बन्नी ग्रासलैंड को संवारने पर विशेषज्ञ क्यों जता रहे हैं आपत्ति

विशेषज्ञों का कहना है कि बन्नी घास के मैदानों की बहाली के लिए जमीन के चारों ओर खोदी गई खाइयां जहां एक तरफ मवेशियों के लिए खतरा पैदा कर रही हैं, वहीं जमीन के बड़े हिस्से से वन्यजीवों को भी दूर कर रही हैं।

By :  Vishal
Update: 2023-12-13 04:00 GMT

बन्नी घास के मैदान (ग्रासलैंड) को एशिया का सबसे बड़ा ग्रासलैंड कहा जाता है। विदेशी आक्रामक प्रजातियों के तेजी से फैलने, प्रकृति की मार और अनदेखी के चलते लगातार इसका क्षरण हो रहा है। फिलहाल इसे बहाल करने के लिए काफी प्रयास किए जा रहे हैं। मगर ज्यादातर विशेषज्ञ इसके लिए अपनाए जा रहे तरीकों को लेकर खुश नहीं हैं।

कच्छ, गुजरात: एशिया के सबसे बड़े खुले घास के मैदान बन्नी में फिलहाल कटाई का मौसम है। यहां उपज की नहीं बल्कि घास की कटाई हो रही है। इस घास को गुजरात के कच्छ क्षेत्र में वन विभाग पिछले पांच सालों से हर साल उगाता आ रहा है, ताकि धीरे-धीरे खराब हो रहे पारिस्थितिकी तंत्र को बहाल किया जा सके।

लेकिन जहां वन विभाग नतीजों को लेकर काफी खुश है, वहीं संरक्षणवादी इस बहाली के तरीके पर चिंता जाहिर कर हैं। उनके मुताबिक, इससे न सिर्फ संभावित दीर्घकालिक प्रभाव पड़ेंगे बल्कि यह बन्नी के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए भी नुकसानदायक हैं।

2,600 वर्ग किमी (या 260,000 हेक्टेयर) में फैला बन्नी दिल्ली के क्षेत्रफल के पौने दो गुना के बराबर है। यह जैव विविधता से भरपूर है। यहां फैली घास की प्रजातियों की संख्या का अनुमान अलग-अलग है। गुजरात इंस्टीट्यूट ऑफ डेजर्ट इकोलॉजी के मुताबिक, यहां घास की 37 प्रजातियां पाई जाती हैं। तो वहीं बन्नी पर काम करने वाला एक खुला शोध मंच ‘RAMBLE’ इस संख्या को 40 से ज्यादा बताता है।

चरवाहों के साथ काम करने वाले एक गैर सरकारी संगठन ‘RAMBLE’ की कार्यवाहक निदेशक और एनजीओ ‘सहजीवन’ में जैव विविधता (ग्रासलैंड) कोर्डिनेटर मान्या सिंह ने कहा कि घास सिर्फ चरवाहों और मवेशियों के फायदे तक सीमित नहीं है, इसका महत्व उससे कहीं ज्यादा है।

सिंह ने कहा, "घास शानदार पौधे हैं जो हर साल 50 मिमी से भी कम बारिश में उग सकते हैं।" वह आगे कहती हैं, "ये घास न सिर्फ यहां रहने वाले लोगों और उनके मवेशियों के लिए मायने रखती है बल्कि कई वन्यजीव प्रजातियों को बनाए रखने के लिए भी महत्वपूर्ण हैं।" उन्होंने बताया कि जब पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं, जलवायु विनियमन और कार्बन पृथक्करण की बात आती है, तो बारहमासी घास की प्रजातियां और उनके जड़ों का फैला जाल ज्यादा तो नहीं लेकिन उष्णकटिबंधीय वर्षावन के समान ही महत्वपूर्ण साबित होता है।

स्थानीय पशुपालक समुदाय मालधारी बड़े पैमाने पर इस मैदान को चरागाह की तरह इस्तेमाल करता है। इनका संबंध विभिन्न जनजातियों से हैं और ये 19 ग्राम पंचायतों में रहते हैं।

पिछले कुछ सालों से बन्नी के घास के मैदान का लगातार क्षरण हो रहा है। मिहिर माथुर और कबीर शर्मा के जुलाई 2018 के अध्ययन के अनुसार, बन्नी की उत्पादकता 1960 के दशक में 4,000 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर थी, 1999 में घटकर यह 620 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रह गई। अध्ययनों ने इसके पीछे की कई वजह बताईं, जिसमें सबसे बड़ा कारण आक्रामक प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा प्रजाति का तेजी से फैलना है। स्थानीय रूप से इस प्रजाति को गैंडो बावल या "पागल पेड़" के नाम से जानते हैं।

पी जूलीफ्लोरा पौधा मेक्सिको और दक्षिण अमेरिका का मूल निवासी है। विडंबना यह है कि इसे 1961 वन विभाग इसलिए लेकर आया था ताकि बन्नी में ग्रेट रण ऑफ कच्छ को फैलने से रोका जा सके। यह नमक का वीरान रेगिस्तान है जो बन्नी को उत्तर में जोड़ता है। आक्रामक प्रजातियों ने समय के साथ बन्नी घास के मैदानों के लगभग 50 फीसदी हिस्से पर कब्जा कर लिया है। इसकी वजह से चरवाहों की आजीविका खतरे में पड़ रही है।

बन्नी घास के मैदानों में गिरावट के अन्य कारणों में जरूरत से ज्यादा चराई और तीव्र सूखे की समस्या है।

बहाल करने की प्रक्रिया

2019 में जब गुजरात वन विभाग के बन्नी ग्रासलैंड डिवीजन ने 10,000 हेक्टेयर पर बन्नी ग्रासलैंड बहाली परियोजना शुरू की, तो पहला कदम पहचाने गए भूखंडों में पी जूलीफ्लोरा को उखाड़ फेंकना था।

उप वन संरक्षक (बन्नी प्रभाग) बी.एम. पटेल ने इंडियास्पेंड को बताया, “यह एक बड़ी चुनौती है और हम इन इलाकों में इन पौधों को उखाड़ने के लिए बड़ी मशीनों का इस्तेमाल कर रहे हैं।” उन्होंने आगे कहा, “हम जमीन के उस हिस्से का चयन करते हैं जहां पी जूलीफ्लोरा तेजी से फैल रहा है। यानी यहां मिट्टी में कम लवणता है और वह उपजाऊ है। अगर आप बिना पेड़-पौधे वाले खुले इलाकों की बात करेंगे, तो वहां मिट्टी की लवणता बहुत ज्यादा पाई जाती है।” पटेल ने बताया कि इस पूरी प्रक्रिया में बबूल निलोटिका (देसी बबूल) जैसे पौधों की स्थानीय प्रजातियों को नहीं उखाड़ा जाता है।

पौधों को उखाड़ने के बाद जमीन की जुताई की जाती है। इसके बाद, वहां चारों ओर खाइयां खोदी जाती हैं। पटेल ने समझाया, “इससे दो उद्देश्य पूरे होते हैं। मानसून के दौरान, खाई बारिश के ज्यादा पानी को भूखंड में आने से रोकती है। यह काफी मायने रखता है क्योंकि पानी कभी-कभी अपने साथ अतिरिक्त लवणता भी लाता है। दूसरा, खाई के बन जाने के बाद यहां मवेशी चरने के लिए नहीं आ पाते हैं। गौरतलब है कि बन्नी की आबादी लगभग 30,000 लोगों की है और मवेशियों की संख्या इससे चार गुना ज्यादा है।

आमतौर पर यह काम अप्रैल और मध्य जून के बीच किया जाता है, जब बारिश के बाद बुआई शुरू की जाती है। प्रति हेक्टेयर पांच से छह स्थानीय घास की किस्मों जैसे डिकैन्थियम पर्टुसम, डी. एनुलैटम और सेंच्रस सिलियारिस (स्थानीय नाम धामन) के 14 किलोग्राम बीज बोए जाते हैं और उनमें खाद लगाई जाती है। इसकी कटाई नवंबर में की जाती है, उस समय घास पीली पड़ने लगती है।



बहाली परियोजना के दौरान ग्रासलैंड में प्रति हेक्टेयर औसतन पांच से छह स्थानीय घास किस्मों के 14 किलोग्राम बीज बोए जाते हैं और उनमें खाद लगाई जाती है।



फायदे का सौदा

पटेल के मुताबिक, 2019 में घास कटाई का लक्ष्य 200,000 किलो था, जो 2020 में बढ़कर 700,000 किलो पर पहुंच गया। वहीं 2021 में यह 600,000 किलो था और 2022 में 800,000 किलो। फिलहाल 2023 के लिए हमारा लक्ष्य 600,000 किलो है।

इस साल कम लक्ष्य का जिक्र करते हुए पटेल ने कहा कि लक्ष्य इस आधार पर निर्धारित किए जाते हैं कि गोदामों में कितना सरप्लस स्टॉक रखा हुआ है। पटेल ने कहा, "2018 के बाद से कोई बड़ी आपदा नहीं हुई है और हमारे पास स्टॉक में काफी अतिरिक्त घास है।" गोदामों में कटी हुई घास तीन सालों तक इस्तेमाल में लाई जा सकती है। वह आगे बताते हैं, " अभी और ज्यादा गोदामों का तैयार किया जा रहा है। एक बार जब यह काम पूरा हो जाएगा तो हम इस साल के लिए थोड़ी और घास स्टॉक में रख सकते हैं।"

पटेल ने इंडियास्पेंड को बताया, “ अपना लक्ष्य हासिल करने के बाद हम उस इलाके को स्थानीय माल धारियों के लिए खुला छोड़ देते हैं। 2022 में मिथरी गांव के पास से 800,000 किलो घास की कटाई के बाद गांव के माल धारियों ने बची हुई तकरीबन 21 लाख किलो घास का इस्तेमाल किया था।”

बन्नी को फरवरी और जून के पहले सप्ताह के बीच घास की कमी का सामना करना पड़ता है। और अप्रैल-मई की चरम गर्मी के आते-आते ये कमी और बढ़ जाती है। पटेल ने कहा, “इस समय माल धारियों को घास खरीदनी पड़ती है जो गुजरात के वलसाड और पंजाब जैसी जगहों से लगभग 20 रुपये प्रति किलो के हिसाब से आती है। दुधारू मवेशियों के लिए अतिरिक्त चारा भी खरीदना पड़ता है। लेकिन बहाली परियोजना के चलते ये घास मालधारी को 3 रुपये प्रति किलो के हिसाब से मिल जाती है।”

अभी हाल ही में जब इस साल जून में चक्रवात बिपरजॉय ने कच्छ पर कहर बरपाया, तो 500,000 किलो से अधिक घास फ्री में माल धारियों को दी गई थी। इसलिए यह कहा जा सकता है कि ये प्रोजेक्ट न सिर्फ बन्नी को बहाल करने में मदद कर रहा है, बल्कि यह माल धारियों को घास की कमी और आपदा के दौरान मददगार भी साबित हो रहा है।



बन्नी के बहाली वाले इलाकों में स्थानीय डिकैन्थियम प्रजाति की घास उगाई जाती है। उप वन संरक्षक (बन्नी प्रभाग) बी.एम.पटेल के मुताबिक, बहाली परियोजना के चलते माल धारियों को 3 रुपये किलो के हिसाब से घास मिल जाती है।”


बहाली के तरीकों पर सवाल

सहजीवन की कोऑर्डिनेटर मान्या सिंह बहाली परियोजना के क्रियान्वयन के तरीके पर चिंतित जाहिर करती हैं।

सिंह ने कहा, "पहली बात तो यह है कि भूखंडों के आसपास की ये खाइयां बन्नी में मवेशियों के लिए एक बड़ा खतरा हैं। हर साल इन तीन फुट गहरी खाइयों में गिरने से आठ-दस भैंसों की मौत हो जाती है। यहां मवेशी खुले में चराये जाते है। मालिकों को काफी समय तक पता ही नहीं चल पाता है कि उनका मवेशी खाई में गिर गया है। एक बन्नी भैंस की कीमत लगभग 3 लाख रुपये है, इसलिए आप नुकसान का अंदाजा लगा सकते हैं।”

संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2021-30 को पारिस्थितिकी तंत्र पुनर्बहाली पर यूएन दशक घोषित किया है। बन्नी को बहाल करने के महत्व को सिंह भी मानती हैं। लेकिन उनका सुझाव है कि खाइयों को खोदने के बजाय, ऊंची बाड़ें बनाई जा सकती हैं। ग्रासलैंड के साथ-साथ जानवरों की सुरक्षा के लिहाज से ये काफी सही रहेगा। उन्होंने कहा, "हमने यह सुझाव वन विभाग को दिया है। सिर्फ मवेशी ही नहीं, कई स्थानीय पशु प्रजातियां, जैसे कांटेदार पूंछ वाली छिपकली और अन्य बिल खोदने वाले जानवर भी इन खाइयों के कारण खतरे में हैं।" पटेल ने पहले के प्रयासों का हवाला देते हुए हमें बताया कि चरने वाले जानवरों को दूर रखने के लिए बाड़ प्रभावी नहीं रहती है।

अशोक ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट (एटीआरईई) के एक शोधकर्ता चेतन मिशर खाइयों की वजह से आने वाली चुनौतियों से सहमत हैं। उनका कहना है कि ऐसा कर वे "जमीन के एक बड़े हिस्से को वन्यजीवों के लिए दुर्गम बना रहे हैं।"

मिशर ने कहा, "वास्तव में आज देश में ज्यादातर बहाली परियोजनाएं वनस्पति को ध्यान में रखकर की जाती है। वन्यजीवों की बहाली पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। इसके अलावा हम ट्रॉफिक श्रृंखला, खाद्य श्रृंखला के बारे में बात नहीं करते हैं, जो कार्बन उत्सर्जन कम करने में भी योगदान देती है।"

सिंह ने कहा, हर साल जमीन की जुताई करने से लवणता का खतरा भी बढ़ जाता है, क्योंकि बन्नी स्वाभाविक रूप से खारा है, जिसे खोदने से स्थिति खराब हो सकती है।

सहजीवन की आजीविका निदेशक कविता मेहता ने कहा कि बन्नी को अपने आप ठीक होने के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए। मेहता ने कहा, “सिर्फ एक हस्तक्षेप की जरूरत है। वह है पी. जूलीफ्लोरा को हटाना, जिसने बन्नी के 60 फीसदी हिस्से पर कब्जा जमाया हुआ है। एक बार जब यह खतरा दूर हो जाएगा, तो जमीन फिर से जिंदा हो उठेगी।”

मेहता ने बन्नी के एक गांव नानिदादर के एक क्षेत्र का उदाहरण देते हुए कहा, हमने इस इलाके में आक्रामक पौधों को हटाने में मदद की थी। इसमें स्थानीय घास बबूल भी शामिल थी। लेकिन कुछ दिनों बाद ये फिर से उग आई। उन्होंने जोर देते हुए कहा, “जुताई और उर्वरकों का इस्तेमाल करना खेती के लिए सही है। लेकिन घास उगाने के लिए बेवजह मिट्टी को परेशान करने से इसकी जन्मजात गुणवत्ता बदल जाएगी। ”

ऐसा पहले भी किया गया

यह पहली बार नहीं है कि बन्नी के बहाली के लिए काम किया गया है। 1995 में गुजरात इकोलॉजी कमीशन (जीईसी), गुजरात इंस्टीट्यूट ऑफ डेजर्ट इकोलॉजी (GUIDE) और अन्य भागीदारों ने 215 हेक्टेयर को कवर करते हुए एक बन्नी बहाली कार्यक्रम शुरू किया था। यह परियोजना 2008 में खत्म हो गई। फिर 2017-19 के बीच गुजरात वन विभाग ने जीईसी और गाइड के इनपुट के आधार पर घास के मैदान को फिर से जीवित करने के लिए एक पायलट प्रोजेक्ट चलाया।

फिलहाल चलाई जा रही बहाली योजना में घास उगाने के अलावा, 400 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में बरगद के पेड़ लगाकर एक प्रयोग किया रहा है। हर कोई इस बात से सहमत नहीं है कि यह एक अच्छा विचार है। आक्रामक प्रजातियों, कृषि के बदलते स्वरूप और बड़ी विकास परियोजनाओं के अलावा, बड़े पेड़ों को लगाने से घास के मैदानों को खतरा बढ़ रहा है।

बन्नी के डीसीएफ पटेल ने कहा कि जिन क्षेत्रों में बरगद लगाए जा रहे हैं वह बन्नी के 0.01% से भी कम है। इसलिए इसका पारिस्थितिकी तंत्र पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।” उन्होंने समझाते हुए कहा, हमने प्रवासी पक्षियों समेत अन्य तमाम तरह के पक्षियों को इस ओर आकर्षित करने के लिए इन्हें लगाया है।”

पटेल ने कहा, वे अपना काम उन स्थानीय लोगों की सहमति लेने के बाद ही करते हैं जिनके गांवों के पास इन भूखंडों का सीमांकन किया गया है। पटेल ने स्वीकार किया, "सभी स्थानीय लोग इस परियोजना के समर्थन में नहीं हैं। लेकिन जो लोग सहमत नहीं हैं उन्हें (स्थानीय गैर सरकारी संगठनों द्वारा) गुमराह किया जा रहा है।''

पटेल ने कहा, बन्नी बहाली परियोजना को काफी फंड मिल रहा है। इसलिए अब हम बहाली परियोजना को 10,000 हेक्टेयर से बढ़ाकर 75,000 हेक्टेयर तक करने जा रहे हैं। यह लगभग न्यूयॉर्क शहर के बराबर होगा।

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