वीडियो: झारखंड के लातेहार में स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच का लंबा सफर

Update: 2025-01-04 08:16 GMT

ग्वालखर गांव, लातेहार: अमरमुनि नागेशिया (26) सात महीने से अधिक की गर्भवती थी, और अपनी प्रसवपूर्व जांच के लिए चार घंटे की यात्रा की तैयारी कर रही थी। घंटों पहले से ही तैयारियां शुरू हो गई थीं. उनके पिता सुखदेव नागेसिया ने पड़ोसियों की मदद से बांस की छड़ी से बंधी लकड़ी की टोकरी का उपयोग करके अमरमुनि के लिए एक अस्थायी पालकी तैयार किया। स्वास्थ्य कार्यकर्ता प्यारी नागेसिया कहती हैं, "यह स्थिति पूरे झारखंड में आम है, जहां स्वास्थ्य केंद्र जंगल में रहनेवाले समुदायों की पहुंच से दूर हैं।"

ग्वालखार, झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 178 किमी दूर है। गाँव के 1,500 से अधिक लोगों में से अधिकांश किसान, कोरवा और बिरिजिया जनजाति के हैं। सुखदेव कहते हैं, ''यहाँ बहुत बुरा है। कल रात की बारिश ने रास्ता और भी फिसलन भरा बना दिया है। अगर कोई फिसल गया, तो कौन जानता है कि माँ और बच्चे का क्या होगा।”

लगभग चार घंटे चलने के बाद, सुखदेव, ग्रामीण और स्वास्थ्य कार्यकर्ता निकटतम सड़क पर पहुँचे, जहाँ एक एम्बुलेंस इंतज़ार कर रही थी। अमरमुनि का रक्तचाप जांचा गया और एम्बुलेंस पिता-पुत्री को अस्पताल ले गई। ग्रामीण पैदल चलते रहे - वे ऑटो किराए पर लेने में असमर्थ थे और उन्हें एम्बुलेंस में सीट देने से इनकार कर दिया गया।

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अमरमुनि को अल्ट्रासाउंड की जरूरत थी, लेकिन अस्पताल में उपकरण का अभाव था. एक निजी अस्पताल 1,000 रुपये ले रहा था, जिसे परिवार वहन नहीं कर सकता था। इसलिए बुनियादी जांच के बाद, वे लौटने के लिए तैयार हुए।

शाम 4 बजे तक, सुखदेव और गांव के चार अन्य लोग अमरमुनि को बांस की पालकी में वापस ले गए, इस उम्मीद में कि रात होने से पहले गांव पहुंच जाएंगे। अपनी जल्दबाजी में, वे टॉर्च लाना भूल गए थे - ये एक ऐसी चूक थी, जो यात्रा को और भी खतरनाक बना सकती थी।

प्यारी ने कहा, ''अनिवार्य जांच के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंचने के बारे में भूल जाइए, जब भारी बारिश होती है, तो गर्भवती महिलाओं के लिए फोलिक एसिड जैसी आवश्यक आपूर्ति के साथ गांव तक पहुंचना एक कठिन काम हो जाता है। इसका असर गर्भ में पल रहे बच्चे पर पड़ सकता है।”

भारत में हर दसवां बच्चा डॉक्टरों, नर्सों, दाइयों या अन्य स्वास्थ्य कर्मियों की देखभाल या सहायता के बिना पैदा होता है। वहीं आदिवासियों के मामले में यह संख्या और भी बदतर है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण, 2019-21 के आंकड़ों के अनुसार, लगभग हर छठी डिलीवरी प्रशिक्षित नर्स, स्वास्थ्य सेविका की अनुपस्थिति में होती है। वहीं आदिम जनजातियों (पीवीटीजी) में हर पांचवी डिलिवरी बिना किसी प्रशिक्षित नर्स की देखभाल में हो रही है।

आंकड़ों से पता चलता है कि झारखंड में 32 जनजातियां हैं। जिसमें आठ को विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

पर्यावरण मंत्रालय ने दिसंबर 2023 में संसद को बताया कि भारत में लगभग 650,000 गाँव हैं, जिनमें से 170,000 गाँव जंगलों के पास स्थित हैं। लगभग 300 मिलियन लोग अपनी आजीविका के लिए जंगलों पर निर्भर हैं।

सरकार ने नवंबर 2019 में लोकसभा को बताया कि 25% से अधिक आदिवासी आबादी वाले 117,064 गांवों में से एक-तिहाई के पास बारहमासी सड़क तक पहुंच नहीं थी और चार में से तीन के पास स्वास्थ्य केंद्र नहीं था। बिना स्वास्थ्य केंद्र वाले लगभग एक तिहाई गांवों के लिए निकटतम सुविधा की दूरी 10 किमी से अधिक थी, जबकि अन्य 28% गांव निकटतम स्वास्थ्य केंद्र से 5-10 किमी दूर थे।

जन स्वास्थ्य अभियान के वैश्विक समन्वयक त्यागराजन सुंदररमन कहते हैं, "अगर लोगों को अस्पताल जाने के लिए चार घंटे चलना पड़ता है, तो यह एक भयावह विफलता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने गाँव के एक किलोमीटर के भीतर हर मौसम के लिए उपयुक्त सड़क उपलब्ध हो, यह सुनिश्चित करना केंद्र और राज्य दोनों सरकारों की ज़िम्मेदारी है।

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