बुनियादी स्वास्थ्य अधिकार और सुविधा से वंचित भारत की महिला भट्ठा मजदूर और उनके बच्चे
प्रवासी महिलाएं और बच्चे चौबीसों घंटे ईंटें बनाने का काम करते हैं और उन्हें भोजन और ज़रूरी स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंचने में कठिनाई होती है
नौझील, उत्तर प्रदेश: बिहार के गया जिले की भट्ठा मजदूर सुमा देवी ने पिछले 16 वर्षों से उत्तर प्रदेश के मथुरा में भट्ठों पर काम करने के अनुभव को बताते हुए कहा कि वे “खट रहे हैं”।
छोटी कद काठी की सुमा जिनकी आँखे भी धंसी हुई दिखती हैं, उन्हें अपनी शारीरिक कमज़ोरी और बीमारी का पता तब चला, जब उनकी बेटी का जन्म हुआ था। जन्म देने के तुरंत बाद, सुमा को टीबी (क्षय रोग) का पता चला। वह अपने नौ महीने के इलाज को बीच में ही छोड़कर घर से 900 किलोमीटर दूर ईंट भट्ठों पर मज़दूरी करने चली गई।
तपती धुप में कच्ची मिट्टी पाथते हुए फिर उसे लकड़ी के फ्रेम के माध्यम से ईंट का स्वरुप दे रही सुमा कहती हैं कि “मैं अच्छा महसूस नहीं कर रही हूँ। पिछले 5-6 सालों में मेरी तबियत में कोई सुधार नहीं हुआ है।
प्रवासी मज़दूर, खास तौर पर सुमा जैसे सीज़नल प्रवासी, टीबी के लिए मुफ्त इलाज सहित सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के हकदार हैं, भले ही वे अपने घर से दूर काम कर रहे हों। लेकिन पहचान पत्र की कमी और गांवों के बाहरी इलाकों में ईंट भट्ठों के होने के कारण वे ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा योजनाओं और अन्य सेवाओं से वंचित हो जाते हैं, जिसका सबसे ज्यादा असर भट्ठों पर काम करने वाली महिलाओं और बच्चों पर पड़ता है।
बीमार होने के बावजूद, सुमा ने कच्ची मिट्टी से पथाई का काम सुबह 8 बजे काम शुरू कर दिया। पथाई से मिले ब्रेक में, वह परिवार के लिए खाना बनाती हैं और कार्यस्थल पर अपने पति के साथ मिलकर बनाई गई अस्थायी ईंट की झोपड़ी की सफाई करती हैं। सूरज डूबने के बाद, गर्मी से थोड़ी राहत मिलते ही सुमा ने फिर से पथाई का काम शुरू कर दिया, सुमा को उम्मीद है कि रात 1 बजे तक कम से कम 2,000 ईंटें बना ली जाएँगी।
ईंट भट्ठा मालिक, सुमा देवी के तीन लोगों के परिवार द्वारा संयुक्त रूप से बनाई गई प्रत्येक 1000 ईंटों के लिए उनके पति को 500 रुपये का भुगतान करते हैं।
भूमिहीन परिवार के पास इस काम को करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, सुमा ने बताया कि, वे मांझी जाति से हैं, जिसे महादलित के रूप में शामिल किया गया है, जो भारत में जाति की श्रेणी में सबसे हाशिए पर है।
जब वे पिछले साल अक्टूबर में मथुरा के नौझील गाँव में आये थे तो भट्ठा मालिक से 80,000 रुपये उधार लिए थे और उम्मीद की थी कि ईंट पकाने के मौसम (आमतौर पर नवंबर से जून की शुरुआत के बीच) में अपनी कमाई से इसे चुका देंगे। लेकिन नौ महीने बीत जाने के बाद भी उन पर 30,000 रुपये बकाया हैं और उन्हें अपना खर्च चलाने के लिए और पैसे उधार लेने पर मजबूर होना पड़ा है।
"हम पेशगी की रकम नहीं चुका सकते, क्योंकि मैं बीमार रहती हूं।", सुमा देवी आगे बताती हैं कि क्यों उन पर ईंटों की संख्या बढ़ाने और ज़्यादा घंटे काम करने का दबाव रहता है। उन्होंने कहा, "हमने निजी क्लिनिक में दवाओं और जांच पर 12,000 रुपये तक खर्च किए हैं। इस वजह से हमें और अधिक उधार लेना पड़ रहा है।" उन्होंने यह भी बताया कि उन्हें भट्ठे पर सरकार के मुफ्त टीबी उपचार कार्यक्रम के बारे में कोई जानकारी नहीं है।
ईंट भट्ठों पर काम करने वाली प्रवासी महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य देखभाल पर काम करने वाली गैर सरकारी संस्था सेंटर फॉर एजुकेशन एंड कम्युनिकेशन (सीईसी) के कार्यकारी निदेशक लोकेश एस ने कहा, "महिलाएं आमतौर पर अपने गांव में छह महीने से भी कम समय बिताती हैं और इस वजह वे अपने स्वास्थ्य के अधिकार से वंचित रह जाती हैं।"
उन्होंने कहा, "भट्ठों में महिलाएं न तो प्राथमिक मज़दूर के रूप में पंजीकृत हैं, न ही अनौपचारिक रूप से रजिस्टर में। अगर उन्हें मज़दूर के रूप में पंजीकृत किया जाता, तो उन्हें मातृत्व अवकाश और अन्य सहायता मिलती।"
मज़दूरों के पास ममता कार्ड (गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं के लिए एक स्वास्थ्य कार्ड जिसमें प्रसवपूर्व देखभाल और आवश्यक टीके दर्ज होते हैं) या फिर आधार कार्ड का होना अनिवार्य है। लेकिन श्रम अधिकार पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं का कहना है कि कई मज़दूर इन दस्तावेजों को खोने के डर से अपने साथ प्रवास के दौरान ले कर नहीं आते हैं।
सुमा ने कहा, "मैंने पिछले 15-16 साल इसी तरह रामचक (बिहार में उसका घर) से यूपी आते-जाते बिताए हैं।" "मुझे पता है कि मेरी सेहत खराब हो रही है।"
इतने पास, फिर भी बहुत दूर
झुलसा देने वाली मई के एक तपते दिन में, जब एयर कंडीशन वाली लक्जरी कारों में सवार शहरी यात्री यमुना एक्सप्रेसवे पर 100 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से भाग रहे थे, एक संकरा रास्ता नौझील और मीरापुर गांव की ओर जाता है।
सूखे खेतों और भट्ठों से निकलते धुएं से भरी चिमनियों की कतारों से घिरा मीरापुर एक बड़ी बस्ती जैसा दिखता है, जहां मजदूर खेतों में झोपड़ियां बनाकर रहते हैं और मिट्टी की बनी दुकानों में लाखों ईंटें रखी हुई हैं।
जब माइग्रेशन स्टोरी ने मीरापुर का दौरा किया, तो पथाई का काम करने वाली मंता देवी अपनी झोपड़ी में अपने एक वर्षीय बेटे को स्तनपान करा रही थी, जिसे उसने सड़क के उस पार एक ईंट भट्ठे पर जन्म दिया था।
भारत की एकीकृत बाल विकास योजना (आईसीडीएस), जो एक सरकारी कार्यक्रम है, के तहत मंता को हर महीने एक किलो दलिया या जई का सप्लिमेंटरी पोषण मिलता है, ताकि स्तनपान के दौरान उसे प्रतिदिन कम से कम 600 कैलोरी अतिरिक्त ऊर्जा और 18 से 20 ग्राम प्रोटीन मिल सके।
लेकिन फिर भी वह अपने भोजन के अधिकार तक पूरी तरह नहीं पहुँच पाती, क्योंकि वह एक मौसमी प्रवासी मज़दूर है।
मीरापुर स्थित आंगनवाड़ी में ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य कार्यकर्ता के रूप में मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा), एक आशा रावत ने योजनाओं के अंतर्गत महिला प्रवासी मज़दूरों को शामिल करने की आवश्यकता को स्वीकार किया, लेकिन वे ऐसा करने में असमर्थ हैं।
रावत ने कहा, "भट्ठे गांव से 3 से 4 किमी दूर स्थित हैं।"
उन्होंने सामाजिक बजट में कमी की ओर इशारा करते हुए कहा, "हम देखते हैं कि वहां (भट्ठों पर) महिलाएं और बच्चे बहुत गरीब हैं, हम उनकी देखभाल करके उन्हें सरकारी सुविधा देना चाहते हैं। लेकिन हम मुश्किल से ही उन स्थानीय बच्चों और महिलाओं को कवर कर पाते हैं, जिन्हें घर ले जाने के लिए राशन मिलना चाहिए।"
मातृत्व स्वास्थ्य के लिए ढेरों योजनायें होने के बावजूद, मुख्य रूप से बिहार, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ से मथुरा के भट्ठों पर आने वाली प्रवासी महिलाओं को बुनियादी स्वास्थ्य जांच भी उपलब्ध नहीं हो पाती, जो आशा कार्यकर्ता भट्ठों से 1-2 किमी दूर स्थित गांव के स्थानीय निवासियों को नियमित रूप से उपलब्ध कराती रहती हैं।
शिशुओं, गर्भवती महिलाओं, स्तनपान कराने वाली माताओं को भोजन उपलब्ध कराने के लिए पिछले वर्ष का आईसीडीएस बजट वास्तविक रूप से 2014-15 के बजट से 40 प्रतिशत कम था।
रावत ने कहा, "राज्य के बाहर से आने वालों को शामिल करने के लिए हमें कोई अतिरिक्त प्रावधान नहीं मिलता है।" रावत को भी हर आशा कार्यकर्ता की तरह 1,000 निवासियों की बुनियादी स्वास्थ्य आवश्यकताओं को पूरा करना होता है, जिसमें प्रसवपूर्व देखभाल, गर्भावस्था के दौरान टीकाकरण, और गांव की गर्भवती महिलाओं को प्रसव के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तक ले जाना शामिल है।
स्वास्थ्य कर्मियों ने कहा कि यदि उन्हें भट्ठा मालिकों से डिलीवरी के बारे में कोई फोन आता है तो वे तुरंत कार्रवाई करेंगे, लेकिन वे स्थानीय निवासियों की तरह सक्रिय रूप से मामलों की जांच नहीं कर सकते।
नौझील में सहायक दाई हेमलता चौहान ने कहा, "हम भट्ठे के मुंशी से गर्भवती महिलाओं को सुरीर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र या नौझील सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र भेजने के लिए कहते हैं।"
सुमा की तरह, ईंट भट्ठों में काम करने वाले कई मज़दूर जिन्हें पीस रेट पर भुगतान मिलता है और जिन पर कर्ज है, उन्हें काम से अनुपस्थित रहने पर अनुचित वेतन कटौती का डर रहता है। इन भट्ठों पर काम करने वाली ज़्यादातर महिलाओं को नहीं पता था कि उनकी आशा कौन है या उनसे कैसे संपर्क किया जाए। उन्होंने भट्ठे पर काम की निगरानी करने वाले मुंशी से पथाई रोकने और भट्ठे के बाहर आने-जाने के बारे में पूछने में भी झिझकते हैं।
उड़ीसा के नुआपाड़ा की आदिवासी भट्ठा मजदूर विद्या देवी तीन महीने की गर्भवती थी, लेकिन उसके पास अभी तक ममता कार्ड नहीं था, जो प्रसवपूर्व देखभाल और आवश्यक टीकों का रिकॉर्ड होता है।
उन्होंने माइग्रेशन स्टोरी को बताया, "मुझे कमज़ोरी महसूस हो रही है, मुझे सिर और पीठ में दर्द है।" उन्हें स्थानीय आशा कार्यकर्ता तक पहुँचने के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, और आशा कार्यकर्ता भी यहाँ नहीं पहुँच सकी हैं इस कारण उनकी देखभाल के लिए उनका नामांकन भी नहीं हो पाया है।
‘20 मिलियन मज़दूर भट्ठों में काम करते हैं’
चीन के बाद भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा ईंट उत्पादक देश है। 2017 में, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पूर्व निदेशक जतिन्दर सिंह काम्योत्रा ने बताया कि भारत में ईंट भट्ठों की संख्या 1,40,000 से ज़्यादा है, जो सालाना 5-10 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है।
शोधकर्ताओं ने अनुमान लगाया है कि औसतन प्रत्येक भट्ठे में 200 मज़दूर रहते हैं, तथा समेकित रूप से भट्ठों में 20 मिलियन गरीब मज़दूर काम करते हैं, जिनमें से लगभग आधे महिलाएँ और बच्चे हैं। इनमें से अधिकांश भट्ठे उत्तर प्रदेश समेत गंगा के मैदानी क्षेत्र में स्थित हैं।
1996 में, सर्वोच्च न्यायालय ने ताजमहल सहित 40 संरक्षित स्मारकों वाले 10,400 वर्ग किलोमीटर के ट्रैपेज़ियम ज़ोन में अनेक प्रदूषणकारी इकाइयों में कोयले के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया था।
वर्ष 2016 में, शहरी वायु प्रदूषण को कम करने के लिए, राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) ने दिल्ली के आसपास राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ईंट भट्ठों के संचालन पर प्रतिबंध लगा दिया था। मजबूरन, भट्ठों को स्थानांतरित करना पड़ा, अब ये भट्ठे दिल्ली से 110 किलोमीटर दूर मथुरा के ग्रामीण बाहरी इलाकों में नौझील और मांट ब्लॉक के एक क्षेत्र में केंद्रित हैं।
श्रम अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि हालांकि पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए और कोयले से ट्रांजिशन सुनिश्चित करने के लिए ईंट भट्ठा क्षेत्र को लगातार ऐसे निर्देश दिए गए हैं, लेकिन मज़दूरों के अधिकारों, विशेष रूप से स्वास्थ्य देखभाल और बढ़ती गर्मी से सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए कोई भी निर्देश नहीं दिए गए हैं।
ऐसा सुधीर कटियार जो न्यूनतम मजदूरी और सामाजिक सुरक्षा की मांग के लिए ईंट मजदूरों को यूनियनों में संगठित कर रहे हैं ने बताया कि भारत में आंतरिक प्रवास के बारे में आम धारणा यह है कि इसमें मुख्य रूप युवा पुरुष होते हैं, जिन्हें विशेष रूप से स्वास्थ्य देखभाल की आवश्यकता नहीं है,
हालांकि, उन्होंने कहा कि ईंट क्षेत्र में, घंटों की संख्या के बजाय उत्पादन की इकाई (प्रति 1,000 ईंटों पर भुगतान) के आधार पर भुगतान की प्रणाली, जो बाल श्रम सहित पारिवारिक श्रम को प्रोत्साहित करती है।
हर साल मानसून के बाद, लाखों महिलाएं - जिनमें गर्भवती महिलाएं, उनके नवजात शिशु और बच्चे शामिल हैं, नौ महीने तक ईंट भट्ठों में काम की तलाश में लंबी दूरी तय करती हैं। यह मौसम आमतौर पर अक्टूबर में शुरू होता है और जून की शुरुआत में समाप्त होता है, मानसून की शुरुआत के साथ ही भट्ठे बंद हो जाते हैं।
महिला मज़दूरों को यह तय करने का अधिकार नहीं है कि उन्हें कब और कहाँ जाना है, अक्सर वे गर्भावस्था के दौरान या बीमारी के बावजूद प्रवास कर रही होती हैं। उन्हें सीधे तौर पर वेतन भी नहीं मिलता है, जो पुरुष मज़दूरों को दिया जाता है।
माइग्रेशन स्टोरी ने नौझील में भट्ठों पर काम करने वाली 50 गर्भवती महिलाओं का साक्षात्कार लिया और पाया कि वे पोषणयुक्त भोजन या देखभाल के लिए बहुत ही सीमित या बिना किसी सुविधा के काम जारी रखती हैं।
बार-बार पलायन के बावजूद, कई लोगों के पास राशन कार्ड नहीं था, जिसके तहत प्रत्येक परिवार के सदस्य को हर महीने पांच किलो मुफ्त अनाज मिलता है या गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों के लिए स्वास्थ्य बीमा नहीं है।
गया की बीस वर्षीय प्रमिला, जो पालखेड़ा गांव के बाहरी इलाके में रहती थी, छह महीने से अधिक की गर्भवती थी। उसे एक महीने से पेट में दर्द हो रहा था, लेकिन काम के दबाव के कारण उसने तीन सप्ताह तक काम करना जारी रखा।
वह मुख्य रूप से चावल या रोटी के साथ आलू खाती हाउ, सब्जियां भी मुश्किल से खा पाती थी, तथा आयरन और फोलिक एसिड की कोई खुराक भी नहीं लेती।
प्रमिला ने कहा, "जब दाल की कीमत 100 रुपये प्रति किलो है और हम इतना पैसा ख़र्च नहीं कर सकते। सप्ताह के अधिकांश दिनों में हम रोटी और आलू खाते हैं, क्योंकि वे 25 रुपये प्रति किलो सस्ते हैं।"
जोखिम में बच्चे
बिहार के ईंट भट्ठों में काम करने वाले प्रवासी बच्चों के स्वास्थ्य पर 2022 के एक शोध में पाया गया कि महिलाओं के कठिन श्रम, अपर्याप्त पोषण और बुनियादी स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंचने के संघर्ष का सीधा प्रभाव भट्ठों में पलने वाले शिशुओं के स्वास्थ्य पर साफ़ दिखाई देता है।
शोध में पाया गया कि प्रवास के दौरान पैदा हुए बच्चे, या जो बच्चे अपने माता-पिता के साथ कई बार प्रवास कर चुके हैं, वे दीर्घकालिक कुपोषण के शिकार हो जाते हैं तथा उनके बौने होने की संभावना अधिक होती है।
9 मई को, 50 से अधिक महिला मज़दूर, संस्था सीईसी द्वारा आयोजित एक स्वास्थ्य शिविर में एक निजी चिकित्सक को देखने के लिए, नौझील में माधव भट्ठे के किनारे एक बबूल के पेड़ की छाया में कतार में खड़ी थीं।
शिविर से मौजूद रिकॉर्ड के अनुसार, 50 महिलाओं में से लगभग सभी का वजन सामान्य से कम था और उनमें से एक का भी वजन 40 किलोग्राम से अधिक नहीं था। अपनी माँ की गोद में लिए गए अधिकांश शिशुओं के बालों का रंग स्पष्ट रूप से हल्का था, जिसे डॉक्टर बच्चों में कुपोषण से जोड़ते हैं।भारत के मथुरा जिले में एक ईंट भट्ठे पर आयोजित चिकित्सा शिविर में एक वर्षीय कार्तिक का वजन मात्र 2.9 किलो था। उसकी माँ हीरा देवी ने कहा कि उन्हें चिंता है कि उसका विकास ठीक से नहीं हो रहा है। अनुमेहा यादव/द माइग्रेशन स्टोरी
हीरा देवी, एक युवा माँ, चिंतित थी कि उसका एक वर्षीय बेटा कार्तिक कमज़ोर है और 12 महीने की उम्र में भी बैठ नहीं पाता। उसने बताया कि जब वह काम करती है तो वह आमतौर पर उसे ज़मीन पर चादर पर लिटा देती है।
तराजू पर हीरा का वजन 37 किलो और कार्तिक का वजन सिर्फ 2 किलो 900 ग्राम था। उसका वजन बहुत कम था। वह चिंतित होकर कहती है, "मुझे लगता है कि उसका वजन बढ़ नहीं रहा है, बल्कि घट रहा है।"
एनजीओ कार्यकर्ता ने हीरा देवी को 40 किलोमीटर दूर मथुरा में कुपोषित शिशुओं के उपचार केंद्र में कार्तिक को भर्ती कराने का सुझाव दिया। लेकिन देवी के पास इसपर कोई सवाल नहीं था। उसे इस बात पर भरोसा नहीं है कि ऐसा केंद्र कैसे मदद कर सकता है, और चूंकि परिवार मजदूरी के बदले 70,000 रुपये का कर्ज चुकाने के लिए काम कर रहा है, इसलिए उसने कहा कि वह एक सप्ताह के लिए भी काम नहीं छोड़ सकती।
10 साल की मनीषा अपने 18 महीने के भाई को दस्त के इलाज के लिए लेकर आई थी। वह तीन दिनों से बीमार था। उसने स्वास्थ्य शिविर के कर्मचारियों को बताया, "वह बीमारी से बेहोश हो रहा है," उसने अपने छोटे भाई की ओर इशारा करते हुए कहा, जिसका चेहरा काली कालिख के धब्बों से ढका हुआ था, जिसे नज़र टीका कहते हैं, जो परिवार द्वारा उसके स्वास्थ्य को बुरी नज़र से बचाने का प्रयास है।
स्वास्थ्य शिविर का समन्वय करने वाले सीईसी के ब्लॉक कर्मचारी ललित सिंह ने बच्चे के माता-पिता से संपर्क करने के लिए उसी भट्ठे के एक कार्यकर्ता की मदद ली। उन्होंने उन्हें शिविर में एक किलोमीटर पैदल चलने के लिए कहा ताकि आने वाले डॉक्टर उनसे बात कर सकें और उनके बेटे के इलाज के लिए व्यक्तिगत रूप से निर्देश दे सकें। लेकिन उन्होंने जल्दी ही कॉल समाप्त कर दी।
कार्यकर्ता ने सिंह से कहा, "माता-पिता बहुत चिंतित हैं, लेकिन वे खुद शिविर में आने के लिए सहमत नहीं हो सकते।" "माँ डॉक्टर से मिलने आना चाहती है। लेकिन, लड़के के पिता नाराज़ हैं और कहते हैं कि वे आज ईंट बनाने के अपने लक्ष्य से कम ईंट बनाने का जोखिम नहीं उठा सकते।"
यह कहानी बुनियाद के सहयोग से प्रस्तावित तीन कहानियों में दूसरी कहानी है। बुनियाद ईंट भट्ठा क्षेत्र में न्यायसंगत तकनीकी परिवर्तन के लिए कार्यरत है, जिसका उद्देश्य उत्तर प्रदेश के ईंट भट्ठा उद्योग में न्यायसंगत परिवर्तन से संबंधित सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय कहानियों को सामने लाना है।