों में भारी बाढ़ से रोजाना बिजली गुल होने का समय 2.1 से 5.5 गुना तक बढ़ सकता है।
इस अध्ययन में पूरे देश के 370 इलाकों से चार साल के प्रतिदिन बिजली कटौती आंकड़ों को, तापमान, हवा की गति, बारिश और बाढ़ के आंकड़ों के साथ जोड़ा गया था। अध्ययनकर्ताओं ने कहा, "ये हाई फ्रिक्वेंसी के आंकड़े इस बात को सत्यापित करने में मदद कर सकते हैं कि कैसे जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली चरम मौसम की घटनाएं उपभोक्ताओं दो दी जाने वाली जरूरी सेवाओं को प्रभावित करती हैं। और सबसे बड़ी बात, ये प्रभाव अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग होते हैं। यह जानकारी उन देशों के लिए महत्वपूर्ण है जो आने वाले दशकों में सभी लोगों तक बिजली पहुंचाना चाहते हैं, लेकिन उन्हें बार-बार और तेज जलवायु परिवर्तन का भी सामना करना पड़ सकता है।"
अंतर-सरकारी जलवायु परिवर्तन पैनल (IPCC) की कार्यकारी समूह की छठी आकलन रिपोर्ट में विस्तार से बताया गया है कि भारत पहले से ही घातक हीटवेव, बादल फटने, तूफान और सूखे जैसी स्थितियों का सामना कर रहा है और जलवायु संकट के साथ ये घटनाएं और भी तीव्र होने वाली हैं।
2020 में भारत के कुल कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में बिजली उत्पादन का योगदान 48% था। बिजली उत्पादन सिर्फ प्रदूषण ही नहीं बढ़ाता, बल्कि पर्यावरण पर और भी कई तरह से दबाव डालता है, मसलन कोयला निकालने के लिए वनों की कटाई, जलविद्युत परियोजनाओं के लिए सुरंग बनाना और आस पास के इलाकों को संभावित बाढ़ के खतरे के नजदीक ले आना और सौर व पवन ऊर्जा पार्कों के लिए की कई एकड़ की जमीन का अधिग्रहण करना। ये क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों और जैव विविधता को तो प्रभावित करता ही है, साथ ही स्रोत से लेकर उत्पादन और वितरण तक चरम मौसम की घटनाओं और धीरे-धीरे बदल रही जलवायु के प्रभावों का भी सामना कर रहा है।
हालांकि, कोयला पावर प्लांट के लिए, इसका मतलब घटिया ईंधन, कम उत्पादन या शटडाउन हो सकता है, लेकिन जब न्यूक्लियर प्लांट या जलविद्युत परियोजना प्रभावित होती है, तो परिणाम विनाशकारी होते हैं।
इंडियास्पेंड ने इन निष्कर्षों और इन प्रभावों को कम करने की रणनीतियों पर टिप्पणी के लिए विद्युत मंत्रालय, नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय और पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से संपर्क किया था। अभी तक हमें कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है, उनकी तरफ से प्रतिक्रिया मिलने पर इस स्टोरी को अपडेट कर दिया जाएगा।
डिजाइन में खराबी
बड़े पावर प्लांट को आमतौर पर तेज बारिश, बाढ़ और तापमान के पिछले आंकड़ों को ध्यान में रखते हुए डिजाइन किया जाता है। लेकिन, जलवायु परिवर्तन के कारण जब मौसम के औसत और चरम सीमाओं (जैसे अधिक बारिश, बाढ़, या अत्यधिक गर्मी) में बदलाव आते हैं, तो ये आंकड़े गलत हो जाते हैं। इससे बिजली संयंत्रों का इंफ्रास्ट्रक्चर अपेक्षा से ज्यादा भारी लोड या दबाव झेलता है, जिसकी गणना उनके डिजाइन में नहीं की गई होती है। ऐसा 2018 में, केरल में साफतौर पर नजर आया था, जब असामान्य रूप से भारी बारिश से बांधों पर काफी ज्यादा दबाव पड़ा और बाढ़ की स्थिति बद से बदतर हो गई।
भारतीय विज्ञान संस्थान के एक अध्ययन में पाया गया कि इन बांधों के लिए ‘नियम वक्र’ या तो उपलब्ध नहीं थे या 1983 से अपडेट नहीं किए गए थे। एक नियम वक्र बताता है कि वर्ष के अलग-अलग समय में जलाशय में कितना पानी रखा जाए ताकि बाढ़ नियंत्रण, सिंचाई, औद्योगिक और घरेलू उपयोग और संभवतः बिजली उत्पादन जैसी जरूरतें पूरी हो सकें। ये स्तर पानी के ऐतिहासिक प्रवाह या अनुमानित प्रवाह के अध्ययन से तय किए जाते हैं।
साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपल (SANDRP) के कॉर्डिनेटर हिमांशु ठक्कर ने इंडियास्पेंड को बताया, "सभी बड़े बांधों के संचालन के लिए बनाए गए नियम वक्रों को जलवायु परिवर्तन की नई चुनौतियों के हिसाब से बदलने की जरूरत है। ये दस्तावेज सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होने चाहिए ताकि बांधों के संचालन की निगरानी और जांच बेहतर तरीके से हो सके।”
वर्षों से हिमालयी क्षेत्रों में अचानक से आने वाली भारी बारिश (क्लाउड बर्स्ट), ग्लेशियर झीलों का फटना और भूस्खलन जैसी घटनाएं जलविद्युत परियोजनाओं को नुकसान पहुंचाती आ रही हैं।
2013 केदारनाथ बाढ़ की वजह से कम तीन जलविद्युत परियोजनाओं को भारी नुकसान पहुंचा था। 2021 में, ऋषि गंगा परियोजना एक चट्टान और बर्फ के हिमस्खलन की चपेट में आ गई। 2023 में, एक ग्लेशियर झील के फटने से आई बाढ़ ने सिक्किम में तीस्ता III बांध को क्षतिग्रस्त कर दिया था। इस प्रोजेक्ट में पर्यावरणीय नियमों की अनदेखी की गई थी, जिसके बारे में इंडिया स्पेंड ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था। 2024 में, हिमाचल प्रदेश में अचानक से आई एक बाढ़ ने 14 परियोजनाओं को नुकसान पहुंचाया और कम से कम आठ मजदूरों की जान ले ली थी।
इस संकट को बढ़ाने में कई जलविद्युत परियोजनाओं का हाथ भी रहा है। वनों की कटाई, पहाड़ियों को काटना, सुरंग बनाना, खनन और मलबा डंपिंग से स्थानीय भूविज्ञान चरम मौसम की घटनाओं के प्रति अधिक संवेदनशील हो गया है।
ठक्कर ने कहा, "किसी भी जलविद्युत परियोजना को बनाने से पहले, इसकी आपदा क्षमता का आकलन किया जाना चाहिए, जिसमें उस क्षेत्र के जोखिमों भी शामिल हों।" वह आगे कहते हैं, "कुल मिलाकर नदी बेसिन के सभी पहलुओं का आकलन बेहद जरूरी है क्योंकि ऐसी किसी भी परियोजना के नुकसान का व्यापक प्रभाव पड़ता है।"
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, गांधीनगर के एक अध्ययन में पाया गया है कि भविष्य में देश में और अधिक मानसूनी बारिश हो सकती है, जिससे जलविद्युत उत्पादन तो बढ़ेगा, लेकिन साथ ही उत्तरी और मध्य भारत में बाढ़ और बांध टूटने का खतरा भी उतना ही बढ़ जाएगा। इस अध्ययन में देश भर के 46 बड़े जलविद्युत बांधों के भविष्य की स्थितियों का विश्लेषण किया गया है। अध्ययन में कहा गया, "अगर विश्वसनीय पूर्वानुमान और चेतावनी प्रणाली नहीं होगी, तो जो जलाशय पहले से ही अपनी पूरी क्षमता तक पहुंच चुके हों, वहां भारी पानी का प्रवाह आने पर जल्दी पानी छोड़ना पड़ सकता है, जिससे निचले इलाकों में बाढ़ आ सकती है।"
पिछले महीने, सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर हैरानी जताई कि 2021 में बांध सुरक्षा अधिनियम लागू होने के बावजूद भी बांध सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय समिति का गठन अभी तक नहीं किया गया है। ठक्कर ने कहा, "हम नहीं जानते कि किन परियोजनाओं में बाढ़ की पूर्व चेतावनी प्रणाली है या नहीं है। अदालत ने ठीक ही कहा है कि इस मामले से जुड़ी सरकारी एजेंसियां सुस्त पड़ी हैं।" वह आगे कहते हैं, "कम से कम हाइड्रो प्रोजेक्ट्स को कवरेज देने वाली बीमा कंपनियों को इन मुद्दों को उठाना चाहिए और अनुपालन सुनिश्चित करने के साथ-साथ विवरण सार्वजनिक करने चाहिए।"
भले ही, अत्यधिक बारिश से लंबे समय तक नुकसान पहुंचता हो, लेकिन सूखे भी जलविद्युत परियोजनाओं की दक्षता प्रभावित करने में पीछे नहीं है। पिछले दो वर्षों में, भारत में जलविद्युत उत्पादन में चार दशकों में सबसे तेज गिरावट आई है, जिसके पीछे रिकॉर्ड उच्च तापमान और अनियमित बारिश है।
थर्मल प्लांट और जल संकट
2019 में, दीपका कोयला खदान में बाढ़ के कारण पूरे एक महीने तक काम बाधित रहा, जिससे पूर्वी और मध्य भारत के पावर प्लांट्स को ईंधन की तलाश में काफी परेशानी झेलनी पड़ी थी। कोयला आधारित पावर प्लांट के एक इंजीनियर ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, “बाढ़ के कारण कोयला गीला और कीचड़ जैसा हो जाता है, जिससे पावर प्लांट की उत्पादन क्षमता घट जाती और मशीनें भी जाम हो जाती है। इसके अलावा, हीट वेव कोयले के ढेर को सुलगाने का कारण बनती है, जिससे उसकी गुणवत्ता कम हो जाती है। कोयले की गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए अक्सर पानी का छिड़काव करना जरूरी है।”
एनटीपीसी के अनुसंधान एवं विकास केंद्र के एक अध्ययन में पाया गया है कि हर साल थर्मल प्लांट में रखे गए प्रत्येक किलोग्राम कोयले से लगभग 2,500 KJ ऊष्मा, सुलगने की वजह से बर्बाद हो जाती है। अध्ययन में कहा गया, "नई सप्लाई को ठीक से रखा जाना चाहिए और पुराने स्टोर किए गए कोयले को नियमित रूप से हटाते रहना चाहिए। कोयले को नमी से सराबोर रखने के लिए नियमित और लगातार पानी देने से नुकसान को काफी हद तक कम किया जा सकता है।"
कोयला, गैस और परमाणु ईंधन से चलने वाले थर्मल पावर प्लांट को बॉयलर में उत्पन्न अतिरिक्त गर्मी को दूर करने के लिए ठंडे पानी की भी जरूरत होती है। हालांकि, गर्म दिनों में पानी बहुत गर्म हो जाता है, जिससे इन पावर प्लांट की क्षमता कम हो जाती है। प्रति डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने पर बिजली उत्पादन में 2% से अधिक का नुकसान हो सकता है।
इसी तरह, सूखे से भी बिजली उत्पादन प्रभावित हो सकता है। भारत के लगभग 40% थर्मल पावर प्लांट पानी की कमी वाले क्षेत्रों में हैं। 2013 और 2016 के बीच, पानी की कमी के कारण देश की 20 सबसे बड़े थर्मल प्लांट में से 14 को अपने प्लांट बंद करने पड़े थे।
थर्मल प्लांट के लिए, कूलिंग सिस्टम को अपग्रेड करने से पानी की जरूरत कम हो जाती है। जलवायु परिवर्तन से प्रभावित क्षेत्रों में, कुछ प्लांट पानी आधारित कूलिंग सिस्टम को एयर या ड्राई कूलिंग सिस्टम में बदल रहे हैं, लेकिन अभी तक ये बदलाव बहुत कम हैं। CSTEP थिंक-टैंक में क्लाइमेट, एनवायरमेंट और सस्टेनेबिलिटी सेक्टर की एडेप्टेशन एंड रिस्क एनालिसिस टीम की वरिष्ठ एसोसिएट तशिना एम. चेरेंडा ने इंडियास्पेंड को बताया, "अधिकतर प्लांट अभी भी पारंपरिक वाटर-इंटेंसिव सिस्टम पर निर्भर हैं, जो उन्हें आने वाले जलवायु जोखिमों के प्रति संवेदनशील बनाता है।"
सौर और पवन ऊर्जा अधिक संवेदनशील
सौर और पवन ऊर्जा चरम मौसम की घटनाओं के प्रति अधिक संवेदनशील हो सकती हैं क्योंकि ये तकनीक सीधे मौसम पर निर्भर है। हालांकि चक्रवात या बाढ़ इनके उपकरणों को अन्य बुनियादी ढांचों की तरह ही प्रभावित करते हैं, लेकिन नवीकरणीय ऊर्जा के लिए और भी कई नुकसान हैं, जो सीधे तौर पर मौसम की चरम घटनाओं से जुड़े हैं।
उदाहरण के लिए, अत्यधिक गर्मी न केवल सौर पैनलों को नुकसान पहुंचाती है, बल्कि बिजली उत्पादन को भी कम करती है। सौर पैनल एक निश्चित तापमान पर बेहतर ढंग से काम करने के लिए बनाए जाते हैं। CSTEP की ओर से चार राज्यों में पवन और सौर परियोजनाओं पर किए गए विश्लेषण के अनुसार, अधिकांश सौर पैनल 15°C से 35°C के बीच के तापमान पर अपनी अधिकतम दक्षता से काम कर सकते हैं। बढ़ा हुआ तापमान सौर पैनल की दक्षता को 10% से 25% तक कम कर सकता है।
हीट वेव पवन ऊर्जा को भी प्रभावित करती हैं। 40°C से अधिक तापमान किसी क्षेत्र की उम्मीद की गई हवा की गति को कम कर सकता है। ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद के विश्लेषण के अनुसार, भारत में 40 वर्षों (1979 से 2019) में औसत वार्षिक हवा की गति प्रति दशक 0.88 किलोमीटर प्रति घंटे की दर से घटी है। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के एक अन्य अध्ययन ने पुष्टि की कि जलवायु परिवर्तन के कारण हिंद महासागर के गर्म होने से भारतीय मानसून और हवा की गति, विशेषकर पश्चिमी भारत में कमजोर हुई है। दिसंबर 2024 तक, पश्चिमी राज्यों (गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान) में कुल स्थापित पवन ऊर्जा परियोजनाओं का 47% से ज्यादा हिस्सा था।
CSTEP के विश्लेषण में यह भी पाया गया कि राजस्थान में लगभग 85% और महाराष्ट्र में 82% सौर ऊर्जा परियोजनाएं एक वर्ष में तीन से अधिक बार हीटवेव की चपेट में आई हैं। तमिलनाडु में, 11% सोलर प्लांट सालाना तीन से अधिक बार हीटवेव के संपर्क में थे। हीट वेव की परिभाषा, अलग-अलग क्षेत्रों के लिए अलग-अलग है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार, मैदानी इलाकों में अधिकतम तापमान 40°C या उससे अधिक, तटीय क्षेत्रों में 37°C या उससे अधिक और पहाड़ी क्षेत्रों में 30°C या उससे अधिक होना चाहिए।
राजस्थान में सभी पवन टर्बाइन और महाराष्ट्र के 25% टर्बाइन साल में तीन से अधिक हीट वेव के संपर्क में आए थे। गुजरात में, सभी पवन और सौर संपत्तियों को साल में एक बार हीटवेव का सामना करना पड़ा। गुजरात में लगभग 42% पवन ऊर्जा से संबंधित उपकरण मध्यम से गंभीर सूखे के संपर्क में थे। इन चार राज्यों में बाढ़ बहुत बड़ा खतरा नहीं थी।
चेरेंडा ने कहा, "चरम गर्मी के जोखिमों को कम करने के लिए, हमें नवीकरणीय ऊर्जा डेवलपर्स और प्लांट्स की क्षमता को बेहतर बनाने की जरूरत है ताकि वे हीट वेव का अनुमान लगा सकें, उनसे निपट सकें और उनसे उबर सकें। इसके लिए तकनीकी और योजना संबंधी रणनीतियां काम में आ सकती हैं। उन्होंने आगे बताया, “उदाहरण के लिए, तकनीकी समाधान में हीट-रेजिस्टेंट सामग्रियों का इस्तेमाल हो सकता है। योजना संबंधी रणनीतियों में, जैसे कि समय पर चेतावनी प्रणाली और जोखिम-संबंधी साइट सलेक्शन, से चरम गर्मी के जोखिम को कम करने में मदद मिल सकती है।
चक्रवात नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं के लिए एक और बड़ा जोखिम है। अध्ययन में पाया गया कि महाराष्ट्र में लगभग 21% और तमिलनाडु में 20% सौर परियोजनाएं बहुत तीव्र उष्णकटिबंधीय चक्रवातों (120 किमी/घंटा से ज्यादा हवा की गति) के संपर्क में आईं। गुजरात में लगभग 53% पवन और 36% सौर परियोजनाएं तीव्र चक्रवातों (90-120 किमी/घंटा हवा की गति) के संपर्क में थीं। तमिलनाडु में केवल 3% पवन परियोजनाएं बहुत तीव्र चक्रवातों से प्रभावित हुईं।
शोधकर्ताओं ने पाया कि कई जगहों पर कुछ सावधानी बरती गई थी, जैसे कि कूलिंग सिस्टम, निवारक जांच, अतिरिक्त पुर्जे और स्पीड अलर्ट या कटऑफ सिस्टम (पवन टर्बाइनों के लिए)। चेरेंडा ने इंडियास्पेंड को बताया, "नवीकरणीय ऊर्जा डेवलपर जलवायु जोखिमों से अच्छी तरह वाकिफ हैं क्योंकि उनका बिजनेस मौसम पर निर्भर है।" उन्होंने आगे कहा, "चरम मौसमी घटनाओं के पिछले अनुभवों ने वित्तीय जोखिमों को साफ कर दिया है, जिससे वे न केवल नियमों का पालन करने के लिए, बल्कि उन्हें एक समझदार व्यावसायिक रणनीति के तौर पर, लचीलेपन में निवेश करने के लिए प्रेरित हुए हैं।"
लेकिन सिर्फ यही मौसम की घटनाएं नहीं हैं जो अक्षय ऊर्जा उत्पादन को खतरे में डालती हैं। नैनीताल स्थित आर्यभट्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ ऑब्जर्वेशनल साइंसेज के शोधकर्ताओं द्वारा 2022 के एक अध्ययन से पता चला है कि उत्तराखंड के जंगलों में बड़े जंगल की आग (उच्च तापमान या बिजली गिरने के कारण) से एरोसोल ने सौर ऊर्जा के उत्पादन को बाधित किया था, जिससे 2021 में 78 लाख रुपये का नुकसान हुआ।
बड़े पैमाने पर जंगल की आग से निकलने वाले एरोसोल सौर विकिरण को अवशोषित कर लेते हैं, जिससे सौर पैनलों पर पड़ने वाले प्रकाश की तीव्रता कम हो जाती है। एरोसोल की मौजूदगी के कारण ऊर्जा की हानि लगभग 63 किलोवाट-घंटा प्रति वर्ग मीटर पाई गई। अध्ययन के सह-लेखक उमेश चंद्र डुमका ने इंडियास्पेंड को बताया, "नए सौर ऊर्जा संयंत्रों के लिए उपयुक्त स्थान, जंगलों से दूर होने चाहिए और जहां जंगल हैं वहां सौर ऊर्जा कंपनियां वन विभाग और स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर जंगल की आग को रोकने और नियंत्रित करने के लिए काम कर सकती हैं। इस पर ध्यान रखना जरूरी है क्योंकि बदलते मौसम के साथ जंगल में आग लगने की घटनाएं बढ़ने की संभावना है।"
आईआईटी दिल्ली के एक अन्य अध्ययन में पाया गया है कि बढ़ते तापमान के कारण उत्तराखंड जैसे शुष्क जंगलों में आग लगने के गंभीर जोखिम वाले दिनों की संख्या में 60% की वृद्धि होने की संभावना है, जबकि उत्तर पूर्वी भारत जैसे आर्द्र जंगलों में 40% की कमी देखी जा सकती है।
उत्पादन स्तर पर जोखिमों से निपटने के उपायों में से एक ऊर्जा के स्रोत में विविधता लाना हो सकता है।
वसुधा फाउंडेशन की एसोसिएट डायरेक्टर वृंदा गुप्ता ने कहा, "हर पावर प्लांट को जलवायु परिवर्तन के खिलाफ और अधिक मजबूत बनाने के अलावा, बिजली आपूर्ति प्रणाली में सभी ऊर्जा स्रोतों का अच्छा मिश्रण हमारे जोखिमों को कम कर सकता है।" यह एक थिंक-टैंक है जिसने हीट वेव की स्थिति में दिल्ली के ट्रांसमिशन और डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क की रेजिलिएंस पर एक रिपोर्ट पेश की है।
डिस्ट्रीब्यूशन की विफलताएं
बिजली के ट्रांसमिशन और डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम, बड़े नेटवर्क और शहरों की भीड़-भाड़ या दूरदराज के गांवों जैसी स्थानीय परिस्थितियों से जुड़ी चुनौतियों के कारण, चरम मौसम की घटनाओं के प्रति बेहद संवेदनशील होते हैं। बिजली क्षेत्र का यह हिस्सा सीधे अंतिम उपभोक्ता से जुड़ा होता है, इसलिए यहां तक कि अगर समस्या उत्पादन स्तर पर है, तो भी किसी भी व्यवधान के लिए इसे ही दोषी ठहराया जाता है। एक छोटी सी स्थानीय खराबी पूरे बिजली सिस्टम में फैल सकती है और पहले से अछूते हिस्सों को भी प्रभावित कर सकती है।
पुणे स्थित गैर-लाभकारी संस्था प्रयास एनर्जी ग्रुप की फेलो श्वेता कुलकर्णी ने कहा, " आमतौर पर, शहरी भारत में बिजली की मांग के बढ़ने और ओवरलोडिंग के लिए गर्मी जिम्मेदार होती है, लेकिन ग्रामीण इलाकों में बिजली गुल होने की समस्याएं मानसून के समय में अधिक होती हैं।" यह संगठन विश्लेषण-आधारित नीतियों और नियमों में शामिल है और ऊर्जा क्षेत्र में लोगों के हितों को आगे बढ़ाने के लिए काम करता है।
उच्च तापमान के कारण ट्रांसमिशन इंफ्रास्ट्रक्चर की दक्षता कम हो जाती है, क्योंकि तारों का तापमान बढ़ने पर वे सुरक्षित रूप से ज्यादा बिजली वहन नहीं कर पाते। उच्च तापमान के कारण तार लटक जाते हैं या टूट जाते हैं और उनमें शॉर्ट सर्किट होने की संभावना बनी रहती है, जिससे बिजली गुल हो जाती है।
नीदरलैंड के डेल्ट यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी के अध्ययन में पाया गया कि शहरी क्षेत्रों में मई-जुलाई के दौरान बढ़ते तापमान के साथ बिजली गुम होने का समय बढ़ गया क्योंकि वितरण नेटवर्क, एयर कंडीशनर, कूलर और फ्रिज जैसे कूलिंग उपकरणों के लिए बिजली की उच्च मांग के साथ ओवरलोड हो गया था। ग्रामीण इलाकों में यह प्रवृत्ति कम थी क्योंकि इन उपकरणों तक तुलनात्मक रूप से उनकी कम पहुंच है।
अत्यधिक तापमान से ट्रांसमिशन रेजिलिएंस बढ़ाने के लिए कई रणनीतियां अपनाई जा सकती हैं। डिस्कॉम नए, उन्नत कंडक्टर यानी तारों का इस्तेमाल कर सकते हैं, उनमें उच्च तापमान पर लटक जाने की संभावना कम होती हैं, जबकि भूमिगत केबलिंग गर्मी के संपर्क को कम कर सकती है। चेरेंडा ने बताया, "हीट-रेजिस्टेंस या रिफ्लेक्टिव कोटिंग भी तापमान के प्रभाव को कम कर सकती है।"
बारिश भी बिजली गुल होने के लिए सबसे बड़ा कारण बनकर उभरी है। यहां तक कि कम बारिश (0-20 मिमी) के दिनों में भी आउटेज समय (बिजली गुल होने का समय) 30-40% बढ़ जाता है। अत्यधिक बारिश (प्रतिदिन 40 मिमी से अधिक) का मतलब आउटेज समय में 80-220% की वृद्धि है, जिसमें जिला मुख्यालय सबसे अधिक प्रभावित होता है।
डेल्ट यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी के सहायक प्रोफेसर जैस्पर वर्शुर ने इस अध्ययन में सह-लेखन किया है। उन्होंने कहा, "अलग-अलग जोखिमों के आधार पर अलग-अलग अनुकूलन उपाय किए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, सबस्टेशन बाढ़ के प्रति काफी संवेदनशील होते हैं। इसके लिए हम बेहतर तरीकों को देख सकते हैं, जैसे सबस्टेशनों को जमीन से काफी ऊपर बनाया जाना, या बाढ से बचने के लिए उनके चारों ओर एक छोटी दीवार बनाई जाए। लेकिन आखिर में, सब कुछ अच्छे इंजीनियरिंग, अपग्रेडेशन और रखरखाव पर निर्भर करता है। ऐसा न करने से विफलता की संभावना बढ़ जाती है।"
स्मार्ट और बेहतर ग्रिड
ओवरहेड बिजली लाइनों को भूमिगत करने से, खासकर चक्रवात प्रभावित इलाकों में, मुश्किलें कम हो सकती हैं। हुदहुद चक्रवात के बाद, आंध्र प्रदेश ईस्टर्न पावर डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी लिमिटेड ने विश्व बैंक द्वारा फाइनेंस एक प्रोजेक्ट के तहत ओवरहेड बिजली वितरण नेटवर्क को भूमिगत केबल सिस्टम में अपग्रेड किया है।
इसके अलावा, ट्रांसमिशन नेटवर्क में बेहतर रेडडेंसी से चरम मौसम की घटनाओं के दौरान बिजली कटौती को कम किया जा सकता है। रिडंडेंसी का मतलब है कि एक पथ पर आउटेज या फॉल्ट की स्थिति में बिजली के प्रवाह को फिर से रूट करने के लिए कई शाखाएं, लूप या फीडर होना है। शहरी क्षेत्रों में नेटवर्क की रिडंडेंसी अक्सर ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक होती है।
कुलकर्णी ने कहा, "वितरण कंपनियां (डिस्कॉम) आमतौर पर लागत मूल्यांकन के आधार पर काम करती हैं और इसलिए शहरी क्षेत्रों में रिडंडेंसी का महत्व अधिक होता है क्योंकि इन क्षेत्रों में ज्यादा भुगतान करने वाले ग्राहक और बिजनेस पार्क मौजूद होते हैं।"
दूसरा, नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों से स्थानीय बिजली उत्पादन के भार से जूझ रहे बिजली नेटवर्क पर बोझ कम किया जा सकता है और बिजली गुल होने की समस्या कम की जा सकती है। यह विशेष रूप से उन राज्यों में सफल रहा है जहां कृषि क्षेत्रों के लिए बिजली आपूर्ति के लिए अलग कृषि फीडर बनाए गए हैं, ताकि कृषि की बिजली जरूरतों और घरेलू इस्तेमाल की बिजली जरूरतों को अलग-अलग नेटवर्कों से पूरी किया जा सके। इससे पूरे सिस्टम पर ज्यादा दबाव नहीं पड़ता है।
प्रयास एनर्जी ग्रुप ने स्थानीय फीडर स्तर पर सौर ऊर्जा प्लांट स्थापित करने के लिए महाराष्ट्र राज्य के साथ काम किया है। एक सौर ऊर्जा से चलने वाला एग्रीकल्चर फीडर एक 1-10 मेगावाट सामुदायिक-स्तरीय सोलर प्लांट है, जो 33 या 11 केवी सब-स्टेशन से जुड़ा होता है। 1 मेगावाट का सोलर प्लांट करीब 350 पांच-हॉर्स पावर पंपों को सपोर्ट कर सकता है।
जब धूप कम होती है, यानी जब बादल छाए होते हैं, तो बाकी बिजली मुख्य बिजली ग्रिड से ली जा सकती है। और जब धूप ज्यादा होती है, तो अतिरिक्त सौर ऊर्जा वापस ग्रिड में भेजी जा सकती है।
कुलकर्णी ने कहा, "सोलर फीडर बिजली आपूर्ति की विश्वसनीयता बढ़ाता है क्योंकि इसे स्थानीय स्तर पर मैनेज किया जा सकता है, जिससे फॉल्ट खोजना आसान होता है और वोल्टेज में उतार-चढ़ाव और ट्रांसमिशन लॉस कम होता है। यह एक और फायदा भी देता है क्योंकि आमतौर पर बिजली कंपनियां (डिस्कोम) सिंचाई के लिए देर रात या सुबह-सुबह बिजली की आपूर्ति करती हैं।" वह आगे कहते हैं, "इसका मतलब है किसानों की सुरक्षा और पानी की बर्बादी की समस्या को ध्यान में रखा गया है। क्योंकि कई किसान अक्सर समय पर सिंचाई करने और निगरानी करने के बजाय पंपसेट को लंबे समय तक चलने देते हैं। सौर ऊर्जा से दिन में बिजली मिलना ज्यादा सुविधाजनक है और बिजली कंपनियों के लिए वितरण लागत भी कम होती है। क्योंकि यह किसी खेत पर आधारित सौर प्लांट नहीं है, इसलिए किसानों को इसके रख-रखाव की चिंता नहीं करनी पड़ती।"
रूफ टॉप सोलर इंस्टॉलेशन विकेन्द्रीकृत बिजली उत्पादन का एक और विकल्प है, लेकिन इसने भी उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन नहीं किया है। वर्ष 2022 तक 40 GW सौर क्षमता स्थापित करने का लक्ष्य अब 2026 तक बढ़ा दिया गया है, क्योंकि इस दिशा में प्रगति कम रही है। यह मुख्य रूप से कम जागरूकता, अप्रूवल में देरी और एक समान नियमों के अभाव के कारण है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने रिपोर्ट किया था। दिसंबर 2024 तक, भारत ने रूफ टॉप सोलर ऊर्जा क्षमता में 15.67 GW की वृद्धि की है, जिसमें गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान सबसे आगे हैं।
हाल के वर्षों में भारत के डिस्ट्रीब्यूशन और ट्रांसमिशन नेटवर्क में भी काफी सुधार हुआ है।
गुप्ता ने कहा, " "कम से कम शहरी भारत में बिजली ट्रांसमिशन नेटवर्क अब ज्यादा स्थिर हो गया है। 2012 का बिजली कटौती का बड़ा मामला था, जब उत्तर और पूर्वी ग्रिड ओवरलोड होने से धवस्त हो गए थे। लेकिन अब अधिक उच्च वोल्टेज डायरेक्ट करंट लाइनें हैं जो वैकल्पिक करंट लाइनों की तुलना में अधिक स्थिर और कुशल हैं।" "स्मार्ट मीटर का उपयोग बढ़ गया है और स्मार्ट ग्रिड पर भी काम चल रहा है जो बिजली के प्रवाह की निगरानी कर सकते हैं, नुकसान को कम कर सकते हैं और बिजली की आपूर्ति की विश्वसनीयता बढ़ा सकते हैं। यह सब चरम मौसम की घटना का सामना करने में मददगार होगा।"