मणिपुर में संघर्ष के कारण मरने वालों की संख्या बढ़ी, हाशिये पर स्वास्थ्य व्यवस्था
इंसानों द्वारा खींची गई नई सीमाएं मरीजों को स्वास्थ्य सेवा तक पहुंचने से रोक रही हैं और अस्पतालों में जरूरी दवाओं की कमी हो रही है। नागरिक समाज संगठनों का कहना है कि राहत शिविरों में हालात खराब है, जिससे चिकित्सा देखभाल प्रभावित हो रही है और जिला अस्पतालों के अधिकारियों का कहना है कि सरकार पर्याप्त मदद नहीं कर रही है।
इंफाल, बिष्णुपुर और चुराचांदपुर: 12 साल के लिमखोपाओ को ब्लड कैंसर है। वह अपना इलाज नहीं करा पा रहा है क्योंकि उसका इलाज करने वाला एकमात्र डॉक्टर अपने ही राज्य मणिपुर के बीच खींची गई सीमा रेखा के दूसरी ओर है। यह सीमा इंसानों ने बनाई है जिस पर हथियारों से लैस लोगों की चौकस निगाहें हर समय मौजूद रहती है। राज्यों को दो हिस्सों में बांटने से लोगों को गंभीर बीमारियों का इलाज नहीं मिल पा रहा है, जिसकी उन्हें सख्त जरूरत है।
मई के बाद से बहुसंख्यक मैतेई समुदाय और अल्पसंख्यक कुकी-ज़ो समुदाय के बीच जातीय झड़पों ने अनौपचारिक रूप से उत्तर-पूर्वी राज्य मणिपुर को दो हिस्सों में बांट दिया है। इसमें से एक इलाका इंफाल घाटी का, जहां मैतेई समुदाय का दबदबा है, तो दूसरा हिस्सा पहाड़ियों का हैं, जहां कुकी-ज़ो समुदाय रहता है। लगभग चार महीने के संघर्ष के बाद भी स्थिति में कोई ज्यादा फर्क नहीं आया है। राज्य सरकार के आंकड़ों की मानें तो राज्य में 40,000 से अधिक सुरक्षा बलों को तैनात किया गया है। लेकिन इसके बावजूद हिंसा में मानव जीवन का नुकसान होना जारी है।
आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, इस साल 3 मई से शुरू हुई हिंसा में अब तक 190 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। लगभग 27 लाख की आबादी वाले राज्य में राज्य सरकार के अनुसार, 60,000 से अधिक लोग विस्थापित होने के बाद, अब राहत शिविरों में रह रहे हैं।
नई सीमाएं, नई लड़ाई
रिपोर्टिंग के दौरान पाया गया कि घाटी में मैतेई, तो पहाड़ियों में कुकी-ज़ो समुदाय का जमावड़ा है। राज्य में इन दोनों हिस्सों को अलग करने के लिए अनौपचारिक लेकिन बहुत वास्तविक सीमाएं उभर आई हैं। कोई भी पक्ष दूसरे के इलाके में घुस नहीं सकता है। भारतीय सेना, सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ), असम राइफल्स और केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) को शामिल करते हुए चार-स्तरीय सुरक्षा व्यवस्था है। इन सशस्त्र बलों की चौकियों के पीछे, दोनों तरफ सशस्त्र पुरुष और महिला स्वयंसेवकों द्वारा संचालित चौकियां भी हैं।
मणिपुर पहाड़ियों के लिए माल की आवाजाही का रास्ता इन दो समुदायों के बीच स्थित एक बफर जोन से होकर गुजरता है। यहां, गोलीबारी की खबरें रोजमर्रा की घटना बन गई हैं। इस वजह से इंफाल से दवाओं सहित महत्वपूर्ण जरूरी सामान के लाने- ले जाने में बाधा आ रही है। नतीजा यह है कि राज्य के सबसे बड़े जिले चुराचांदपुर में ‘मेडिकल वार’ छिड़ गई है।राज्य के दोनों बड़े सरकारी (tertiary) अस्पताल इंफाल में हैं: राज्य सरकार का जवाहरलाल नेहरू आयुर्विज्ञान संस्थान अस्पताल और केंद्र का क्षेत्रीय आयुर्विज्ञान संस्थान अस्पताल। शिजा हॉस्पिटल्स एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट और राज मेडिसिटी जैसे बड़े प्राइवेट हॉस्पिटल भी राजधानी इंफाल में ही हैं। यह वो इलाका है जहां मैतेई लोग रहते हैं और यहां कुकी के आने पर सख्त पाबंदी हैं।
राज्य सरकार के मुताबिक, दूसरी ओर चुराचांदपुर में सिर्फ एक जिला अस्पताल और 10 पहाड़ी जिलों में एकमात्र मेडिकल कॉलेज है। चार प्राइवेट हॉस्पिटल हैं, लेकिन यहां कोई आईसीयू बेड या विशेष डॉक्टर नहीं हैं। इस वजह से पूरा भार जिला अस्पताल पर पड़ता है। यह मरीजों से भरा हुआ है और संसाधनों की भारी कमी से जूझ रहा है।
अमीर चले जाते हैं, गरीब मर जाते हैं
46 साल की वाखोनेंग और 67 साल के एल. चिंखानलियान कुकी समुदाय से हैं। जब हिंसा शुरू हुई तो वे दोनों चुराचांदपुर के पहाड़ी जिले में फंस गए। दोनों ही गंभीर बीमारी से जूझ रहे थे और इलाज तक उनकी कोई पहुंच नहीं थी। राज्य में दो इलाकों के बीच अनौपचारिक बंटवारे के चलते, इंफाल के तृतीयक सरकारी अस्पताल उन दोनों की पहुंच से बाहर थे। उन्हें बेहतर इलाज के लिए आइजोल रेफर किया गया था। चिंखानलियान बच गए क्योंकि वह किराए की एम्बुलेंस में पड़ोसी राज्य मिजोरम चले गए और अपना इलाज करवाने लगे। लेकिन वाखोनेंग की आर्थिक हालत ठीक नहीं थी। पैसों की कमी के कारण वह अपने इलाके से बाहर न जा पाईं और उनकी मौत हो गई।
वाखोनेंग के बेटे थंगजमांग ने आंसुओं से भीगी आंखों को पौंछते हुए कहा, "जुलाई में मेरी मां बहुत दर्द में थीं। वह स्टेज 4 के पेट के कैंसर से जूझ रही थीं। चुरचांदपुर जिला अस्पताल ने अपने केंद्र में सुविधाओं की कमी के चलते मेरी मां को आइजोल कैंसर अस्पताल में रेफर कर दिया था।"
उन्होंने बताया, “पिछले साल पिता की मौत के बाद मैं और मेरा भाई मजदूरी करके किसी तरह गुजारा कर रहे थे, लेकिन हिंसा ने आय का वह जरिया भी हमसे छीन लिया। हमारे पास अपनी मां को आइजोल ले जाने के लिए पैसे नहीं थे। अकेले एम्बुलेंस का किराया 50,000 रुपये से ज्यादा था क्योंकि सरकारी अस्पताल में मरीजों को ले जाने के लिए एम्बुलेंस भी नहीं है। उसका इलाज इंफाल में किया जा सकता था, लेकिन हम कुकियों के लिए वह दरवाजा बंद था। 30 अगस्त को उनकी मौत हो गई और अब हम अनाथ हैं। क्या सरकार इसकी ज़िम्मेदारी लेगी?"
दूसरी ओर, चिंखानलियन को हिंसा शुरू होने से पहले इंफाल में केंद्र के क्षेत्रीय आयुर्विज्ञान संस्थान (रिम्स) में भर्ती कराया दिया गया था। जुलाई में उन्हें दूसरा स्ट्रोक आया था। उनके परिवार ने 80,000 रुपये में एक प्राइवेट एम्बुलेंस किराए पर ली, जो उन्हें चुराचांदपुर से आइजोल ले गई। वहां से वे गुवाहाटी पहुंचे, जहां उन्हें एक निजी अस्पताल और फिर गुवाहाटी मेडिकल अस्पताल में भर्ती कराया गया। उनके परिवार के सभी लोगों ने बताया कि अब तक इलाज पर 10 लाख रुपये से ज्यादा खर्च कर चुके हैं।
चिंखानलियान के बेटे लैंगज़ाचिन ने इंडियास्पेंड को बताया, "2022 में पहले स्ट्रोक के बाद मेरे पिता के शरीर का दाहिना हिस्सा आंशिक रूप से लकवाग्रस्त हो गया था।" वह आगे कहते हैं, "लेकिन उनके पास उनकी जरूरी दवाएं भी नहीं थीं। उन्होंने उसे आइजोल या गुवाहाटी के तृतीयक स्वास्थ्य केंद्र में रेफर कर दिया और हमने एक सेकंड भी बर्बाद नहीं किया। मेरे पिता मणिपुर में एक अखबार चलाते हैं। जान-पहचान की वजह से वह एक निजी अस्पताल में भर्ती हैं। आइजोल ने हमारे लिए एक एंबुलेंस भेजी जो मेरे पिता को आइजोल हवाई अड्डे तक ले गई। हम भाग्यशाली हैं कि हम सब इतना कर पाए। मैं कल्पना भी नहीं कर सकता कि गरीब लोगों पर क्या बीत रही होगी।''
32 साल की लैम्नीचोंग हाओकिप और उनकी 15 साल की बेटी घर चलाने के लिए सब्जियां बेचती हैं। लैम्नीचोंग के पति मणिपुर राज्य सरकार के रेशम उत्पादन विभाग में एक सरकारी कर्मचारी थे। इस साल जुलाई में उनकी मौत हो गई। 2021 में उनकी दोनों किडनी फेल हो गई और फिर इंफाल के जवाहरलाल नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (जेएनआईएमएस) में उनका डायलिसिस चलने लगा। लेकिन हिंसा भड़कने के बाद मई के पहले सप्ताह में उनके पिता को सुरक्षाबलों ने चुराचांदपुर में उनके गांव डीएम वेंग में वापस भेज दिया। मई में जब वह जिला अस्पताल गए तो उनकी आंखों के सामने एक नर्स को गोली मार दी गई और वह किसी तरह भागने में सफल रहे। उसी दिन, मैतेई डायलिसिस तकनीशियनों ने उस इलाके को छोड़ दिया था।
15 वर्षीय होइमगाइथेम ने याद करते हुए कहा। "मुझे याद है कि मैं अपने पिता को पिछले हफ्ते जून में जिला अस्पताल ले गया था। डॉक्टर ने कहा कि उनकी दो डायलिसिस मशीनें ठीक से काम नहीं कर रही है और एक को संभालने वाला कोई नहीं है।" वह आगे बताते हैं, " डॉक्टरों ने उन्हें किडनी ट्रांसप्लांट के लिए इंफाल के जेएनआईएमएस या आइजोल में रेफर कर दिया था। सरकारी कर्मचारी होने के बावजूद उन्हें कोई मदद नहीं मिली और इससे पहले कि हम उन्हें आइजोल ले जा पाते, डायलिसिस न लेने के कारण उनकी मौत हो गई। घर में मेरे तीन छोटे भाई-बहन और एक बूढ़ी दादी हैं। मैं 10वीं क्लास में हूं। लेकिन मुझे अपनी मां की सब्जियां बेचने में मदद करने के लिए पढ़ाई छोड़नी पड़ी। अगर मैं ऐसा नहीं करती तो मेरे भाई-बहन क्या खाते?"
सरकारी मदद भी नहीं, हर चीज की कमी
चुराचांदपुर के मुख्य चिकित्सा अधिकारी जिला अस्पताल के लिए दवाओं और जरूरी उपकरणों की व्यवस्था करने के लिए दर-दर भटक रहे हैं। इंडियास्पेंड से बात करते हुए, सीएमओ डॉ वनलालकुंगी कहते हैं, "हम दवाओं की भारी कमी का सामना कर रहे हैं, खासकर डायलिसिस रोगियों, टीबी (तपेदिक), कैंसर, एचआईवी, हाई ब्लड प्रेशर, दौरे और लकवा आदि के लिए। ये जीवन रक्षक दवाएं हैं।
सीएमओ ने कहा, "यहां तक कि डॉक्टर भी अब बड़ी मुश्किल से मिल पाते हैं।" उन्होंने बताया, “अस्पताल के 60 विशेषज्ञों और चिकित्सा अधिकारियों में से 16 मैतेई थे जिन्हें जिला छोड़ना पड़ा। यहां तक कि हमारे डायलिसिस तकनीशियन भी चले गए। इस वजह से डायलिसिस केंद्र कई दिनों तक बंद रहा। अब, हमारे पास सिर्फ एक तकनीशियन है जो सिर्फ चार मशीनों पर 26 मरीजों की देखभाल कर रहा है। भले ही हम एनजीओ (गैर-सरकारी संगठनों) की मदद से राज्य के बाहर से डॉक्टरों को बुला लें, लेकिन जरूरी दवाओं के बिना वे लोगों की जान नहीं बचा पाएंगे।"
फिलहाल जो एंबुलेंस हैं, उनके ईंधन के लिए पैसा भी नागरिक समाज संगठनों और गैर सरकारी संगठनों के दान के जरिए आ रहा है। डॉ. वनलालकुंगी कहते हैं, "डॉक्टर और मरीज जरूरी चीजों के लिए अपनी जेब से भुगतान कर रहे हैं। लगभग तीन लाख वाली आबादी वाले जिले में हमारे पास सिर्फ आठ एम्बुलेंस हैं। ईंधन के लिए भी हमने सरकार से गुहार लगाई, लेकिन अब तक कोई मदद नहीं मिली है। मैंने जून में सरकार के एक वरिष्ठ स्वास्थ्य अधिकारी को फोन पर फंड की तत्काल जरूरत के बारे में बताया था। तब उन्होंने कहा कि वह सिर्फ 50,000 रुपये दे सकते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से वह पैसा भी अभी तक नहीं आया है।"
डॉ वनलालकुंगी बताते हैं कि लगभग हर चीज़ की भारी कमी है। उन्होंने कहा, "3 मई से, हमें चुराचांदपुर के लिए दवाओं और अन्य जरूरी दवाओं की सात खेप मिली हैं - तीन बार हेलीकॉप्टर से और चार बार सेना के जरिए। प्रत्येक खेप में सिर्फ 5 किलोग्राम का एक कार्टन था, जो कि दो या तीन राहत शिविरों के लिए ही पूरा पड़ पाता है। लेकिन हमें लगभग 3 लाख की आबादी की देखभाल करनी है। सबसे बुरी तरह प्रभावित सीमावर्ती गांव हैं जहां किसी भी स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच नहीं है। ज्यादातर प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल केंद्र डॉक्टरों और नर्सों की कमी के कारण बंद हैं, इसलिए इसलिए हमने जिले के सभी सीमावर्ती गांवों में एक चिकित्सा अधिकारी और एक नर्स भेजी है।"
चुराचांदपुर जिला अस्पताल में एक भी सुपर स्पेशलिटी डॉक्टर नहीं है। सामान्य चिकित्सकों और विशेष डॉक्टरों सहित 44 का स्टाफ 3 मई से एक भी दिन की छुट्टी लिए बिना चौबीसों घंटे काम कर रहा है।
गंभीर गोली से घायल मरीजों को आइजोल ले जाना पड़ा, क्योंकि चुराचांदपुर अस्पताल में कार्डियोथोरेसिक सर्जन नहीं था। चुराचांदपुर जिला अस्पताल को एक मेडिकल कॉलेज की अनुमति दी गई थी, लेकिन जिला अस्पताल के उपाधीक्षक के अनुसार, यह मेडिकल कॉलेज बनने की न्यूनतम मानक आवश्यकता को पूरा करने में विफल रहा है। शरीर में बाहरी चीजों का पता लगाने वाली महत्वपूर्ण सी-आर्म मशीन काम नहीं कर रही है। अस्पताल में बायोमेडिकल कचरे के निस्तारण के लिए इंसीनरेटर तक नहीं है।
उपाधीक्षक डॉ. सेनबोई ने हमें बताया, "स्थितियां बदतर होती जा रही हैं। हमारे पास सिर्फ एक सीटी-स्कैन मशीन, एक अल्ट्रासाउंड, एक एक्स-रे मशीन और इन सभी को संभालने के लिए सिर्फ एक रेडियोलॉजिस्ट है।"
नाम न छापने की शर्त पर जिला अस्पताल के एक अधिकारी ने इंडियास्पेंड को बताया कि प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (पीएम-जेएवाई) योजना और राज्य स्वास्थ्य योजना के तहत 10 करोड़ रुपये का फंड अस्पताल को मिलने वाला है। लेकिन मामला अभी तक लटका पड़ा है।
सेनबोई ने कहा, "समस्या यह है कि सरकार उम्मीद करती है कि डॉक्टर मुफ्त में सेवाएं देंगे, सब कुछ खुद ही व्यवस्थित करेंगे और ऐसी विकट परिस्थितियों में भी गैर सरकारी संगठनों पर निर्भर रहेंगे। पहले, हम इम्फाल में राज्य केंद्र से दवाओं का अपना स्टॉक इकट्ठा करते थे, लेकिन जब से संघर्ष शुरू हुआ, आपूर्ति पूरी तरह से बंद हो गई है।”
इंफाल घाटी में हिंसा काफी हद तक नियंत्रण में है, लेकिन इंफाल के सबसे बड़े तृतीयक अस्पताल, जेएनआईएमएस में भी दवाएं खत्म हो रही हैं। जेएनआईएमएस के निदेशक डॉ. टी. राजेन सिंह ने इंडियास्पेंड को बताया, "हमारे पास डॉक्टरों की कमी नहीं है, लेकिन ब्लड प्रेशर, डायबिटीज और यहां तक कि कैंसर के लिए जरूरी दवाएं भी हमारे पास खत्म हो रही हैं। ज्यादातर दवाएं की आपूर्ति गुवाहाटी से होती थी। लेकिन हिंसा के बाद से, कई जरूरी राजमार्ग बंद हो गए हैं। सरकार से कई बार अनुरोध करने के बाद भी, अब तक एक बार भी दवाएं हवाई मार्ग से नहीं भेजी गई हैं।''
उन्होने बताया, “यहां घाटी में हमारे पास काफी सारे अच्छे अस्पताल हैं। अगर घाटी को सिर्फ जेएनआईएमएस पर निर्भर रहना पड़ता, तो स्थिति बहुत खराब होती। हमने पर्याप्त दवाईयां उपलब्ध कराने करने के लिए सरकार को दो पत्र लिखे हैं, लेकिन सरकार ने हमारे किसी भी पत्र का जवाब नहीं दिया और न ही कोई ठोस समाधान निकाला है। भगवान की कृपा से, दवाओं की कमी के कारण अब तक कोई हताहत नहीं हुआ है, क्योंकि हम घाटी के अन्य अस्पतालों से दवाएं ले रहे हैं।"
इंडियास्पेंड ने मणिपुर में स्वास्थ्य विभाग से संपर्क किया था, लेकिन राज्य में सामने आ रहे चिकित्सा संकट पर अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है। जवाब मिलने पर हम लेख को अपडेट करेंगे।
राहत शिविरों में बीमारी और मौत
शिविरों की देखभाल करने वाले नागरिक समाज संगठनों के अनुसार, चुराचांदपुर के पहाड़ी जिले में लगभग 115 राहत शिविर हैं, जिनमें 22,000 से ज्यादा आंतरिक रूप से विस्थापित व्यक्ति (आईडीपी) मौजूद हैं। ये सभी शिविर आईटीएलएफ (इंडिजिनस ट्राइबल लीडर्स फोरम), केकेएल (कुकी खंगलाई लॉएमपी) आदि नागरिक समाज संगठनों द्वारा स्थापित किए गए हैं। इन संगठनों के अनुसार, बीमारियों के कारण अब तक 50 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं। इनमें कम से कम 35 की मौत दवाओं की कमी, राहत शिविरों में रहने की खराब स्थिति और उचित इलाज न मिलने की वजह से हुई हैं।
असम रेजिमेंट में सेवा दे चुके 62 वर्षीय पूर्व सैनिक लुनखोथांग की पत्नी पिछले चार महीनों से स्ट्रेचर पर हैं। वे चूड़ाचांदपुर जिले में चर्च बने राहत शिविर में रहते हैं। उनकी पत्नी ब्रेन एन्यूरिज्म से जूझ रही हैं। दिमाग के अंदर कई नसों के फटने से वह पिछले साल से लकवाग्रस्त हैं।
इस साल मई तक वह इंफाल के शिज़ा अस्पताल में आईसीयू में भर्ती थी। उनकी हालत में सुधार हो रहा था। हिंसा भड़कने के बाद भारतीय सेना का काफिला उन्हें राहत शिविर में ले आया। अब वह जिंदा लाश की तरह बिस्तर पर पड़ी है, जहां न तो कोई मशीन है, न दवा है और न ही किसी तरह का कोई इलाज है। सिर्फ एक कैथेटर लगा हुआ है। उन्हें सिर्फ उनकी नाक के जरिए खाना खिलाया जाता है। मई में हिंसा के पहले सप्ताह में, उसके परिवार के पास उसे नाक में डालने के लिए खिलाने वाला पाउडर तक नहीं था। उन्हें सिर्फ पानी पर रखना पड़ा, जिससे उनकी हालत खराब हो गई।
उनकी बेटी देबोराह ने हमें बताया, "चुराचांदपुर जिला अस्पताल में कोई न्यूरो सर्जन नहीं है। इम्फाल के अस्पताल में उन्हें जो दवाएं दी जाती थीं, उनके लिए हमने एक एनजीओ से मदद मांगी। हमें नहीं पता कि ऐसे वह कितने दिनों तक जिंदा रह पाएंगी। हम उन्हें अब और दर्द में नहीं देख सकते। हम हर दिन रोते हैं क्योंकि हम उनके लिए कुछ नहीं कर पा रहे हैं।"
सबसे छोटे ताबूत सबसे भारी होते हैं। 48 साल की मारिया को जब चुराचांदपुर जिला अस्पताल की एक नर्स ने बताया कि उनका दो साल का बेटा मर गया है। उनकी दुनिया तो जैसे तबाह हो गई थी।
6 जुलाई को उनके दोनों बेटे तेज बुखार से तप रहे थे। परिवार ने उन्हें स्वास्थ्य शिविर के स्वयंसेवकों द्वारा उपलब्ध करायी गयी दवाइयां दीं। अगले दो दिनों में उनके छह साल के सबसे बड़े बेटे के शरीर पर चेचक जैसे फोड़े हो गये। दो साल के बेटे को भी चेचक हो गया था, लेकिन उसके शरीर पर फोड़े नहीं थे।
परिजन दोनों बच्चों को लेकर जिला अस्पताल गए, लेकिन वहां मरीजों की भरमार थी। इसलिए परिवार बच्चों को एक निजी अस्पताल में ले गया। लेकिन हिंसा में उनका घर जला चुका था और उनके पास कोई पैसा नहीं था, इसलिए उनके लिए वहां भी इलाज कराना मुश्किल था।
वे बच्चों को वापस राहत शिविर में ले आये। मारिया का कहना है कि यह उनकी सबसे बड़ी गलती थी। "जून और जुलाई के दौरान शिविरों में कई बच्चे बीमार पड़ रहे थे। कुछ को मलेरिया था, कुछ को एन्सेफलाइटिस था। मुझे लगा कि मेरे बेटे जल्द ही ठीक हो जाएंगे। मैं पूरी रात जागकर अपने बच्चों की देखभाल करती रही, उन्हें स्थानीय फार्मेसी से मिली दवाएं देती रही।"
उन्होंने आगे कहा, “तीन दिनों के बाद मेरा छह साल का बच्चा ठीक होने लगा, लेकिन मेरे दो साल के बच्चे की हालत में सुधार नहीं हो रहा था। पांचवें दिन, जब उसकी हालत बिगड़ गई, तो हमने तुरंत नागरिक समाज संगठनों से स्वयंसेवकों को बुलाया। वे मेरे बेटे को अपनी गाड़ी से चुराचांदपुर जिला अस्पताल ले गये। जैसे ही हम वहां पहुंचे, नर्स ने उसकी नब्ज देखी और उसे मृत घोषित कर दिया।
मारिया सिसकते हुए कहती है, "ऐसा लगा जैसे मेरा दिल धड़कना बंद कर देगा।" उन्होंने बताया, “स्थिति सामान्य होती तो ऐसा कभी नहीं होता। झड़पों ने हमारी जिंदगी पूरी तरह बर्बाद कर दी है। हमने अपना घर, अपने बच्चे, सब कुछ खो दिया और सरकार पिछले चार महीनों से चुप है, जबकि गरीब मर रहे हैं। वो उस दर्द को झेल रहे हैं, जो कल्पनाओं से परे है।”
चुराचांदपुर हिंसा से सबसे ज्यादा प्रभावित इलाकों में से एक है। लेकिन सीमा के मैतेई तरफ के राहत शिविरों में भी स्थिति अलग नहीं है। 47 वर्षीय मैसनम लता अपनी दो बेटियों और एक विकलांग पति के साथ बिष्णुपुर जिले के 58 राहत शिविरों में से एक में रहती हैं। उन्हें एक गंभीर दिल की बीमारी है। उसका दर्द उसे पूरी रात उन्हें जगाए रखता है। वह हर दिन बिष्णुपुर जिला अस्पताल जाती है, लेकिन कोई फायदा नहीं होता - हर बार, उन्हें पता चलता है कि जिन दवाओं की ज़रूरत है, वे अभी भी उपलब्ध नहीं हैं। लगभग हर दो महीने में एक बार, जब वह दवा उपलब्ध होती है तो उसे खरीद पाना उनके लिए नामुमकिन हो जाता है। एक महीने की दवा के लिए 1,500 रुपये का खर्च आता है, जो उनके लिए बेहद ज्यादा है। हिंसा के दौरान चुराचांदपुर जिले में उनके सारे पैसे जल गए थे।
लता कहती हैं, "बिष्णुपुर जिला अस्पताल के डॉक्टरों ने मुझे बताया कि मेरा इलाज सिर्फ इंफाल के स्काई अस्पताल में किया जा सकता है और सर्जरी की लागत 15 लाख से अधिक आएगी। राहत शिविर में हमें सिर्फ खाना मिलता है। लेकिन दवाओं और इलाज का खर्च वह नहीं उठा सकते है। मैं तो बस मरने का इंतजार कर रही हूं।'' वह आगे बताती हैं, ''मुझे मार्च में सर्जरी के लिए जेएनआईएमएस ने स्काई हॉस्पिटल रेफर किया था। जब तक मैंने कुछ पैसे बचाए, तब तक हिंसा शुरू हो गई थी। अब मेरे पास जिंदा रहने की कोई उम्मीद नहीं बची है। लेकिन मैं चाहती हूं कि मेरी बेटी का इलाज हो जाए। उसके बाएं स्तन में एक गांठ है। विष्णुपुर में उसका इलाज नहीं किया जा सकता है। और हम उसे हर दिन जेएनआईएमएस नहीं ले जा सकते हैं।"
राज्य स्वास्थ्य सेवा में खामियां
चल रही हिंसा ने दोनों पक्षों के लिए गंभीर स्थिति पैदा कर दी है। संघर्ष शुरू होने से पहले ही मणिपुर में स्वास्थ्य सेवा के हालात ज्यादा अच्छे नहीं थे।
मणिपुर में 16 जिले हैं, जिनमें से 10 पहाड़ी जिले हैं। पहाड़ियां राज्य के लगभग 90 फीसदी इलाके में फैली हैं। जबकि घाटी सिर्फ 10 फीसदी इलाके में है। लेकिन ये घाटियां लगभग 60% लोगों का घर है। पहाड़ी निवासियों का कहना है कि राज्य सरकार इस इलाके पर ध्यान नहीं देती हैं। यह पूरी तरह से उपेक्षित है।
इंडियास्पेंड के साथ साझा किए गए ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक स्टडीज के विश्लेषण के अनुसार, मणिपुर के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग का बजट 2022 की तुलना में 2023 में 10% बढ़ गया है।
लेकिन राज्य में बहुत कम लोगों के पास स्वास्थ्य बीमा है। 2019-21 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे में पाया गया कि मणिपुर में 14.2% परिवारों का कोई भी सदस्य स्वास्थ्य बीमा या वित्तपोषण योजना में कवर नहीं था। यह राष्ट्रीय औसत 41% से कम है।
इन आंकड़ों से पता चलता है कि मणिपुर की अधिकांश आबादी चिकित्सा खर्चों का भुगतान अपनी जेब से करती है, जिससे आर्थिक बोझ पड़ता है और बेहतर इलाज पाने में चुनौतियां आती हैं।
2017-18 की नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस रिपोर्ट के अनुसार, निजी अस्पतालों में एक व्यक्ति के अस्पताल में भर्ती होने पर औसत चिकित्सा खर्च 49,784 रुपये था, जो सरकारी अस्पतालों से सात गुना ज्यादा था। सरकारी अस्पतालों में यह खर्च 6,944 रुपये है।
मणिपुर में देश की काफी बड़ी संख्या में वयस्क आबादी एचआईवी की चपेट में है। इसकी दर 1.15% है, जबकि भारत का औसत 0.34% है। यह राज्य में एक महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौती का संकेत देता है।
कुल मिलाकर, ये संख्याएं राज्य में स्वास्थ्य देखभाल के बुनियादी ढांचे की मौजूदा कमी की ओर इशारा करती हैं, जो अब अंतहीन संघर्ष के कारण गंभीर स्तर तक बढ़ गई है।
मणिपुर में स्वास्थ्य सेवा की स्थिति पर हमारे सवालों के जवाब में हमें सरकार से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है। प्रतिक्रिया मिलने पर यह लेख अपडेट कर दिया जाएगा।