जलवायु हॉटस्पॉट : समुद्री अतिक्रमण और तटों का कटाव गंजम के गांवों को गायब कर रहा है
मौसम संबंधी आंकड़े बताते हैं कि गंजम में तापमान साल-दर-साल बढ़ रहा है। बार-बार आने वाले चक्रवात, बदले में ज्वारीय वृद्धि का कारण बनते हैं। इसके साथ ही अनिश्चित वर्षा से सूखे की स्थिति पैदा होती है। इस प्रकार गंजम क्षेत्र सूखे और बाढ़ दोनों से त्रस्त रहता है।
गंजम, ओडिशा: ई. कमामा अपने पति और दो बच्चों के साथ सो रही थीं, जब अक्टूबर 2019 की एक रात लगभग 2.30 बजे एक तेज लहर उनके घर के सामने की दीवार और दरवाजे को बहा ले गई।
कमामा और उनके पति ने करीब सात साल पहले ओडिशा के गंजम जिले के चिकिती ब्लॉक के राम्यापट्टनम गांव में एक छोटा सा घर बनाया था। उन्होंने इसके लिए बड़ी मेहनत से 5 लाख रुपये बचाए थे। कममा याद करते हुए कहती हैं, "जब हमने तेज आवाज सुनी तो हम जाग गए, हम अपने सामने समुद्र देख सकते थे। कोई दीवार नहीं बचा था। हमें पता था कि हमारा घर बह गया है… ”
कमामा के गांव में 410 घर हैं। उनका घर उन 46 घरों में शामिल है, जो पिछले तीन सालों में समुद्र की तेज लहरों का शिकार हुई हैं।
मानसून और ठंड से पूर्व के मौसम में इस क्षेत्र में अब उच्च ज्वार की घटनाएं लगातार हो रही हैं। समुद्र तट के 500 मीटर के दायरे में जहां कभी कंक्रीट के मकान होते थे, वहां अब उजड़ चुके घरों का मलबा है।
बंगाल की खाड़ी के तट पर स्थित गंजम का तटीय जिला चक्रवात, सूखा, बाढ़ और कटाव जैसे चरम मौसम की घटनाओं से ग्रस्त है। हाल के वर्षों में इस क्षेत्र में कटाव की आवृत्ति में भी वृद्धि हुई है और यह स्पष्ट रूप से बढ़ते तापमान के कारण है।
1990, 1995, 2003, 2006, 2007, 2008, 2009, 2012, 2013, 2014 और 2018 के सालों में इस क्षेत्र में बाढ़ आई है। उल्लेखनीय है कि बाढ़ की आवृत्ति 2000 के दशक से लगातार बढ़ रही है।
2009 से 2022 तक के आंकड़े दिखाते हैं कि यहां मानसून के महीनों जुलाई से सितंबर में अनियमित बारिश होती है। 2017 में जहां मानसून के दौरान 225.96 मिमी बारिश हुई थी, वहीं 2019 में यह दोगुनी होकर लगभग 458.59 मिमी हो गई। गंजम में 2015 और 2020 में बारिश के दिनों की संख्या 55 थी, वहीं 2012 में यह 78 दिन थी।
अनियमित बारिश से गंजम के स्थानीय लोगों की जीवन और आजीविका अनिश्चित हो गई है
भारतीय मौसम विभाग के आंकड़े क्या कहते हैं?
भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) के गोपालपुर मौसम केंद्र से प्राप्त आंकड़ों से पता चलता है कि ना सिर्फ गर्मी के मौसम में क्षेत्र के तापमान में वृद्धि हुई है, बल्कि वार्षिक तापमान में भी लगातार उतार-चढ़ाव हो रहा है। हालांकि औसतन यह बढ़ा ही है। पहचान न बताने की शर्त पर आईएमडी के एक अधिकारी ने बताया कि ये आंकड़े गंजम मौसम स्टेशन के समान ही हैं।
भुवनेश्वर के एक आईएमडी अधिकारी उमाशंकर दास के अनुसार यह पैटर्न पूरे ओडिशा का ही है। उन्होंने कहा, “गंजम के साथ-साथ पूरे ओडिशा में ही औसत तापमान में वृद्धि दर्ज हुई है। 2000 के दशक तक औसत तापमान संतुलित था लेकिन उसके बाद से इसमें लगातार वृद्धि की प्रवृत्ति रही है।
बढ़ते तापमान के कारण ही चक्रवाती मौसम का पैटर्न बनता है, जो बदले में ज्वारीय वृद्धि का कारण बनता है। इससे अनिश्चित वर्षा और सूखे की स्थिति भी पैदा होती है। गंजम के लगभग सभी 22 ब्लॉक 1996, 2002 और 2011 में सूखे से प्रभावित थे, जबकि 2009 में चार और 2015 में 16 ब्लॉक प्रभावित हुए थे। इस तरह से गंजम बाढ़ और सूखा दोनों से प्रभावित रहा है।
‘अत्यंत गंभीर चक्रवाती तूफान’ फैलिन ने 12 अक्टूबर, 2013 को गंजम जिले के गोपालपुर के पास से ओडिशा के तट पर दस्तक दी थी। यह तूफान सामान्य से लगभग 3.5 मीटर ऊपर था और इससे गंजम, पुरी, खोरधा और चिल्का जैसे जिलों में बाढ़ आ गई। अकेले गंजम जिले के तटीय क्षेत्रों के लगभग 90,000 घर आंशिक या पूर्ण रूप से क्षतिग्रस्त हो गए।
आईएमडी भुवनेश्वर के पूर्व निदेशक शरत चरण साहू ने कहा, "हाल के दिनों में गंजम तट पर कई कम दबाव के क्षेत्र और लैंडफॉल साइट देखे गए हैं। ऐसे मामलों में भूस्खलन तो नहीं होता है, लेकिन डिप्रेशन समुद्र तट को छूकर अन्य भूमि क्षेत्रों की ओर मुड़ जाता है। जिले की स्थलाकृति इसे और संवेदनशील बनाती है।”
गंजम के लिए हाल ही में जारी जिला आपदा प्रबंधन योजना में कहा गया है कि अनियमित वर्षा के कारण जिले के सभी ब्लॉक सूखे की चपेट में हैं।
जलवायु हॉटस्पॉट पर जारी सीरीज़ में इंडियास्पेंड जलवायु परिवर्तन और देश भर में सबसे कमजोर लोगों पर इसके प्रभावों का दस्तावेजीकरण कर रहा है। इस कहानी में हम बढ़ते तापमान, बार-बार आने वाले चक्रवातों और गंजाम के मछुआरों के तटीय कटाव के प्रभाव को देखते हैं। इस सीरीज का पहला भाग आप यहां पढ़ सकते हैं।
इंडियास्पेंड की सीरीज़ ‘जलवायु हॉटस्पॉट’ के तहत हम जलवायु परिवर्तन और देश भर के हिस्सों पर उससे होने वाले प्रभावों को रिपोर्ट्स की शक्ल में दर्ज कर रहे हैं। इस रिपोर्ट में हम तापमान वृद्धि, चक्रवात का बार-बार आना और उससे मछुआरों पर होने वाले प्रभाव को बताने की कोशिश कर रहे हैं। इस सीरीज़ की पहले रिपोर्ट का आप यहां पढ़ सकते हैं।
ओडिशा के तट कटाव की चपेट में
ओडिशा के तटीय इलाकों में पिछले कुछ सालों में लगभग 28% कटाव दर्ज हुआ है और यह 50% से अधिक अभिवृद्धि दर वाला एकमात्र राज्य है। कटाव से तात्पर्य समुद्र के बहाव क्षेत्र में जमीन का आना है, जबकि अभिवृद्धि एक विपरीत घटना है, जहां समुद्र तट के किनारे रेत जमा हो जाती है।
ओडिशा के 450 किमी समुद्री तट के साथ किए गए एक विश्लेषण से पता चलता है कि लगभग 144 किमी तटीय क्षेत्र का कटाव हुआ, जबकि तट के 99 किमी क्षेत्र में वृद्धि दर्ज की गई है। लगभग 208 किमी शेष तटरेखा अपेक्षाकृत स्थिर है।
यह विश्लेषण आगे बताता है कि ओडिशा के दक्षिणी तटों में 57 किमी कटाव और 30 किमी अभिवृद्धि देखी गई। 2000-2014 की अवधि के दौरान गंजम के गोपालपुर तटीय क्षेत्र के कटाव में महत्वपूर्ण वृद्धि देखी गई।
इंटीग्रेटेड कोस्टल जोन मैनेजमेंट (आईसीजेडएम) की एक रिपोर्ट के मुताबिक समुद्री रेत उत्तर की ओर लगातार बढ़ रही है। यह तटीय क्षेत्रों को बाढ़, चक्रवात और आगे के कटाव के लिए संवेदनशील बनाता है।
बदलती जलवायु, ज्वार की लहरें दक्षिण गंजम में बार-बार प्रवेश करती हैं
कटाव का प्रभाव सबसे अधिक गंजम ब्लॉक के पोडमपेटा गांव और लगभग 45 किलोमीटर दूर चिकिती ब्लॉक के राम्यापट्टनम गांव में दिखाई देता है। जहां पोडमपेटा में कटाव समुद्र के करीब मानव निर्मित हस्तक्षेप और तटीय विकास परियोजनाओं के कारण है, वहीं राम्यापट्टनम में यह कटाव प्राकृतिक है। फैलिन चक्रवात के बाद यहां स्थितियां और भी बदतर हो गई हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि इस तरह के कटाव प्राकृतिक कारकों जैसे लहरों, हवाओं, ज्वार, तूफान, समुद्र के स्तर में वृद्धि आदि से प्रभावित होते हैं।
आईएमडी भुवनेश्वर के पूर्व निदेशक साहू ने बताया, "कम अवसाद के अलावा ग्लोबल वार्मिंग के कारण भी समुद्र के स्तर में वृद्धि हुई है। इससे समुद्र की लहरों की ऊंचाई में भी वृद्धि हुई है।”
बरहामपुर विश्वविद्यालय के समुद्री विज्ञान विभाग के समुद्र विज्ञानी प्रताप मोहंती दो दशकों के अधिक समय से ओडिशा के समुद्री तटों पर कटाव का अध्ययन कर रहे हैं। उनका कहना है कि पूर्वी तट का अधिकतम कटाव प्राकृतिक है।
वह कहते हैं, “तट के किनारे का कटाव लंबी तट धाराओं या तटरेखा के समानांतर धारा द्वारा निर्धारित होता है। यह लहरों के वेग से प्रभावित होकर समुद्र से तलछट को आगे-पीछे करता है।
वह बताते हैं कि राम्यापट्टनम में बहुदा नदी एक प्राकृतिक बाधा के रूप में कार्य करती है। ICZM तटरेखा प्रबंधन योजना में राम्यापट्टनम खंड को उच्च कटाव क्षेत्र के रूप में वर्गीकृत किया गया है। जिले के छतरपुर प्रखंड के आर्यपल्ली गांव में भी कम तीव्रता का कटाव दर्ज किया गया है।
मोहंती बताते हैं, "जब मानसून के मौसम में नदी से समुद्र की ओर जल का प्रवाह होता है, तो तलछट के संचय के कारण रेत के टीलों का विकास होता है। ऐसे में नदी का मुहाना अपनी स्थिति बदल लेता है। अब जिस भी स्थान पर नदी का मुहाना खुलेगा, उसके उत्तर में कटाव भी होगा। राम्यापट्टनम बहुदा नदी के उत्तर में है, जिससे वहां पर गंभीर कटाव हुआ है।"
उन्होंने आगे कहा, "चक्रवाती तूफान से होने वाले कटाव में एक या दो साल से अधिक का समय लगता है, लेकिन ज्वारीय लहरों के कारण जो कटाव होता है, वह नियमित अंतराल पर होता रहता है।”
बड़े पैमाने पर होने वाले कटाव से मछुआरा समुदाय के घरों और आजीविका का नुकसान होता है
राम्यापट्टनम में कुछ साल पहले तक 410 परिवार समुद्री मछली पकड़ने के व्यवसाय पर निर्भर थे। तट के पास रहने वाले समुदायों का कहना है कि लगातार चक्रवाती दबाव और ज्वारीय उछाल के कारण मछलियों की संख्या में कमी आई है और इसके परिणामस्वरूप मौसमी पलायन हुआ है।
राम्यापट्टनम से लगभग 1.5 किमी दूर 300 घरों वाली एक पुनर्वास कॉलोनी बनाई गई है, लेकिन केवल आठ ही परिवार वहां रह रहे हैं। अन्य लोगों में से कई आजीविका की तलाश में पलायन कर चुके हैं, जबकि कुछ जोखिमों के बावजूद राम्यापट्टनम में रहना पसंद किया है।
इसका एक प्रमुख कारण योजनाओं का ख़राब क्रियान्वयन है। मछुआरा समुदाय वाजिब कारणों से समुद्र तट के करीब रहते हैं। समुद्र तट से दूर रहने पर मछुआरों के लिए भोर से पहले समुद्र में जाना मुश्किल हो जाता है, जैसा कि उनका सामान्य अभ्यास है। इसके अलावा परिवार की महिलाएं भी इसमें सहयोग करती हैं, जो अपने पुरुषों द्वारा पकड़कर लाई गई मछलियों को बाजार ले जाती हैं और उन्हें बेचती हैं। इसलिए मछुआरा समुदाय के लिए समुद्र के करीब रहना जरूरी है।
एल. स्यंदरमा (35) का घर फैलिन तूफान में बह गया था। वह अब अपने घर के खंडहर से बमुश्किल 200 मीटर की दूरी पर किराए के एक कमरे में रहती हैं। उनके पति ने पांच साल पहले परिवार को छोड़ दिया था। अब स्यंदरमा को ही अपने बच्चों को पालना है। उन्होंने कहा, "मेरे पति समुद्र से मछली पकड़ते थे और मैं उन्हें बाजार में बेचती थी। लेकिन उनके जाने के बाद मेरे पास परिवार का भरण-पोषण करने के लिए मछली बेचने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।"
अधिकांश सरकारी दस्तावेज घर के पुरुष सदस्य के नाम पर होते हैं। अपने पति की अनुपस्थिति में स्यंदरमा को नहीं पता है कि उनके परिवार को पुनर्वास कॉलोनी में घर आवंटित किया गया है या नहीं। लेकिन वह कहती हैं, “भले ही हमें पुनर्वास कॉलोनी में एक घर मिले, लेकिन हम वहां नहीं जाएंगे। यहां से मैं, मछली पकड़ने और उन्हें बेचने के लिए आसानी से जा सकती हूं। जबकि पुनर्वास कॉलोनी एक किलोमीटर से ज्यादा दूर है और वहां से हर दिन पैदल चलना संभव नहीं है।"
स्यंदरमा और उनके जैसे अन्य लोगों की समस्या इस तथ्य पर आधारित है कि मछुआरों के लिए कोई तय समय सारिणी नहीं होती है। सवेरे ही नावें समुद्र में निकल जाती हैं और उनकी वापसी का समय इस बात पर निर्भर करता है कि दिन कितना सफल रहा है। यदि जाल जल्दी भर जाते हैं, तो वे जल्दी लौट आते हैं और यदि ऐसा नहीं होता है, तो वे देर से लौटते हैं। इसलिए स्यंदरमा जैसी महिलाओं के लिए समुद्र तट से निकटता महत्वपूर्ण है ताकि वे लौटती नावों को देख सकें और मछलियों की बोली लगाने के लिए किनारे पर दौड़ सकें।
वे लोग जो पुनर्वास कालोनी में स्थानांतरित हो गए हैं, उनके लिए जीवन पूरी तरह से एक नया मोड़ ले चुका है। एल. कोरलामा (52) एक साल पहले कॉलोनी में शिफ्ट हुई थीं। उनके लिए किराए के घर का भुगतान करना असंभव था। उनका घर उन पहले घरों में से था जो फैलिन के तुरंत बाद बह गए थे।
शुरू में वे किराए के मकान में रहते थे, लेकिन 2020 में पति की मृत्यु के बाद कोरलामा अपने बेटे और बहू के साथ कॉलोनी में चली गईं। आजीविका के लिए मछली बेचने वाली कोरलामा ने तट पर जाना बंद कर दिया है। उनके बेटे और बहू काम की तलाश में दूसरे शहरों में चले जाते हैं। वह कहती हैं, "मैं मछली खरीदने के लिए समुद्र तक चलने में असमर्थ हूं। मेरा बेटा अब मेरा भरण-पोषण करता है।"
पुनर्वास कॉलोनी में बिजली की सुविधा तो है लेकिन पीने के पानी के लिए लोग आस-पास के गांवों पर निर्भर हैं। इस बीच इस क्षेत्र के लोगों को लुप्त होती मछली की प्रजातियों के कारण नई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
ए. अर्थरिनाथ का घर राम्यापट्टनम में समुद्र तट के सबसे करीब है। वह कहते हैं कि मछली पकड़ने के माध्यम से होने वाली वार्षिक आय में लगातार गिरावट आ रही है। उन्होंने बताया, "इस साल अक्टूबर में समुद्र का किनारा मेरे दरवाजे तक आ गया था। जब समुद्र बेहद करीब या सबसे दूर होता है तो बहुत कम मछली पकड़ हो पाती है। हम लहरों को देखकर अनुमान लगा सकते हैं कि मछली पकड़ने के लिए दिन कैसा होगा। कई महीने ऐसे होते हैं जब मछलियां बिल्कुल भी नहीं मिलती हैं। सितंबर के अंत तक मछली पकड़ने में भारी कमी आ जाती है और हमारी आय कम होने लगती है। इस वजह से मैं अब गंजम शहर में राजमिस्त्री का काम करने के लिए मजबूर हैं।” अथर्रिनाथ मछली पकड़ने के व्यवसाय में सालाना 60,000-80,000 रुपये कमा लेते थे।
एक अन्य मछुआरे एल. लोकनाथ ने कहा, "मछलियों की ऐसी कुछ ही प्रजातियां हैं, जो हमें अच्छे दाम देती हैं, जैसे इलिश (हिल्सा) या पोम्फ्रेट।”
संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि बदलती जलवायु और जलीय प्रणालियों के कारण जलीय प्रजातियों और मछलियों की उत्पादकता पहले से कम हो रही है।
इस बीच जिला प्रशासन ग्रामीणों को सुरक्षित स्थानों पर जाने के लिए मनाने का प्रयास कर रहा है। जिला ग्रामीण विकास एजेंसी (पीडी - डीआरडीए), गंजाम की परियोजना निदेशक कीर्ति वासन ने कहा, "हम आगे समुद्र के किसी भी प्रभाव को कम करने का उपाय कर रहे हैं। ग्रामीणों की आजीविका की निर्भरता को देखते हुए कॉलोनियों के संबंध में हम उनकी अनिच्छा को बखूबी समझते हैं, लेकिन हम अभी भी उन्हें सुरक्षित स्थानों पर स्थानांतरित करने के लिए दबाव बना रहे हैं।"
राज्य सरकार ने इसका उपाय करने के लिए विशेषज्ञ एजेंसियों को नियुक्त किया है। पुनर्वास कॉलोनियां स्थापित करने के अलावा इन गांवों में समुद्री जल के प्रवेश को रोकने के लिए सुरक्षा दीवार बनाने के प्रस्ताव को भी मंजूरी दी गई थी।
जल संसाधन और जल निकासी विभाग, गंजम के अधीक्षण अभियंता जयदीप पांडा ने बताया, “2019 में यह प्रस्ताव बनाया गया था, लेकिन हाल ही में वैज्ञानिकों की एक टीम के दौरे के बाद हमने उसकी निविदा प्रक्रिया शुरू की है। इस पर काम जल्द ही शुरू किया जाएगा।”
नवंबर 2019 में जलवायु परिवर्तन प्रकोष्ठ, वन और पर्यावरण विभाग के निदेशक के. मुरुगेसन ने एक पत्र जारी कर राम्यापट्टनम में गांव की तरफ कंक्रीट की एक दीवार बनाने की प्रस्तावित परियोजना को मंजूरी दी, ताकि गांव और उसके बुनियादी ढांचे की रक्षा की जा सके।
उन्होंने बताया, “प्रस्तावित सुरक्षा उपाय में एक 1.3 किमी लंबी रिटेनिंग दीवार और 190 मीटर की लंबी ग्रोइन्स शामिल है। राम्यापट्टनम गांव की सीमा से 25 मीटर की दूरी पर दीवार बनेगी। रिटेनिंग वॉल की ऊंचाई 2.8 मीटर होगी, जिसकी आधार चौड़ाई 2.8 मीटर और दीवार की चौड़ाई 0.6 मीटर होगी।”
अगस्त 2022 में तटीय सुरक्षा के लिए, राज्य सरकार और पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के राष्ट्रीय महासागर प्रौद्योगिकी संस्थान के बीच एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर हुआ। इसके बाद वैज्ञानिकों की एक टीम ने हाल ही में गांव का दौरा कर साइट व स्थलाकृतिक सर्वेक्षण के लिए सुझाव दिया।
साइट का दौरा और हालिया उपग्रह से प्राप्त तस्वीर गांव के दक्षिणी किनारे पर 10 मीटर और उत्तरी तरफ 60 मीटर की समुद्री तटरेखा का क्षरण दिखाती है। परिणामी रिपोर्ट ने सिफारिश की, "डब्ल्यूआरडी समुद्री दीवार का निर्माण या समुद्री दीवार संरेखण को संशोधित भी कर सकता है।”
हालांकि यह एक अल्पकालिक सुधार है। समुद्री दीवार और ग्रोइन्स, समस्या को कम करने के बजाय और बढ़ा देते हैं, क्योंकि कोई भी निर्माण जो समुद्र के करीब या समुद्र में होता है, वह समुद्री धाराओं को बाधित करता है। आमतौर पर समुद्र से सटा हुआ या उसमें प्रक्षेपित कोई भी समुद्री दीवार या अन्य निर्माण कार्य एक तरफ अभिवृद्धि और दूसरी तरफ कटाव में वृद्धि करता है।
यही वजह है कि विशेषज्ञ स्थिति से निपटने के लिए थोड़े नरम उपायों पर जोर दे रहे हैं। ICZM द्वारा सुझाए गए कुछ उपायों में कृत्रिम रेत की आपूर्ति, प्रभावित तट पर वृक्षारोपण आदि शामिल है।
मोहंती ने कहा, "चक्रवातों के दौरान समय-समय पर होने वाले क्षरण से दीवार जैसी कठोर संरचनाओं को भी नुकसान पहुंचने का खतरा होगा। कठोर संरचनाएं खतरनाक हो सकती हैं और ये अंतिम उपाय नहीं होना चाहिए। हमें हमेशा प्रभावित स्थान पर रेत की कृत्रिम रूप से भराई और या वृक्षारोपण जैसे नरम उपायों के लिए जाना चाहिए।”
(ऐश्वर्या मोहंती ओडिशा स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। वह लैंगिक, ग्रामीण मुद्दों, सामाजिक न्याय और पर्यावरण पर लिखती हैं। इससे पहले उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस के साथ काम किया है।)