नौकरी, घर और फिर परिवार की देखभाल- शहरी महिलाओं पर काम का दोहरा बोझ
शहरी महिलाएं जहां वेतन वाली नौकरियों में ज्यादा समय दे रही हैं, वहीं घर के बिना वेतन वाले कामों में भी उनका योगदान उतना ही है, जितना ग्रामीण महिलाओं का।;
मुंबईः भारत में, महिलाओं पर बिना वेतन वाले घरेलू और देखभाल कार्यों का असमान रूप से भारी बोझ है और यह बोझ शहरी कामकाजी महिलाओं के लिए विशेष रूप से गंभीर हो गया है। विशेषज्ञों का कहना है कि घरेलू जिम्मेदारियों का 'कॉर्पोरेट बर्नआउट', काम से संबंधित तनाव और मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं से टकराव हो रहा है, जिससे स्थिति और भी विकट हो गई है। आंकड़ों और विशेषज्ञों का कहना है कि यह रोजगार के रुझानों में असमानता और स्वास्थ्य सेवा व शिशु देखभाल जैसे आवश्यक बुनियादी ढांचे तक सीमित पहुंच के कारण उनकी मुश्किलें और बढ़ जाती हैं।
भारत के 2024 के टाइम यूज़ सर्वे (TUS) से पता चलता है कि ग्रामीण महिलाओं में से लगभग 22% और शहरी महिलाओं में से 18% ने रोजगार और उससे जुड़े कामों में समय बिताया। वहीं लगभग 82% ग्रामीण महिलाओं और 81% शहरी महिलाओं ने बिना वेतन के घरेलू सेवाओं में समय बिताया, जबकि 35% ग्रामीण महिलाओं और 32% शहरी महिलाओं ने घर के अन्य सदस्यों की देखभाल करने में समय बिताया।
इस सर्वे में भाग लेने वाली 6 साल और उससे बड़ी उम्र की भारतीय महिलाओं ने बिना वेतन के घरेलू कामों में 289 मिनट और घर के सदस्यों की बिना वेतन के देखभाल में 137 मिनट बिताए। अगर उन्होंने रोजगार से जुड़े कामों में भाग लिया, तो उन्होंने रोजगार से संबंधित गतिविधियों में प्रतिदिन 341 मिनट बिताए।
लेकिन, नौकरी करने वाली शहरी महिलाओं ने ग्रामीण महिलाओं की तुलना में रोजगार से जुड़े कामों में ज्यादा समय बिताया (391 मिनट प्रतिदिन), जबकि ग्रामीण महिलाओं ने 322 मिनट बिताए। इस सर्वे में भाग लेने वाली महिलाओं ने बिना वेतन के घरेलू कामों में 285 मिनट और बिना वेतन के देखभाल सेवाओं में 142 मिनट प्रतिदिन बिताए, जो ग्रामीण महिलाओं के लगभग बराबर ही था।
इसका मतलब है कि शहरी महिलाओं पर ग्रामीण महिलाओं की तुलना में दोहरा बोझ है, जिसे ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ऑफ जेंडर स्टडीज ने उन लोगों के कार्यभार के रूप में परिभाषित किया है जो वेतन वाले कार्य यानी नौकरी और अवैतनिक घरेलू कार्य दोनों करते हैं।
आमतौर किसी भी गतिविधि के लिए एक दिन में बिताया गया औसत समय इस बात पर ध्यान दिए बिना गणना किया जाता था कि उन्होंने गतिविधियां की हैं या नहीं। इसलिए, रोजगार पर बिताए गए समय में उन लगभग 75% महिलाओं को भी शामिल किया जाता था जो नौकरी नहीं करती हैं। लेकिन हमने किसी भी गतिविधि पर बिताए गए समय को केवल उन लोगों के लिए गिना है जिन्होंने वह गतिविधि की थी, ताकि सटीक जानकारी मिल सके।
अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की असिस्टेंट प्रोफेसर रोज़ा अब्राहम ने नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी की विजयम्बा आर और अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के श्रीनिवास राघवेंद्र के साथ मिलकर 2024 में एक अध्ययन किया था। इस अध्ययन में पाया गया कि ग्रामीण क्षेत्र की स्वरोजगार में लगी महिला (जिसने उच्च स्तर की शिक्षा प्राप्त की है) जब एक घंटा रोजगार में बिताती है, तो उसके घर के अंदर के बिना वेतन वाले काम (घरेलू और देखभाल) में बिताया गया समय 4.2 मिनट कम हो जाता है।
इसके विपरीत, शहरी क्षेत्र की स्नातक महिला जब एक घंटे के लिए वेतनभोगी नौकरी करती है, तो बिना वेतन वाले काम में बिताया गया समय 6.6 मिनट बढ़ जाता है। अब्राहम ने कहा कि ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि नौकरीपेशा शहरी महिलाओं को घर से दूर रहने की भरपाई करने की आवश्यकता महसूस होती है। इससे वे खुद का ध्यान रखने जैसी दूसरी चीजों पर ध्यान देना कम कर देती हैं। उन्होंने आगे कहा, इसके अलावा, उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाएं घर पर बच्चों को पढ़ाने और स्कूल के बाद उनकी पढ़ाई में मदद करके, बाल देखभाल पर अधिक समय बिता सकती हैं।
जनवरी 2024 में, इंडियास्पेंड ने रिपोर्ट किया था कि भारत में विवाहित कामकाजी महिलाएं विवाहित कामकाजी पुरुषों की तुलना में खुद की देखभाल, आराम, सामाजिक गतिविधियों और धार्मिक गतिविधियों में काफी कम समय बिताती हैं।
महिलाओं के घर और बाहर के कामों को तय करने वाले कारक
अशोका यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर इकोनॉमिक एंड डेटा एनालिसिस के एक अध्ययन से पता चलता है कि 2017-18 (51.5%) और 2023-24 (60.5%) के बीच श्रम शक्ति भागीदारी में वृद्धि मुख्य रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की श्रम शक्ति भागीदारी में 23.5% से 42.8% तक की वृद्धि से हुई। बेंगलुरु में अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की एसोसिएट प्रोफेसर पूजा गुहा के अनुसार, लेकिन यह बढ़ोतरी स्वरोजगार और आकस्मिक काम से आई है।
रोजगार में लगी महिलाओं के अनुपात में, नियमित वेतन वाली नौकरी 2017-18 में 21% थी, जो 2024 में घटकर 16% रह गई। 2024 के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के रोजगार का एक बड़ा हिस्सा स्वरोजगार और घर-आधारित उद्यमों में है। 2024 में, ग्रामीण क्षेत्रों में 73.5% महिलाएं अपने व्यवसाय में काम कर रही थीं या घर से काम कर रही थीं, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह आंकड़ा 42.3% था।
अपने टीम के साथ किए गए एक अध्ययन में, गुहा ने पाया कि ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां पर बुनियादी ढांचा महिलाओं के लिए उपयुक्त नहीं है, वहां महिलाएं स्वरोजगार और अवैतनिक कामों में ज्यादा लगी होती हैं। उन्होंने इसके लिए 'लिंग-संवेदनशीलता सूचकांक' का इस्तेमाल किया, जो सरकार से जुड़ी सुविधाएं, भौतिक सुविधाएं, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा जैसे विभिन्न क्षेत्रों में मौजूद लैंगिक भेदभाव का आकलन करता है। अध्ययन में कहा गया, “लिंग संवेदनशीलता सूचकांक चार क्षेत्रों के डेटा पर आधारित है - शासन से संबंधित, भौतिक, शिक्षा और स्वास्थ्य से संबंधित बुनियादी ढांचा।" अध्ययन में पाया गया कि स्वरोजगार और अवैतनिक काम का संबंध लैंगिक रूप से प्रतिकूल बुनियादी ढांचे से है, जैसे बैंकिंग, बिजली आदि जैसी सुविधाओं की निकटता और शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा। ऐसा इसलिए है क्योंकि वेतनभोगी काम के लिए ज्यादातर महिलाओं को घर से बाहर निकलना पड़ता है, अगर इसके लिए बुनियादी ढांचा अपर्याप्त है तो ऐसा करना मुश्किल है।
अब्राहम ने कहा कि स्वरोजगार का फायदा यह है कि यह "समय और जगह के मामले में सुविधाजनक रहता है, यानी व्यक्ति कब और कहां काम करेगा, उसे इसकी आजादी रहती है।"
महिलाओं पर इस दोहरे बोझ का असर
2021 में प्रकाशित अध्ययनों की समीक्षा में पाया गया कि कई अध्ययनों ने अवैतनिक देखभाल कार्य को मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जोड़ा है। उदाहरण के लिए, अफ्रीका, एशिया और दक्षिण अमेरिका के अवैतनिक देखभाल करने वालों और देखभाल न करने वाले वालों के स्वास्थ्य परिणामों की तुलना करने वाली एक व्यवस्थित समीक्षा में पाया गया कि अवैतनिक देखभाल करने वालों में देखभाल न करने वालों की तुलना में चिंता और अवसाद के लक्षणों का स्तर अधिक था। लेखकों ने बताया कि इसी तरह, अमेरिका के एक अध्ययन में पाया गया कि घर के काम के विभाजन में असमानता और महिलाओं का असमान रूप से अधिक काम करना ‘अवसाद के स्तर में लिंग अंतर’ का एक बड़ा कारण था।
अमेरिका और जापान के शोधकर्ताओं द्वारा 2024 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि भारतीय महिलाओं द्वारा प्रतिदिन एक घंटे अतिरिक्त देखभाल करने से उनकी मध्यम स्तर की जीवन संतुष्टि की रिपोर्ट करने की संभावना 26 प्रतिशत और अच्छे शारीरिक स्वास्थ्य की संभावना 15 प्रतिशत कम हो जाती है। यह महिलाओं के स्वास्थ्य पर बढ़ते दोहरे बोझ के प्रतिकूल प्रभावों को दर्शाता है।
नीतिगत समाधान
अशोका यूनिवर्सिटी की इकोनॉमिक्स की प्रोफेसर अश्विनी देशपांडे ने कहा कि महिलाओं पर दोहरे बोझ को कम करने के लिए घरेलू और देखभाल संबंधी कार्यों का सार्वजनिक प्रावधान जरूरी है, खासकर शहरी क्षेत्रों में। उन्होंने कहा कि इसकी शुरुआत घर के भीतर किए जाने वाले अदृश्य काम को महत्व देने, उन्हें कम करने और परिवार के सदस्यों के बीच बांटने से होनी चाहिए। शहरी क्षेत्रों में निजी स्वास्थ्य सेवा और बाल देखभाल की गुणवत्ता बेहद असमान और पहुंच से दूर है और इस प्रकार एक बेहतर आंगनबाड़ी प्रणाली (जो छोटे बच्चों को पोषण और प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करती है) महिलाओं की मदद कर सकती है।
गुहा ने आगे कहा कि ज्यादातर सरकारी योजनाएं और नीतियां केवल ग्रामीण क्षेत्रों को लाभ पहुंचाने के लिए बनाई जाती हैं। क्योंकि, शहरी क्षेत्रों में स्वास्थ्य और देखभाल बुनियादी ढांचे का नेतृत्व निजी खिलाड़ियों के हाथों में होता है, जो बेहतर गुणवत्ता वाला बुनियादी ढांचा प्रदान करते हैं, लेकिन ये सुविधाएं काफी महंगी भी होती है। आबादी का एक बड़ा हिस्सा जो इन सेवाओं को वहन नहीं कर सकता है, इनसे वंचित रह जाता है।
अब्राहम ने सुझाव दिया कि अगर सार्वजनिक शिशु देखभाल संस्थान, जैसे कि क्रेच, लंबे समय तक काम करें, तो इससे मदद मिल सकती है, खासकर शहरी महिलाओं के लिए। इसके अलावा, उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि मातृत्व लाभ ज्यादातर महिलाओं के काम पर असर डालते हैं। क्योंकि वे व्यवसायों के लिए यह अवकाश एक वित्तीय बोझ बन जाते हैं। फर्मों के लिए इस लागत को वहन करना आसान बनाने के लिए, उन्होंने सुझाव दिया कि सरकार को एक सार्वजनिक कोष बनाना चाहिए, जिसमें फर्म भी योगदान करें। इसका उपयोग कर्मचारियों के लिए मातृत्व लाभों को कवर करने के लिए किया जा सकता है।