संदिग्ध आंकड़ों और बेअसर तकनीक पर टिकी भारत की प्लास्टिक प्रदूषण नीति

वैश्विक प्लास्टिक संधि पर बातचीत के बीच पुराने डेटा और अधूरी तकनीक से भारत अपने रुख को सही ठहरा रहा है

Update: 2025-09-04 09:09 GMT

नई दिल्ली: दुनिया भर के उपयोग का 10% प्लास्टिक ही अनुमानतः रिसाइकल हो पाता है। भारत की औसत भी लगभग इतनी ही है। यह दिखाता है कि भारत की प्लास्टिक नीतियां कितनी कमजोर नींव पर खड़ी हैं।

2024 में सूचना प्रसारण मंत्रालय की पत्रिका न्यू इंडिया समाचार ने बताया कि भारत में 60% प्लास्टिक रिसाइकल हो रहा है। इसी आंकड़े का प्रयोग भारत की प्लास्टिक निर्माता कंपनियों ने प्लास्टिक रिसाइकलिंग और सततता पर हुई एक वैश्विक बैठक में भी इस्तेमाल किया। 2023 में भारत के आवास और शहरी कार्य मंत्रालय (MoHUA) ने भी यही आंकड़ा “अध्ययनों” का हवाला देकर इस्तेमाल किया।

2019 में भारत के पर्यावरण, वन व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEF&CC) ने भी इन्हीं आंकड़ों को दोहराया और इसका आधार MoHUA के एक दस्तावेज को बताया। यह दस्तावेज स्वच्छ भारत मिशन के तहत प्लास्टिक कचरा प्रबंधन की कार्ययोजना थी, जिसमें 2018 के संयुक्त राष्ट्र के रिसाइकलिंग सम्मेलन में एक सरकारी प्लास्टिक वैज्ञानिक द्वारा दिए गए एक प्रजेंटेशन का हवाला दिया गया था।

“60%” का यह आंकड़ा 2000 से 2023 के बीच कई बार सामने आता है, जो MoEF&CC से RTI के जरिए मिले 5,600 से ज्यादा पन्नों के आंतरिक दस्तावेजों में भी दर्ज है। इसका शुरुआती इस्तेमाल नवंबर 2011 की एक आंतरिक टिप्पणी में मिलता है, जिसे उपनिदेशक आर.बी. लाल ने प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट नियमों के मसौदे पर चर्चा के दौरान रखा था। अपनी टिप्पणी में लाल ने कहा कि 2008 में CPCB के एक अनुमान ने दिखाया था कि 60% प्लास्टिक रिसाइकल हो रहा है।

CPCB की रिपोर्ट के आंकड़े को ढूंढते हुए हम 2009 के एक अध्ययन तक पहुंचे, जिसमें दिल्ली के हवाई अड्डों और रेलवे स्टेशनों पर प्लास्टिक कचरे के संग्रह का विश्लेषण किया गया था। इस अध्ययन के लेखक इस आंकड़े का स्रोत इंडियन सेंटर फॉर प्लास्टिक्स इन द एनवायरनमेंट की एक पत्रिका को बताते हैं, जो प्लास्टिक निर्माताओं द्वारा बनाई गई एक शोध संस्था है। इस पत्रिका के जनवरी-मार्च 2007 के अंक में हमें यह आंकड़ा मिलता है, जो 2007 में मुंबई में हुए ‘एशिया पैसिफिक कॉन्फ्रेंस ऑन रिसाइकलिंग ऑफ प्लास्टिक्स’ के एक स्लाइड शो में दिखा था। यह प्रजेंटेशन सुजीत बनर्जी ने दी थी, जो उस समय रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड के पॉलिमर बिजनेस के अध्यक्ष और ICPE के कार्यकारी सचिव थे। हालांकि संभव है कि यह आंकड़ा इससे भी पहले का हो।

ग्लोबल प्लास्टिक्स संधि की बातचीत में 60% रिसाइकलिंग दर का यह आंकड़ा ही संभवतः भारत की दलील का आधार बनेगा। 2024 में बुसान में हुई पिछली बातचीत बेनतीजा खत्म हुई थी क्योंकि भारत व अन्य पेट्रोकेमिकल उत्पादक देशों ने प्लास्टिक उत्पादन पर सीमा तय करने से इनकार कर दिया था। जैसा कि हमने इस सीरीज़ के पहले हिस्से में बताया था कि भारत ने बुसान वार्ता के दौरान “डाउनस्ट्रीम उपायों” जैसे रिसाइकलिंग और रियूज के पक्ष में यह कहते हुए तर्क दिया था कि उत्पादन पर रोक लगाने से प्लास्टिक निर्माण पर निर्भर लाखों कामगारों की आजीविका खतरे में पड़ जाएगी।

रिपोर्ट के इस दूसरे और अंतिम हिस्से में हम उन आंकड़ों की खामियों, तकनीकों और अधूरे वादों की जांच करेंगे, जो मौजूदा हालात को और गहराई से जड़ें जमाने में मदद करती हैं।

गलत आंकड़े और 60% का भ्रम

नवंबर 2024 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम को लिखे एक पत्र में अमेरिका की कांग्रेस और यूरोपीय संसद के नौ प्रतिनिधियों ने चेतावनी दी थी कि प्लास्टिक उत्पादन को रोकने के बजाय प्लास्टिक रिसाइकलिंग पर ज्यादा जोर देना खतरनाक साबित हो सकता है। सांसदों ने यह भी बताया कि अमेरिका और यूरोप की नीतियों पर प्लास्टिक लॉबी का गहरा असर है और ये लॉबी रिसाइकलिंग से जुड़ी “गलत जानकारी” का इस्तेमाल मौजूदा हालात को बनाए रखने के लिए कर सकती हैं।

यह चेतावनी भारत के लिए खास तौर पर सच साबित होती हैं। MoEF&CC से मिले आंतरिक नोट्स और दस्तावेज दिखाते हैं कि आंकड़ों और डाटा का इस्तेमाल ऐसे तरीके से किया गया है, जिन्हें स्वतंत्र अध्ययनों से सही साबित नहीं किया जा सकता।

उदाहरण के लिए, 2010 में रसायन और पेट्रोकेमिकल विभाग (DCPC) ने सचिवों की समिति (जो अलग-अलग मंत्रालयों की नीतियों पर चर्चा करने वाले वरिष्ठ अधिकारियों की समिति है) के लिए तैयार एक गोपनीय नोट में प्लास्टिक रिसाइकलिंग दर 30% बताई थी। इस नोट में किसी अध्ययन का हवाला नहीं दिया गया था।

उस नोट में DCPC ने लिखा, “प्लास्टिक अपने आप में रिसाइकल होने योग्य पदार्थ है, जो पर्यावरण के लिए हानिकारक नहीं है। प्लास्टिक के रिसाइकल योग्य गुणों के बारे में जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है।”

यह नोट पर्यावरण मंत्रालय द्वारा प्रस्तावित प्रतिबंध के संदर्भ में लिखा गया था। DCPC ने कहा कि यह प्रतिबंध प्लास्टिक उत्पादन बढ़ाने के उनके लक्ष्य के खिलाफ है।
2011 तक मंत्रालय के नोट्स में रिसाइकलिंग दर 60% बताई जाने लगी, जबकि असल में भारत की कुल रिसाइकलिंग दर लगभग 13% है, जो 2019 में आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD) की रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक औसत 9% के करीब है।

यह अकेला ऐसा उदाहरण नहीं है, जब गलत आंकड़ों का इस्तेमाल सरकारी नीति बनाने में किया गया हो। 2015 की केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) की एक रिपोर्ट ने 2010-11 में 60 नगर निगमों के लैंडफिल का अध्ययन किया और अनुमान लगाया कि नगरपालिका कचरे का 6.92% हिस्सा प्लास्टिक है और इनमें से 94% “रिसाइकल होने योग्य” है।

यह अध्ययन सिर्फ शहरी लैंडफिल में किया गया था और इसमें उस 68% आबादी से निकलने वाले प्लास्टिक कचरे को शामिल नहीं किया गया था, जो ग्रामीण इलाकों में रहती है। इन खामियों के बावजूद यही अध्ययन 2022 में भारत में सिंगल-यूज प्लास्टिक (SUP) वस्तुओं पर प्रतिबंध को तय करने का आधार बना।

CPCB के अध्ययन और SUP प्रतिबंध के बीच का दशक प्लास्टिक खपत में जबरदस्त वृद्धि का रहा। नतीजतन, CPCB के आंकड़े दिखाते हैं कि 2012 से 2022 के बीच प्लास्टिक कचरे का उत्पादन 150% बढ़ गया। स्वतंत्र रिपोर्टों का अनुमान है कि प्लास्टिक कचरा हर साल 20% की दर से बढ़ रहा है।

प्रति व्यक्ति प्लास्टिक की वार्षिक खपत दोगुनी हो गई है और यह 5.2 किलोग्राम प्रति व्यक्ति से बढ़कर अब अनुमानित 15 किलोग्राम हो चुकी है। इसका मतलब है कि देश 2011 की तुलना में हर साल अतिरिक्त 1.5 करोड़ टन प्लास्टिक खपत कर रहा है।

खपत का स्वरूप भी काफी बदल गया है। पैकेजिंग (जिसमें प्लास्टिक रैपर, पाउच, बोतलें और फूड डिलीवरी कंटेनर सब शामिल हैं) का हिस्सा इस दौरान 48% से बढ़कर 59% हो गया है। CPCB का अध्ययन उस समय किया गया था जब ऑनलाइन फूड डिलीवरी और अन्य ऑनलाइन मार्केटप्लेस सेवाओं में उछाल नहीं आया था।

बढ़ते उत्पादन के मुकाबले रिसाइकलिंग ढांचा साथ नहीं दे पाया है। 2022-23 की CPCB की ताजा वार्षिक रिपोर्ट बताती है कि पंजीकृत रिसाइकलरों के पास सालाना पैदा होने वाले 39 लाख टन प्लास्टिक कचरे का सिर्फ चौथाई हिस्सा ही प्रोसेस करने की क्षमता है। उद्योग संगठन मानते हैं कि इसका बड़ा हिस्सा अनौपचारिक क्षेत्र उठा लेता है।

2024 में नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने कहा कि भारत में आधिकारिक कचरा उत्पादन दर “संभवतः कम आंकी गई है और कचरा संग्रह ज्यादा दिखाया गया है।” अध्ययन के मुताबिक भारत का प्लास्टिक कचरा उत्पादन आधिकारिक आंकड़ों से तीन गुना है, जिससे भारत दुनिया में प्लास्टिक प्रदूषण का सबसे बड़ा उत्सर्जक बन जाता है। अवैध या बिना नियंत्रण वाले कचरा स्थलों की संख्या 2010-11 में CPCB द्वारा किए गए अध्ययन के स्वच्छ लैंडफिल की तुलना में कम से कम 10 गुना ज्यादा है।

भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान (IISER), मोहाली के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक अध्ययन ने अनुमान लगाया था कि भारत में करीब 40% प्लास्टिक कचरा जला दिया जाता है।

IISER की ऑर्गेनोकैटालिसिस एंड असिमिट्रिक सिंथेसिस लैब की शोधकर्ता और अध्ययन की मुख्य लेखिका पूजा चौधरी कहती हैं कि सिर्फ 35% प्लास्टिक ही किसी न किसी तरह की प्रोसेसिंग से गुजरता है।

उन्होंने कहा, “ग्रामीण इलाकों या बड़े शहरों की झुग्गियों से इस कचरे को इकट्ठा करने की कोई व्यवस्था नहीं है। यह कचरा बिना हिसाब-किताब के फेंका जाता है और फिर निपटान के लिए आग के हवाले कर दिया जाता है।”

अंतरराष्ट्रीय सोसायटी ऑफ वेस्ट मैनेजमेंट, एयर एंड वाटर (ISWMAW) के संस्थापक और अध्यक्ष साधन कुमार घोष ने 60% रिसाइकलिंग आंकड़े को “संदेहास्पद” बताते हुए कहा, “पुराने आंकड़ों का इस्तेमाल कानून पर अनावश्यक दबाव डालेगा, जिसमें संग्रह और रिसाइकलिंग के लिए अव्यावहारिक लक्ष्य तय करना भी शामिल है।”

प्लास्टिक उद्योग के भीतर की असमानताएं\

रिसाइकलिंग और संग्रह दर सुधारने के प्रयास 2016 के प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट नियमों में तय की गई विस्तारित उत्पादक जिम्मेदारी (EPR) नीति पर आकर टिके हैं। इसमें उत्पादकों, आयातकों और ब्रांड मालिकों (सामूहिक रूप से PIBO यानी प्लास्टिक उत्पादन से लाभ कमाने वाले) को उतने ही प्लास्टिक कचरे को प्रोसेस करने की आर्थिक जिम्मेदारी दी गई, जितना वे पैदा करते हैं।

लेकिन इस व्यवस्था में पंजीकरण की कमी और नकली प्रमाणपत्र बनाने की समस्या है। साथ ही इस नीति में किसी खास तरह के प्लास्टिक को प्रोसेस करना जरूरी नहीं है। इस खामी का मतलब यह हुआ कि PIBO रिसाइकलरों से किसी भी तरह के प्लास्टिक को प्रोसेस करने का क्रेडिट खरीद सकते हैं। इससे वे आसानी से मिलने वाले और ज्यादा मूल्य वाले कठोर प्लास्टिक को चुन सकते हैं, जबकि बहुपरत वाले प्लास्टिक (MLP) अब भी दुर्लभ बने रहते हैं, क्योंकि उनका वजन हल्का, आयतन ज्यादा और मिश्रित कचरे (जैसे खाने का कचरा या ई-कचरा) में अनुपात बड़ा होता है।

पुणे की कचरा बीनने वाली संस्था कष्टकारी पंचायत की प्रबंध न्यासी लुबना अनंतकृष्णन का कहना है कि सामान्य तौर पर कठोर प्लास्टिक इकट्ठा करना फायदे का सौदा है, जबकि बहुपरत वाले प्लास्टिक (MLP) को रिसाइकल करने पर रिसाइकलरों को लगभग 16 रुपये प्रति किलो का नुकसान होता है। FMCG कंपनियां रिसाइकल किए गए MLP कचरे के लिए 4-5 रुपये प्रति किलो देती हैं, जबकि रिसाइकलिंग की लागत (जिसमें कचरा उठाना भी शामिल है) 20-21 रुपये प्रति किलो पड़ती है।

लुबना कहती हैं, “MLP को रिसाइकल करना श्रम-प्रधान काम है और इसे इकट्ठा करना जटिल है। हर ब्रांड अपना अलग फॉर्मूला इस्तेमाल करता है, जिसमें पॉलिमर और चिपकाने वाले पदार्थ का अनुपात अलग होता है। कंपनियां इन अनुपातों को गुप्त रखती हैं। जब हमें सामग्री की सही मात्रा का पता नहीं होता, तो हम उसे उठाते ही नहीं हैं।”

इसमें एक हल यह हो सकता है कि कंपनियों के बीच पैकेजिंग को मानकीकृत किया जाए। यह मुद्दा भी ग्लोबल प्लास्टिक संधि की बातचीत में गर्म है। भारत बेहतर प्लास्टिक उत्पाद डिजाइन का समर्थन करता है ताकि रिसाइकलिंग और पुन: उपयोग आसान हो, लेकिन उसका कहना है कि अगर किसी देश के पास इन डिजाइन को लागू करने के लिए पर्याप्त तकनीकी और वित्तीय सहयोग नहीं है, तो उन पर इसे थोपना संभव नहीं है।

रिसाइकलिंग का भ्रम

रिसाइकलिंग का मतलब यह नहीं है कि प्लास्टिक का जीवन चक्र खत्म हो जाता है। खुद 2015 की बार-बार उद्धृत की जाने वाली CPCB रिपोर्ट में भी कहा गया है कि प्लास्टिक को सिर्फ 3-4 बार ही रिसाइकल किया जा सकता है, इसके बाद इसकी गुणवत्ता इतनी गिर जाती है कि इसे दोबारा इस्तेमाल करना संभव नहीं रहता।

IISER की शोधकर्ता पूजा चौधरी कहती हैं, “काले पॉलीथीन जैसी डाउनसाइकिल की गई चीजों की कोई कीमत नहीं होती। इन्हें तो इकट्ठा भी नहीं किया जाता। असल में रिसाइकल किए गए उत्पाद, मूल्य श्रृंखला में लौटते ही नहीं।”

2021 की एक रिपोर्ट का अनुमान है कि भारत में इकट्ठा किए गए प्लास्टिक का सिर्फ 5% ही औपचारिक अर्थव्यवस्था में लौट पाता है और नए प्लास्टिक की जगह इस्तेमाल हो सकता है। बाकी सब घटिया दर्जे की सामग्री (डाउनसाइकिल) में बदल जाता है, जो “तेजी से देश में गलत तरीके से प्रबंधित प्लास्टिक कचरे की बढ़ती मात्रा में जुड़ता चला जाता है।”

बोतलबंद पानी, जूस, तेल, सोडा वाली PET बोतलों की रिसाइकलिंग इस स्थिति को और साफ करती है। 2019 में DCPC की सिंगल-यूज प्लास्टिक पर विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट ने 200 मिली लीटर से कम की प्लास्टिक पानी की बोतलों पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की थी क्योंकि उनका उपयोग बहुत कम था, जबकि पर्यावरण पर असर बहुत “हानिकारक” था। हालांकि MoEF&CC की कार्ययोजना में PET बोतलों को बाहर रखा गया क्योंकि इनका “बड़ा हिस्सा” पहले से ही रिसाइकलिंग उद्योग तक पहुंच जाता है।

उद्योग संघों ने MoEF&CC को अपनी प्रस्तुतियों में PET बोतलों के संग्रह का आंकड़ा 65-90% तक बताया है, लेकिन इन्हें साबित करने के लिए कोई स्वतंत्र अध्ययन मौजूद नहीं है। विशेषज्ञ मानते हैं कि शहरों में इनका संग्रह ज्यादा है, जबकि पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों, हिमालयी राज्यों और ग्रामीण इलाकों में यह काफी कमजोर है।

हालांकि 2019 में जब PET कचरे के आयात पर प्रतिबंध इस उम्मीद में लगाया गया कि इससे घरेलू रिसायकलिंग उद्योग को बढ़ावा मिलेगा, तो उद्योगों ने सफलतापूर्वक इस प्रतिबंध को हटाने की गुहार लगाई। रिसाइकलरों को घरेलू स्तर पर पर्याप्त कचरा नहीं मिल पाया। 2025 में सरकार के नए PET बोतलों के उत्पादन में 30% रिसाइकल PET कचरे का इस्तेमाल अनिवार्य करने के फैसले का भी इसी तरह विरोध हो रहा है, क्योंकि घरेलू बाजार में रीसायकल पीईटी की भारी कमी है।

सेंटर फॉर इंटरनेशनल एनवायरनमेंटल लॉ (CEIL) में प्लास्टिक संधि के सीनियर कैंपेनर धर्मेश शाह ने कहा, “PET बोतलों को फाइबर में बदलकर पॉलिएस्टर कपड़ों और सॉफ्ट खिलौनों में इस्तेमाल किया जाता है। आखिरकार ये माइक्रोप्लास्टिक के रूप में टूट जाते हैं या फिर प्लास्टिक की सिंचाई पाइपों में बदले जाते हैं जिन्हें दोबारा रिसाइकल नहीं किया जाता।”
ग्लोबल प्लास्टिक संधि में 200 से ज्यादा वैश्विक गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) ने प्रतिनिधियों को पत्र लिखकर PET बोतलों के उत्पादन पर रोक लगाने की मांग की है क्योंकि ये “प्लास्टिक प्रदूषण के बड़े कारण” हैं।

वेस्ट-टू-एनर्जी का उभार

भारत में प्लास्टिक निपटान का सहारा रहा है- जलाना।

वेस्ट-टू-एनर्जी (WTE) संयंत्रों का विचार दशकों से घूम रहा है। ऐसा पहला संयंत्र 1986 में दिल्ली में थोड़े समय के लिए चला था। कई ऐसे संयंत्रों के बंद होने के बाद 2014 में बनी एक टास्क फोर्स ने पाया कि मौजूदा आठों WTE संयंत्र बंद होने की कगार पर हैं, जिसकी वजहों में “कचरे की जरूरी मात्रा और गुणवत्ता की कमी” भी शामिल थी।

इसके बावजूद भारत में WTE का इस्तेमाल प्लास्टिक प्रतिबंधों को कमजोर करने के लिए किया गया। उदाहरण के लिए, 2017 और 2018 में जब गैर-रिसाइकल बहुपरत प्लास्टिक पर प्रतिबंध की समयसीमा नजदीक आ रही थी, तो कई उद्योगों और संघों ने WTE को आगे रखा।

भारत की सबसे बड़ी फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स (FMCG) कंपनी हिंदुस्तान यूनिलीवर ने दिसंबर 2017 में MoEF&CC को लिखे पत्र में कहा, “MLP से ऊर्जा प्राप्त करना, उतनी ही मात्रा में जीवाश्म ईंधन की जगह लेगा, जो सीमेंट बनाने या बिजली उत्पादन में इस्तेमाल होता है।” कंपनी ने यह भी जोड़ा कि वेस्ट-टू-एनर्जी “लैंडफिल में कचरे के ढेर लगने की समस्या का हल भी करेगा।”

अपने ज्यादातर उत्पादों में MLP का इस्तेमाल करने वाली हिंदुस्तान लीवर कंपनी ने उस समय यह दावा किया था कि तब भारत में सिर्फ चार WTE संयंत्र थे, जिनकी कुल प्रोसेसिंग क्षमता 5,300 टन प्लास्टिक कचरा थी। यह अनुमानित प्लास्टिक उत्पादन के 0.15% से भी कम था।

इस बात को खुद DCPC ने भी माना था, जिसने 2019 में सिंगल-यूज प्लास्टिक पर प्रतिबंध को लेकर एक आंतरिक नोट में लिखा था कि ‘वैकल्पिक उपयोग’ और ‘ऊर्जा पुनर्प्राप्ति’ प्रक्रियाएं “अभी परिपक्व नहीं हुई हैं।” लेकिन तकनीक के वादे भर ने MoEF&CC को प्रतिबंध वापस लेने और WTE, सीमेंट संयंत्रों में सह-प्रोसेसिंग (जहां भट्टियों में रिफ्यूज-डिराइव्ड फ्यूल जलाया जाता है) और सड़क निर्माण में उपयोग पर नया जोर देने के लिए प्रेरित कर दिया।

CPCB के 2021-22 के आंकड़े बताते हैं कि ये सह-प्रोसेसिंग तकनीकें मिलकर 2,37,000 टन कचरे को प्रोसेस करती हैं, जो वार्षिक प्लास्टिक उत्पादन का सिर्फ 6% है।

IISER मोहाली की शोधकर्ता पूजा चौधरी ने कहा, “भारत में बहुत कम WTE संयंत्र चलते हैं और वे भी क्षमता पर नहीं चल पाते क्योंकि उन्हें अच्छी गुणवत्ता वाला प्लास्टिक कचरा नहीं मिलता। स्रोत पर कचरे का अलगाव बेहद कमजोर होता है और जिन प्लास्टिक में नमी बहुत ज्यादा होती है, उन्हें जलाना मुश्किल हो जाता है।”

भले ही भारत के पास एक व्यापक कचरा जलाने की प्रणाली हो, लेकिन इसका पर्यावरणीय असर बहुत बड़ा हो सकता है। एक टन प्लास्टिक जलाने से एक टन कार्बन डाइऑक्साइड निकलती है, जो चौधरी के अनुसार कोयला बिजली संयंत्रों से होने वाले उत्सर्जन से भी बहुत खराब है।

सेंटर फॉर फाइनेंशियल अकाउंटेबिलिटी में सीनियर एसोसिएट चितेन्यन देविका कुलसेकरन ने कहा, “वेस्ट-टू-एनर्जी ने असल में भारत में कार्बन उत्सर्जन को कानूनी मान्यता दे दी है। सिर्फ 2022-23 में ही दिल्ली के WTE संयंत्रों ने 7,250 टन कचरे को प्रोसेस किया, जो अनुमानित “उपयुक्त” क्षमता से करीब सात गुना ज्यादा था।

कुलसेकरन ने कहा, “आखिर में ये संयंत्र थर्मल पावर प्लांट से भी ज्यादा प्रदूषक छोड़ते हैं। इसके अलावा, इस प्रक्रिया से राख बचती है, जो इस्तेमाल किए गए कचरे का 30% तक होती है और इसे सुरक्षित लैंडफिल में डालना पड़ता है।”

जांच रिपोर्टों में पाया गया है कि दिल्ली के एक WTE संयंत्र के आसपास रहने वाले करीब दस लाख लोग जहरीले प्रदूषण के शिकार हुए।

इन प्रक्रियाओं को इंड ऑफ लाइफ (यानी प्लास्टिक को हमेशा के लिए पर्यावरण से हटाना) के तौर पर बढ़ावा देना ग्लोबल प्लास्टिक संधि में एक विवादित मुद्दा है। कई एडवोकेसी और शोध संगठनों ने वार्ताकारों को पत्र लिखकर कचरा प्रबंधन के विकल्प के रूप में जलाने का विरोध किया है।

ओशियन रिकवरी अलायंस लिखता है, “प्लास्टिक शमन, कार्बन घटाने या उसे रोकने जैसा लगता है। फर्क बस इतना है कि ज्यादातर हितधारक प्लास्टिक को जलाकर उसे ऊर्जा के लिए गैस में बदलते हुए नहीं देखना चाहते।”

ग्लोबल अलायंस फॉर इन्सिनरेटर अल्टरनेटिव्स कहता है, “इस संधि को प्लास्टिक प्रदूषण संकट का समाधान हमारी अन्य वैश्विक संकटों—जैसे जलवायु आपातकाल, जैव विविधता का पतन और प्रदूषण की कीमत पर नहीं करना चाहिए।”

एक बंद रास्ता\

जब बेंगलुरु की कार्यकर्ता अल्मित्रा पटेल ने 1999 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी, तो इससे भारत के पहले प्लास्टिक कचरा नियम लाए गए। अब पटेल कहती हैं, “बहुपरत प्लास्टिक को रिसाइकल होने योग्य एकल परत प्लास्टिक में बदलने की प्रक्रिया का उद्योगों ने भारी विरोध किया है।” इन जटिल संरचनाओं को पर्यावरण से हटाना एक बड़ी चुनौती बन गई है।

वह WTE और वेस्ट-टू-ऑयल समाधानों को प्रदूषक और अक्षम मानकर खारिज करती हैं। उन्होंने कहा, “एकमात्र विकल्प सड़क निर्माण बचता है, लेकिन हम इतनी सड़कें बना ही नहीं सकते कि प्लास्टिक की पूरी मात्रा को उसमें समा सकें।”

2020 में भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण ने हर साल 750 किलोमीटर सड़क बनाने का वादा किया, जिसमें 1,800 टन प्लास्टिक कचरे का इस्तेमाल होना था। लेकिन सड़क बिछाने की तकनीक के लिए खास गुणवत्ता का प्लास्टिक चाहिए। एक साल बाद हुई समीक्षा बैठक में सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय ने कहा कि “जरूरी मानक वाला प्लास्टिक कचरा उपलब्ध कराना एक चुनौती रहा है।”

यह भारत की प्लास्टिक नीतियों के उस लगातार पैटर्न का हिस्सा है, जो आज के कचरे को भविष्य की तकनीकों से निपटाने के वादे पर टिकी है। इसका एक और उदाहरण है सरकार के प्लास्टिक प्रतिबंधों के बाद उत्पादों की कमी पूरी करने के लिए कम्पोस्टेबल और बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक को तेजी से बढ़ावा देना।

2010 में ही DCPC ने नोट किया था कि इन प्लास्टिकों को इकट्ठा करना जरूरी है क्योंकि ये सिर्फ कुछ खास परिस्थितियों में ही टूटते हैं। 2016 से 2022 के बीच कम्पोस्टेबल प्लास्टिक की प्रमाणित क्षमता शून्य से बढ़कर 3,40,000 टन सालाना हो गई, लेकिन अब तक सिर्फ 15,238 टन ही रिसाइकल या निपटाए गए हैं।

कम्पोस्टेबल प्लास्टिक को नष्ट करने के लिए विशेष औद्योगिक इकाइयों की जरूरत होती है, जहां तापमान और दबाव लगातार नियंत्रित रहे और तब भी इन्हें पूरी तरह गलने में 120-150 दिन लगते हैं। CSIR-इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल टेक्नोलॉजी (CSIR-IICT) के मुख्य वैज्ञानिक के. नागैया बताते हैं, “फॉसिल फ्यूल आधारित प्लास्टिक और बायोप्लास्टिक में इस्तेमाल होने वाले एडिटिव्स, जैसे- प्लास्टिसाइजर, फ्लेम रिटार्डेंट, स्टेबलाइजर और ऑयल रिपेलेंट में कोई खास फर्क नहीं है। इनमें से कुछ एडिटिव्स वास्तव में हानिकारक हैं।”

उन्होंने इस संबंध में बिस्फेनॉल ए और PFAS का उदाहरण दिया, जो क्रमशः हार्मोनल संतुलन बिगाड़ता है और बचपन में मोटापा और कैंसर जैसी बीमारियां पैदा कर सकता है।

इसके बावजूद 2022 में MoEF&CC ने इनके उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए आयात शुल्क कम किया और कम्पोस्टेबल प्लास्टिक निर्माताओं को EPR (एक्सटेंडेड प्रोड्यूसर रिस्पॉन्सिबिलिटी) के तहत कचरा इकट्ठा करने की जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया।

केंद्र सरकार की पॉलिसी थिंक-टैंक नीति आयोग ने इसके खिलाफ चेतावनी भी दी थी। मई 2022 की अपनी रिपोर्ट में उन्होंने कहा, “कम्पोस्टेबल प्लास्टिक का व्यापक उपयोग बढ़ाना चुनौतीपूर्ण है। इन्हें रिसाइकल नहीं किया जा सकता। अगर ये रिसाइकलिंग प्लांट तक पहुंच जाते हैं, तो वे उस प्लास्टिक को भी दूषित कर सकते हैं, जिसे रिसाइकल किया जा सकता था। इसलिए कम्पोस्टेबल प्लास्टिक पर EPR की छूट हटाई जानी चाहिए और इन्हें EPR के दायरे में लाया जाना चाहिए।”

इंडिया स्पेंड ने 60% रीसाइक्लिंग दर के वैज्ञानिक आधार और WTE प्लांट्स से हानिकारक उत्सर्जन न होने के दावों पर टिप्पणी करने के लिए MoEF&CC और CPCB से संपर्क किया है। जवाब मिलने पर इस रिपोर्ट को अपडेट किया जाएगा।



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