लाहौल-स्पीति: चंद्रभागा नदी पर हाइडल प्रोजेक्ट्स के खिलाफ ग्रामीणों का विरोध
तेलंगाना सरकार के साथ चंद्रभागा नदी में प्रस्तावित हाइडल प्रोजेक्ट्स समझौते पर उदयपुर (ज़िला, लाहौल-स्पीति) में विरोध, ग्रामीणों ने राज्यपाल को सौंपा ज्ञापन।;
लाहौल स्पीति एकता मंच का लाहौल-स्पीति में प्रस्तावित हाइडल प्रोजेक्ट्स के खिलाफ विरोध प्रदर्शन। फोटो: लाहौल स्पीति एकता मंच।
शिमला: 29 मार्च 2025 को हिमाचल प्रदेश और तेलंगाना सरकार के बीच जलविद्युत सहयोग को लेकर एक ऐतिहासिक करार हुआ है, जिसके तहत लाहौल-स्पीति की चंद्रभागा (चिनाब) नदी पर 400 मेगावाट सेली और 120 मेगावाट मियार जलविद्युत परियोजनाएं संयुक्त रूप से स्थापित की जाएंगी। तकरीबन 6200 करोड़ रुपए की अनुमानित लागत वाले इस समझौते को प्रदेश में इंटर-स्टेट एनर्जी साझेदारी की पहली मिसाल बताया जा रहा है, जो राज्य की नवीकरणीय ऊर्जा नीति और क्षेत्रीय संतुलन की दिशा में एक निर्णायक पहल मानी जा रही है।
राज्य सूचना एवं जनसंपर्क (हिप्र) की रिपोर्ट के मुताबिक मुख्यमंत्री सुखविन्द्र सिंह ‘सुक्खू’ और तेलंगाना के उपमुख्यमंत्री भट्टी विक्रमार्का मल्लू की उपस्थिति में हुए इस समझौते के तहत हिमाचल को चरणबद्ध तरीके से 12%, 18% और 30% मुफ्त बिजली मिलेगी, जबकि 40 वर्षों के बाद दोनों परियोजनाओं का स्वामित्व हिमाचल को हस्तांतरित कर दिया जाएगा। तेलंगाना सरकार अग्रिम ₹26 करोड़ के साथ परियोजना लागत का 1.5% स्थानीय विकास कोष (LADF) में देगी और 1% अतिरिक्त मुफ्त बिजली भी क्षेत्रीय विकास के लिए प्रदान करेगी।
मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू और तेलंगाना के उपमुख्यमंत्री भट्टी विक्रमार्का मल्लू की मौजूदगी में लाहौल-स्पीति में 400 मेगावाट सेली और 120 मेगावाट मियार जलविद्युत परियोजनाओं के लिए हस्ताक्षरित समझौता ज्ञापनों का आदान-प्रदान करते हिमाचल प्रदेश और तेलंगाना सरकार के अधिकारी। यह राज्य के नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र में पहला अंतर-राज्यीय सहयोग है। फोटो: राज्य सूचना आयोग
हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री सुखविन्द्र सिंह ‘सुक्खू’ ने इसे राज्य की ऊर्जा नीति में “आत्मनिर्भरता की दिशा में निर्णायक कदम” बताया, जबकि तेलंगाना सरकार ने इसे अपनी ग्रीन एनर्जी पॉलिसी-2025 के तहत ऊर्जा विविधीकरण की रणनीतिक पहल बताया है। करार के राजनीतिक, आर्थिक और पारिस्थितिक पहलुओं पर आगे स्थानीय स्तर पर चर्चाएं भी तेज़ हो गई हैं।
ज़िला लाहौल-स्पीति में क्यों उठ रही है जलविद्युत परियोजनाओं के खिलाफ आवाज़?
लाहौल-स्पीति की चंद्रभागा नदी में प्रस्तावित दो हाइडल प्रोजेक्ट्स के लिए प्रदेश सरकार द्वारा तेलंगाना सरकार के साथ हुए समझौते के खिलाफ स्थानीय लोगों द्वारा विरोध किया गया है। फलस्वरूप, लाहौल-स्पीति एकता मंच ने एसडीएम उदयपुर के माध्यम से राज्यपाल को ज्ञापन सौंपा है।
प्रदर्शन के बाद मंच की ओर से हिमाचल प्रदेश राज्यपाल मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू को एक ज्ञापन भेजा गया, जिसमें मांग की गई है कि तेलंगाना सरकार के साथ किए गए इन परियोजनाओं से संबंधित समझौता ज्ञापन (MoU) को तत्काल प्रभाव से निरस्त किया जाए। ज्ञापन में यह भी चेताया गया है कि यदि स्थानीय चिंताओं की अनदेखी की गई, तो आंदोलन को और व्यापक किया जाएगा।
मंच का कहना है कि अगर हिमालय के इस संवेदनशील क्षेत्र में ये बांध बनेंगे, तो लाहौल घाटी भी तीस्ता नदी (सिक्किम) में आई GLOFs (Glacial Lake Outburst Floods) जैसी आपदा का शिकार बन सकती है – जिसे पूरा इलाका 'इकोलॉजिकल डिजास्टर ज़ोन' में तब्दील हो सकता है।
जब मुझे चंद्रभागा नदी पर प्रस्तावित हाइडल प्रोजेक्ट्स के बारे में पता चला, तो सच कहूं तो दिल बैठ गया, लाहौल-स्पीति एकता मंच के अध्यक्ष सुदर्शन जस्पा ने इंडियास्पेंड हिन्दी को बताया। हमारे यहां की ज़मीन बहुत संवेदनशील है। पहाड़ खिसकते रहते हैं, और मौसम कब क्या कर दे, कोई भरोसा नहीं। ऊपर से जलवायु भी अब बदल रही है। पहले जो बर्फ महीनों टिकती थी, अब वो भी जल्दी पिघल जाती है।
“हमने उत्तराखंड में देखा, फिर हाल ही में सिक्किम में जो हुआ–ग्लेशियर फटा, बाढ़ आई, बांध बह गया–वो सब एक चेतावनी है। हिमालय कोई मशीन नहीं है, ये ज़िंदा पहाड़ हैं, और इनके साथ जबरदस्ती करेंगे तो उसका अंजाम बहुत भारी पड़ेगा। हम यही कह रहे हैं, अगर आप बिना हमारी राय के यहां ऐसा कुछ करेंगे, तो लाहौल भी किसी दिन अख़बारों की हेडलाइन बन सकता है, किसी और त्रासदी के साथ”, उन्होंने आगे कहा।
लाहौल स्पीति एकता मंच अध्यक्ष सुदर्शन जस्पा अन्य सहयोगियों के साथ एसडीएम को ज्ञापन देते हुए। फोटो: लाहौल स्पीति एकता मंच।
पिछले महीने, हिमाचल सरकार और तेलंगाना सरकार के बीच एक समझौता हुआ, जिसके तहत इस दुर्गम और संवेदनशील इलाके में दो पनबिजली परियोजनाएं प्रस्तावित हैं। लेकिन जैसे ही इस समझौते की खबर लाहौल घाटी में फैली, और लाहौल के लोग इसे एक इकोलॉजिकल अलार्म मानकर विरोध में उतर आए हैं। लोगों ने फौरन चेतावनी दी – "अगर यह परियोजना आगे बढ़ी, तो लाहौल भी तीस्ता घाटी की तरह ग्लेशियर झील फटने (GLOF) की आपदा का शिकार बन सकता है।” ग्रामीणों का डर सिर्फ बाढ़ या भूस्खलन तक सीमित नहीं है। वे इसे अपने जीवन, आस्था, और अस्तित्व पर हमला मानते हैं।
क्या कहते हैं स्थानीय प्रतिनिधि?
गोंधला पंचायत के प्रधान सूरज ठाकुर ने बताया कि विरोध के समय वह नगर से बाहर थे, इसलिए उसमें शामिल नहीं हो सके। उन्होंने स्पष्ट किया कि वह हाइडल प्रोजेक्ट्स के विरोध में हैं, क्योंकि इसके निर्माण से पर्यावरण को गंभीर नुकसान होगा, गाँवों का विस्थापन हो सकता है इसके अलावा जलवायु परिवर्तन के प्रत्यक्ष प्रमाण पहले से ही देखने को मिल रहे हैं।
जॉबरांग पंचायत की प्रधान छिमे आंगमो ने कहा कि अगर ऐसी परियोजनाओं से लाहौल स्पीति को नुकसान हो रहा है तो सरकार को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। उनके अनुसार, जब स्थानीय लोग प्रभावित हो रहे हों और सरकार केवल अपना लाभ देख रही हो, तो यह किसी भी तरह का वास्तविक विकास नहीं है और न ही इसे राष्ट्रीय हित कहा जा सकता है।
खांगसर पंचायत के प्रधान सुरेश कुमार ने प्रदेश सरकार को सीधे कटघरे में खड़ा करते हुए कहा कि लाहौल बेहद नाज़ुक (fragile) क्षेत्र है, जहां इस तरह की प्रोजेक्ट्स स्थानीय लोगों के अस्तित्व तक के लिए खतरा बन सकती हैं।
मूलिंग पंचायत के प्रधान अमर प्रकाश ने बताया कि पंचायत के प्रतिनिधियों सहित पूरी पंचायत ने हाइडल प्रोजेक्ट का विरोध किया था, क्योंकि पहाड़ी क्षेत्रों में इस तरह की परियोजनाएँ पहले भी बन चुकी हैं और आज उनके खतरनाक नतीजे साफ़ दिखाई दे रहे हैं। उन्होंने कहा, “किन्नौर इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, और लाहौल की भौगोलिक स्थिति तो किन्नौर से भी अधिक संवेदनशील है। ऐसे में इस तरह के प्रोजेक्ट का बनना खतरे से खाली नहीं है। मैंने पूरा किन्नौर घूमा है–वहाँ इन प्रोजेक्ट्स ने पहाड़, जंगल और नदियों तक को बर्बाद कर दिया है। उत्तराखंड की तबाही भी सबके सामने है, फिर भी सरकार सबक नहीं ले रही। यह विकास नहीं, विनाश का रास्ता है, और हम इसका डटकर विरोध करेंगे।”
सिस्सू पंचायत के प्रधान राजीव ने कहा, “मेरी सीधी सी राय है–अगर नुकसान न हो तो परियोजना बन सकती है, लेकिन अगर नुकसान हो रहा है तो नहीं बननी चाहिए। अब यह सरकार को तय करना है कि लाहौल के लिए क्या संभव है और यहाँ क्या शेष बचाया जा सकता है।”
तांदी पंचायत के प्रधान वीरेंद्र कुमार ने कहा कि तांदी में भी एक परियोजना प्रस्तावित है, जबकि यह स्थान लाहौल-स्पीति के सभी जनजातीय समुदायों के लिए पवित्र माना जाता है। “पूरे क्षेत्र के लोग अपने परिजनों का अस्थि विसर्जन यहीं करते हैं। गुरु रिनपोछे सहित सभी धर्मों के बड़े आध्यात्मिक गुरु हर साल ड्रिल्बू पहाड़ के साथ इसकी परिक्रमा करते हैं। कुछ श्रद्धालु तो पहाड़ की चोटी तक पहुँचते हैं, और रास्ते में स्थित पत्थर की मूर्ति पर सिक्के चस्पाते हैं”।
साल 2021 से लाहौल-स्पीति ज़िले में प्रस्तावित जलविद्युत परियोजनाओं को लेकर जनआक्रोश और चिंता लगातार बढ़ती जा रही है। इस वर्ष कई हाइडल प्रोजेक्ट्स प्रस्तावित किए गए, जिनमें तांदी (104 मेगावाट), राशिल (102 मेगावाट), बारडांग (126 मेगावाट), मियार (90 मेगावाट) और जिस्पा (300 मेगावाट) शामिल हैं।
सबसे ज़्यादा विरोध तांदी प्रोजेक्ट को लेकर देखने को मिला था। जिसमें तांदी और गोशल पंचायतों के लोग इस परियोजना के खिलाफ खुलकर मुखर हो गए थे। उनका कहना था जलविद्युत परियोजनाएँ न केवल पर्यावरणीय असंतुलन पैदा करेंगी बल्कि उनकी आजीविका, कृषि और पारंपरिक जीवनशैली पर भी गंभीर असर डालेंगी।
स्थानीय लोगों की आशंका है कि इन परियोजनाओं के चलते क्षेत्र की नाजुक पारिस्थितिकी को नुकसान पहुँचेगा और भूकंपीय गतिविधियों से प्रभावित यह इलाका और अधिक असुरक्षित बन जाएगा। यही कारण है कि ज़िले में विरोध की आवाज़ें लगातार बुलंद हो रही हैं और लोगों की बेचैनी दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है।
वीरेंद्र कुमार ने स्पष्ट किया कि इस स्थान का धार्मिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक महत्व इतना गहरा है कि यहाँ किसी भी तरह की परियोजना अस्वीकार्य है। “सरकार अगर मनमानी करना चाहती है तो कौन रोक सकता है, लेकिन हम इसके डटकर खिलाफ हैं,” उन्होंने आगे कहा।
पवित्र ड्रिल्बू पर्वत और तांदीसंगम, लाहौल-स्पीति की जनजातीय परंपराओं, आस्था और प्रकृति का अनूठा संगम। हर साल गुरु रिनपोछे सहित प्रमुख धर्मगुरु इसकी परिक्रमा करते हैं, जबकि श्रद्धालु चोटी तक पहुँचकर पत्थर की मूर्ति पर सिक्के चिपकाकर अपनी मनोकामनाएं व्यक्त करते हैं। फोटो: लाहौल स्पीति एकता मंच
कोकसर पंचायत के प्रधान सचिन मिरूपा ने बताया कि वह जॉइंट रिप्रेजेंटेशन और विरोध प्रदर्शन, दोनों में सक्रिय रूप से शामिल रहे। उन्होंने भावुक होकर कहा, “चंद्रभागा हमारे लिए केवल एक नदी नहीं, बल्कि सब कुछ है। यह हमारे पूर्वजों के समान है, जिनका इससे गहरा भावनात्मक संबंध रहा है, और यह संबंध हमारी आने वाली पीढ़ियों तक रहेगा। हम इसी के साए में जीते आए हैं। ट्राइबल क्षेत्र के लोग प्रकृति के उपासक होते हैं, और इस तरह की दखलअंदाजी को देखकर हम असहाय महसूस करते हैं। सरकार के खिलाफ हमारे पास केवल विरोध प्रदर्शन का ही रास्ता बचता है।”
दर्रों से घिरा लाहौल-स्पीति
लाहुल-स्पीति हिमाचल प्रदेश का एक अनूठा भू-भाग है। यह हिमाचल के ऊँचे शिखरों, गहरी घाटियों, सीमित कृषि क्षेत्रों तेज़ बहती नदियों तथा ठंडी जलवायु का क्षेत्र है। किसी भी ओर से यहां प्रवेश पाने के लिए एक दर्रा अवश्य लांघना पड़ता है।
उत्तर में लद्दाख की ओर से आएं तो बारालाचा, पूर्व में स्पीति की ओर से कुंजुम, दक्षिण में कुल्लू की ओर से रोहतांग और पश्चिम में चम्बा की ओर से कुगती दर्रा लांघना पड़ता है। यह चारों ओर से ऊंचे पर्वतों से घिरा है। जो वनस्पति विहीन हैं। यहां लगभग 21 ग्लेशियर हैं।
वेदों में असीकनी के नाम से वर्णित चिनाब नदी का उद्गम हिमालय की ऊँचाईयों से होता है। लगभग 4,891 मीटर की ऊँचाई पर स्थित बारा लाचा दर्रे से निकलने वाली चंद्रा और भागा नदियाँ तांदी संगम पर विराट नदी का रूप लेती हैं। पानी के घनत्व और जलराशि की दृष्टि से चिनाब प्रदेश की सबसे बड़ी नदी मानी जाती है।
लाहौल से जिला डोडा (जम्मू-कश्मीर) तक चंद्रभागा की अनुमानित लंबाई 220 किलोमीटर आंकी गई गई है, जिसमें 80 किलोमीटर चंद्रभागा नदी केवल चंबा जिला की पांगी घाटी से ही होकर बहती है। जहां यह भुजिंद नामक स्थान पर प्रविष्ट होती है।
हिमाचल प्रदेश की कठोर पर्वतीय भौगोलिक संरचना में 122 किलोमीटर तक अपना मार्ग बनाती हुई चंद्रभागा नदी अंततः संसारी नाला के पास जम्मू-कश्मीर की प्रसिद्ध पोद्दार घाटी में प्रवेश कर जाती है। मैदानी क्षेत्रों में इस विशाल और प्रबल धारा को ‘आशिकां दा दरिया’ के नाम से भी जाना जाता है—एक उपाधि जो इसके सांस्कृतिक और भावनात्मक महत्व को रेखांकित करती है।
हिमाचल प्रदेश के भीतर इसका स्त्रवण क्षेत्र लगभग 7,500 वर्ग किलोमीटर में फैला है। यह केवल जल का स्रोत नहीं, बल्कि राज्य की पारिस्थितिकी, कृषि और ऊर्जा संसाधनों की धड़कन भी है।
चन्द्रा घाटी, इस घाटी का स्थानीय नाम 'रंगोली' है। घाटी बारालाचा से खोकसर तक वीरान है। बारालाचा से खोकसर तक की दूरी 72 किलोमीटर है। गोंधला तथा सिस्सु दो महत्त्वपूर्ण स्थान इसी घाटी में हैं। लाहुल की सबसे ऊंची चोटी घेपन (21000 फीट) इसी घाटी में है। भागा घाटी, इस घाटी का स्थानीय नाम 'गाहर' है। घाटी आरम्भ में तंग है। पहला गांव दारचा है, जहां घाटी खुलने लगती है। यहां वनस्पति भी मिलने लगती है। दारचा में भागा नदी के साथ दो अन्य नदियां 'वरसी 'तथा 'मोच-डोगपी' मिलती हैं। यहीं से जांस्कर को रास्ता भी है। गेमूर, खंगसर तथा जिसपा घाटी के अन्य प्रमुख गांव हैं। गेमूर का गोंपा बड़ा प्रसिद्ध है। चन्द्रा-भागा घाटी, इस घाटी का स्थानीय नाम 'पत्तन' है। यह चन्द्रा तथा भागा नदियों की सांझा घाटी है। यह 'तांदी' से आरंभ होती है। इसके सामने नदी के बांए किनारे पर गोशाल गांव है। यह घाटी खुली उपजाऊ तथा घनी जनसंख्या वाली है। सभी गांव लगभग समान ऊंचाई पर स्थित हैं। इस घाटी के मुख्य गांव ठोलंग, लोट, कीर्तिर्ग शांशा, जाहल्मा, थिरोट तथा उदयपुर हैं। उदयपुर तथा थिरोट पहले चम्बा जिला में थे। 1975 ई. में यह लाहुल का भाग बना। यहां मण्डल मुख्यालय है। उदयपुर 1985 ई. में लाहुल का भाग बना।
केंद्रीय विश्वविद्यालय जम्मू में पीएचडी कर रहे कर रहे शशि कांत राय (Glacier Change and Peri-Glacial Geomorphology in the Chenab Basin, North Western Himalaya, J&K UT, India) ने कहा कि सरकार ग्लेशियरों के पिघलते पानी से जलविद्युत उत्पादन को बढ़ावा देने की कोशिश कर रही है, लेकिन इस प्रक्रिया में हिमालयी क्षेत्र की कठिन पारिस्थितिकी और उससे जुड़े जोखिमों की अनदेखी की जा रही है। हाल ही में हुई घटनाओं, जैसे उत्तराखंड के धराली और जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ जिले के चिसोती, ने स्पष्ट कर दिया कि यह ऊँचा पर्वतीय क्षेत्र कितनी गहरी संवेदनशीलता और खतरे से घिरा हुआ है।
शशि कांत आगे बताते हैं कि चंद्रभागा बेसिन में बड़ी संख्या में ग्लेशियर झीलें तेजी से पीछे हट रहे हैं। जिसे ग्लेशियर झीलें बन रही हैं। ये ऊंचा पर्वतीय क्षेत्र क्लाइमेट एक्सट्रीम इंवेटस के खतरे से घिरा है। इसके निचले क्षेत्रों में बसे इलाकों में ये झीलें जल्दी ही "टिकिंग बम" बन सकती हैं। अनियमित और बेतरतीब बांध निर्माण स्थिति को और गंभीर बनाता है। ऐसे प्रोजेक्ट, जो बिना किसी ठोस वैज्ञानिक अध्ययन के किए जा रहे हैं, भविष्य में हिमालयी नदियों में बाढ़ और आपदाओं को जन्म दे सकते हैं।
भौगोलिक एवं भूकंपीय दृष्टि से लाहौल घाटी उच्च जोखिम वाले क्षेत्र में आती है, क्योंकि यह सीस्मिक ज़ोन 4 एवं 5 में स्थित है। अतः लाहौल-स्पीति जैसे हाई-सीस्मिक और ग्लेशियल जोन में जलविद्युत परियोजनाएँ एक “मल्टीप्लायर इफेक्ट” (Multiplier Effect) की तरह काम करती हैं। यानी, यहाँ पहले से मौजूद आपदाओं (भूकंप, भूस्खलन, फ्लैश फ्लड) की तीव्रता और आवृत्ति इन प्रोजेक्ट्स की वजह से और बढ़ सकती है, उन्होंने आगे बताया।