रांची: आठ महीने की गर्भवती अमरमुनि नागेसिया के लिए बीते 17 अक्टूबर की सुबह दो जिंदगियों को दांव पर लगाने जैसी थी। एक तरफ खुद उनकी जान थी और दूसरी तरफ गर्भ में पल रहे बच्चे की। अमरमुनि ने अपने ढाई साल के बेटे को खाना खिलाया और खुद को तैयार किया। यह तैयारी चार घंटे तक एक टोकरी में बैठकर अस्पताल जाने की थी, जिसे चार लोग बारी-बारी से अपने कंधों पर उठाकर ले जाने वाले थे। यह उनके लिए कोई नई बात नहीं थी, क्योंकि ढाई साल पहले भी उन्हें इसी तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ा था।

भारत में हर दसवां बच्चा बिना डॉक्टर, नर्स, दाई या किसी और स्वास्थ्यकर्मी की मदद के पैदा होता है। यानी जन्म के समय उन्हें किसी भी तरह की स्वास्थ्य सुविधा नहीं मिलती है। अगर हम आदिवासी लोगों की बात करें, तो स्थिति और भी खराब है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2019-21 के आंकड़ों से पता चलता है कि आदिवासी समुदाय में लगभग हर छठा बच्चा बिना किसी प्रशिक्षित स्वास्थ्यकर्मी की मदद के पैदा होता है। झारखंड में 32 जनजातियां निवास करती हैं, जिनमें से आठ को विशेष रूप कमजोर जनजातीय समूहों के रूप में वर्गीकृत किया गया है। यहां ऐसे बच्चों के जन्म की संख्या पूरे देश में पांचवें नंबर पर सबसे ज्यादा है।

“स्वास्थ्य सेवाओं की अनुपस्थिति और परिवहन की कमी के कारण कमजोर जनजातियां समय पर स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित रह जाती हैं,” भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) की 2017 की एक रिपोर्ट के अनुसार, जैसा कि इंडियास्पेंड ने सितंबर 2019 में रिपोर्ट किया था। साल 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य में जनजातीय लोगों की आबादी 8.6 मिलियन है, जो राज्य की आबादी का 26% है। यह राष्ट्रीय आंकड़े 8.6% से तीन गुना ज्यादा है।

अमरमुनि नागेसिया के पिता सुखदेव नगेसिया और गांव के ही दो लोगों ने लकड़ी की टोकरी से पालकी बनाई और उसे रस्सियों से बांस पर बांध दिया। अमरमुनी को प्रसवपूर्व जांच के लिए उनके गांव से लगभग सात किलोमीटर दूर महुआडांर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र ले जाना था। किसान जनजाति की 26 वर्षीय अमरमुनी नगेसिया अपने दूसरे बच्चे को जन्म देने वाली थीं।

झारखंड के लातेहार जिले के ग्वालखर गांव से गर्भवती अमरमुनी नगेसिया को कंधे पर उठाकर चार घंटे तक पैदल चलकर अस्पताल ले जाते ग्रामीण। फोटो: विकास आर्यन।

झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 178 किलोमीटर दूर लातेहार जिले के, महुआडांर ब्लॉक के जंगलों के बीचो बीच ग्वालखार गांव बसा है। गांव की आबादी लगभग 1,500 है, जिसमें ज़्यादातर लोग किसान, कोरवा और बिरिजिया जनजाति के हैं। इन समुदायों के लिए महुआडांर जाने का मतलब है- उन खतरनाक रास्तों से होते हुए निकलना, जहां पर कोई साइकिल तक नहीं चलती है। बारिश और खराब मौसम की स्थिति में यह रास्ता और भी जोखिम भरा हो जाता है।

भारत में जनजातीय स्वास्थ्य से जुड़ी एक रिपोर्ट के अनुसार, 81.8% जनजातीय महिलाओं को प्रसवपूर्व केवल एक जांच मिलती है, वहीं केवल 15% जनजातीय महिलाओं को तीन प्रसवपूर्व जांच मिल पाती हैं। यह देश में किसी भी समुदाय के बीच सबसे कम दर है।

अमरमुनी टोकरी में बैठ जाती हैं, और गांव के दो लोग उसे उठाकर चल देते हैं। बड़े-बड़े पत्थर, तो कहीं कंटीले झाड़, पहाड़ की चढ़ाई को पार करना आसान नहीं है। लगभग दो घंटे लगातार चलने के बाद सब लोग एक जगह रुककर थोड़ा आराम करते हैं।

सुखदेव कहते हैं, "यहां हालात बहुत खराब हैं. बीती रात हुई बारिश ने रास्ते को और भी फिसलन भरा बना दिया है। अगर कोई फिसल गया, तो पता नहीं, मां और बच्चे का क्या होगा।"

रास्ते की वजह से होने वाली त्रासदी

स्थानीय स्वास्थ्य सहिया प्यारी नेगेसिया कहती हैं, "झारखंड में यह स्थिति आम है। यहां, खासकर जंगलों में रह रहे आदिवासी समुदायों के लिए स्वास्थ्य केंद्र पहुंच से काफी दूर हैं।"

ग्वालखार में मई 2023 की एक घटना को याद करते हुए 46 वर्षीय स्वास्थ्य सहिया ने बताया कि एक महिला ने घर पर ही बच्चे को जन्म दिया। उसे बहुत ज़्यादा रक्तस्राव होने लगा, तो उसे महुआडांर के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ले जाया गया। उसकी हालत गंभीर थी। उसे वहां से लगभग 90 किलोमीटर दूर लातेहार के जिला अस्पताल में रेफर कर दिया गया। लेकिन बहुत ज्यादा रक्तस्राव के कारण अस्पताल में ही उनकी मौत हो गई।

प्यारी ने बताया " तीन साल पहले एक और महिला को प्रसव के दौरान बहुत दर्द होने पर, इसी तरह टोकरी में लादकर अस्पताल ले जाया गया था। प्रसव पीड़ा तेज हो जाने पर, उसे गांव की महिलाओं की मदद से बीच जंगल में बच्चे को जन्म देना पड़ा।"

ट्राइबल हेल्थ इन इंडिया रिपोर्ट के अनुसार, एक चौथाई से ज्यादा यानी 27% आदिवासी महिलाएं घर पर ही बच्चे को जन्म देती हैं, जो सभी जनसंख्या समूहों में सबसे अधिक है।

17 अक्टूबर, 2024 को गांववालों और परिवार के सदस्यों ने अमरमुनी नागेसिया को चार घंटे तक अपने कंधों पर उठाकर अस्पताल पहुंचाया, ताकि उसकी प्रसवपूर्व आखिरी जांच पूरी हो सके। फोटो: तेज बहादुर

चार घंटे लंबे इस फिसलन भरे पहाड़ी रास्ते पर अमरमुनि के साथ रहीं प्यारी ने बताया कि ऐसी स्थिति चाईबासा, गुमला, साहिबगंज, पाकुड़, सिमडेगा, खूंटी और यहां तक कि राज्य की राजधानी रांची जैसे इलाकों में भी आम है। इन इलाकों में रहने वाले आदिवासी लोग अक्सर चिकित्सा सुविधाओं के लिए ऐसे मुश्किल रास्तों और दूसरे आदिवासियों की मदद पर निर्भर रहते हैं।

यह पूछे जाने पर कि स्वास्थ्य केंद्र तक पहुंचने की यह समस्या कब से है, सुखदेव बताते हैं, "दो या तीन पीढ़ियों से ज्यादा समय से ऐसा ही चलता आ रहा है। सड़क का न होना, हमेशा से समस्या रहा है। हम लगातार सड़क की मांग करते आ रहे हैं, लेकिन स्थिति जस की तस है। सड़क ने होने की वजह से लोग मरते हैं। हमारे गांव के तीन या चार बच्चे पहले ही मर चुके हैं। साल 2021 में मेरी पत्नी को लकवा मार गया. हमारे पास इलाज के लिए पैसे नहीं थे, तो वह भी मर गई। हम क्या कर सकते हैं?"

17 अक्टूबर को महुआडांर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में जांच के लिए जाने से पहले प्यारी नगेसिया ने अपने बच्चे को खाना खिलाया और लंबे सफर के लिए तैयार हो गईं। फोटो: तेज बहादुर

ये चुनौतियां सिर्फ झारखंड तक ही सीमित नहीं हैं। बीते 27 सितंबर को आंध्र प्रदेश के पिंजरीकोंडा गांव की एक गर्भवती महिला को अस्पताल ले जाने के लिए उफनते बांध से एक नाले को पार करना पड़ा था।

बाधाएं

ग्वालखार जैसे वन गांवों में सड़कों का अभाव नौकरशाही और पर्यावरण नियमों के बीच फंसा मसला है।

वन और आदिवासी अधिकारों के लिए काम करने वाले 17 छोटे-बड़े स्वयंसेवी संगठनों के मंच, झारखंड वन अधिकार मंच (JVAM), और इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस द्वारा किए गए 2021 के एक संयुक्त सर्वेक्षण में पाया गया कि झारखंड में वन क्षेत्रों में 14,850 गांव हैं।

झारखंड वन अधिकार मंच के संयोजक सुधीर पाल के अनुसार, अगर प्रति गांव 100 लोगों को भी लिया जाए, तो इस अनुमान के साथ भी लगभग 14.8 लोख लोग इन दूरदराज के क्षेत्रों में रहते हैं, और उनमें से कई आपात स्थिति में अस्पतालों तक पहुंचने के लिए खाट जैसे अस्थायी परिवहन पर निर्भर रहने के लिए मजबूर हैं।

हाल ही में झारखंड में हुए विधानसभा चुनावों में, कई लोगों ने बुनियादी ढांचा मुहैया कराने में सरकार की विफलता का विरोध करते हुए चुनावों का बहिष्कार करने का फैसला किया था। उदाहरण के लिए बोकारो जिले के टुंडी निर्वाचन क्षेत्र के बामनाबाद गांव और गिरिडीह जिले के बेंगाबाद ब्लॉक के ताराटांड गांवों को ही लें। यहां के निवासियों ने वन गांवों की श्रेणी में नहीं आने के चलते चुनाव का बहिष्कार किया।

पर्यावरण मंत्रालय ने दिसंबर 2023 में संसद को बताया कि भारत में लगभग 6,50,000 गांव हैं, जिनमें से 1,70,000 गांव जंगलों के पास स्थित हैं। लगभग 30 करोड़ लोग अपनी आजीविका के लिए वनों पर निर्भर हैं।

संसद में साल 2021 में दिए गए जवाब में कहा गया था कि झारखंड के आदिवासी इलाकों के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टरों के 142 पद खाली पड़े हैं। केंद्रीय बजट 2023-24 में 42 मंत्रालयों/विभागों के कुल योजना बजटीय आवंटन में से अनुसूचित जनजातियों के लिए विकास कार्य योजना (DAPST) निधि के रूप में 1,17,944 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं।

हालिया विधानसभा चुनाव 2024 में झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) दोनों के घोषणापत्रों में राजनीतिक वादे किए गए। इसमें 5,000 परिवारों पर एक एम्बुलेंस, प्रत्येक पंचायत में एक स्वास्थ्य उप-केंद्र, स्वास्थ्य कर्मियों के मानदेय में 50 फीसदी की वृद्धि और स्वास्थ्य सेवा में सुधार के लिए पर्याप्त धनराशि आवंटित करने जैसे वादे शामिल थे।

पार्टियों के इन घोषणाओं पर सुधीर पाल कहते हैं, "ये वादे कागज पर तो अच्छे लगते हैं, लेकिन वे बुनियादी समस्याओं को हल करने में विफल रहते हैं। बड़ा सवाल ये हैं कि इन दूरदराज के गांवों तक वास्तव में कैसे पहुंचा जाए। सड़कें बनाने या बुनियादी ढांचे में सुधार की स्पष्ट योजनाओं के बिना ये वादे सिर्फ खोखले बयानबाजी बनकर रह जाते हैं।"

झारखंड के स्वास्थ्य सचिव अजय कुमार सिंह ने इस पूरी स्थिति पर सरकार का पक्ष रखते हुए इंडियास्पेंड को बताया कि राज्य में स्वास्थ्य सुविधा पहुंचाने के लिए मोबाइल मेडिकल यूनिट काम कर रही हैं। सिंह ने कहा, "एक तरह से ये यूनिट ओपीडी सेवाएं देती हैं, लेकिन जिन इलाकों या गांवों में सड़कें नहीं हैं, वहां ये यूनिट भी काम नहीं कर पाती हैं। ऐसे इलाकों में ग्रामीण विकास विभाग को काम करना होगा।" पूरे राज्य में 100 से ज्यादा यूनिट काम कर रही हैं।

पिछले 15 सालों से महिला अधिकारों के लिए काम कर रहीं ध्वनि फाउंडेशन की झारखंड स्टेट ट्रेनर रेशमा कहती हैं कि वन क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों को लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा है।

उन्होंने कहा, "इस चुनाव में इन मुद्दों पर कुछ नहीं बोला गया। इस बार मुख्यमंत्री मैया सम्मान योजना से लाभान्वित महिलाओं ने मौजूदा सरकार के पक्ष में भारी मतदान किया है। सरकार को अब उन्हें बेहतर सड़कें और स्वास्थ्य सुविधाएं देकर जनता के प्रति अपना आभार व्यक्त करना चाहिए।"

“हमारी सरकार का मुख्य लक्ष्य हर झारखंडी की सेवा करना और उनके कल्याण को सुनिश्चित करना है, विशेष रूप से उन लोगों का जो दूर-दराज के क्षेत्रों में रहते हैं,” झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इंडिया स्पेंड को बताया। “चाहे वे जंगलों के गांवों में रहते हों या अन्य दुर्गम क्षेत्रों में, उन्हें स्वास्थ्य सेवाओं की सुविधा प्रदान करना हमारी प्राथमिकता बनी हुई है।

“हम स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के लिए एक व्यापक योजना तैयार कर रहे हैं, जिसमें स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास और वन विभाग के समन्वय से मोटर चलने योग्य सड़कों का निर्माण शामिल है। हमारा उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि हर नागरिक, चाहे वह कितना भी दूर क्यों न हो, बिना किसी बाधा के आवश्यक चिकित्सा सुविधाओं तक पहुंच सके,” उन्होंने कहा।

महि‍या सम्मान योजना के बारे में बात करते हुए, सोरेन ने कहा, “यह महत्वाकांक्षी सामाजिक कल्याण योजना महिलाओं और उनके परिवारों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने पर केंद्रित है। ₹2,500 की मासिक वित्तीय सहायता के साथ, 50 लाख से अधिक महिलाएं इस कार्यक्रम से लाभान्वित हो रही हैं। यह सिर्फ वित्तीय सहायता नहीं है—यह महिलाओं के सशक्तिकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

वहीं झारखंड वन अधिकार मंच के संयोजक जॉर्ज मोनोपल्ली ने कहा कि वन अधिकार अधिनियम 2006 में एक बड़ी खामी है। इसमें वन गांवों में एक हेक्टेयर जमीन पर मकान बनाने की इजाजत दी गई है, लेकिन सिर्फ 75 पेड़ काटने की अनुमति मिलती है। इससे, जंगल के अंदरूनी गांवों तक सड़कें बनाना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि ये गांव अक्सर मुख्य सड़क से कई किलोमीटर दूर होते हैं।

गहरी दुविधाएं और अनदेखी चुनौतियां

स्वास्थ्य सहिया प्यारी नगेसिया ने एनीमिया, पोषण संबंधी कमियों और अपर्याप्त चिकित्सा सलाह की कमी से जूझ रही ऐसे इलाकों के गर्भवती महिलाओं के संघर्षों के बारे में भी बताया।

झारखंड के लातेहार जिले के महुआडांर प्रखंड की चंपा पंचायत में स्वास्थ्य कार्यकर्ता प्यारी नगेसिया (47)। ग्वालखर गांव इसी पंचायत में आता है।

यूनिसेफ कहता है कि गर्भवती महिलाओं को दिन में तीन बार अच्छा और घर का बना खाना खाना चाहिए। साथ ही, उन्हें हल्का नाश्ता और तीन से पांच बार फल और सब्जियां भी लेनी चाहिए। खाने में साबुत अनाज (जैसे गेहूं, ब्राउन राइस और ओट्स), प्रोटीन (जैसे अंडे, मछली, चिकन, दाल और सोया) और हरी पत्तदार सब्जियों से भरपूर आहार जरूरी है। इसके अलावा आयरन, फोलिक एसिड और कैल्शियम सप्लीमेंट्स के साथ-साथ हाइड्रेशन के लिए भरपूर मात्रा में साफ पानी पीने की सलाह दी जाती है।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) के दिशा-निर्देशों के अनुसार गर्भवती महिलाओं को टिटनेस के इंजेक्शन लगवाने, 100 फोलिक एसिड की गोलियां लेने और दूध से बने उत्पाद व हरी सब्जियां खाने की सलाह दी जाती है। इन आवश्यक चीजों की कमी के कारण गर्भधारण में कई जटिलताएं पैदा होती हैं, जिससे अक्सर प्रसव लंबा हो जाता है। ऐसे में कभी-कभी घर पर प्रसव कराना एक जोखिम भरा हो जाता है।

प्यारी कहती हैं, "अनिवार्य जांच करवाने के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंचना तो दूर की बात है, जब भारी बारिश होती है तो गर्भवती महिलाओं के लिए फोलिक एसिड जैसी दवाएं भी गांव तक पहुंचना मुश्किल हो जाता है। इसका असर गर्भ में पल रहे बच्चे पर पड़ सकता है।"

एनएफएचएस-5 के अनुसार झारखंड ग्रामीण क्षेत्र में 5 वर्ष से कम आयु के 42% बच्चे बौने (उम्र के हिसाब से लंबाई) हैं, 22.3% बच्चे कमजोर (ऊंचाई के हिसाब से वजन) हैं, 8.8% बच्चे गंभीर रूप से कमजोर हैं जबकि 5 वर्ष से कम आयु के 41.14% बच्चे कम वजन के हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार गर्भवती महिलाओं को 8वें से 14वें सप्ताह (डेटिंग स्कैन) और फिर 18वें से 22वें सप्ताह (एंटे स्कैन) के बीच अल्ट्रासाउंड करवाना जरूरी है। इसके अलावा गर्भावस्था के दौरान हार्मोन (HCG), थायरॉयड फंक्शन, शुगर लेवल, हीमोग्लोबिन और ओरल ग्लूकोज टॉलरेंस टेस्ट (OGTT) की जांच की सलाह भी दी जाती है।

प्यारी ने कहा, "जंगलों में बसे गांवों में गर्भवती महिलाओं के लिए इनमें से कोई भी चीज आसानी से उपलब्ध नहीं है।"

भारत में 23% आदिवासी बच्चे घर पर ही जन्म लेते हैं। एनएफएचएस 5 के अनुसार झारखंड (ग्रामीण) में शिशु मृत्यु दर 41.4, वहीं नवजात मृत्यु दर 30.4 है, जबकि पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर 1,000 जीवित जन्मों पर 49.2 है। यहां यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली मातृ स्वास्थ्य सेवाएं अक्सर आदिवासी लोगों की स्वास्थ्य संबंधी मान्यताओं और तरीकों के अनुरूप नहीं होती हैं।

ग्वालखार की एक अन्य स्वास्थ्य सहिया जसिंता कोरवाइन ने बताया कि स्वास्थ्य केंद्र के बल्ड प्रेशर, शुगर और बल्ड टेस्ट करने वाले उपकरण चार साल से खराब पड़े हैं। जसिंता ने कहा, "नए उपकरण खरीदने के लिए राज्य सरकार ने अक्टूबर 2024 में धनराशि स्वीकृत की थी, लेकिन केवाईसी नहीं होने के कारण इसे अभी तक खरीदा नहीं जा सका है।"

प्रसवपूर्व जांच गर्भावस्था के दौरान कम से कम तीन बार होनी चाहिए, जो उपकरणों और सुविधाओं की कमी के चलते सिर्फ एक या दो बार ही हो पाती है।

लातेहार के सिविल सर्जन अवधेश सिंह कहते हैं, “मशीनें स्वास्थ्यकर्मियों (सहिया) के पास नहीं रखी जाती हैं। उन्हें आंगनबाड़ी केंद्रों में रखा जाता है और स्वास्थ्यकर्मी वहीं से उनका इस्तेमाल करते हैं। खराब मशीनों को बदलने के लिए कोई निश्चित समय-सीमा नहीं है।"

जसिंता आगे बताती हैं, ‘’हमें तो साफ पानी भी नसीब नहीं होता है। हम चुआं (पहाड़ी नदियों के गड्ढों में जमा पानी) से पीते हैं। साफ पानी की कमी और भी कई तरह की बीमारियों को लेकर आती है।’’

झारखंड और भारत भर के अन्य आदिवासी क्षेत्रों में लगभग यही स्थिति है, जहां पानी की गुणवत्ता खराब है और स्वास्थ्य सेवाएं दुर्लभ हैं।

उम्मीद का ब्लूप्रिंट

झारखंड वन अधिकार मंच के सुधीर पाल एक संभावित कानूनी उपायों पर बात करते हैं। वह कहते हैं, सामुदायिक वन अधिकार (CFR) समझौते की धारा 3-2 के तहत अगर ग्राम सभा मंजूरी दे, तो सामुदायिक विकास के लिए 1 हेक्टेयर तक की वन भूमि आवंटित की जा सकती है। जिसमें सड़कें, स्वास्थ्य केंद्र और पानी के साथ-साथ दूरसंचार सुविधाओं के लिए जमीन का इस्तेमाल किया जा सकता है। इस अधिनियम के तहत प्रति हेक्टेयर 75 पेड़ काटे जा सकते हैं।

वहीं मोनोपल्ली का मानना ​​है कि इसका समाधान एक स्पष्ट और कारगर योजना में छिपा है। उन्होंने कहा, "राज्य सरकार को सड़कों की जरूरत वाले क्षेत्रों की एक सूची तैयार की जानी चाहिए, उनकी दूरी मापनी चाहिए और अनुमति के लिए केंद्रीय वन मंत्रालय से संपर्क करना चाहिए।"

झारखंड के पूर्व प्रधान मुख्य वन संरक्षक (पीसीसीएफ) लाल रत्नाकर सिंह के अनुसार, “यह सही है कि वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत प्रति हेक्टेयर 75 पेड़ों की कटाई की अनुमति है। लेकिन इसके बावजूद जंगल के उन इलाकों में सड़कें बनाई गई हैं, जहां बहुत कम लोग रहते हैं।”

सिंह कहते हैं, "अगर सरकार और वन विभाग चाहे तो जंगल में कहीं भी ऑल वेदर रोड (बारहमासी सड़कें) बनाई जा सकती हैं। चूंकि ऐसी जगहों पर गांव दूर-दूर पर हैं। वहां बहुत कम लोग रहते हैं, इसलिए सरकार उन पर ध्यान नहीं देती। यहां रहने वाले लोग अपनी समस्याएं भी ठीक से उन तक नहीं पहुंचा पाते हैं।"

झारखंड के लातेहार जिले के ग्वालखर गांव से सड़क तक पहुंचने के लिए आदिवासियों को जंगलों से होकर गुजरना पड़ता है, जहां कोई सड़क नहीं है। उन्हें लगातार जानवरों के हमलों का खतरा बना रहता है। फोटो: तेज बहादुर

करीब चार घंटे पैदल चलने के बाद सुखदेव, गांव वाले और स्वास्थ्यकर्मी नजदीकी सड़क पर पहुंचे, जहां एक एंबुलेंस अमरमुनी का इंतजार कर रही थी।

जन स्वास्थ्य अभियान के ग्लोबल कोऑर्डिनेटर त्यागराजन सुंदररामन का कहना है कि अगर लोगों को अस्पताल जाने के लिए चार घंटे पैदल चलना पड़े, तो यह बहुत बड़ी नाकामी है। केंद्र और राज्य सरकारों दोनों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हर व्यक्ति के गांव से एक किलोमीटर के अंदर सड़क हो, जो पूरे साल खुली रहे। 2011-12 में झारखंड के दूरदराज इलाकों का नक्शा बनाया गया था, ताकि गर्भवती महिलाओं के लिए अस्पताल एक घंटे के भीतर पहुंच में हों। लेकिन पैसे की कमी और सरकार की लापरवाही के कारण इस पर काम में देरी हुई है।

झारखंड के स्वाथ्य मंत्री डॉ इरफान अंसारी ने हाल ही में विभाग संभाला है। उन्होंने इंडियास्पेंड से कहा, ‘’देखिये आठ-दस किलोमीटर सफर करने से कोई नहीं मरता है। अगर कोई मरता है तो उसे पहले से कोई न कोई गंभीर बीमारी रही होगी।’’

वह आगे कहते हैं, ‘’मैंने तय किया है कि डॉक्टर जिस जिले का रहने वाला है, उसे वहीं पोस्टिंग दी जाए। इससे कोई भी डॉक्टर उन इलाकों में जाने से इंकार नहीं करेगा। और साथ ही वेतन बढ़ाने पर भी बातचीत चल रही है। महुआडांर अस्पताल की स्थिति अभी मेरी जानकारी में आई है, मैं उसे बेहतर बनाने का वादा करता हूं।’’