पश्चिम बंगाल के चाय बागानों में अपने बच्चों को खोती माएं

पश्चिम बंगाल के चाय बागानों में काम करने वाले कुल कर्मचारियों में से लगभग 50% महिलाएँ हैं। चाय बागान में काम कर रही महिलाओं के पास मातृत्व सुविधाएँ, शिशु गृह की सुविधा, अवकाश, उचित दिहाड़ी, सुलभ शौचालय, पीने का पानी, नज़दीकी अस्पताल और अन्य कई मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं।

By :  Megha
Update: 2021-04-16 14:50 GMT

पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग के एक चाय बागान में काम करने वाली रंजिता डे। फोटो: साधिका तिवारी

जलपाईगुड़ी, दार्जीलिंग (पश्चिम बंगाल): रंजीता डे, 45, पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग के फांसीदेवा ब्लॉक के एक चाय बागान में काम करती हैं। रंजीता की शादी करीब दो दशक पहले हुई थी और तब से ही वह यहां काम कर रही हैं। लेकिन इस दौरान वह कई आकस्मिक गर्भपात, एक ऑपरेशन, और पैदा होने के बाद अपने 6 बच्चों की मौत देख चुकी हैं।

रंजीता की कहानी सिर्फ़ उनकी ही नहीं है। उनके साथ बागान में पत्तियां तोड़ने वाली कई महिलाएं भी ऐसी ही कहानियां बताती हैं। गर्भावस्था के दौरान काम करते करते बच्चा गिरना इनके जीवन का आम हिस्सा हो गया है। "साड़ी उठाकर देखते हैं, खून दिखता है तो पता चलता है कि बच्चा गिर गया, अक्सर दर्द भी नहीं होता। उस दिन घर जल्दी वापस चले जाते हैं, अगले दिन सुबह फिर आते हैं," यहां काम करने वाली एक महिला ने बताया।

इसका कारण हैं चाय बागानों की विषम परिस्थितियां जिनसे जूझते हुए ये महिलाएं यहां काम करते हुए अपना जीवनयापन करती हैं।

भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा चाय उत्पादक देश है, और भारत की सबसे ज़्यादा चाय, असम के बाद पश्चिम बंगाल के बागानों से आती है। चाय भारत का दूसरा सबसे बड़ा रोज़गार देने वाला उद्योग है, जिसमें ज्यादातर महिलाएं शामिल हैं। चाय बागानों में काम करने वाले कुल कर्मचारियों में से लगभग 50% महिलाएँ हैं। पश्चिम बंगाल के चाय बागानों में 2.06 लाख से ज़्यादा महिलाएं काम करती हैं।

ये महिलाएँ और इनके परिवार, जिनमे से ज़्यादातर दार्जीलिंग और जलपाईगुड़ी में रहते हैं, 17 अप्रैल को पश्चिम बंगाल के 8 चरण में हो रहे विधानसभा चुनाव में मतदान करेंगे।

दार्जिलिंग के फांसीदेवा के चाय बागान में अपने बच्चे को पीठ पर बांध कर काम कर रही एक महिला। फोटो: साधिका तिवारी

रंजीता के गाँव में, घर के पास और चाय बागान के रास्ते में तृणमूल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के सैकड़ों रंगीन झंडे और पोस्टर दिखाई देते हैं, पर रंजीता जैसे वोटर और उनकी समस्याएँ चुनाव-दर-चुनाव नजरअंदाज की जाती हैं।

'कई आकस्मिक गर्भपात, एक ऑपरेशन और 6 बच्चों की मौत'

"शनिवार का दिन था, शनिवार को मेरी छुट्टी 4 बजे ही हो जाती थी। उस दिन बारिश हो रही थी। गाँव से थोड़ी दूर मेला लगा था तो मैंने सोचा मैं जल्दी-जल्दी पाती तोड़ कर चली जाऊंगी। उस दिन मैं साइकिल भी नहीं लायी थी, तो पैदल चल कर ही जाना था," रंजीता लगभग 20 साल पहले की घटना बताती है, जब वो 5 या 6 महीने के गर्भ से थीं।

"मैंने जल्दी-जल्दी काम निपटाया, इसके बाद करीब 20-25 किलो पत्तियाँ मैंने उठायी और उनको जमा करने गयी। चाय बागान में पानी के बहाव के लिए नालियाँ होती हैं जिन्हें कूद कूद कर जाना होता है, मेरे पेट में बच्चा था और सर पर पत्तियाँ। उस दिन मैंने रोज़ की तरह नाली कूदी और फिसल कर नाली में गिर गयी, मैंने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया, पत्तियां जमा करके घर चली गयी," रंजीता ने बताया।

"उस दिन मेरा बच्चा पेट में मर गया और मुझे पता भी नहीं चला, उस समय ज़्यादा कुछ पता भी नहीं था, इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। कुछ 10-12 दिन बाद मुझे गंध आने लगी, कुछ कमजोरी भी महसूस हुई। तब चाय बाग़ान की और औरतों ने बताया कि शायद नाली कूदने से मेरा बच्चा मर गया, सड़ गया और मुझे पता भी नहीं चला," रंजीता बताती हैं।

"एक दीदी ने कहा डॉक्टर के पास जाना ज़रूरी है, पर मैंने कहा कि अभी तो काम है, काम ख़त्म करके पति को पूछूँगी। मैंने पती को बोला की जाना पड़ेगा, खुड़बाड़ी (पास का एक गाँव) अस्पताल भी यहाँ से बहुत दूर है, तो साइकल से वो मुझे डॉक्टर के पास ले कर गया। वहाँ डॉक्टर ने कहा कि गर्भपात हो गया है और अब अस्पताल में भर्ती होना पड़ेगा, इसके उसने 35,000 रुपए माँगे। पति वापस आया और पूरी बस्ती वालों से पैसे उधार लिया, पता नहीं कितने पैसे जमा हुए, कितने दिए गए," रंजीता ने बताया।

रंजीता ने गर्भावस्था के दौरान कभी भी जाँचें नहीं करवाई। सरकार के अनुसार गर्भावस्था के दौरान चार जाँचें ज़रूरी होती हैं, ये जाँच हर सरकारी अस्पताल, स्वास्थ्य केंद्र या आंगनबाड़ी केंद्र में मुफ़्त की जाती। इनके किसी भी बच्चे का कोई भी टीकाकरण नहीं हुआ, बीते 5-6 सालों में पैदा हुए बच्चों को सिर्फ़ पोलियो की दावा दी गयी। रंजीता के सारे बच्चे घर पर ही पैदा हुए, प्रसव के समय उनके साथ कोई दाई भी नहीं थी।

"दर्द होते ही बच्चा आ जाता था बस, अस्पताल जाना ही मुश्किल था," रंजीता ने बताया।

चाय बागान में काम कर रहीं महिलाएँ, जो 8 से 12 घंटे काम करती हैं 

इन सालों में चाय बागान के कर्मचारियों ने कई बार बेहतर दिहाड़ी की मांग की जिसके बाद आज रंजीता 15 दिन के रुपए 2,130 कमाती हैं। बागान की अन्य सभी महिलाओं की तरह वो सुबह 3 बजे उठती हैं, दिन में 12 घंटे चाय बागान में काम करती है जिसके उन्हें रोज़ाना रुपए 142 मिलते हैं। इसके सिवा ये घर का सारा काम, खाना बनाना, बच्चों की देखरेख भी करती है।

इन सालों में रंजीता ने अपने 6 बच्चे खोए हैं। उन्हें उनकी मृत्यु का कारण नहीं पता, उनके अनुसार कुछ बच्चे पैदा होने के कुछ घंटों में ही मर गए और कुछ थोड़े दिन या महीने के बाद।

हर बच्चे की मौत रंजीता को उतनी ही स्पष्टता से याद है। सालों बाद भी उनकी बात करते हुए रंजीता की आंखों में आंसू आ जाते हैं।

"याद करने से क्या होगा, कोई बच्चा वापस थोड़ी आएगा। मेरी आख़री बच्ची जो मरी, उसका नाम दशमी था, वो दुर्गा पूजा में पैदा हुई थी। उसके इलाज में डेढ़ दो लाख रुपए ख़र्च हुआ, पूरी बस्ती से उधार लिया, उसका उधार रुपए 500 दे देकर अभी तक चुका रहे हैं," रंजीता ने बताया।

अभी रंजीता की दो बेटियां हैं, एक 14 और एक 12 साल की। इतना सब कुछ होने के बावजूद भी रंजीता इन चाय बागानों में काम करने को मजबूर हैं।

"हम लोग तो बागान के आदमी हैं, चाय बागान हमारा सब कुछ खा गया, फिर भी मजबूरी में यहाँ काम करते हैं।"

चाय बागान में काम करने वाली महिलाओं की समस्याएं

"चाय बागान में काम करने में बहुत तकलीफ़ है, पैसा भी कम है, धूप, बरसात, ठंड, हम हर समय काम करते है। कोई छुट्टी नहीं होती, बागान में शौचालय भी नहीं होता है," 45 वर्ष की मिलाईका ने बताया जो 15 साल की उम्र से ही इन बागानों में काम कर रही हैं।

 चाय बागान में छतरी और दस्ताने पहनकर काम कर रही महिलाएं। ये सुविधाएँ सिर्फ़ कुछ कर्मचारियों को ही नियमित रूप से मिल पाती हैं

"गर्भवती महिला को काम करने में बहुत असुविधा होती है, भारी भारी 25-30-50 किलो पत्तियां सिर पर उठानी पड़ती है। सिर पर पत्तियां रख कर, नाली कूद कर चाय बागान से ऑफिस तक इन्हें जमा करने जाना पड़ता है," मिलाईका ने बताया।

गर्भावस्था के दौरान कोई छुट्टी नहीं मिलती, जितने दिन काम नहीं होता उतने दिन के पैसे नहीं मिलते, मजबूरी में महिलाएं काम करती रहती हैं।

"खाने के लिए पैसा चाहिए, तो आख़िरी महीनो में पूरे दिन काम कर के जब रात को सोते हैं तो अक्सर समय से पहले ही दर्द होता है और घर में ही बच्चा हो जाता है," दो बेटों की माँ और चाय बाग़ान में 20 साल से काम रही, 35 वर्ष की अरुणा किसपोट्टा ने बताया।

बच्चा पैदा होने के बाद भी ये दिक़्क़तें जारी रहती हैं, बागानों में कोई शिशु गृह नहीं होता, "बच्चे को दूध पिलाने का भी समय नहीं होता, हम बागान में छुप छुप कर दूध पिलाते हैं," अरुणा ने बताया। बागान में काम के बीच कोई ब्रेक भी नहीं मिलता, "जब गर्भ से होती है, या गर्भपात या प्रसव के बाद जब कमजोरी लगती है तो छुप के सोना पड़ता है, बाक़ी दीदी लोग ध्यान रखती हैं," अरुणा ने बताया।

"पीठ में बच्चा बांध कर, सिर भी पट्टी रख कर पूरे दिन काम करना पड़ता है, इतना चलना पड़ता है, रास्ता भी ठीक नहीं है, बड़ा बड़ा नाला होता है। ये सब करो तब पैसा मिलेगा," दो बच्चों की माँ, मिलाईका ने बताया।

नियमों के बावजूद कोई सुविधा नहीं

"बाग में काम करने वाले लोगों का हर महीने में ब्लड टेस्ट होना चाहिए, वो कभी नहीं होता, सबको मास्क देना चाहिए, दस्ताने देने चाहिए, जो किसी-किसी को ही मिलते हैं। चप्पल साल में दो बार मिलती है, छतरी दो-तीन साल में एक बार, इतने में कैसे चलेगा। पूरी मेडिकल व्यवस्था होनी चाहिए पर ऐसा कुछ नहीं होता है। कभी कभी सबको एंटीबायोटिक की गोली दे देते हैं," रोमा रश्मि एक्का, 30, ने बताया जो चाय बागान के खाडुभंगा गाँव में रहती है, और चाय बागान में काम कर रही आदिवासी महिलाओं के साथ काम करने वाली एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

"फ़र्स्ट एड भी आधा अधूरा होता है, कितने लोगों को बाग में सांप काटता है, पर इसके ज़हर के लिए फर्स्ट एड में कुछ नहीं होता, ऐम्ब्युलन्स टाइम पर आ नहीं पाती और कितने लोग इसकी वजह से ही मार जाते हैं," रोमा ने बताया।

चाय बग़ानो में मूलभूत सुविधाओं की कमी

चाय बागानों में काम करने वाले लोग आस-पास के गांवों में रहते हैं। इन गाँवों में ज़्यादातर घर कच्चे हैं, घर के शौचालयों में पानी की व्यवस्था ठीक नहीं है, पीने का पानी अक्सर पास के हैंडपंप से आता है, गांव से बाहर जाने के लिए उचित जन परिवहन उपलब्ध नहीं है क्योंकि बागान शहर से कटे हुए हैं, लोग ज़्यादातर साइकिल का इस्तेमाल करते हैं, खाना बनाने के लिए लोग चूल्हों का इस्तेमाल करते हैं क्योंकि यहाँ तक गैस सिलेंडर लाना और भी महँगा है, बरसात में बाग से ख़तरनाक सांप निकलते हैं और रात को कभी कभी तेंदुआ आ जाता है।

दार्जिलिंग के चाय बागान जो दुनिया भर में अपनी पत्तियों की गुणवत्ता के लिए मशहूर है

यहाँ काम करने वाले लोग अभी भी मूलभूत सुविधाओं के लिए परेशान हैं जबकि भारत की अर्थव्यवस्था को इनकी मेहनत से काफ़ी लाभ होता है। दुनिया के दूसरे सबसे बड़ा चाय उत्पादक, भारत ने साल 2019 में 1,340 kg चाय का उत्पादन किया और 831 मिलियन अमरीकी डॉलर का निर्यात किया। कुल उत्पादन का 81% असम और पश्चिम बंगाल से आता है।

पश्चिम बंगाल में 276 पंजीक्रत चाय बागान हैं, उनमें से ज़्यादातर जलपाईगुड़ी और दार्जिलिंग में हैं, सिर्फ़ एक बाग़ान कूच बिहार ज़िले में है। बंगाल में साल 2019 में 39.4 करोड़ kg चाय का उत्पादन किया।

दार्जिलिंग के चाय बागान 1859 में और जलपाईगुड़ी के 1879 में शुरू गए थे और यहां काम करने वाले लोग ज़्यादातर आदिवासी या अनुसूचित जनजातियों से थे या नेपाली समुदाय की अनुसूचित जातियों से थे। ऐतिहासिक तौर पर इन कर्मचारियों में ज्यादातर महिलाएं शामिल रही हैं। लेबर ब्यूरो के 2012 के आंकड़ों के अनुसार देशभर के सभी चाय बागानों के कुल कर्मचारियों में 55.9% महिलाएं थी।

उत्तर बंगाल के चाय बागानों में उपलब्ध सुविधाओं और काम की परिस्थितियों का मुआयना करने के लिए स्थानीय श्रमिक कार्यालयों ने संयुक्त श्रम आयुक्त के अंतर्गत, साल 2013 में, बंगाल के 276 चाय बागानों में से 273 का एक सर्वे किया। इस सर्वे के नतीजे हालात को और स्पष्ट करते हैं।

सर्वे किए चाय बागानों में से सिर्फ़ 166 में अस्पताल हैं, जिसमें से सिर्फ़ 56 में पूर्णकालिक आवासीय डॉक्टर मौजूद है, अन्य 110 अस्पताल विस्टिंग डॉक्टर पर निर्भर हैं और सिर्फ़ 74 अस्पतालों में एमबीबीएस डॉक्टर मौजूद है, 116 अस्पतालों में कोई नर्स नहीं है और 107 अस्पतालों में कोई डॉक्टर ही उपलब्ध नहीं है।

सिर्फ़ 160 बग़ानो में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र है, जबकि 85 बागानों में डिस्पेंसरी तक नहीं है, सिर्फ़ 160 बागानों में ऐम्ब्युलन्स की सुविधा उपलब्ध है, जिनमें से ज्यादातर ऐम्ब्युलन्स की स्थिति ज़रूरी मानकों के अनुसार ख़राब है।

चाय बागान की परिस्थिति कर्मचारियों के मानवाधिकारों का उल्लंघन

चाय बागानों के कर्मचारी काफ़ी सारी मूलभूत सुविधाओं के लिए प्लैंटेशन स्टेटस पर निर्भर होते हैं, क़ानूनी तौर पर इन्हें ऐसा करना का अधिकार 1951 के प्लांटेशन मज़दूर कानून के तहत अधिकार दिया गया है और इन कर्मचारियों के मानवाधिकारों का अक्सर उल्लंघन होता है।

ग्लोबल नेटवर्क फॉर द राइट टू फूड एंड न्यूट्रिशन की एक साल 2016 की तथ्यान्वेषी मिशन रिपोर्ट के अनुसार लगभग सभी चाय बागानों में अंतरराष्ट्रीय और भारतीय कानूनों के तहत महिलाओं के अधिकारों का हनन और लिंग आधारित भेद-भाव पाया गया।

सरकार का दायित्व है कि महिलाएं भी काम करने के अधिकार का पूरा लाभ पा सके पर चाय बागान में ऐसा होता नहीं है, मर्द ज्यादा तनख्वाह की बेहतर नौकरियां करते हैं और औरतें सिर्फ़ पत्तियां तोड़ने का काम जहाँ पदोन्नति की संभावना नहीं होती, रिपोर्ट में पाया गया।

ज़्यादातर बागानों में महिलाओं के मातृत्व सुरक्षा अधिकारों का हनन होता है, ख़ासकर गर्भावस्था के दौरान महिला के स्वास्थ्य की सही देखभाल और सुरक्षा, मातृत्व अवकाश, स्तनपान के लिए ब्रेक, और प्रसव-पूर्व एवं प्रसव के बाद जांच। महिलाओं से गर्भावस्था के दौरान भी वही काम करवाए जाते हैं, अक्सर गर्भ के आठ मास तक, अन्य महिलाओं के इसके बदले ज़्यादा कार्यभार माँगने के बावजूद।

बिना किसी मास्क, दस्ताने या छतरी के साथ चाय बागान में काम कर रही महिला, ये सुविधाएं हर कर्मचारी को मिलना अनिवार्य है

गर्भावस्था अवकाश ज़्यादातर दिहाड़ी मज़दूरों के लिए होता ही नहीं है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय, दोनों कानूनों का उल्लंघन करते हुए इन महिलाओं को काम पर वापस जाने के बाद स्तनपान कराने का ब्रेक नहीं दिया जाता, और रिपोर्ट के अनुसार स्तनपान कराती हुई माओं के साथ यौन उत्पीड़न के मामले भी सामने आए हैं।

रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं के लिए शिशुगृह होना अनिवार्य है, पर ये ज्यादातर जगहों पर मौजूद नहीं है, जहाँ हैं वहाँ ये ज़रूरत से छोटा और अस्वच्छ है।

गर्भ के दौरान और बाद की जांच चाय बागान की महिलाओं में कम और पहुँच से बाहर पायी गयी। सरकारी अस्पतालों के डॉक्टरों ने बताया कि ज्यादातर गर्भवती महिलाएं एनीमिया का शिकार हैं और प्रसव के दौरान आने वाली समस्याओं से अक्सर इनकी मौत हो जाती है। इन इलाकों में किशोरी गर्भधारण के मामले भी काफ़ी ज़्यादा हैं जिसमें जच्चा-बच्चा दोनो को ज़्यादा ख़तरा होता है।

गर्भधारण में दिक्कत, प्रसव में कठिनाइयां और स्तनपान में नुक़सान का एक कारण बाग में छिड़के जाने वाले कीटनाशक का असर भी पाया गया। बागानों में पीने के पानी की दिक्कत भी महिलाओं पर ज़्यादा भारी पड़ती है क्योंकि अक्सर महिलाओं को ही पानी भरने जाना पड़ता है, रिपोर्ट ने बताया। साथ ही उपयुक्त शौचालय ना होने का असर पुरुषों के मुक़ाबले, महिलाओं पर ज़्यादा पड़ता हैं जिन्हें शर्म और सामाजिक दिक्कतें झेलनी पड़ती हैं और साथ ही इन्फेक्शन का ख़तरा भी ज़्यादा होता है।

दस्ताने पहन कर चाय बागान में पत्तियां तोड़ती महिलाएं

साल 2021-22 के बजट में सरकार ने चाय बागान कर्मचारियों के कल्याण के लिए ₹1,000 करोड़ रुपए आवंटित करने का प्रस्ताव रखा है, और कहा है कि इसके लिए एक ख़ास योजना भी बनाई जाएगी। इस चुनाव में भी ये लोग ना तो किसी पार्टी के चुनावी भाषण का हिस्सा हैं और ना ही किसी नेता की चिंता।

रंजीता का कहना है कि उन्हें इस चुनाव से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, "सरकार तो कोई भी आए हमको क्या मिलेगा, मेरा बच्चा कोई थोड़े ही वापस लाएगा।"

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