झाड़-फूंक और झोलाछाप इलाज के चंगुल में फंसी झारखंड की बड़ी आबादी
झारखंड में ग्रामीण आबादी के हिसाब से स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या बहुत कम है। इसका नुकसान सीधे तौर पर लोगों को होता है और फायदा झाड़ फूंक करने वाले और झोलाछाप इलाज करने वाले उठाते हैं।
रांची (झारखंड): सुबह के करीब सात बज रहे थे। हम झारखंड की राजधानी रांची से करीब 30 किलोमीटर दूर कंदरी गांव में थे। इतनी सुबह गांव के एक घर के बाहर दूर-दराज से आए कई लोग जुटे थे। यह इतवारी (47) का घर था, जिन्हें लोग इतवारी भगताइन पुकारते हैं। झारखंड में भगत, भगताइन और ओझा उन्हें कहते हैं जो झाड़-फूंक का काम करते हैं।
यहां हमारी मुलाकात बिरसा उरांव (62) से हुई, जो कि पांच किलोमीटर दूर पुंगी गांव से आए थे। बिरसा ने बताया कि बांस काटते वक्त उनकी हथेली में फांस लगने से सूजन और दर्द था। इससे राहत पाने के लिए वो इतवारी के घर आए थे, ताकि इतवारी इसे झाड़ दें और हथेली की सूजन और दर्द ठीक हो जाए।
कुछ देर बैठने के बाद इतवारी ने बिरसा को एक मुट्ठी चावल फूंक मारकर दिया। बिरसा को पूरा भरोसा था कि यह चावल खाने से उनकी हथेली जल्द ठीक हो जाएगी। बिरसा के घर से सिर्फ दो किलोमीटर दूर उप स्वास्थ्य केंद्र मौजूद है, लेकिन बिरसा को दवाओं से ज्यादा इतवारी के फूंक मारे हुए चावल पर भरोसा है।
झारखंड, बिहार और अन्य राज्यों में बिरसा जैसे तमाम लोग हैं जो छोटी-मोटी बीमारियों के लिए दवाओं से ज्यादा झाड़-फूंक पर विश्वास करते हैं। इसके पीछे एक कारण यह भी है कि ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था उतनी बेहतर नहीं जितनी होनी चाहिए। ऐसे में लोग झाड़-फूंक करने वाले और झोलाछाप इलाज करने वालों के चंगुल में फंसे रहते हैं। इसके साथ ही अंधविश्वास और साक्षरता की कमी दूसरे बड़े कारण हैं।
स्वास्थ्य केंद्रों की कमी
झारखंड की आबादी करीब 3.3 करोड़ है, इस आबादी का 75.95% हिस्सा ग्रामीण इलाकों में रहता है। ग्रामीण इलाकों में रहने वाली आबादी की स्वास्थ्य जरूरतों की पूर्ति के लिए राज्य में 171 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी), 291 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) और 3,848 उप स्वास्थ्य केंद्र मौजूद हैं, ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी 2020-21 की रिपोर्ट के मुताबिक।
इन आंकड़ों से जाहिर है कि ग्रामीण आबादी के हिसाब से स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या बहुत कम है। इसका नुकसान सीधे तौर पर लोगों को होता है और फायदा झाड़ फूंक करने वाले और झोलाछाप इलाज करने वाले उठाते हैं।
उदाहरण के तौर पर रांची के आदिवासी बहुल क्षेत्र मांडर ब्लॉक में आबादी के हिसाब से स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या देखी जा सकती है। मांडर ब्लॉक के तहत ही कंदरी गांव आता है, जहां इतवारी भगताइन झाड़-फूंक से लोगों का इलाज करती हैं।
मांडर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के चिकित्सा प्रभारी डॉ. किशोर कुल्लू बताते हैं, "मांडर की आबादी करीब 1.5 लाख है। हमारी सीएचसी से संबंध रखने वाले कुल 14 उप स्वास्थ्य केंद्र हैं और एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र है।"
भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की गाइडलाइन के मुताबिक, ग्रामीण क्षेत्र के आदिवासी इलाकों में 3 हजार की आबादी पर एक उप स्वास्थ्य केंद्र, 20 हजार की आबादी पर एक पीएचसी और 80 हजार की आबादी पर एक सीएचसी होनी चाहिए।
मांडर ब्लॉक में इनमें से कोई भी मानक पूरा होते नजर नहीं आता। आबादी के मानक के हिसाब से मांडर में करीब 50 उप स्वास्थ्य केंद्र होने चाहिए, लेकिन सिर्फ 14 स्वास्थ्य केंद्र हैं। इसी तरह करीब 8 पीएचसी होनी चाहिए, लेकिन सिर्फ एक पीएचसी है। वहीं, सीएचसी भी 80 हजार की जगह, 1.5 लाख लोगों के इलाज का भार झेल रहा है।
'स्वास्थ्य केंद्र से ज्यादा झाड़ फूंक करने वाले'
स्वास्थ्य केंद्रों की इस कमी का असर जमीन पर देखने को मिलता है। झाड़ फूंक करने वालों की संख्या स्वास्थ्य केंद्रों से भी ज्यादा नजर आती है। स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारी भी इस बात को मानते हैं। हालांकि राज्य में कितने झाड़-फूंक करने वाले हैं, इसका कोई आधिकारिक डेटा उपलब्ध नहीं है।
मांडर ब्लॉक के करकरा गांव में उप स्वास्थ्य केंद्र मौजूद है। यहां की एएनएम सुशीला कश्यप (47) बताती हैं, "यहां लोगों का झाड़-फूंक पर बहुत विश्वास है। अगर किसी बीमारी की दवा ले रहे हैं तो भी झाड़-फूंक कराते ही हैं। यही कारण है कि यहां स्वास्थ्य केंद्र से ज्यादा झाड़-फूंक करने वाले हैं, हर एक-दो गांव पर कोई मौजूद है।"
सुशीला के अलावा हमने और भी कई एएनएम, आशा और आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों से बात की। सभी इस बात को मानती हैं कि इलाके में झाड़-फूंक करने वाले अधिक हैं। इनमें से कई तो इनके तरीकों को सही भी ठहराती हैं। एक आशा कार्यकत्री ने अपने साथ हुई एक कहानी बताई, जिसमें उसकी तबीयत ज्यादा खराब होने पर एक अदृश्य शक्ति ने उसकी जान बचाई। इन बातों से जाहिर हुआ कि स्वास्थ्य विभाग से जुड़े कई लोग भी ओझा, भगत के प्रभाव में हैं।
झारखंड में झाड़-फूंक करने वालों ने किस कदर अपनी जड़ें जमा ली हैं, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अगस्त 2019 में झारखंड के सबसे बड़े अस्पताल 'राजेंद्र इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल सइंसेज' (रिम्स) में एक भगत यहां भर्ती बच्चों को देख गया। बाबा ने परिजनों को सलाह दी कि बच्चों को लेकर उसकी कुटिया पर आएं। ऐसा न करने पर बच्चों की जान जाने की 'चेतावनी' भी दी।
यह भगत और ओझा कई तरह के दावे करते हैं। इसमें अपनी शक्तियों से बड़े से बड़े रोग का इलाज करने का दावा भी शामिल है। ऐसा ही दावा इतवारी भगताइन भी करती हैं। इतवारी ने इंडियास्पेंड को बताया, "मेरे पास हर दिन 10 से 15 लोग आते हैं। ये वो लोग होते हैं जिन्हें किसी तरह की तकलीफ है। कोई खाना पीना नहीं खाता, किसी को सिर दर्द, बुखार, पैर दर्द, बदन दर्द जैसी तकलीफ होती है। मानसिक संतुलन खोए लोग भी आते हैं। मेरे पास आने से लोग ठीक हो रहे हैं, यह जानकर और लोग आते हैं।"
इतवारी का दावा है कि अगर किसी के शरीर में थोड़ी भी जान होगी तो वो उसे बचा लेंगी। कोरोना के वक्त उन्होंने कई लोगों को झाड़ा जिससे उन्हें फायदा हुआ। ऐसे ही और कई दावे उनकी ओर से किए गए। इतवारी ने बताया कि वो इस इलाके की प्रमुख हैं और उनके नीचे कई भगत काम करते हैं, जिन्हें वो अपना 'चेला' कहती हैं। साल में एक बार वो पूजा रखती हैं, जिसमें आस पास के तमाम भगत जुटते हैं। उनके खाने पीने में करीब डेढ़ से दो कुंटल चावल खप जाता है। इतवारी की इस बात से यह अंदाजा होता है कि इलाके में ओझाओं की संख्या बहुत ज्यादा है।
साक्षरता की कमी, महंगे इलाज का डर और पारंपरिक तरीकों पर भरोसा
ओझाओं की संख्या ज्यादा होना यह भी बताता है कि लोगों को इन पर भरोसा है। इस भरोसे के पीछे कई कारण हैं, जिसके बारे में मांडर ब्लॉक के रहने वाले समाजसेवी बाबू पाठक (45) बताते हैं, "यहां पारंपरिक तौर पर झाड़-फूंक होते आया है और पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ रहा है। स्वास्थ्य सुविधाओं का बेहतर न होना और झोलाछाप के इलाज से नुकसान होने की वजह से लोगों के बीच इलाज को लेकर डर है। अस्पताल के खर्च का डर भी एक बड़ी वजह है जिसके कारण लोग वहां जाने से बचते हैं। और इन तमाम वजहों की जड़ साक्षरता की कमी है।"
साक्षरता के मामले में झारखंड काफी पिछड़ा हुआ है। साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, झारखंड की साक्षरता दर 66.41% है, जो कि 35 राज्यों की सूची में 32वें स्थान पर है। वहीं, भारत की साक्षरता दर 74.04% है। झारखंड में पुरुष साक्षरता दर 76.84% और महिला साक्षरता दर 55.42% है। जनगणना के अनुसार सात वर्ष या उससे अधिक का काई भी व्यक्ति जो किसी भी भाषा को समझकर लिख या पढ़ सकता है उसे साक्षर माना जाता है।
मांडर ब्लॉक के करकरा गांव में हमारी मुलाकात मंगरी उरांव (40) से हुई। मंगरी के पैर में चोट लगी थी, जिससे पैर सूज गया था और चलने में तकलीफ हो रही थी। गांव में ही उप स्वास्थ्य केंद्र होने के बावजूद भी मंगरी ने बाजार से 100 रुपए की तेल की शीशी मंगाई और उससे आठ दिन से मालिश कर रही थीं। न ही एक्स-रे कराया और न ही उप स्वास्थ्य केंद्र में दिखाने गईं। मंगरी को डर था कि स्वास्थ्य केंद्र जाने पर खर्चा बढ़ जाएगा।
मंगरी कहती हैं, "हम गरीब लोग हैं और डॉक्टर बहुत ज्यादा पैसा लेते हैं, हम इलाज कराएं या बच्चों की पढ़ाई देखें। बाजार से शीशी मंगाई है, इससे मालिश हो रही है। अगर आराम मिला तो ठीक, नहीं तो अस्पताल जाएंगे।"
मंगरी के अलावा करकरा गांव में और भी ऐसे लोग हैं जो इलाज कराने की जगह घरेलू नुस्खों से खुद का इलाज कर रहे हैं। गांव के ही रहने वाले गुजवा उरांव (46) के कमर के पास की हड्डी खिसक गई है। इस साल मार्च से उनसे चला नहीं जा रहा, बैसाखी के सहारे किसी तरह चल रहे हैं।
गुजवा बताते हैं, "इलाज बहुत महंगा है, मैं उतना खर्च नहीं उठा सकता। इसलिए जड़ी बूटी से खुद का इलाज कर रहा हूं। पहले तो पैर में बड़ी सूजन थी, अब सूजन कम हो गई है।" गुजवा हड़जोड़ नाम की एक जड़ी बूटी को कमर में बांधते हैं। उन्हें उम्मीद है इस तरीके से वो ठीक हो जाएंगे और पहले की तरह चलने फिरने लगेंगे।
स्वास्थ्य केंद्रों पर स्टाफ की कमी
मंगरी और गुजवा की बातों से यह समझ आता है कि दोनों को ही महंगे इलाज का डर है। इसलिए इलाज के लिए ऐसे उपायों का सहारा ले रहे हैं, जिससे कम खर्च में वो ठीक हो जाएं। अगर सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्थाओं का दायरा मानक के अनुरूप होता तो शायद यह डर कम हो पाता। फिलहाल ग्रामीण स्तर पर ऐसा होते नजर नहीं आता। स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को बेहतर करना तो दूर की बात है, इन्हें सुचारू रूप से चलाने का काम भी मुश्किल से हो रहा है।
मांडर ब्लॉक के इकलौते पीएचसी को देखें तो यह उप स्वास्थ्य केंद्र से भी बदहाल स्थिति में है। पीएचसी की सिर्फ दो कमरे की इमारत जर्जर है। यह पीएचसी एक डॉक्टर और दो एएनएम के भरोसे चल रही है। यहां न कोई फार्मासिस्ट है, न लैब टेक्निशियन और न ही कोई नर्स स्टाफ। यहां की मेडिकल ऑफिसर डॉ. ज्योत्सना बताती हैं, "स्टाफ की बहुत कमी है। हम जैसे तैसे काम चला रहे हैं। इमरजेंसी केस यहां नहीं देखे जाते, बुखार और छोटी मोटी बीमारियों को देखते हैं। इसके अलावा सब सीएचसी पर रेफर कर देते हैं।"
ऐसा नहीं कि स्टाफ की कमी सिर्फ इस पीएचसी तक सीमित है, कमोबेश हर जगह यही हाल है। ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी 2020-21 की रिपोर्ट के मुताबिक, झारखंड में ग्रामीण क्षेत्र के उप स्वास्थ्य केंद्र और पीएचसी पर एएनएम के 8,278 पद स्वीकृत हैं, जिसमें से 3,093 पद खाली हैं। इसी तरह ग्रामीण क्षेत्र की 291 पीएचसी पर 291 एलोपैथिक डॉक्टर के पद स्वीकृत हैं, जिसमें से 13 पद खाली हैं। सीएचसी पर स्पेशलिस्ट डॉक्टर के 684 पद स्वीकृत हैं, जिसमें से 498 खाली हें। सीएचसी और पीएचसी पर फार्मासिस्ट के 462 पद स्वीकृत हैं, जिसमें से 237 पद खाली हैं। लैब टेक्निशियन के 582 पद स्वीकृत हैं, जिसमें से 211 खाली हैं।
ग्रामीण क्षेत्र में स्टाफ की समस्या सिर्फ झारखंड की नहीं, यह समस्या पूरे देश की है। 2021 तक ग्रामीण क्षेत्र के उप स्वास्थ्य केंद्र और पीएचसी पर एएनएम के स्वीकृत पद के 21.1% पद खाली हैं। इसी तरह पीएचसी पर डॉक्टर के स्वीकृत पद के 21.8% पद खाली हैं। वहीं, सीएचसी पर सर्जन के स्वीकृत पद के 72.3% पद, फिजिशियन के 69.2% पद और बाल रोग विशेषज्ञ के 67.1% पद खाली हैं।
इन आंकडों से जाहिर है कि ग्रामीण क्षेत्र के स्वास्थ्य केंद्र पर स्टाफ की बहुत ज्यादा कमी है। इसका असर स्वास्थ्य सेवाओं पर भी पड़ता है। स्टाफ और अस्पताल की जितनी कमी होगी, लोगों से स्वास्थ्य सेवाएं उतनी दूर होती जाएंगी। ऐसी स्थिति में लोग दूसरे विकल्प तलाशेंगे, जिसकी पूर्ति झोलाछाप और झाड़-फूंक करने वाले करेंगे।
आदिवासी इलाकों में स्वास्थ्य सुविधााओं को लेकर कई स्टडी की गई है। इनमें प्रमुख तौर पर यह बात सामने आई कि स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव, जागरूकता की कमी और महंगे इलाज के डर से लोग झाड़ फूंक के चक्कर में पड़ते हैं। साल 2014 की स्टडी "Health, Tradition and Awareness: A Perspective on the Tribal Health Care Practices" में भी इसी बात पर जोर दिया गया है।
इस स्टडी को लखनऊ के बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय के प्राफेसर मनीष कुमार वर्मा ने किया है। प्रो. वर्मा इंडियास्पेंड से कहते हैं, "आदिवासी लोग जंगल पर निर्भर करते हैं, लेकिन वक्त के साथ यह जुड़ाव कम हुआ है। पहले यह लोग जंगल से जड़ी बूटी लाकर इलाज करते थे, लेकिन अब जंगल को लेकर कई ऐसे नियम हैं जिसकी वजह से जड़ी बूटी का साधन भी नहीं रहा। इसकी वजह से पारंपरिक इलाज के तरीके भी धीरे-धीरे खत्म हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में आदिवासी लोग इलाज के लिए आधुनिकता और परंपरा के बीच कहीं फंसे हुए हैं। उन्हें न आधुनिक चिकित्सा सुविधाएं मिल पा रही हैं और न ही पारंपरिक उपचार बेहतर रह गया है।"
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