मध्यप्रदेश में मातृत्व संकट: अस्पतालों में अपमान, ठेले पर प्रसव
मध्य प्रदेश में मातृ मृत्यु दर राष्ट्रीय औसत की तुलना में अब भी चिंताजनक रूप से अधिक बनी हुई है। सरकारी अस्पतालों में लापरवाही, ज़रूरी सुविधाओं की कमी और स्टाफ की अनुपलब्धता महिलाओं को जोखिम में डाल रही है। मजबूरी में गरीब परिवार प्राइवेट अस्पतालों में जाने को विवश हैं, जहां भारी भरकम खर्च उनकी आर्थिक स्थिति को कमज़ोर कर देता है।;
सुल्तानिया जानना अस्पताल में जाते हुए मरीज़
भोपाल: मध्यप्रदेश में जहाँ एक तरफ राज्य सरकार पिछले दो दशक से राज्य को बीमारू राज्य से विकसित राज्य बनाये जाने की दावे करती है, वहीं दूसरी ओर लगातार प्रदेश को शर्मसार करने वाली तस्वीरें सामने आती हैं। रतलाम ज़िले के सैलाना क़स्बे से ऐसी ही एक वीडियो इंटरनेट पर वायरल हो रही है जहाँ एक गर्भवती महिला को उसका पति हाथ ठेले पर अस्पताल ले जाने की कोशिश कर रहा है। लेकिन महिला को रास्ते में ही प्रसव हो गया और शिशु की मौत हो गयी। बताया जा रहा है कि महिला को दो बार समुदायिक स्वास्थ केंद्र से भर्ती किये बिना लौटा दिया गया। तीसरी बार प्रसव पीड़ा होने पर अस्पताल पहुँचने से पहले ठेले पर ही उसे प्रसव हो गया। ये घटना 23 और 24 मार्च की दरमियानी रात की है।
एक अंग्रेजी अखबार के अनुसार मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी (CMHO) डॉ. एम.एस. सागर के अनुसार घटना की जांच के लिए एक वरिष्ठ चिकित्सा अधिकारी को भेजा गया था। जांच में दो नर्सिंग अधिकारियों की लापरवाही सामने आई, जिन्हें निलंबित कर दिया गया है। उन्होंने यह भी बताया कि ड्यूटी पर मौजूद डॉक्टर को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया है।
नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की 2017-18 से 2021-22 की रिपोर्ट के अनुसार, मध्यप्रदेश का सार्वजनिक स्वास्थ्य अवसंरचना मातृ मृत्यु दर (MMR) कम करने में असफल रहा है। 2012 से 2020 के बीच, भारत ने औसतन 45.51% की गिरावट दर्ज की, जहाँ MMR 178 से घटकर 97 हो गया। इसके विपरीत, मध्यप्रदेश में यह कमी केवल 24.78% रही, जहाँ MMR 230 से घटकर 173 तक ही पहुँच सका।कैग रिपोर्ट
ऐसी ही एक घटना जनवरी में सीधी ज़िले से सामने आयी जहाँ सीधी जिला अस्पताल में, एक गर्भवती महिला को गंभीर स्थिति में होने के बावजूद भर्ती नहीं किया गया। उसे 70 किमी दूर रीवा के संजय गांधी मेमोरियल अस्पताल रेफर कर दिया गया। महिला ने अस्पताल के बाहर एक स्ट्रेचर पर बच्चे को जन्म दिया, लेकिन केवल 30 मिनट तक ही नवजात जीवित रहा। रिपोर्टर ने इस मामले में मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी से बात करने की कोशिस की लेकिन फ़ोन पर कोई जवाब नहीं मिला।
सरकारी अस्पताल में अपमान, निजी अस्पताल में लूट—माँ बनने की कीमत कौन चुकाएगा?
दो बच्चों की माँ और गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाली भोपाल की ज़ैनब ख़ातून (30) आज भी सुल्तानिया अस्पताल में अपनी पहली डिलीवरी के दौरान झेली गई तकलीफों को याद कर सिहर उठती हैं। वह कहती हैं "मेरी पहली बेटी सुल्तानिया में पैदा हुई थी, लेकिन वहाँ जो अपमान सहना पड़ा, उसे दोबारा झेलने की हिम्मत नहीं हुई। उनकी पहली डिलीवरी सुल्तानिया अस्पताल में वर्ष 2018 में हुई थी।
ज़ैनब बताती है कि “ मुझे किसी तरह बिस्तर मिल गया था लेकिन कई महिलाएँ फर्श पर लेटी इलाज का इंतज़ार कर रही थीं। मुझे देख ऐसा लगा की मेरी गरिमा का हनन हुआ है लेकिन राहत की बस एक बात रही कि डॉक्टरों ने मेरी डिलीवरी नार्मल करवाई, जबकि ऑपरेशन की उम्मीद जताई जा रही थी।”
“अस्पताल की बद्सलूकियों ने मुझे डरा दिया था,”ज़ैनब कहती हैं ।
वह नाराज़गी जताते हुए कहती हैं, "डॉक्टर और स्टाफ ऐसे पेश आते हैं कि इंसान दोबारा वहाँ जाने का नाम ही न ले। डॉक्टरों से कुछ पूछो तो जवाब तक नहीं देते। स्टाफ और नर्सें बेहद बदतमीज़ी से पेश आती हैं—‘तू ऐसा कर, तू वैसा कर’—यही उनका बोलने का तरीका था।"
ज़ैनब आगे जोड़ती हैं, “गरिमा हर महिला का अधिकार है, फिर चाहे वह प्रसव के लिए सरकारी अस्पताल जाने वाली माँ ही क्यों न हो। बेहतर स्वास्थ्य और देखभाल की उम्मीद लेकर अस्पताल पहुंचने वाली महिला अगर अपमान और तकलीफ लेकर लौटे, तो यह व्यवस्था पर बड़ा सवाल खड़ा करता है।”
जब 2022 में ज़ैनब दोबारा गर्भवती हुईं, तो पिछले कड़वे अनुभव के चलते उन्होंने सुल्तानिया अस्पताल न जाने का फैसला किया। लेकिन ग़रीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले और मोटरें सुधार कर घर चलाने वाले उनके पति प्राइवेट अस्पताल का खर्च नहीं उठा सकते थे।
ज़ैनब ने आयुष्मान भारत योजना के तहत एक निजी अस्पताल में बेटे को जन्म दिया, लेकिन वहाँ भी एक प्रकार का शोषण ही झेलना पड़ा। आयुष्मान भारत प्रधान मंत्री जन आरोग्य योजना भारत सरकार की एक स्वास्थ्य योजना है, जिसे 2018 में शुरू किया गया था। इसका मक़सद ग़रीब और कमज़ोर परिवारों को मुफ्त इलाज देना है। इस योजना के तहत हर साल योग्य परिवार को 5 लाख रुपये तक का मुफ्त इलाज सरकारी और कुछ निजी अस्पतालों में मिलता है।
“अस्पताल ने हमें बताया था कि आयुष्मान कार्ड से डिलीवरी नहीं होती। इसलिए झूठी बीमारी के नाम पर डिलीवरी के लिए भर्ती किया और आयुष्मान कार्ड से चार्ज काट लिया। अस्पताल को तो पैसा मिल गया, लेकिन उन्होंने कितना निकाला, कितना नहीं—हमें इसका अंदाजा तक नहीं। हम मजबूर थे।"
सुल्तानिया ज़नाना अस्पताल का प्रवेश द्वार
ज़ैनब का मामला कोई अकेली घटना नहीं है। भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) ने अपनी ऑडिट रिपोर्ट में आयुष्मान भारत–प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (PMJAY) में भारी अनियमितताओं का खुलासा किया है। रिपोर्ट के अनुसार, 3,446 मृत घोषित किए जा चुके मरीज़ों के इलाज के नाम पर ₹6.97 करोड़ का भुगतान किया गया। अकेले मध्य प्रदेश में ऐसे 403 मामले सामने आए, जहां अस्पतालों ने ₹1.12 करोड़ की फर्जी बिलिंग की।
भोपाल स्थित एक प्राइवेट अस्पताल के संचालक नाम ना छापने की शर्त पर इंडियास्पेंड से बातचीत में बताया कि डिलीवरी के लिए सरकार की तरफ से आयुष्मान भारत योजना के लिए बहुत कम पैकेज होता है— लगभग 6 हज़ार रुपए के क़रीब। जिसकी वजह से कई सारे अस्पताल प्रसूताओं को लेने से मना कर देते हैं। उन्होंने बताया कि आयुष्मान कार्ड से जितना पैसा काटा जाता है उसका मैसेज फ़ोन नंबर पर आ जाता है, हालाँकि कई परिवारों को इसकी जानकारी नहीं होती और वो अपना नंबर लिंक नहीं करते जिससे जानकारी से वंचित रह जाते हैं।
संक्रमण, लापरवाही और सरकारी अस्पताल की उपेक्षा
सजनी मालवीय अपनी डिलीवरी के छह महीने बाद सुल्तानिया अस्पताल के नए परिसर से अपने बच्चे का जन्म प्रमाण पत्र लेने आई थीं जो कि अब गाँधी मेडिकल कॉलेज और अस्पताल के परिसर में स्थानांतरित कर दिया गया है। वह कहती हैं, "इस अस्पताल का अनुभव बहुत खराब रहा। डॉक्टर डिलीवरी तक कुछ ध्यान देते हैं, लेकिन उसके बाद आपको बोझ की तरह ट्रीट करते हैं। डिलीवरी के बाद टांकों के अंदर फ्लूइड जमा हो गया था, जिससे गंभीर इन्फेक्शन हो गया। मुझे 15 दिन तक अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा। स्टाफ लापरवाह है, वे मरीजों की नहीं सुनते। मेरे टांके दोबारा लगाने पड़े। मुझे ऐसे इंजेक्शन दे दिए गए जिसकी वजह से मेरा दूध ही सूख गया। मेरा बच्चा जन्म के बाद से ही सिर्फ फार्मूला दूध पर है।"
सजनी इससे पहले गर्भपात का दर्द झेल चुकी थीं जिसके लिए वो सुल्तानिया आयी थीं। उनका आरोप है कि अस्पताल ने सफाई करने में लापरवाही बरती जिससे इन्फेक्शन हो गया। भोपाल के सबसे बड़े मातृत्व अस्पतालों में से एक होने के बावजूद, मरीज़ों का कहना है कि सुल्तानिया में गर्भवती महिलाओं के लिए अलग से सोनोग्राफी मशीन तक नहीं है। “सुल्तानिया की महिलाओं को भी हमीदिया के मरीज़ों के साथ लंबी कतारों में खड़ा होना पड़ता है। इतनी बड़ी नई बिल्डिंग के बावजूद बुनियादी सुविधाएं क्यों नहीं दी गईं?" सजनी सवाल करती हैं।
यहाँ "सफाई करने में लापरवाही" से आशय है कि अस्पताल ने गर्भपात के बाद गर्भाशय की ठीक सफाई नहीं की। गर्भपात के बाद अक्सर गर्भाशय में जो भी अवशेष होते हैं, उन्हें पूरी तरह निकालना जरूरी होता है। अगर ऐसा सही तरीके से नहीं किया जाए तो इन्फेक्शन का खतरा बढ़ जाता है। सजनी का आरोप है कि अस्पताल ने यह प्रक्रिया ठीक से नहीं की, जिससे उन्हें संक्रमण हो गया।
सजनी के मामले में सुल्तानिया अस्पताल के चिकित्सकों से रिपोर्टर बात नहीं कर पाई और उन्हें अस्पताल के अंदर जाने से गार्ड ने रोक दिया।
अस्पतालों में सोनोग्राफी जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमी
अल्ट्रासाउंड के लिए रेडियोलोजी डिपार्टमेंट की तरफ जाती हुई महिलाएं
भोपाल में आशा कार्यकर्ता का मानना है कि मातृ मृत्यु दर तभी कम होगी जब गर्भवती महिलाओं को सही देखभाल मिले। सरकारी अस्पतालों में बुनियादी सुविधाओं की कमी और संस्थागत डिलीवरी को लेकर महिलाओं की झिझक अभी भी एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। इस बाबत रिपोर्टर ने 2 आशा कार्यकर्ताओं से बात की।
बड़ी समस्याओं में से एक सोनोग्राफी में होने वाली देरी है। एक आशा कार्यकर्ता बताती हैं, "अगर किसी महिला को तुरंत जांच की जरूरत है, तो भी उसे दो महीने बाद की तारीख दी जाती है। एंटी नेटल केयर जांचें तत्काल होनी चाहिए लेकिन महिलाओं को इंतजार करना पड़ता है। जो महिलाएं खर्च उठा सकती हैं, वे निजी सोनोग्राफी करा लेती हैं, बाकी इंतजार करने को मजबूर होती हैं," सरकारी अस्पतालों में सोनोग्राफी की सुविधा सीमित है। इंदिरा गांधी अस्पताल में यह सुविधा नहीं है, और सुल्तानिया की गर्भवती महिलाओं को भी हमीदिया भेजा जाता है। अगर किसी को थायरॉइड की समस्या हो तो उसे हमीदिया की पुरानी बिल्डिंग जाना पड़ता है जिससे एक जांच कराने में पूरा दिन लग जाता है।”
प्रधानमंत्री मातृत्व सुरक्षा अभियान (PMSMA) के तहत सरकार हर महीने की 9 तारीख को गर्भवती महिलाओं को मुफ्त ANC जांच, ब्लड टेस्ट और सोनोग्राफी जैसी सुविधाएं देने का दावा करती है। लेकिन जब सरकारी अस्पतालों में सोनोग्राफी के लिए महीनों इंतजार करना पड़ता है, तब यह योजना अपने उद्देश्य से भटकती दिखती है। समय पर जांच न होने से हाई-रिस्क प्रेग्नेंसी की पहचान में देरी होती है, जिससे मातृ मृत्यु दर कम करने का लक्ष्य प्रभावित होता है।
कई बार अस्पतालों में आशा कार्यकर्ताओं को भी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। "सुल्तानिया अस्पताल में हमें कई बार अंदर जाने नहीं दिया जाता। यहां तक कि अटेंडेंट को भी मरीज़ के साथ रहने से मना कर दिया जाता है," वह जोड़ती हैं। डिजिटल हेल्थ आईडी ‘आभा’ का उद्देश्य मेडिकल रिकॉर्ड को व्यवस्थित करना है, लेकिन कई महिलाओं के पास फोन नहीं होने के कारण उन्हें परेशानी होती है।
गांधी मेडिकल कॉलेज के अधीक्षक से संपर्क करने पर उन्होंने व्यस्तता का हवाला देते हुए कॉल काट दिया।
भोपाल के मुख्या चिकित्सा और स्वास्थ्य अधिकारी प्रभाकर तिवारी को हमने फ़ोन द्वारा कांटेक्ट किया। उनकी तरफ से कॉल का रिस्पांस नहीं दिया गया। जवाब मिलने पर स्टोरी अपडेट कर दी जाएगी ।
मातृत्व के दौरान महिलाओं की गरिमा पर प्रहार
हाल ही में सुल्तानिया ज़नाना अस्पताल को हमीदिया अस्पताल परिसर में स्थानांतरित किया गया है। महिलाओं का कहना है कि पुराना सुल्तानिया अस्पताल स्वच्छ नहीं था, जबकि नई सुविधा कम से कम साफ-सुथरी है। हालांकि, कर्मचारियों का रवैया अभी भी चिंता का विषय बना हुआ है।
एक महिला ने अपने अनुभव साझा करते हुए कहा, "प्रसव पीड़ा में महिलाएं जब दर्द से कराहती हैं, तो डॉक्टर और नर्सें उन्हें सांत्वना देने के बजाय उन पर चिल्लाती हैं। हालाँकि, कुछ महिलाएं परेशान भी करती हैं। लेकिन कोई नहीं समझता कि मरीज़ किस तकलीफ से गुज़र रही है। गांवों से आने वाली महिलाओं के साथ अक्सर विशेष रूप से दुर्व्यवहार होता है केवल इसलिए कि उन्हें प्रक्रियाओं की जानकारी नहीं होती। इस मामले में गार्ड्स का व्यवहार सबसे ख़राब होता है।”
इस रिपोर्टर ने उनकी बातों की सच्चाई को प्रत्यक्ष रूप से देखा। गार्ड्स हर दिशा से मरीजों पर चिल्ला रहे थे। जो लोग बाइक या पैदल आए थे उन्हें डांटा जा रहा था, जबकि चार पहिया वाहनों में आने वालों से केवल अपनी कार पार्क न करने का अनुरोध किया जा रहा था—यह गरीब और अमीर मरीज़ों के बीच के भेदभाव को दर्शाता है।
कैग रिपोर्ट
मातृ एवं नवजात स्वास्थ्य (MNH) टूलकिट 2013 के अनुसार, गुणवत्तापूर्ण मातृ देखभाल के लिए पर्याप्त संख्या में डॉक्टर, सर्जन और नर्स ज़रूरी हैं ताकि गर्भावस्था, प्रसव और प्रसवोत्तर देखभाल के दौरान महिलाओं को सम्मान, गोपनीयता और उचित इलाज मिल सके। हालांकि, मध्य प्रदेश के स्वास्थ्य संस्थानों में कैग (CAG) की ऑडिट रिपोर्ट ने मातृत्व विभाग में गंभीर स्टाफ की कमी उजागर की है। राज्य के जिला अस्पतालों में यह कमी 1% से 61% तक दर्ज की गई जिससे महिलाओं को उचित देखभाल मिलना कठिन हो जाता है।
कैग रिपोर्ट
यह कमी राज्य के सरकारी अस्पतालों में मातृ स्वास्थ्य सेवाओं की व्यापक स्थिति को दर्शाती है।
सुल्तानिया ज़नाना अस्पताल में मरीज़ों को अक्सर पूरा दिन लग जाता है। महिलाएं खुले में अपने बच्चों को दूध पिलाने के लिए मजबूर हो जाती हैं क्योंकि उनके लिए कोई निर्धारित स्थान नहीं है। मातृ और शिशु स्वास्थ्य के लिए बने इस अस्पताल में माताओं की बुनियादी गरिमा सुनिश्चित नहीं की जाती। मातृ स्वास्थ्य संकट सिर्फ इमारतों और बिस्तरों की कमी तक सीमित नहीं है, बल्कि इसकी जड़ें जागरूकता की कमी, लापरवाही और कमज़ोर सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था में हैं।
माँ के साथ सुल्तानिया अस्पताल के बाहर इन्तिज़ार करती हुई बच्ची
लापरवाही और अशिक्षा बड़ी चुनौती
स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. माहीन खान जो कि भोपाल के एक प्राइवेट अस्पताल में पोस्टेड हैं, बताती हैं कि मातृ देखभाल में सबसे बड़ी चुनौती कम जागरूकता है। कई गर्भवती महिलाएं नौ महीने तक ज़रूरी रक्त जांच, पोषक तत्वों या सप्लीमेंट्स की जानकारी तक नहीं रखतीं। वे पूरी तरह आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं पर निर्भर होती हैं, जिन्हें उचित प्रशिक्षण नहीं मिलता, जिससे वे गर्भवती महिलाओं को सही मार्गदर्शन नहीं दे पातीं। डॉक्टरों के प्रति अविश्वास भी एक बड़ी समस्या है। “कई महिलाओं का हीमोग्लोबिन स्तर खतरनाक रूप से कम—कभी-कभी 6 या 7 तक—हो जाता है, फिर भी वे ब्लड ट्रांसफ्यूजन से इनकार कर देती हैं, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) इसे अनिवार्य मानता है। महिलाएं मेडिकल प्रक्रियाओं से डरती हैं और कई बार ऐसे डॉक्टरों से सलाह लेती हैं जो उनका आर्थिक शोषण करते हैं। निजी अस्पतालों में हर बार नई जांच होती है, जबकि सरकारी अस्पतालों की रिपोर्ट अक्सर पुरानी और अविश्वसनीय होती है। कम हीमोग्लोबिन, जो कुपोषण से जुड़ा है, और प्रसव के बाद अत्यधिक रक्तस्राव (PPH), आज भी मातृ मृत्यु के सबसे बड़े कारण बने हुए हैं।”
एक युवा महिला अस्पताल के गलियारे में अपनी सास से डॉक्टर की सलाह पर चर्चा कर रही थी। उसे शायद कलर अल्ट्रासाउंड कराने के लिए कहा गया था, लेकिन वह इस शब्द से अनजान थी। “इससे सब कुछ दिखता है। डॉक्टर ने प्राइवेट लैब से कराने को कहा है, करीब ₹2500 लगेंगे,” उसने संकोच से बताया।
सास को शक हुआ। “कौन सी सोनोग्राफी? क्या इससे लिंग पता चलता है?” उन्होंने पूछा।
“नहीं, लिंग नहीं। इससे पता चलता है कि कान, आंखें और अंग सही से विकसित हुए हैं या नहीं,” महिला ने समझाया।
लेकिन असली चिंता सिर्फ खर्च नहीं थी। महिला को पेल्विक जांच को लेकर डर था। “डॉक्टर अंदर से जांच करना चाहती हैं। उंगलियों से जांच करेंगी (पेल्विक एग्जाम)। मुझे डर लग रहा है। मेरा बीपी पहले ही बढ़ा हुआ है,” उसने घबराते हुए कहा।
सास ने इसे अनावश्यक बताते हुए टोक दिया। “यह जांच सातवें महीने के बाद होती है। अगर ब्लीडिंग हो गई तो? उसे अंदर से मत जांचने देना। अगर ज़ोर दे, तो मना कर दो। कहीं और करा लेंगे,” उन्होंने हिदायत दी।
यह उन गहरी समस्याओं की झलक है जो मातृ देखभाल को मुश्किल बना देती हैं। डॉक्टर ज़रूरी जांच कराने के लिए समझाने की कोशिश करते हैं, लेकिन आधी-अधूरी जानकारियों और डर के कारण महिलाएं और उनके परिवार विरोध करने लगते हैं। मेडिकल अविश्वास (Medical Mistrust) जीवन और मृत्यु के फैसलों को प्रभावित करने वाली एक गंभीर सच्चाई बन जाता है।
कैग रिपोर्ट
CAG रिपोर्ट के अनुसार, 2017 से 2022 के बीच 93.88 लाख गर्भवती महिलाओं ने अस्पतालों में प्रसव पूर्व देखभाल (ANC) के लिए पंजीकरण कराया। हालांकि, इनमें से केवल 63.98 लाख (68%) महिलाओं ने गर्भावस्था की पहली तिमाही में पंजीकरण कराया। इसके अलावा, 21.85 लाख (23%) महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान आवश्यक चारों जांच नहीं मिलीं।
गर्भवती महिलाओं की देखभाल करने वाली एक ANM बताती हैं कि कई महिलाएं समय पर इलाज के लिए नहीं आतीं। भ्रांतियां और सामाजिक दबाव इसके बड़े कारण हैं। "पहली बार गर्भ ठहरा है, किसी को बताना ठीक नहीं," जैसी सोच अब भी बनी हुई है। वे कहती हैं कि अगर महिलाएं शुरुआत से ही इलाज करवाएं, तो कई जटिलताओं से बचा जा सकता है, लेकिन बुज़ुर्गों की पुरानी धारणाएं अब भी बाधा बनी हुई हैं।
सरकारी योजनाओं से आर्थिक सहायता मिल रही है, लेकिन सही जानकारी के अभाव में महिलाएं बार-बार गर्भवती होती हैं। वे बताती हैं, "मेरे पास एक महिला आई, जिसकी गोद में नौ महीने का बच्चा था और वह चार महीने की गर्भवती थी। कई परिवार अब भी गर्भनिरोधकों से दूरी बनाए हुए हैं। हम अंतरा इंजेक्शन की सलाह देते हैं, लेकिन महिलाएं इसके साइड इफेक्ट मान लेती हैं। बार-बार गर्भधारण से महिलाओं के शरीर पर गंभीर असर पड़ता है, लेकिन इसकी जानकारी न होने से वे खुद को नुकसान पहुंचा रही हैं।”
राज्य/संघ राज्य क्षेत्र अनुसार महिलाओं की पोषण स्थिति: 15-49 आयु वर्ग की महिलाओं की 145 सेमी से कम ऊंचाई, औसत बॉडी मास इंडेक्स (BMI), और विशिष्ट BMI स्तरों के प्रतिशत, राज्य/संघ राज्य क्षेत्र अनुसार, भारत, 2019-2021 स्रोत: एनएफएचएस-5
प्रसव के बाद भी महिलाओं को आराम नहीं मिलता। "नॉर्मल डिलीवरी के बाद शरीर को कम से कम सवा महीने का आराम चाहिए, लेकिन इसे छुआछूत से जोड़ दिया जाता है। स्वास्थ्य कर्मियों पर भी भारी काम का दबाव है। "हम जिस अर्बन एरिया में काम करते हैं वहां सिर्फ दो ANM को 28,000 की आबादी दी गई है। मानसिक स्वास्थ्य भी एक बड़ी चुनौती है। कई महिलाएं घरेलू हिंसा और आर्थिक तंगी झेल रही हैं। "एक गर्भवती महिला का पति शराबी है, न कमाता है, न दिखाता है। जब वह इलाज के लिए आती है, तो पति ताने मारता है कि बुला लो, मैं तो खाने को कुछ नहीं दूंगा।" ANM कहती हैं। वे महिलाओं को समझा सकती हैं, लेकिन नशे में धुत्त पुरुषों को समझना नामुमकिन है।
घर पर प्रसव: सुविधा या मजबूरी?
इंडिया 2019-2021 (स्रोत: एनएफएचएस-5)
फरज़ाना (40) चार बच्चों की माँ हैं, जिनकी पहली बेटी वर्ष 2009 में एक निजी अस्पताल में जन्मी तब उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर थी। लेकिन उसके बाद तीन बच्चों का जन्म क्रमशः 2010, 2014 और 2017 में उनके घर पर ही हुआ। शहरी क्षेत्र में रहने वाली फरज़ाना ने गर्भावस्था के दौरान एक निजी अस्पताल में नियमित इलाज करवाया, लेकिन जब डिलीवरी की बारी आई, तो उन्होंने अस्पताल की बजाय घर और दाई को ही चुना।
"मेरी पहली बेटी बहुत छोटी थी, उसे सँभालने वाला कोई नहीं था। अस्पताल में उसे कौन देखता? मेरी हालत भी ठीक थी, और पैसे का भी सवाल था। अस्पताल जाने में जो खर्च होता, उसे उठाना आसान नहीं था। जब पहली बार घर पर डिलीवरी हुई, तो इतनी आसानी लगी कि तीसरे और चौथे बच्चे की डिलीवरी भी घर पर ही करवाई। हर बार मेरी हिम्मत बढ़ती गई," वह बताती हैं।
जोखिम के सवाल पर वह बेफिक्री से कहती हैं, "मैंने कभी किसी रिस्क के बारे में सोचा ही नहीं। मुझे लगा सब ऊपर वाले के भरोसे है, ठीक रहेगा, क्योंकि मैंने पूरे नौ महीने निजी अस्पताल में अच्छा इलाज करवाया था।"
लेकिन उनके इस फैसले के पीछे एक और वजह भी थी—"सबसे बड़ा डर बेपर्दगी का था। खासतौर पर सरकारी अस्पतालों में, जहाँ मैंने देखा है कि महिलाओं को किस तरह रखा जाता है। मैं इसके लिए कभी तैयार नहीं थी।"
सुल्तानिया अस्पताल की नयी इमारत
मध्यप्रदेश में स्वास्थ्य कार्यकर्ता राकेश चंदोर राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था में गहरी खामियों की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं। वह कहते हैं, "मध्य प्रदेश में बड़ी संख्या में महिलाएं कुपोषित हैं। दूरदराज के इलाकों में स्त्री रोग विशेषज्ञों के पद खाली पड़े हैं या फिर पद ही स्वीकृत नहीं हैं। ज़िला अस्पतालों के डॉक्टर जोखिम नहीं लेते और आपातकालीन मामलों में मरीजों को कहीं और भेज देते हैं। यह पूरी तरह से एक व्यवस्थागत विफलता है।"
डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मियों पर भारी दबाव है। चंदोर बताते हैं कि मध्य प्रदेश अभी भी पुराने और अप्रभावी मापदंडों पर काम कर रहा है, जहां भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य मानकों (IPHS) के अनुसार स्टाफ की पर्याप्त भर्ती नहीं हो रही है। "हम 50-60 साल पुराने मानकों के अनुसार काम कर रहे हैं। सरकार को इसे बढ़ती जनसंख्या की जरूरतों के हिसाब से सुधारना चाहिए," वे कहते हैं।
चंदोर के अनुसार वित्तीय योजनाएं भी कोई ठोस सहायता प्रदान नहीं कर पा रही हैं। "एक मज़दूर परिवार को मातृत्व स्कीम से ₹4,000-₹5,000 मिलते हैं या कई बार सिर्फ ₹1,000-₹1,500 ही मिलते हैं। इसका क्या असर होगा? यह एक महीने भी मदद नहीं कर पाता। सरकार को सिर्फ नकद हस्तांतरण पर नहीं, बल्कि असली सेवाओं पर ध्यान देना चाहिए।"
डॉक्टरों से लेकर आशा कार्यकर्ताओं तक, पूरी मातृ स्वास्थ्य सेवा प्रणाली कर्मचारियों की भारी कमी से जूझ रही है। चंदोर कहते हैं, "एक आशा कार्यकर्ता पर पांच से छह गांवों की ज़िम्मेदारी है। कोई नई भर्ती नहीं हो रही है। उन्हें संविदा पर रखा जाता है, जो एक बड़ा मुद्दा है। बेरोजगारी के कारण सामाजिक-आर्थिक पलायन समस्या को और बढ़ा रहा है।”
मध्य प्रदेश सरकार को स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के लिए ठोस कदम उठाने होंगे। अस्पतालों में महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता बढ़ाने, स्टाफ की जवाबदेही तय करने और भ्रष्टाचार पर सख्त कार्रवाई करने की जरूरत है। वरना, यह संकट और गहराता जाएगा, और ज़ैनब व सजनी जैसी महिलाएँ अपनी बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित होती रहेंगी।
(नोट: महिलाओं की गोपनीयता बनाए रखने के लिए उनके नाम बदल दिए गए हैं।)