मच्छरों से फैलने वाली बीमारियों से लड़ने के लिए रोकथाम और जागरूकता जरूरी
गुजरात में इस साल एन्सेफेलाइटिस का प्रकोप भारत में पिछले 20 सालों में सबसे भयावह रहा है। जलवायु परिवर्तन साबित कर रहा है कि मच्छरों से फैलने वाली बीमारियों के बढ़ते खतरे से निपटने के लिए सिर्फ प्रतिक्रियात्मक उपाय अपनाना काफी नहीं हैं, हमें समय रहते पहले ही कदम उठाने होंगे।
माउंट आबू: राजस्थान: अगस्त 2024 में राजस्थान के भीलवाड़ा के दो साल के संजय* को बेहोशी की हालत में उसके माता-पिता ने अहमदाबाद के एक बड़े निजी अस्पताल में भर्ती कराया था। अस्पताल उनके घर से सात घंटे की दूरी पर था।
सोमवार की सुबह संजय को बुखार और उल्टी शुरू हुई और थोड़ी देर बाद ही उसने अपने माता-पिता को पहचानना बंद कर दिया। पहले एक अस्पताल और फिर दूसरे अस्पताल में इलाज के बाद भी जब हालत में सुधार नहीं हुआ, तो उसके माता-पिता उसे अहमदाबाद के एक बड़े अस्पताल में ले गए। संजय को वहां तुरंत बच्चों के इंटेंसिव केयर यूनिट में भर्ती किया गया। उसे सांस लेने में दिक्कत होने की वजह से वेंटिलेटर पर रखा गया। उसका शुगर और ब्लड प्रेशर लगातार कम हो रहा था।
जांच से पता चला कि महज 24 घंटों से भी कम समय में संजय के लीवर और किडनी पर खासा असर पड़ा था। संजय का इलाज करने वाले बाल रोग विशेषज्ञ और क्रिटिकल केयर कंसल्टेंट अंकित मेहता ने इंडिया स्पेंड को बताया, "उसके लिवर फंक्शन टेस्ट सामान्य सीमा से 300-400 गुना ज्यादा था और किडनी भी सामान्य स्थिति में काम नहीं कर रही थी। इसलिए हमने उसका डायलिसिस शुरू कर दिया।"
अगले 24 घंटों में, मेहता ने पांच डॉक्टरों और नर्सों की टीम के साथ संजय की देखभाल की। उसका शुगर लेवल सामान्य हो गया और किडनी व लीवर में भी सुधार नजर आने लगे था। लेकिन नियर-इन्फ्रारेड स्पेक्ट्रोस्कोपी से पता चला कि दिमाग से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिल रही है। संजय के दिमाग में सूजन बढ़ती ही जा रही थी।
मेहता ने बताया, "कुछ समय बाद संजय ब्रेन डैड हो गया और कुछ घंटों के बाद उसके अन्य महत्वपूर्ण अंगों ने भी काम करना बंद कर दिया।"
बाद में जांच से पता चला कि संजय को चांदीपुरा वायरस से एक्यूट एन्सेफेलाइटिस हो गया था। इस साल गुजरात में एन्सेफेलाइटिस से मरने वाले 101 बच्चों में संजय भी शामिल है। यह एक ऐसी बीमारी है जो तेजी से फैलती है और इलाज के लिए बहुत कम ही समय मिल पाता है।
रिसर्च बताती हैं कि जलवायु परिवर्तन से मच्छरों से फैलने वाले बीमारियों में तेजी आएगी। विशेषज्ञों के मुताबिक, अगर हमें इन बीमारियों से लड़ना है, तो इनकी रोकथाम और समुदाय में जागरूकता फैलाना बहुत जरूरी है।
इलाज समय से न मिले तो बचने की संभावना कम
एन्सेफेलाइटिस यानी दिमागी बुखार के नाम से जाने जानी वाली यह बीमारी बुखार, सिरदर्द, उल्टी, दौरे, बेहोशी, पहचानना बंद करने और दस्त के रूप में सामने आती है। यह वायरस सैंड फ्लाई, मच्छरों और टिक्स के जरिए फैलती है।
इस मानसून में गुजरात में एन्सेफेलाइटिस के 164 मामले सामने आए हैं, जिनमें से 101 लोगों की मौत हो गई। मृत्यु दर 62% है। इनमें से 28 बच्चों की मौत चांदीपुरा वायरस से हुई और 73 बच्चों की मौत अन्य वायरस से हुई।
मेहता की टीम ने इस साल गुजरात में एक्यूट एन्सेफेलाइटिस से पीड़ित तीन बच्चों का इलाज किया, जिसमें संजय की मौत हो गई। लेकिन वे 14 और 15 साल के अन्य दो बच्चों की जान बचाने में कामयाब रहे। यह प्रकोप पिछले 20 सालों में भारत में सबसे भयानक रहा है।
मेहता इस बीमारी की उच्च मृत्यु दर से हैरान नहीं हैं। उन्होंने बताया, "एक्यूट एन्सेफेलाइटिस एक गंभीर बीमारी है, जो बेहतर इलाज के बावजूद कई बार जानलेवा साबित होती है। दरअसल यह बीमारी बहुत तेजी से फैलती है, जैसा कि संजय के मामले में हुआ।" वह आगे कहते हैं, "समस्या को जल्दी पहचान कर तुरंत सही इलाज शुरू करना ही सबसे महत्वपूर्ण है।"
यह कहना आसान है, लेकिन करना मुश्किल है। बिहार में 2019 में फैले एक्यूट एन्सेफेलाइटिस के मामले और इस साल गुजरात में आए प्रकोप से पहले, लोगों को इस दिमागी बुखार के बारे में बहुत कम जानकारी थी। डॉक्टर मेहता ने बताया कि छोटे शहरों में ऐसे मामलों को संभालने वाले कुशल डॉक्टरों की कमी भी जान बचाने में एक बड़ी बाधा है।
जागरूकता फैलाना बहुत जरूरी
गुजरात में जुलाई 2024 में चंदीपुरा वायरस का पहला शिकार चार साल का एक बच्चा था। वह सबरकंठा जिले के मोता कांथरिया गांव का रहने वाला था, जो जिला मुख्यालय से लगभग 70 किलोमीटर दूर है। गांव में कोई योग्य डॉक्टर नहीं है, केवल एक नर्स है। और बीमार होने पर ज्यादातर लोग अयोग्य चिकित्सकों से सलाह लेते हैं, जिन्हें पूर्व सरपंच विष्णुभाई धनजीभाई खराडी ने "कंपाउंडर" बताया।
खराडी ने इंडियास्पेंड से कहा, "बच्चे के माता-पिता पहले कुछ दिनों तक तो एक कंपाउंडर से सलाह लेते रहे। जब बच्चा ठीक नहीं हुआ तो वे बच्चे को जिला मुख्यालय हिम्मतनगर के सरकारी अस्पताल ले गए जहां उसकी सही जांच हुई। लेकिन उसे बचाया नहीं जा सका था।"
खराडी ने बताया कि इस बीमारी के सुर्खियों में आने के बाद ही मोता कांथरिया में मच्छरों से फैलने वाली बीमारी के बारे में जागरूकता और रोकथाम अभियान शुरू हुए।
महाराष्ट्र के सांगली के उषाकला अभिनव इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज में बाल रोग और नवजात शिशु विज्ञान विभाग के प्रमुख विनायक पाटकी ने अगस्त 2024 के अंतिम सप्ताह में 1 से 16 साल की उम्र तक के बच्चों में एक्यूट एन्सेफेलाइटिस के सात मामले देखें।
इंटेंसिव केयर चैप्टर ऑफ दि इंडियन एकेडमी ऑफ पिडियाट्रिक्स के सचिव पाटकी ने बताया कि इस साल दिमागी बुखार के सामान्य से ज्यादा मामले देखने को मिल रहे हैं। और इसके बाद से ही वह डॉक्टरों के साथ-साथ समुदाय में जागरूकता फैलाने में जुट गए।
पाटकी ने कहा, "इसके लक्षणों को जल्दी पहचानने और सही समय पर उपचार शुरू करने के लिए, सबसे पहले डॉक्टरों को इसके शुरुआती लक्षणों के बारे में अच्छी तरह से शिक्षित करने की जरूरत है। इससे डॉक्टर उन मरीजों को तुरंत रेफर कर पाएंगे जिन्हें गहन उपचार की जरूरत है और देरी से होने वाले नुकसान से बचाया जा सकेगा। साथ ही, माता-पिता को भी अपने बच्चों में होने वाले इन लक्षणों के बारे में पता होना चाहिए, ताकि वे समय रहते डॉक्टर के पास जा सके और मच्छरों से फैलने वाली बीमारियों के गंभीर परिणामों से बचाव कर सकें।"
लक्षणों को जल्दी पहचानने में लगातार बुखार, सिरदर्द, चक्कर आना, मतली के बिना उल्टी, दृष्टि का नुकसान, डगमगाती चाल और किसी को न पहचाना शामिल है।
डॉक्टर पाटकी ने कहा, "अगर मरीज हमारे पास समय रहते आया है और उसकी स्थिति ठीक है, तो हम उसका इलाज कर सकते हैं।" साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि अगर मरीज को पहले से ही लो बल्ड प्रेशर, ब्लीडिंग या दौरे पड़ रहे हैं और वो दवाओं से नियंत्रित नहीं हो रहे हैं, तो हमारे पास करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं होता है।" उन्होंने आगे कहा, "ज्यादातर गंभीर मामले, जो स्टेटस एपिलेप्टिकस (लगातार दौरा पड़ना) की स्थिति में हमारे पास आते हैं, वे बढ़ते इंट्राक्रेनियल प्रेशर (मस्तिष्क में द्रव के दबाव) के कारण मौत के शिकार हो जाते हैं।"
हमने जलवायु परिवर्तन और इंसेफेलाइटिस के मामलों में वृद्धि के बीच किसी भी संबंध और रोकथाम की प्रभावकारिता पर टिप्पणी के लिए स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय में स्वास्थ्य सेवाओं के महानिदेशक से संपर्क किया है। उनकी प्रतिक्रिया मिलने पर, हम इस लेख को अपडेट करेंगे।
बच्चे एक्यूट एन्सेफेलाइटिस के प्रति अधिक संवेदनशील क्यों
डेंगू, मलेरिया और चिकनगुनिया सभी उम्र के लोगों में होता है, लेकिन एक्यूट एन्सेफेलाइटिस के ज्यादातर मामले बच्चों में ही देखने को मिलते हैं। पाटकी ने इसका कारण आंशिक रूप से उनके लक्षणों को ठीक से व्यक्त करने में असमर्थता को बताया। उन्होंने कहा, "इस वजह से बीमारी को पकड़ना मुश्किल हो जाता है" उन्होंने यह भी कहा कि कोविड-19 महामारी के बाद इम्यून डेब्ट का भी असर हो रहा है।
उन्होंने समझाते हुए कहा, “कोविड-19 महामारी के दौरान, लोगों के बीच कम संपर्क होने के कारण, बच्चों को विभिन्न रोगाणुओं का कम सामना हुआ और उनकी प्रतिरक्षा प्रणाली कमजोर हो गई। इसे "इम्यून डेब्ट" कहा जाता है। महामारी के बाद वायरल संक्रमणों में वृद्धि देखने को मिली है, जैसे मायोकार्डिटिस और गंभीर निमोनिया, जिसके लिए वेंटिलेटर की जरूरत पड़ती है। महामारी के दौरान या उसके बाद जन्मे शिशु इसके प्रति विशेष रूप से संवेदनशील हैं, क्योंकि उनकी प्रतिरक्षा प्रणाली कमजोर है।"
जलवायु परिवर्तन और मच्छरों से फैलने वाली बीमारियां
एक्यूट एन्सेफलाइटिस, डेंगू, चिकनगुनिया और मलेरिया सभी मच्छरों, मक्खियों या टिक जैसे वेक्टरों के जरिए फैलती हैं।
राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र के चिकित्सा कीट विज्ञान और वेक्टर नियंत्रण केंद्र के पूर्व प्रमुख और अतिरिक्त निदेशक आर.एस. शर्मा ने बताया कि मच्छरों से फैलने वाली बीमारियां (जैसे डेंगू, मलेरिया, चिकनगुनिया, दिमागी बुखार) निर्जीव (अजैविक) कारकों (तापमान, बारिश और आर्द्रता) और जीवित (जैविक) कारकों (जैसे मच्छर, मक्खियों, टिक) के बीच परस्पर क्रिया का परिणाम होते हैं। शर्मा आईसीएमआर टास्क फोर ऑन इंसेक्टिसाइड रेजिस्टेंस के सदस्य भी हैं।
मार्च 2024 में "पैरासाइट्स एंड वेक्टर्स" जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया कि कुछ स्थितियां जैसे उच्च तापमान और आर्द्रता मच्छरों को तेजी से बढ़ने के लिए अनुकूल परिस्थितियां बनाती हैं। वास्तव में, जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ते तापमान ने मलेरिया पैदा करने वाले परजीवी की इनक्यूबेशन अवधि को कम कर दिया है, जिससे "रोग संचरण का खतरा बढ़ गया है और मलेरिया को जड़ से खत्म करने के प्रयासों में बाधा आ रही है।"
गुजरात के स्वास्थ्य विभाग में महामारी के उप निदेशक, जयेश काटीरा ने राज्य में इस साल आए प्रकोप का कारण जलवायु परिवर्तन को बताया। उन्होंने कहा "भारत विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील है" और "जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए कोई भी कुछ नहीं कर सकता है।" पिछले कुछ सालों में भारत में डेंगू और चिकनगुनिया के मामले बढ़े हैं और डेंगू के कारण मौतों में वृद्धि देखने को मिली है।
भले ही जलवायु परिवर्तन और वाहकों (जैसे मच्छर) की बढ़ती संख्या के कारण बीमारी के प्रकोप का खतरा बढ़ गया है, लेकिन इन प्रकोपों को रोकने के लिए कदम उठाए जा सकते हैं। जितनी तेजी से परजीवी और रोग वाहक बढ़ते हैं, उतनी ही ज्यादा निगरानी और जागरूकता की जरूरत होती है।
निगरानी और जागरूकता से मामलों में कमी
इस वर्ष, नई दिल्ली नगर निगम ने मच्छर से फैलने वाली बीमारियों के कम मामले देखने को मिले हैं; बेहतर निगरानी और जागरूकता के चलते डेंगू के मामलों में 94% की कमी आई है।
बीमारी फैलाने वाले ये मच्छर घर के बाहर और अंदर, दोनों जगहों पर ठहरे हुए पानी में, पुराने टायरों में, फूलदानों में, मिट्टी की दीवारों की दरारों में, आदि जगहों पर अपना घर बना सकते हैं और प्रजनन कर सकते हैं। गुजरात का दिमागी बुखार का शिकार हुआ पहला व्यक्ति एक "कच्चे" घर में रहता था। शायद याद दिलाने की जरूरत नहीं कि राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में, प्रधानमंत्री आवास योजना अभी भी 902,354 घरों के अपने लक्ष्य का केवल 60.6% ही हासिल कर पाई है।
हाल ही में ब्रिटिश मेडिकल जर्नल (बीएमजे) में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन बताता है कि मच्छरों से फैलने वाली बिमारियों से बचाव के लिए एक व्यापक कार्यक्रम की जरूरत है जो सभी प्रकार के आराम और प्रजनन स्थलों को नियंत्रित कर सके। इसमें मच्छरों से फैलने वाली बीमारियों की रोकथाम के लिए रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल, स्पेस स्प्रे, फॉगिंग, उपचारित बेडनेट और लार्विसाइड के साथ-साथ जैविक नियंत्रण तरीके जैसे कि लार्वा खाने वाली मछलियों शामिल हैं। इसके अलावा पर्यावरण नियंत्रण तरीकों में पानी की निकासी, कूड़े की सफाई और संशोधन उपाय को अपनाने की बात भी कही गई है।
बीएमजे अध्ययन कहता है, सही रोकथाम उपकरण चुनना जरूरी है क्योंकि ये तरीके अब कम असरदार होते जा रहे हैं। इसके पीछे कई कारण हैं, जैसे कीटनाशक प्रतिरोधकता, मच्छरों के काटने और आराम करने के व्यवहार में बदलाव, जलवायु परिवर्तन, आबादी का स्थानांतरण, नए क्षेत्रों में मच्छरों का आक्रमण, संसाधनों की कमी और समुदाय द्वारा उपकरणों का खराब या अपर्याप्त उपयोग।
हैदराबाद के उस्मानिया यूनिवर्सिटी के साइंस कॉलेज में जूलॉजी के प्रोफेसर, बी. रेड्ड्या नाइक कहते हैं, कई शहरों में नगरपालिकाएं लार्वा-रोधी कार्यक्रम चला रही हैं लेकिन इन कार्यक्रमों को बड़े जल निकायों में प्रजनन करने वाले मच्छरों तक पहुंचने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। उन्होंने आगे बताया, "जब मच्छर पानी में होते हैं, तब उन पर नियंत्रण बहुत जरूरी होता है। एक बार जब वे स्थलीय वातावरण में आ जाए, तो वे बहुत तेजी से फैलते हैं।" शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में रोकथाम में समुदाय की भूमिका अहम होती है।
जुलाई में ब्रुहत बेंगलुरु महानगर पालिका के अधिकार क्षेत्र में मामलों की संख्या 7,000 को पार कर गई, जिससे स्वास्थ्य ढांचे पर दबाव पड़ा और अस्पताल के बिस्तरों की कमी हो गई (जो सितंबर में फिर से हो गई), कर्नाटक ने डेंगू महामारी घोषित कर दी और आवासीय व कमर्शियल परिसरों में मच्छरों के संभावित प्रजनन स्थलों पर जुर्माना लगाना शुरू कर दिया।
नाइक ने कहा, "ग्रामीण भारत में, मच्छरों से फैलने वाली बीमारियों के प्रकोप को रोकने के लिए सामुदायिक भागीदारी महत्वपूर्ण है।"
उदाहरण के लिए, समुदायों को बीमारियों का कारण बनने वाले मच्छरों के प्रजनन को रोकने के लिए उपाय अपनाने के लिए शिक्षित किया जाना चाहिए, जैसे टैंकों की सफाई आदि। ये कार्यक्रम सिर्फ मानसून में नहीं बल्कि पूरे वर्ष चलाए जाते रहने चाहिए। नाइक ने जोर देकर कहा, "हमें अपनी सोच में बदलाव लाने की जरूरत है।"
बीमारी को फैलने से रोकने के लिए
प्रकोप के बाद, अधिकारियों का ध्यान तेजी से सुधार किए जाने वाले उपायों पर जाता है यानी वो रोग को फैलने से रोकने के लिए तुरंत कदम उठाते हैं लेकिन ये प्रतिक्रियात्मक उपाय हैं जो लंबे समय में रोकथाम की जगह नहीं ले सकते हैं।
कतीरा ने इंडियास्पेंड को बताया, “गुजरात में, जैसे ही चांदीपुरा वायरस की पहचान हुई, प्रशासन ने अल्फासीपरमेथ्रिन का छिड़काव शुरू कर दिया। यह कीटनाशक उन गांवों और क्षेत्रों में छिड़का गया जहां इस बीमारी का फैलाव ज्यादा था। इसे घरों और पशुशालाओं दोनों जगह छिड़का गया, क्योंकि पशु इन मच्छरों के पनपने के लिए एक बड़ी जगह हैं। राष्ट्रीय वेक्टर जनित रोग नियंत्रण केन्द्र के अधिकारियों की अनुमति से, हमने मलेरिया और डेंगू फैलाने वाले मच्छरों को खत्म करने के लिए मैलाथियोन का छिड़काव भी किया था।”
शर्मा ने कहा, "घरों की भीतरी दीवारों पर 6 फीट तक अल्फासाइपरमेथ्रिन का छिड़काव करने से बेहतरीन परिणाम मिलते हैं, यह चांदीपुरा वायरस को फैलने से रोकता है। यह वायरस सैंड फ्लाई की वजह से फैलता है।"
सैड फ्लाई आमतौर पर 6 फीट से अधिक ऊंचाई पर नहीं पाई जाती हैं।
अगस्त 2024 में प्रकाशित एक मूल्यांकन अध्ययन में, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में घरों में सैंडफ्लाई की संख्या पर घर के अंदर कीटनाशक छिड़काव के प्रभाव का मूल्यांकन किया गया था। इस अध्ययन में यह निष्कर्ष निकला कि अल्फासीपरमेथ्रिन का छिड़काव, जो कि संक्रमण के मौसम में दो बार किया गया था, घर की मक्खियों की संख्या में 27% की कमी ला सकता है।
सहायक प्रोफेसर, संक्रामक रोग नियंत्रण, सार्वजनिक स्वास्थ्य विभाग, इरास्मस एमसी, यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर, रॉटरडैम, और अध्ययन के प्रमुख लेखक ल्यूक कॉफिंग ने कहा, "जहां तक हम जानते हैं, अल्फासाइपरमेथ्रिन सैंडफ्लाई के खिलाफ अभी भी अत्यधिक प्रभावकारी है।"
कतीरा ने कहा कि मैलाथियान का इस्तेमाल "जुलाई में एक्यूट एन्सेफेलाइटिस के प्रकोप से पहले नहीं किया गया था क्योंकि बारिश होने पर मैलाथियान बह जाता है।"
अगर समुदाय में मच्छरों से फैलने वाली बीमारियों के बारे में जागरूकता पहले से होती, तो मानसून आने पर भी लोग इसके लिए तैयार रहते और शायद इस बीमारी को फैलने से रोका जा सकता।