भारत 2030 के बाल स्वास्थ्य लक्ष्यों से चूक सकता है
बिल और मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन की ‘गोलकीपर्स’ रिपोर्ट में यह भी अनुमान लगाया गया है कि भारत टीबी के प्रसार, परिवार नियोजन और बीमा के कवरेज सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने में असफल रहेगा।
नोएडा: बिल और मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन की हाल ही में जारी गोलकीपर्स 2024 रिपोर्ट के मुताबिक, भारत बच्चों के स्वास्थ्य से संबंधित सतत विकास लक्ष्यों (SDG) को 2030 तक हासिल करने से चूक सकता है। भारत में बच्चों में बौनेपन की समस्या बढ़ रही है और पांच साल से कम उम्र के बच्चों और नवजात शिशुओं की मृत्यु दर कम करने का लक्ष्य भी खतरे में हैं।
यह रिपोर्ट इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ मीट्रिक्स एंड एवोल्यूशन, संयुक्त राष्ट्र बाल कोष और विश्व बैंक के अनुमानों पर आधारित है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि कुपोषण दुनिया के सामने सबसे बड़ा स्वास्थ्य संकट है और दुनिया में होने वाली सभी बाल मृत्युओं में से आधी का कारण यही है। जलवायु परिवर्तन के चलते ये समस्याएं और भी गंभीर हो जाएंगी।
बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन की सितंबर 2017 की रिपोर्ट के अनुसार, "स्टंटिंग यानी बौनापन (जहां एक बच्चा अपनी उम्र के हिसाब से छोटा रह जाता है) बच्चे के शारीरिक और मानसिक विकास में कमियों का संकेत है।" इंडियास्पेंड ने जनवरी 2018 में इससे संबंधित रिपोर्ट प्रकाशित की था। रिपोर्ट आगे कहती है, "बौने बच्चों का स्वास्थ्य हमेशा प्रभावित रहेगा और वे कम उत्पादक रहेंगे और जिन देशों में स्टंटिंग दर अधिक होगी, वे देश कम समृद्ध होंगे।"
रिपोर्ट कहती है, पोषण के लिए बढ़ी हुई फंडिंग, भोजन में पोषक तत्वों को शामिल करना, गर्भवती महिलाओं के लिए बेहतर पूरक आहार प्रदान करना और कृषि में निवेश जैसे नए समाधानों से दुनिया को बच्चों की मृत्यु दर, नवजात शिशु मृत्यु दर और मातृ मृत्यु दर को कम करने जैसे SDGs को हासिल करने में मदद मिल सकती है।
रिपोर्ट के आंकड़ों से पता चलता है कि भारत मातृ मृत्यु दर को कम करने के लिए सतत विकास लक्ष्य को पूरा करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है और मलेरिया की घटनाओं को कम करने के लक्ष्य को पहले ही हासिल कर चुका है।
लक्ष्यों हासिल करने के लिए अनुमानित सुधार काफी नहीं
रिपोर्ट बताती है कि दुनियाभर के नेताओं द्वारा गरीबी खत्म करने, असमानता से लड़ने और जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए 2030 की समय सीमा तय किए जाने के नौ साल बाद भी दुनिया लक्ष्य से बहुत दूर है।
2023 तक भारत में नवजात शिशु मृत्यु दर (जन्म के 28 दिनों के अंदर होने वाली मौतें) प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर 22 मौतें हैं। अनुमान है कि 2030 तक यह आंकड़ा घटकर 1,000 जीवित जन्म पर 18 हो जाएगा, जो अभी भी लक्ष्य (12) से 50% ज्यादा है। वैश्विक स्तर पर, 2030 तक नवजात शिशु मृत्यु दर 15 होने की उम्मीद है।
भारत में पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर 1,000 जीवित बच्चों पर 35 से घटकर 29 होने का अनुमान है, जो 2030 के लक्ष्य (25) से 16% ज्यादा है। वैश्विक औसत घटकर 1,000 जीवित जन्म पर 31 मृत्यु होने का अनुमान है। दुनिया भर में, 2030 में 23% बच्चे बौने होंगे, जो 15% के लक्ष्य का लगभग 1.5 गुना अधिक है। भारत में यह आंकड़ा 35% रहने का अनुमान है।
बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन में हेल्थ एंड जेंडर कम्यूनिकेशन की कंट्री लीड प्रमुख पूजा सहगल ने कहा, "पोषण कार्यक्रमों और टीकाकरण के जरिए बाल स्वास्थ्य में सुधार के लिए भारत का लक्षित दृष्टिकोण एक आशावादी नजरिया है।" वह आगे कहती हैं, मिशन पोषण 2.0 जैसे कार्यक्रम कुपोषण से निपटने में अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं, जो 9.5 करोड़ से अधिक लाभार्थियों तक पहुंच रहे हैं।
बढ़ते सूखे और गर्मी के कारण बच्चों में कुपोषण बढ़ेगा
जलवायु परिवर्तन के कारण 2050 तक दुनिया भर में 4 करोड़ अतिरिक्त बच्चे बौने (अपनी उम्र के हिसाब से छोटे) और 2.8 करोड़ बच्चे कमजोर (उम्र के हिसाब से कम वजन) होंगे। फाउंडेशन के सह-अध्यक्ष बिल गेट्स ने रिपोर्ट की प्रस्तावना में लिखा है, "जो बच्चे कुपोषण से बच जाते हैं, वे वास्तव में कभी भी इससे पूरी तरह बाहर नहीं आ पाते हैं।"
अटलांटा यूनिवर्सिटी के 2010 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, दो साल की उम्र में बौनेपन का शिकार हुए वयस्कों ने सामान्य बच्चों की तुलना में लगभग एक साल कम स्कूल में बिताया। इंडियास्पेंड ने जुलाई 2016 में इससे संबंधित एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी।
इसी तरह, ग्वाटेमाला के वयस्कों के एक अध्ययन में पाया गया कि बचपन में बौने रहे बच्चों की स्कूली शिक्षा कम थी, टेस्ट में उनका प्रदर्शन कम था, प्रति व्यक्ति घरेलू खर्च कम था और उनके गरीब होने की संभावना अधिक थी। विश्व बैंक द्वारा 2008 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, महिलाओं के प्रारंभिक जीवन में बौनापन, पहले बच्चे के जन्म के समय मां की कम उम्र, अधिक गर्भधारण और अधिक बच्चों के जन्म देने से जुड़ा है।
विश्व बैंक के अनुमान के अनुसार, बचपन में बौनेपन के कारण वयस्कों की लंबाई में 1% की कमी आर्थिक उत्पादकता में 1.4% की कमी से जुड़ी है। हमारी एक रिपोर्ट बताती है कि बौने बच्चे सामान्य व्यक्तियों की तुलना में वयस्क होने पर 20% कम कमाते हैं।
इसके अलावा, विशेषज्ञों का कहना है कि बचपन में कुपोषण के कारण वयस्क जीवन में हाई ब्लड प्रेशर, डायबिटीज और हृदय रोग जैसी गैर-संचारी बीमारियों के विकसित होने का खतरा बढ़ जाता है। इंडियास्पेंड ने अक्टूबर 2019 में अपनी एक रिपोर्ट में इसकी जानकारी दी है।
दिल्ली के अम्बेडकर यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर दीपा सिन्हा ने कहा, "मृत्यु दर के मामले में, हम शायद 2030 तक SDGs को हासिल कर लेंगे, या कम से कम इससे बहुत दूर नहीं रहेंगे, लेकिन कुपोषण के मामले में ऐसा नहीं है।"
जून से अगस्त 2024 के बीच के 90 दिनों में, करीब 1.95 करोड़ भारतीयों ने कम से कम 61 दिनों तक सामान्य से ज्यादा तापमान का सामना किया है। रिपोर्ट बताती है कि जलवायु परिवर्तन का असर बच्चों पर जन्म से पहले ही शुरू हो जाता है। मसलन, जलवायु से जुड़े खतरे कम जन्म के समय कम वजन के खतरे को बढ़ा सकते हैं, वायु प्रदूषण और ज्यादा गर्मी से बच्चों की मौत का खतरा बढ़ जाता है और मलेरिया जैसी संक्रामक बीमारी बढ़ सकती है। जलवायु परिवर्तन से खाद्य असुरक्षा और संदूषण भी बढ़ेगा।
रिसर्च एंड नॉलेज एक्सचेंज और चाइल्ड राइट्स एंड यू के निदेशक सुभेंदु भट्टाचार्जी ने कहा, "सूखे जैसी स्थितियों ने कृषि को प्रभावित किया है, जिससे बच्चों के पोषण में कमी आई है।" वह आगे कहते हैं, "वे विशेष रूप से अत्यधिक गर्मी के प्रति संवेदनशील होते हैं क्योंकि उनका शरीर वयस्कों की तुलना में तेजी से गर्म होता है और धीरे-धीरे ठंडा होता है।"
हमने 2019 में अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि कैसे आज जन्म लेने वाले बच्चे अपने जीवन के बाकी हिस्सों में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सामना करेंगे।
टीबी के मामलों, बीमा और परिवार नियोजन कवरेज में भारत पीछे
रिपोर्ट कहती है, भारत क्षय रोग (टीबी) के मामलों को कम करने के अपने लक्ष्य को पूरा नहीं कर पाएगा। अगले छह सालों में, भारत में टीबी के मामले प्रति 100,000 लोगों पर 216 से घटकर 194 रह जाएंगे, जो दुनिया के औसत (107) से 80% ज्यादा है। इंडियास्पेंड ने जून 2024 में बताया था, हर साल टीबी से भारत में 3 लाख से ज्यादा लोगों की मौत होती है और 26 लाख लोग इससे संक्रमित होते हैं। टीबी एक 'सामाजिक' बीमारी है, क्योंकि कुपोषित लोग और साफ-सफाई के लिहाज से खराब माने जाने वाले इलाकों में रहने वाले लोगों को इस बीमारी का खतरा काफी ज्यादा होता है।
पोषण की कमी और टीबी होने का जोखिम किस तरह से आपस में जुड़ा हुआ है, इससे संबंधित रिपोर्ट हमने अक्टूबर 2022 में प्रकाशित की थी। पोषण की कमी की वजह से किसी व्यक्ति को टीबी होने का खतरा काफी बढ़ जाता है, जबकि टीबी होने से कुपोषण की संभावना बढ़ जाती है। तो वहीं कुपोषित रोगियों का टीबी से उबरना भी मुश्किल होता है।
2023 में हमने रिपोर्ट की थी कि भारत में टीबी के मामलों में कमी, वैश्विक स्तर पर हुई 2% कमी के लगभग बराबर है। हालांकि, यह कमी विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा 2025 तक हासिल करने के लिए निर्धारित किए गए 10% की कमी के लक्ष्यों से काफी कम है। इसके अलावा, 2035 तक टीबी को खत्म करने के लिए अगले दशक में होने वाली 17% कमी के लक्ष्य से भी हम अभी बहुत दूर है।
रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि परिवार नियोजन सेवाएं 2023 में 74% से बढ़कर 75% लोगों को उपलब्ध होंगी। SDG ने परिवार नियोजन के लिए सार्वभौमिक पहुंच का लक्ष्य रखा है। भारत में, नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (NFHS-5) 2019-21 के मुताबिक, 76% लोगों को परिवार नियोजन की जरूरत है। लेकिन 9% लोगों की ये जरूरत पूरी नहीं हो पा रही है।
पूरी न होने वाली जरूरतों का ये आकड़ां एक महिला के प्रजनन इरादों और उसके गर्भनिरोधक व्यवहार के बीच के अंतर को उजागर करती है। हालांकि इस अंतर की एक वजह गर्भनिरोधकों तक पहुंच की कमी हो सकती है, लेकिन सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं को भी नकारा नहीं जा सकता है, जहां गर्भनिरोधक के इस्तेमाल पर मनाही या महिलाओं को परिवार नियोजन के बारे में खुद से फैसले लेने की अनुमति नहीं होती हैं। जुलाई 2019 में गर्भनिरोधकों तक पहुंच की कमी के संबंध में हमने अपनी एक रिपोर्ट में इसकी जानकारी थी।
भारत में गर्भनिरोधक का खामियाजा महिलाओं को भुगतना पड़ता है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने 2020 में रिपोर्ट किया था। हमने जुलाई 2024 में अपनी रिपोर्ट में बताया था कि महिला नसबंदी भारत में गर्भनिरोधक का सबसे लोकप्रिय रूप है। वहीं NFHS -5 में तीन में से दो महिलाओं ने परिवार नियोजन के किसी न किसी तरीके के इस्तेमाल करने की बात कही थी। इनमें से आधे से अधिक - या प्रजनन आयु वर्ग की 37.9% विवाहित महिलाओं ने नसबंदी को चुना था।
भारत के सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा के समग्र सूचकांक में भी पीछे रहने की उम्मीद है, जहां भारत का अनुमानित स्कोर 56 है, जबकि विश्व औसत 62 है।
देशों को स्वास्थ्य और पोषण पर खर्च बढ़ाना होगा, वरना कुपोषण विकास को गंभीर नुकसान पहुंचा सकता है। रिपोर्ट के मुताबिक, कुपोषण से बच्चों की शारीरिक और मानसिक क्षमता में कमी आती है, जिससे उत्पादकता में 3 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान होता है। कम आय वाले देशों को कुपोषण का अधिक खामियाजा भुगतना पड़ रहा है, उनकी GDP का 3 से 16% तक का नुकसान हो रहा है, जो 2008 के वैश्विक मंदी के समान है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि ज्यादा से ज्यादा अर्थशास्त्रियों को कुपोषण पर नजर रखनी होगी, क्योंकि खराब पोषण आर्थिक विकास में बाधा डाल सकता है।
हमने दिसंबर 2020 में अपनी एक रिपोर्ट में बताया था, कैसे कोविड-19 की वजह से बचपन के पोषण पर दशकों की प्रगति ठहर सी गई। इसके अलावा, जनवरी 2022 में हमने अपनी रिपोर्ट में कवर किया था कि कैसे भारत पोषण पर कम खर्च करता है।
भारत के लगभग 40% बच्चे गंभीर खाद्य गरीबी में रहते हैं। जिसका अर्थ है कि वे अनुशंसित आठ में से दो या उससे कम खाद्य समूह में आते हैं यानी इन बच्चों को पर्याप्त भोजन और उचित पोषक तत्व नहीं मिल पाते हैं।
रिपोर्ट में पाया गया कि भारत, इथियोपिया, केन्या, नाइजीरिया और तंजानिया जैसे देशों में दूध का उत्पादन बढ़ाकर 10.9 करोड़ लोगों को बौनेपन से बचाया जा सकता है। कुपोषण से बचने के लिए दुनिया भर में और भी तरीके अपनाए जा रहे हैं, जैसे नमक और खाने-पीने की चीजों में ज्यादा पोषक तत्व मिलाना और गर्भवती महिलाओं को जरूरी विटामिन और खनिज देने वाले सप्लीमेंट देना।
सिन्हा ने कहा "केवल खाने की चीजों में पोषक तत्व मिलाने से ही समस्या का समाधान नहीं होगा। पोषण में स्थायी सुधार के लिए ज्यादा व्यापक तरीके अपनाने होंगे। अगर लोगों को ज्यादा मजदूरी और बेहतर रोजगार मिलेगा, तो वे ज्यादा पौष्टिक खाना खरीद पाएंगे, और बच्चों में बौनेपन जैसी समस्याएं कम आएंगी।”
रिपोर्ट के अनुसार, हाल के शोध से पता चलता है कि पेट में रहने वाले सूक्ष्म जीव (माइक्रोबायोम) पोषक तत्वों के अवशोषण में मदद करते हैं। सहगल कहते हैं, "अध्ययनों में पाया गया है कि गर्भवती महिलाओं को सूक्ष्म पोषक तत्वों की खुराक देने से शिशुओं को अतिरिक्त वजन बढ़ाने और उनका पेट स्वस्थ माइक्रोबायोम विकसित करने में मदद मिल सकती है, जिससे कुपोषण को रोका जा सकता है और समग्र स्वास्थ्य परिणामों में सुधार हो सकता है।"
इंडिया स्पेंड ने स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय से बच्चों की मृत्यु दर, HIV और TB के मामलों को कम करने के लिए किए जा रहे प्रयासों की सफलता और गर्भवती महिलाओं के लिए UNICEF के मल्टी-माइक्रो न्यूट्रिएंट सप्लीमेंट्स को प्रसव पूर्व देखभाल कार्यक्रम में शामिल करने के बारे जानकारी मांगी है। उनका जवाब मिलने पर, हम इस खबर को अपडेट कर देंगे।