भारत में मृत पैदा हुए बच्चों की संख्या सही तरीके से दर्ज क्यों नहीं की जाती?

विशेषज्ञों के मुताबिक मृत जन्मे बच्चों का कम दस्तावेजीकरण इस बात का संकेत है कि गर्भवती महिलाओं और उनके अजन्मे बच्चों को जरूरी देखभाल नहीं मिल पा रही है।

Update: 2024-09-07 12:35 GMT

नई दिल्ली: "ओपीडी में हमारे पास अक्सर ऐसी बहुत से महिलाएं इलाज के लिए आती हैं, जो 2 से 3 बार मृत बच्चे को जन्म दे चुकी हैं।" अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रसूति और स्त्री रोग विभाग में प्रोफेसर तमकिन खान ने कहा, "इलाज के लिए हमारे पास आई हर तीसरी महिला ने एक बार, दो बार, कभी-कभी तो तीन बार भी मृत शिशु को जन्म दिया होता है। ये महिलाएं अपने दर्द और सदमें से अभी तक उबर नहीं पाई हैं। क्योंकि हमारे समाज में मृत जन्म को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं किया जाता है और न ही उसके बारे में बात की जाती है।" खान स्टिलबर्थ सोसाइटी ऑफ इंडिया की संस्थापक सचिव भी हैं।

भारत में बहुत से लोग मृत शिशु के जन्म को भगवान की मर्जी या भाग्य का खेल मानते हैं। लेकिन यह सही नहीं है। मृत जन्म एक गंभीर समस्या है, जो दर्शाती है कि गर्भवती महिलाओं और उनके बच्चों को जरूरी देखभाल नहीं मिल पा रही है। इस विषय पर काम करने वाली खान जैसी एपिडेमियोलॉजिस्ट और डॉक्टरों का कहना है कि मृत जन्मों के प्रति उदासीनता बड़े पैमाने पर समुदाय स्तर से लेकर स्वास्थ्य कर्मियों और आंकड़े इकट्ठा करने वालों तक फैली हुई है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के दक्षिण-पूर्व एशिया के क्षेत्रीय कार्यालय की पूर्व निदेशक नीना रैना ने कहा, "दुनिया भर में स्वास्थ्य से जुड़े सतत विकास लक्ष्यों में मातृ, नवजात शिशु और बाल मृत्यु दर को कम करना शामिल है। लेकिन मृत शिशु के जन्म को कम करने के लिए कोई खास लक्ष्य नहीं रखा गया है।" उन्होंने मृत जन्म के विषय पर बड़े पैमाने पर काम किया है और दक्षिण-पूर्व एशिया के सदस्य देशों में मृत जन्म की निगरानी शुरू की है। सितंबर 2014 में तैयार की गई भारत की नवजात शिशु कार्य योजना का लक्ष्य 2030 तक मृत जन्म दर को कम करके एक अंक तक लेकर आना है।

यूनिसेफ का अनुमान है कि 2021 में दुनिया भर में लगभग 19 लाख बच्चे मृत पैदा हुए थे। इनमें से लगभग 286,482 (15.2%) बच्चे भारत में पैदा हुए, जो किसी भी देश से सबसे अधिक है – अध्ययनों के अनुसार, यह एक प्रवृत्ति है जो पिछले दो दशकों से लगातार बनी हुई है। यह हर 1000 जन्मों पर 12.2 मृत जन्मों के बराबर है। अगर तुलना करें तो, 2021 में मृत जन्म दर जापान में 1000 जन्मों पर 1.6 से लेकर पश्चिमी अफ्रीका के एक देश गिनी-बिसाऊ में 1000 जन्मों पर 31.2 तक थी। दुनिया भर में मृत बच्चों के जन्म में कमी आ रही है, लेकिन यह कमी पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मौतों में आई कमी के साथ कदम नहीं मिला पा रही है।

स्टिलबर्थ यानी मृत शिशु जन्म क्या है?

WHO के मुताबिक, गर्भावस्था के 28 सप्ताह के बाद, लेकिन जन्म से पहले या जन्म के दौरान मरने वाले बच्चे को मृत शिशु जन्म यानी स्टिलबर्थ के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। वहीं पश्चिमी देशों में, 22 हफ्ते की गर्भावस्था के दौरान हुए मृत शिशु को स्टिलबर्थ में गिना जाता है।

पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया में पब्लिक हेल्थ प्रोफेसर राखी दंडोना ने बताया, "मृत जन्मों के लिए सीमा भ्रूण की जीवित रहने की क्षमता पर निर्भर करती है। भारत और कई अन्य देशों में, 28 हफ्तों से पहले के भ्रूणों को नहीं गिना जाता है क्योंकि उनके जीवित रहने के लिए पर्याप्त चिकित्सा सहायता नहीं है।"

प्रसव के दौरान मृत जन्म वे होते हैं जो प्रसव के शुरू होने के बाद होते हैं, जबकि प्रसव-पूर्व मृत जन्म वे होते हैं जो प्रसव की शुरुआत से पहले हो जाते हैं। वैश्विक स्तर पर, 2021 में अनुमानित 45% सभी मृत जन्म प्रसव के दौरान हुए, जिसका अर्थ है कि भ्रूण की मृत्यु प्रसव के दौरान हुई। प्रसव के दौरान मृत जन्मों को अक्सर प्रसव के दौरान निगरानी और जटिलताओं के मामले में समय पर इलाज करके रोका जा सकता है।

भारत में मृत जन्मों को अलग-अलग तरीकों से दर्ज किया जाता है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के हेल्थ मैनेजमेंट इंफॉर्मेशन सिस्टम (HMIS) एक प्रशासनिक पोर्टल है जो देश भर में 200,000 से अधिक स्वास्थ्य सुविधाओं से डेटा इकट्ठा करता है। ये मुख्य रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में सार्वजनिक सुविधाएं हैं, लेकिन इसमें कुछ निजी और शहरी सुविधाएं भी शामिल हैं।

HMIS 2021-22 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में प्रति 1,000 जन्मों पर 11.79 मृत जन्म दर्ज किए गए।

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मृत शिशु जन्म को भी नागरिक पंजीकरण प्रणाली के तहत दर्ज किया जाना चाहिए।


नागरिक पंजीकरण प्रणाली के तहत मृत जन्म को दर्ज करने के फॉर्म यहां से प्राप्त करें

मृत शिशु जन्म को दर्ज करने में समस्या मृत्यु के समय से ही शुरू हो जाती है। रैना कहती हैं, "जब मृत जन्म होता है, तो पहला सवाल यह है कि इसकी रिपोर्ट कौन देगा? क्या यह बाल रोग विशेषज्ञ की जिम्मेदारी है या प्रसूति एवं स्त्री रोग विशेषज्ञ की? हम किसको रिपोर्ट करने के लिए प्रशिक्षित करें? क्योंकि यह मृत जन्म है, नवजात मृत्यु नहीं, तो बाल रोग विशेषज्ञ रिपोर्ट नहीं करते हैं। बाल रोग विशेषज्ञों और प्रसूति एवं स्त्री रोग विशेषज्ञों के बीच समन्वय और सहयोग होना चाहिए।"

सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (SRS) जैसे सर्वेक्षणों में भी मृत जन्म दर्ज किए जाते हैं। 2020 में, SRS के अनुसार मृत जन्म दर प्रति 1,000 में तीन थी, जो संयुक्त राष्ट्र के अनुमान से बहुत कम है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) ने गर्भपात और गर्भपात के साथ मृत जन्म को एक श्रेणी में गिना, जिससे गणना करना मुश्किल हो जाता है।

2023 के एक रिसर्च पेपर में डंडोना और उनकी टीम ने SRS और NFHS डेटा में मृत शिशु जन्म की तुलना की। NFHS डेटा पर सांख्यिकीय तरीकों का उपयोग करते हुए, टीम ने 2016-2021 की अध्ययन अवधि में मृत जन्म की दर 11.2 होने का अनुमान लगाया था। यह अनुमान संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के करीब है।

डंडोना ने कहा, "हमने पाया कि नवजात मृत्यु दर NFHS के आंकड़ों से मेल खाती है, लेकिन मृत शिशु जन्म से नहीं। यह दर्शाता है कि मृत शिशु जन्म को दर्ज करने के तरीके में कोई समस्या है।" उन्होंने आगे कहा, "सर्वेक्षण यह दर्शाता है कि हम समाज में मृत जन्मों को कैसे देखा जाता है। कोई भी मृत जन्मों के बारे में बात नहीं करना चाहता है। हम सोचते हैं, 'इसे रिकॉर्ड करने से क्या फायदा, क्या यह वाकई में मायने रखता है?' सर्वे करने वाले भी उसी समाज से आते हैं। यह मानसिकता SRS और NFSH में दिखाई देती है।"

2016 में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने मृत शिशु जन्मों की पहचान करने और उन्हें रिकॉर्ड करने के लिए एक मजबूत निगरानी प्रणाली स्थापित करने के उद्देश्य से 19 राज्यों के प्रमुख मेडिकल कॉलेजों और अस्पतालों में मृत शिशु जन्मों को रिकॉर्ड करने के लिए एक प्रोटोकॉल तैयार किया था। इसके बाद कई शोधपत्र प्रकाशित हुए, जिनमें नियमित HMIS द्वारा दर्ज की गई घटनाओं से परे मृत शिशु जन्म की घटनाओं का रिकॉर्ड करने और मृत जन्म में योगदान देने वाले कारणों और संबंधित जोखिम कारकों की पहचान करने का प्रयास किया गया। मृत शिशु जन्म के कारणों में गर्भावस्था के दौरान हाई ब्लड प्रेशर, डायबिटीज, प्लेसेंटल अब्रप्शन से लेकर लंबे समय तक प्रसव चलना शामिल हैं।

इंडियास्पेंड ने स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के साथ बाल स्वास्थ्य और राष्ट्रीय बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम की प्रभारी और डिप्टी कमिशनर शोभना गुप्ता को कुछ सवाल भेजे हैं। उनकी तरफ से प्रतिक्रिया मिलने पर लेख को अपडेट कर दिया जाएगा।

देखभाल की कमी

मृत शिशु जन्म में मृत्यु के कारण का पता लगाने के लिए, डाक्टर मैटरनल हिस्ट्री को देखने के साथ-साथ मृत भ्रूण और प्लेसेंटा का शव परीक्षण और हिस्टोपैथोलॉजी (ऊतक की सूक्ष्म जांच) भी करते हैं। डॉक्टरों का कहना है कि अक्सर डायबिटीज, ब्लड प्रेशर आदि जैसी महत्वपूर्ण जांच मैटरनल हिस्ट्री से गायब रहती हैं।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के दिशानिर्देशों में यह सुनिश्चित करने की बात कही गई है कि गर्भवती महिलाओं का पंजीकरण हो और उनकी कम से कम चार प्रसव पूर्व देखभाल (ANC) विजिट हों (WHO आठ चेक-अप की सिफारिश करता है)। लेकिन सबसे नए NFHS 2019-21 के अनुसार, केवल 59% गर्भवती महिलाओं ने अपनी गर्भावस्था के दौरान कम से कम चार ANC विजिट किए। यह अनुपात गोवा में 93% से लेकर बिहार में 25% तक है।

विशेषज्ञों का कहना है कि यही कारण है कि गर्भावस्था में जटिलताओं का समय पर पता नहीं चल पाता है।

यहां तक ​​कि प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों जैसे सरकारी संस्थानों में भी अक्सर प्रसवपूर्व जांच के लिए आई महिलाओं के सामान्य टेस्ट नहीं किए जाते हैं।

तमकीन खान कहती है, "अक्सर, गर्भवती महिलाओं का ब्लड प्रेशर, शुगर और एनीमिया का स्तर भी रिकॉर्ड नहीं किया जाता है। उन्हें सिर्फ आयरन और फोलिक एसिड दिया जाता है, बिना यह बताए कि ये सप्लीमेंट कितने महत्वपूर्ण हैं। कभी-कभी महिलाएं कम गुणवत्ता वाले अल्ट्रासाउंड रिपोर्ट लेकर आती हैं जो बच्चे के किसी भी तरह के विकास संबंधी विसंगतियों का पता लगाने में असमर्थ होती हैं।"

कम या कोई रिकॉर्ड नहीं

अगर किसी महिला ने पहले कभी किसी मृत शिशु को जन्म दिया है, तो इसकी संभावना बेहद कम है कि उसका कोई रिकॉर्ड उनके पास होगा। भ्रूण चिकित्सा विशेषज्ञ के रूप में चिन्मयी राठा का अक्सर ऐसे माता-पिता से सामना होता रहता है जो अपने मृत शिशु के जन्म के दर्द से गुजर चुके होते हैं।

सिकंदराबाद में रहने वाली राठा ने कहा, "अक्सर उनके पास कोई रिकॉर्ड नहीं होता है, क्योंकि उन्होंने सभी रिपोर्ट जला दी होती हैं। वे मृत जन्म की कोई याद नहीं रखना चाहतीं। कभी-कभी वे मृत जन्म होने के बाद रिकॉर्ड में अपना नाम भी बदल देती हैं।" राठा फेडरेशन ऑफ ऑब्स्टेट्रिक एंड गायनेकोलॉजिकल सोसाइटीज ऑफ इंडिया के साथ पेरिनेटोलॉजी समिति की अध्यक्ष हैं।

डंडोना ने बिहार में एक अध्ययन किया, जिसमें उन्होंने 2014-15 में 1,000 से अधिक मृत शिशु जन्म पर वर्बल ऑटोप्सी किए। इस अध्ययन से पता चला कि गर्भवती महिलाओं की स्वास्थ्य स्थितियों और डायग्नोस्टिक टेस्ट, जैसे हाई ब्लड प्रेशर, डायबिटीज, सिफलिस और एचआईवी की रिपोर्टिंग बहुत खराब थी। अध्ययन में उन महिलाओं की आपबीती को शामिल किया गया, जिन्होंने डॉक्टर से मिलने से पहले बहुत लंबा इंतज़ार किया, डॉक्टरों या नर्सों में जरूरी स्किल की कमी या अन्य कारणों के अलावा समय पर सिजेरियन सेक्शन नहीं किया गया था। इस अध्ययन में ऐसे मामले भी दर्ज किए गए, जहां डॉक्टरों ने मृत शिशु को जन्म कराने से मना कर दिया और इसके बजाय मां को दूसरे अस्पताल में रेफर कर दिया।

अधिकांश अस्पतालों में शोक संबंधी परामर्श की व्यवस्था नहीं है। खान ने याद करते हुए कहा, "मैंने एक बार लेबर रूम के एक कोने में मृत शिशु को जन्म देते देखा।" वह आगे कहती हैं, "यह एक व्यस्त लेबर रूम था और पिता को बार-बार वार्ड बॉय से बच्चे को उसे देने के लिए कहते सुना, ताकि वह अंतिम संस्कार कर सके। बच्चे को ढका भी नहीं गया था। वार्ड बॉय उस पिता से बहुत ही अपमानजनक तरीके से बात कर रहा था, उसने कहा, अगर तुम्हारे बच्चे बार-बार मरते हैं तो वह यह काम करता ही क्यों है।"

राठा के मुताबिक मृत शिशु की "आदर्श" जांच में प्लेसेंटा हिस्टोपैथोलॉजी और भ्रूण का शव परीक्षण किया जाता है, ताकि इंट्रायूटरिन के संक्रमण का पता लगाया जा सके। ये सुविधाएं ज्यादातर तृतीयक अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों में उपलब्ध हैं। निजी अस्पतालों में इन जांचों के लिए पैसे देने पड़ते हैं और अक्सर अपने बच्चे के मर जाने के दुख में भी माता-पिता इससे इनकार कर देते हैं।

राठा ने बताया, ये जांच खुद मरीजों के लिए काफी मददगार होती है। उनकी एक मरीज थी, जिसकी समय से पहले डिलीवरी हुई और जन्म के तुरंत बाद ही बच्चे की मौत हो गई। इस घटना के बाद उस महिला के फिर से दो बार मृत बच्चे पैदा हुए। राठा ने परिवार को भ्रूण का पोस्टमार्टम करवाने के लिए राजी किया, जिससे पता चला कि भ्रूण की आंत में समस्या थी और गर्भनाल में भी अल्सर दिखाई दे रहा था। इसकी वजह से गर्भ में बच्चे की मृत्यु हो रही थी।

राठा ने कहा, "चौथी गर्भावस्था में, हमने गर्भनाल में अल्सर विकसित होने से पहले, लगभग 32 सप्ताह में उसका समय से पहले ही जन्म करा दिया। बच्चे की आंतों की समस्या के लिए उसका ऑपरेशन किया गया। बच्चा बच गया और अब लगभग 8-9 साल का है। उसकी मां मुझे आज भी उसके स्थिति की अपडेट के वीडियो भेजती रहती है।"

मृत शिशु जन्म को रोकना

हालांकि कुछ मृत शिशु जन्म को रोका नहीं जा सकता है, लेकिन ज्यादातर मामलों में ऐसा नहीं है। नीना रैना कहती हैं, " अब जब अस्पतालों में डिलीवरी बढ़ रही है (NFHS 2019-21 के अनुसार देश में यह आकड़ा 89% है), तो मुझे समझ नहीं आता कि हमारे यहां इतने ज्यादा मृत शिशु जन्म के मामले क्यों होते हैं।"

इसके लिए जरूरी है कि अस्पतालों में आपातकालीन सी-सेक्शन करने की सुविधा हो। साथ ही बच्चे के जन्म के बाद जटिलताओं के लिए नवजात देखभाल की सुविधा भी हो। इनके अलावा और भी सुविधाएं जरूरी हैं। कई बार तो पर्याप्त स्वास्थ्य कर्मचारी ही नहीं होते हैं।

"कुछ जिलों में, हमने देखा कि सुबह 9 बजे से शाम 5 बजे के बीच परिणाम बेहतर होते हैं।" रैना कहती हैं, "ऐसा इसलिए है क्योंकि वहां सिर्फ एक ही स्त्री रोग विशेषज्ञ है जो सुबह ड्यूटी पर होती है। और शाम को प्रसव कराने वाली नर्सों को अच्छी तरह से ट्रेंड नहीं किया गया था।"

जन्म के दौरान होने वाले मृत शिशु जन्म को सबसे ज्यादा रोका जा सकता है और उन कुछ घंटों के दौरान क्या होता है, यह समझने के लिए उनके आंकड़ों की जरूरत होती है।

रैना कहती हैं, " गर्भवती महिलाओं की देखभाल के स्तर में सुधार की बहुत जरूरत है, खासकर बच्चे के जन्म के दौरान। स्किल और जरूरी उपकरणों का होना काफी नहीं है जब तक उनका इस्तेमाल अच्छी देखभाल के लिए नहीं किया जाए।"

लेकिन ये सारे कदम तभी उठाए जा सकते हैं जब स्वास्थ्य कर्मचारियों और समाज दोनों के सोचने का तरीका बदले। मृत शिशु जन्मों का रिकॉर्ड नहीं रखने का मतलब है कि गर्भवती महिला को अच्छी देखभाल नहीं मिल रही है।

डंडोना सवाल करती है, "अगर आप मृत शिशु जन्मों को रिकॉर्ड ही नहीं करते, तो आप उनसे कैसे बचाव कर सकते हैं? आप सोचते हैं कि यह तो भगवान की मर्जी है। हमने मृत शिशु जन्म पर अभी तक बहुत कम ध्यान दिया है क्योंकि हम यह मानते ही नहीं है कि बच्चे को जिंदा पैदा होना चाहिए था।"

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