प्रवासी पक्षियों के शिकार के लिए कुख्यात ओडिशा का मंगलाजोड़ी कैसे कर पाया उनके संरक्षण की शुरुआत

2002 में मंगलाजोड़ी के 12 खूंखार शिकारियों को घुटनों तक पानी में खड़ा कर स्थानीय देवी माँ कालीजाई (गांव की कुल देवी) के नाम की शपथ दिलवा कर शिकार छोड़ने का वचन लिया गया और पक्षी संरक्षण का संकल्प दिलवाया गया।

By :  Vishal
Update: 2021-03-24 07:51 GMT

फोटो: तज़ीन कुरैशी

मंगलाजोड़ी, ओडिशा: पिछले साल प्रवासी पक्षियों और जंगली जानवरों की प्रजातियों के संरक्षण पर आयोजित 13वें सम्मेलन (सीओपी-13) में रखी गयी एक रिपोर्ट में शिकार और अवैध शिकार को विश्व भर में प्रवासी पक्षियों के लिए बड़ा खतरा बताया गया। यह आह्वान किया गया कि इसे रोकने के लिए ठोस प्रयास करने होंगे। सम्मेलन में व्यक्त की गयी चिंता पर टिप्पणी करते हुए 47-वर्षीय शीबा बेहरा कहते हैं, "सौभाग्य से हमें समय रहते समझ आ गयी।"

बेहरा उन शिकारियों में से हैं जो पहले प्रवासी पक्षियों के शिकार से ही अपना जीवन यापन करते थे लेकिन साल 2002 में उन्होंने शिकार न करने की शपथ लेने के साथ ही प्रवासी पक्षियों का संरक्षण भी शुरू किया।

बेहरा 2002 के समय को याद करते हुए कहते हैं, "तब मैंने और 11 अन्य लोगों ने साइबेरिया से हर साल सर्दियों में उड़ कर ओडिशा की चिल्का झील में प्रवास के लिए आने वाले प्रवासी पक्षियों के शिकार को रोकने की कसम खाई थी। जैसे ही शिकारी रक्षक बने, चिल्का झील के उत्तरी किनारे पर स्थित दलदली बस्ती मंगलाजोड़ी की किस्मत बदलना शुरू हो गयी।आज यह प्रयास भारत में सामुदायिक भागीदारी से पक्षी संरक्षण का बड़ा उदाहरण बन रहा है।"

स्थानीय अनुमान के मुताबिक 2002 में चिल्का झील के किनारे पर बसे मंगलाजोड़ी में 5,000 प्रवासी पक्षी आते थे, अब इनकी संख्या इस गांव में दो लाख तक पहुंच गयी है। किसानों और मछुआरों के इस छोटे से गांव में इको टूरिज्म जीवन यापन का नया जरिया बन कर उभरा है। टांगी खंड के गांव मंगलाजोड़ी से शुरू हुआ यह प्रयास खंड के अन्य गांव जैसे सोरोना, जतीपटना और सुंदरपुर तक फ़ैल गया। यही नहीं, अब यह प्रयास 47 किलोमीटर दूर स्थित पुरी जिले में भी लोगों को प्रेरित कर रहा है।

शिकारी से संरक्षक

मंगलाजोड़ी ने यह सफलता अचानक नहीं पायी और न ही यह अकेले 12 लोगों का काम था।

साल 1997 का था, जब पूर्व वन्य प्राणी रक्षक नंद किशोर भूजबल ने तय किया कि मंगलाजोड़ी में पक्षियों के अंधाधुंध शिकार पर रोक लगानी है। 76-वर्षीय भूजबल याद करते हुए बताते हैं, "1960 से 70 के बीच में यहां बड़ी संख्या में प्रवासी पक्षी आते थे। जब उनके झुंड उडते थे तो आसमान भी काला प्रतीत होता था।"

पूर्व वन्यजीव वार्डन नंद किशोर भुजबल, जिन्होंने पक्षियों की रक्षा के लिए ग्रामीणों को प्रेरित किया (फोटो: तज़ीन कुरैशी)

परंतु यही वह समय भी था जब यहां शिकारी गतिविधियां भी चरम पर थीं। आलम ये था कि बच्चे तक पक्षियों को मार गिराते थे।"

शीबा याद करते हुए बताते हैं, "हम कश्ती से झील के बीच जाते, एक या दो पक्षी मारते, उसका मांस भूनते और स्थानीय शराब के साथ खाते थे। इस क्षेत्र में जंगल के अधिकारी और कुछ पुलिसकर्मी भी होते थे पर हम उन्हें धमका देते थे।"

शिकारियों का गुस्सा समझ में आता था। क्योंकि तब उन्हें एक पक्षी के रूपए 15 या इससे भी ज्यादा मिल जाते थे। इतने पैसे पूरा दिन धान के खेत में मेहनत करने के बाद भी नहीं मिलते थे। पर शिकार से होने वाली कमाई स्थायी नहीं है, शीबा ये बात समझने लगे।

शीबा, भुजबल और ग्रामीण बुजुर्गों की उस बैठक को याद करते हुए बताते हैं: "आदरणीय भुजबल ने बताया कि शिकार से वह कुछ सालों तक पैसा कमा सकते हैं, लेकिन यदि वह इस इलाके को संरक्षित कर दें और पक्षियों के लिए सुरक्षित व आरामदायक कर दें तो हम हर साल पैसे कमा सकते हैं|" यह बात सभी की समझ में आयी।

2002 में भुजबल ने मंगलाजोड़ी के 12 खूंखार शिकारियों को घुटनों तक पानी में खड़ा कर स्थानीय देवी माँ कालीजाई (गांव की कुल देवी) के नाम की शपथ दिलवा कर शिकार छोड़ने का वचन लिया। तब भुजबल ने उन्हें अपने एनजीओ श्री श्री महावीर पक्षी सुरक्षा समिति में शामिल करा कर पक्षी संरक्षण का संकल्प दिलवाया।

शिकार छोड़ अब टूरिस्ट गाइड का काम करने वाले जय बेहरा ने बताया, "हमने अपने बुजुर्गों से ऐसी कहानियां सुन रखी थी, जिसने मां देवी की शपथ तोड़ी उसे मां के प्रकोप का सामना करना पड़ेगा। इसलिए हम वचन में बंध गए थे। "

अगली चुनौती यह थी कि कैसे इन 12 पुरुषों को पक्षियों की पहचान करने और उनके नाम सीखने के लिए प्रशिक्षित किया जाए। भुजबल की संस्था और चिल्का विकास प्राधिकरण (सीडीए) ने इसके लिए उन्हें अभ्यास कराना शुरू किया। शीबा बताते हैं, "जब हम पक्षियों के नाम का अंग्रेजी में उच्चारण करते थे, तो हमारी जीभ मुड़ जाती थी। पक्षियों के नाम याद करने में छह माह लग गए थे।" दूसरी ओर, पक्षियों को शिकारियों से बचाने के लिए नियमित गश्त का काम भी वह कर रहे थे।

इस नए काम से उन्हें तुरंत ही पैसा मिलना शुरू नहीं हुआ था। जय ने बताया, "आदरणीय भुजबल उन्हें कभी कभी चावल व दाल दे देते थे।"

एक दशक बाद, पक्षियों ने बड़ी संख्या में आना शुरू कर दिया, और जल्दी ही, पर्यटक भी उनके पीछे पीछे आने लगे। ग्रामीणों के लिए रोजगार के नए अवसरों की भरमार हो गयी। अब वह टूरिस्ट गाइड के तौर पर काम कर सकते हैं। कश्ती बनाने और चलाने का काम भी चल निकला। यहां तक की गर्मियों में जब पर्यटन सीजन खत्म हो जाता है, तब चिल्का झील में जैव विविधता पर शोध करने के लिए आने वाले शोधकर्ताओं के सहायता के तौर पर भी काम मिल रहा है। आज 40 ग्रामीण स्थानीय पर्यटन में रोजगार पा रहे हैं। वह एक कश्ती से एक चक्कर लगाने के रुपए 1,200 लेते हैं।

मंगलाजोडी में पर्यटक गाइड (फोटो: तज़ीन कुरैशी)

पक्षियों के अलावा और भी कई फायदे

बदलाव की सामूहिक सोच, जिसे आगे बढ़ाते हुए ओडिशा सरकार ने चिल्का झील में झींगे की खेती को अवैध घोषित कर दिया, इससे चिल्का के जलीय क्षेत्र में लंबे समय के लिए बदलाव आया। एशिया की सबसे बड़ी खारे पानी की झील अब रिकार्ड संख्या में प्रवासी पक्षियों को अपनी ओर आकर्षित कर रही है। सितंबर से प्रवासी पक्षी आने शुरू हो जाते हैं, इस साल जनवरी में पक्षियों की जो गणना की गयी, इसके मुताबिक 11.42 लाख प्रवासी पक्षी आए हैं।

101रिपोर्टर्स  से बातचीत में चिल्का विकास प्राधिकरण (सीडीए) के कार्यकारी निर्देशक आईएफएस सुशांत नंदा ने बताया कि वास्तव में जब पक्षियों को देखने की बात आती है तो चिल्का झील राज्य के जिले, अंगुल और भुवनेश्वर पर भारी पड़ती है। यही स्थिति पानी के अंदर उगने वाली वनस्पति जैसे की समुद्री घास और फूलों के मामले में हैं। नंदा के अनुसार, "समुद्री घास जलवायु परिवर्तन से पड़ने वाले विपरीत प्रभाव को कम करने में बड़ी भूमिका निभाता है और विश्व में समुद्री घास का क्षेत्रफल कम हो रहा है, वहीं चिल्का झील में यह बढ़ रहा है।" सीडीए के सर्वे में पाया गया कि समुद्री घास का एरिया 2019 से 2% तक बढ़ा है।

जब पूरे राज्य में नीतियां (संरक्षण के बारे में) एक जैसी हैं, फिर चिल्का झील का केस अलग क्यों है? यहां इतनी संख्या में विभिन्न प्रजातियों के पक्षी क्यों आते हैं? नंदा ने बताया, "इसके लिए बड़े प्रयास किए गए, जिसमें स्थानीय स्तर के प्रयास भी हैं। यही वजह है, यहां जैसी जैव विविधता दूसरी जगह नहीं है।"

नयी चुनौतियों पर काम ज़ारी है

पर्यटकों व शोधकर्ताओं के लिए अलग जोन बनाने, उनकी कड़ी चौकसी, और पक्षियों के रहने की मुख्य जगह पर तेज गति से चलने वाली कश्ती और मछली पकड़ने पर रोक के बावजूद, चुनौतियाँ बरकरार हैं। अभी भी शिकार की कुछ घटनाएं सामने आती हैं।

पर्यटकों की भीड़ पर्यावरण के लिए जोखिम है। हालांकि समिति इससे निपटने की योजना पर काम कर रही है। भुजबल की संस्था के सचिव भाग्यधर बेहरा के अनुसार, "हम मंगलाजोड़ी को दो खंडों में विभाजित करना चाह रहे हैं। एक भाग पर्यटकों के लिए रहे और दूसरा शोधकर्ताओं, छायाकारों और पक्षी प्रेमियों के लिए हो।"

लाख से अधिक प्रवासी पक्षी मंगलाजोडी में आते हैं (फोटो: तज़ीन)

जलवायु परिवर्तन की वजह से तट पारिस्थितिकी तंत्र पर भी खतरा महसूस किया जा रहा है।

जय ने बताया, "एक दशक पहले यहां सितंबर में ही ज्यादातर पक्षी आ जाते थे। लेकिन अब नवंबर में आते हैं।" उन्हें यह चिंता थोड़ी कम है कि इससे उनके रोजगार पर क्या असर पड़ेगा? ज्यादा चिंतित वह इस बात को लेकर हैं कि यह उनके जीवन को कैसे प्रभावित करेगा, जिसे उन्होंने पक्षियों के लिए समर्पित कर दिया है।

शीबा आगे कहते हैं, "अगर हमने अवैध शिकार जारी रखा होता तो ऑस्ट्रेलियाई स्टिल्ट्स जैसे पक्षियों की दुर्लभ प्रजातियों को खो देते। हमारे बच्चे और पोते इन दुर्लभ किस्म के रंग बिरंगे प्रवासी पक्षियों की अठखेलियां देख न पाते जो मंगलाजोड़ी की पहचान है"।

जनभावनाओं की राज्य सरकार ने भी कद्र की। सामुदायिक प्रयास को मजबूती देते हुए ओडिशा पर्यटन विभाग ने 2018 में चिल्का पक्षी महोत्सव शुरू किया, जो कि अब पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है।

(यह लेख 101रिपोर्टर्स की ओर से सामुदायिक प्रयास से होने वाले सकारात्मक बदलाव की कड़ी का हिस्सा है। इस कड़ी में हम यह पता लगाएंगे कि कैसे समाज के लोग किस तरह से अपने स्थानीय संसाधनों का विवेकपूर्ण इस्तेमाल करते हुए अपने लिए रोजगार के अवसर पैदा कर रहे हैं और समाज में एक बड़ा बदलाव भी लेकर आ रहे हैं।)

हम फीडबैक का स्वागत करते हैं। कृपया respond@indiaspend.org पर लिखें। हम भाषा और व्याकरण के लिए प्रतिक्रियाओं को संपादित करने का अधिकार सुरक्षित रखते हैं।

Similar News