उत्तराखंड में बढ़ता मानव-वन्यजीव संघर्ष, पलायन के लिए लोग हुए मजबूर
उत्तराखंड सरकार मान रही है कि एक साल में मानव-वन्यजीव संघर्ष 61% तक बढ़ा है। 2021, 2022 और 2023 के वन्यजीव संघर्ष के आंकड़ों से पता चलता है कि हर रोज एक से ज्यादा (1.11) हमलों का औसत है और इसकी वजह से राज्य में पलायन भी बढ़ा है। पलायन करने वाले लोगों की संख्या 2019 के लोकसभा चुनाव में गढ़वाल में पड़े मत प्रतिशत से 11 फीसदी ज्यादा है।
देहरादून: पौड़ी के चौबट्टाखाल के मजगांव में अक्टूबर, 2022 की एक शाम लगभग 55 साल की शकुंतला देवी अपनी गाय के लिए घास काट रही थीं। तभी अचानक एक गुलदार (लेपर्ड, पंथैरा पार्डस) ने उन हमला कर दिया। गुलदार ने उनका पैर पकड़ने की कोशिश की और वह नीचे दूसरे खेत में जा गिरीं। इसके बाद जब गुलदार उनकी गर्दन पर लपका तो शकुंतला ने घास काटने वाली दराती से उस पर वार किया। इससे गुलदार बौखला गया और शकुंतला लंगड़ाते हुए 15-20 कदम दूर दौड़ गईं। इस बीच लोगों ने हल्ला कर गुलदार को भगा दिया।
शकुंतला के पति अनिल सुंदरियाल बताते हैं “उनके पैर में 12 टांके आए थे और डेढ़-दो महीने तक बिस्तर पर रहना पड़ा था।” इस दौरान उनकी दो विवाहित बेटियां ने बारी-बारी से आकर घर का काम संभाला और मां का ख्याल रखा। अनिल बताते हैं, “उस समय शकुंतला कभी-कभी रात को चीखती हुई उठ बैठती थीं।”
शकुंतला के दिल में इतनी दहशत बैठ गई कि उन्होंने घास काटने के लिए जाना बंद कर दिया। सुंदरियाल कहते हैं, “फिर हमें अपनी जर्सी गाय मुफ्त में ही किसी को देनी पड़ी। पहले गाय का दूध घर के इस्तेमाल के अलावा बेचने के लिए भी हो जाता था।” अब वे अपने घर से सटे खेतों में ही घर के लिए फल और सब्जियां उगाते हैं। उनका एक बेटा देहरादून में नौकरी करता है। अनिल कहते हैं “क्या यहां रहकर गुलदार का शिकार बनना हैं।”
बढ़ते घोस्ट विलेज
मजगांव ग्राम सभा के डबरा गांव के निवासी सुधीर सुंदरियाल ने दिल्ली में 18 साल नौकरी करने के बाद 2014 में रिवर्स माइग्रेशन किया और वापस अपने गांव लौट आए। वह अपनी गैर सरकारी संस्था “भलु लगद” के जरिए अपने क्षेत्र के वीरान होते गांवों को फिर से बसाने का प्रयास कर रहे हैं।
सुधीर मानते हैं पहाड़ों से पलायन की एक बड़ी वजह मानव-वन्यजीव संघर्ष भी है। वह कहते हैं “पहाड़ के कई गांवों में गुलदार दो से तीन बार हमले कर चुका है। उसके हमले के डर से लोग अब खुले में अकेले जाने में डरने लगे हैं और कई लोगों ने तो खेती-बाड़ी करना, मवेशियों को पालना तक छोड़ दिया है।”
मजगांव ग्राम सभा का एक गांव भरतपुर जनशून्य हो गया है। यानी अब इस गांव में कोई नहीं रहता है। पहले कभी इस गांव में रहने वाले प्रवेश चंद्र फिलहाल क्षेत्र के प्रमुख बाजार चौबट्टाखाल में व्यापार करते हैं और अब वहीं रहते हैं। उन्होने इंडियास्पेंड हिंदी को बताया “गांव में दो परिवार ही रह गए थे। पिछले साल जब मैं गांव गया तो देखा कि लोगों से ज्यादा यहां गुलदार दिख रहे हैं। करीब चार-पांच गुलदार वहां घूम रहे थे।”
प्रवेश चंद्र बताते हैं कि पिछले साल उन दो परिवारों ने भी वहां से पलायन कर लिया और गांव जनशून्य हो गया।
उत्तराखंड सरकार ने 2017 में पहाड़ों में पलायन की स्थिति का अध्ययन करने और इसे रोकने से जुड़े सुझाव देने के लिए उत्तराखंड ग्राम्य विकास एवं पलायन निवारण आयोग का गठन किया।
पलायन आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार 2018 तक पौड़ी जिले में 821 गांव और पूरे उत्तराखंड में 3946 जनशून्य थे। इस रिपोर्ट के अनुसार कुल 1,18,981 लोगों ने 2018 तक पलायन किया था, इनमें से 71 फीसदी से ज्यादा की उम्र 25 से ज्यादा थी यानी कि वह मतदाता रहे होंगे। यह संख्या 2019 के लोकसभा चुनाव में गढ़वाल में पड़े मत प्रतिशत से 11 फीसदी ज्यादा है।
गढ़वाल से कुमाऊं तक बढ़ा संघर्ष
पौड़ी समेत उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों के साथ-साथ देहरादून के शहरी क्षेत्र के नजदीक तक वन्यजीवों से डर की स्थिति बनी हुई है। यहां तक कि जनवरी और फरवरी के महीने में वन विभाग को चेतावनी जारी करनी पड़ी थी। दिसंबर, जनवरी और फरवरी में देहरादून शहर से सटे ग्रामीण इलाकों में गुलदार के हमले की एक के बाद एक घटनाएं हुईं। इनमें दो बच्चों की मौत भी हुई। जिसके चलते पुलिस ने शाम को विशेष पेट्रोलिंग अभियान चलाया और लोगों से शाम के समय घरों से बाहर न निकलने की अपील की।
वहीं कुमाऊं के भीमताल में भी वन्यजीव संघर्ष तेजी से बढ़ा है। उत्तराखंड वन पंचायत संघर्ष मोर्चा के संयोजक तरुण जोशी बताते हैं कि दिसंबर के पहले हफ्ते से गुलदार दिखने लगा तो लोगों ने वन विभाग को बताया लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया। इसके बाद गुलदार और बाघ के हमले में 13 दिन में तीन लोग मारे गए।
इन तीन लोगों में से एक 20 दिसंबर को बाघ के हमले में मारी गई भीमताल के अलचौना गांव की 20 साल की निकिता भी थी। उसकी मौत के बाद गुस्साए परिजनों और ग्रामीणों ने शव रखकर भीमताल मार्ग पर जाम लगाया। दबाव पड़ने पर वन विभाग हरकत में आया और उसने बाघ को पकड़ने के लिए पिंजरा लगाया, जिसमें तीन दिन में एक गुलदार कैद हुआ, जबकि बाघ पकड़ा नहीं जा सका था।
जोशी पूछते हैं कि क्या यह काम पहले नहीं किया जा सकता था? वह आगे कहते हैं, “अगर वन विभाग मुस्तैदी से काम करे तो मानव-वन्यजीव संघर्ष को कम किया जा सकता है।”
“61% तक बढ़ा मानव-वन्यजीव संघर्ष”
उत्तराखंड वन विभाग के अनुसार वर्ष 2021, 2022 और 2023 में मानव-वन्यजीव संघर्ष में 1222 लोग घायल हुए या मारे गए। इनमें मृतकों की संख्या 219 है। यानी हर साल औसतन 407 लोगों पर वन्यजीवों ने हमला किया है। यह हर रोज एक से ज्यादा (1.11) हमलों का औसत है।
उत्तराखंड में बाघों की आबादी वर्ष 2006 की तुलना में 178 से बढ़कर वर्ष 2022 में 560 हो गई है। ये 314% की बढ़ोतरी है।
जबकि राज्य में गुलदार की आंशिक गणना (समुद्र तल से 2000 मीटर से नीचे के क्षेत्रों में) में गुलदारों की आबादी में 3.4% की गिरावट आई है। हालांकि कुछ क्षेत्रों में इनकी बड़ी आबादी रिकॉर्ड की गई है, जैसे देहरादून-कालसी में लगाए कैमरा ट्रैप में कम से कम 107 गुलदार देखे गए थे। तेंदुओं की गणना रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्य में इनकी 65% आबादी संरक्षित क्षेत्र के बाहर दर्ज हुई है जो कि संघर्ष की स्थिति को बढ़ाती है। साथ ही पिछले 5 सालों में वन्यजीवों के हमले में होने वाली सभी मानव मौतों में से 30% गुलदार के हमले में हुई हैं।
नैनीताल हाईकोर्ट में मानव-वन्यजीव संघर्ष को लेकर दाखिल याचिका पर 17 अगस्त 2023 को हुई सुनवाई में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन सचिव आर.के सुधांशु ने जानकारी दी, “पिछले एक साल में राज्य में मानव-वन्यजीव संघर्ष 61% तक बढ़ा है। राज्य में गुलदारों और बाघों की संख्या अन्य राज्यों की तुलना में कहीं अधिक है। इनका जनसंख्या घनत्व भी अन्य राज्यों की तुलना में बहुत अधिक है।”
ये याचिका देहरादून निवासी अनु पंत ने वर्ष 2022 में दाखिल की थी। उन्होंने वन्यजीवों के हमले से सुरक्षा के लिए बंजर खेतों को आबाद करवाने, गांव के मुख्य मार्गों और स्कूलों के रास्तों पर लगी झाड़ियां साफ करवाने, संवेदनशील गांवों में जालीनुमा तार से बाड़ बनाने, जंगल में फलदार वृक्ष लगाने जैसी मांगें अदालत में दाखिल की।
नैनीताल हाईकोर्ट में इस मामले से जुड़े वकील अभिजय नेगी इंडिया स्पेंड से कहते हैं, “वर्ष 2015 में राजाजी टाइगर रिजर्व बनाया गया था। 9 साल बीत चुके हैं लेकिन इसका कंजर्वेशन प्लान अभी तक नहीं बना है, जो कि किसी भी टाइगर रिजर्व या नेशनल पार्क का जरूरी हिस्सा होता है। कंजर्वेशन प्लान की मदद से वन्यजीवों का बेहतर प्रबंधन से लेकर उनकी आवाजाही के मार्ग सुनिश्चित करने और उनके कॉरिडोर की सुरक्षा करने जैसे काम किए जाते हैं। राज्य में नेशनल हाईवे समेत इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट के चलते वन्यजीवों के कॉरिडोर भी बाधित हैं। इसकी वजह से वन्यजीव आबादी वाले इलाकों की ओर आते हैं और मानव-वन्यजीव संघर्ष की स्थिति बनती है।”
नैनीताल हाईकोर्ट ने भी इस मामले में राज्य को राजाजी टाइगर रिजर्व का कंजर्वेशन प्लान बनाने के निर्देश दिए हैं ताकि वन्यजीवों का बेहतर प्रबंधन किया जा सके। इस मामले की अगली सुनवाई 13 अगस्त 2024 को होनी है।
इस केस की सुनवाई में ये भी बताया गया कि मानव-वन्यजीव संघर्ष की स्थिति में मुआवजे से जुड़े मामले वन विभाग के पास वर्ष 2016 से अटके पड़े हैं। वर्ष 2022-23 के भी 38 लंबित मामलों की बात कोर्ट के संज्ञान में लाई गई।
वहीं, उत्तराखंड के वन विभाग में मुख्य जीव प्रतिपालक समीर सिन्हा दावा करते हैं कि वन विभाग मानव वन्यजीव संघर्ष को रोकने के लिए नए उपायों और नई ऊर्जा के साथ काम कर रहा है। इसमें संघर्ष की रोकथाम के लिए सेल बनाने, 24 घंटे हेल्पलाइन नंबर जारी करने, क्विक रिस्पॉन्स टीम बनाने जैसे प्रयास शामिल हैं।
“अब यह संख्या बढ़ती ही रहेगी। अगर आज मेरा परिवार गांव छोड़ दे तो मेरा गांव भी जनशून्य हो जाएगा।”