उत्तर प्रदेश चुनाव: राजनीति में बढ़ती भागीदारी के बावजूद पार्टियों पर क्यों भरोसा नहीं कर पा रहीं महिलाएं?

महिला मतदाताओं को लुभाने के लिए किये गए वादों का पूरा ना होना; सीटों पर टिकट ना मिलना मुख्य कारण

Update: 2022-02-10 06:01 GMT

इमेज क्रेडिट: Maneesh Agnihotri/ShutterStock

गोरखपुर: "मुझे आत्मनिर्भर बनना है, इसलिए रोजगार का मुद्दा मेरे लिये सबसे महत्वपूर्ण है। मंदिर-मस्जिद, जाति-धर्म मेरे लिए प्राथमिक मुद्दे नहीं हैं। मंदिर निर्माण में चाहे अरबों खर्च हो जाएं, कितने युवाओं को रोजगार मिलेगा?" गोरखपुर में किराये के मकान में रहकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाली सुषमा मिश्रा विधानसभा चुनाव के मद्देनजर अपने मुद्दों पर बात रखते हुए कहती हैं।

गोरखपुर के हरिओम नगर चौराहे पर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कराने वाली कई कोचिंग संस्थाएं हैं जहां आसपास के कई शहरों से युवक, युवतियां अपने भविष्य को संवारने के सपने को लेकर आते हैं। अपनी कक्षाएँ पूरी कर बाहर निकल रही छात्राओं के बीच से निकलते हुए प्रियंका यादव इंडियास्पेंड को बताती हैं, "प्रतियोगी परीक्षाओं की कोचिंग तक भी आर्थिक रूप से बेहतर लड़कियां ही पहुंच पा रही हैं। गाँवों में सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ी लड़कियों के पास यह सुविधाएं नहीं हैं। सरकार को गाँव की लड़कियों के लिये भी योजनाएं तैयार करनी चाहिये।"

उत्तर प्रदेश में सात चरणों के चुनाव में प्रदेश में 6.98 करोड़ महिला मतदाता है। इंडियास्पेंड ने प्रदेश की महिलाओं से बात की और पाया कि महिला सुरक्षा इस बार उनके लिए एक मुद्दा है, लेकिन साथ ही इस बार की महिला मतदाता रोजगार को लेकर भी काफी सजग हैं। उनका मानना है कि आर्थिक सक्षमता उन्हें समाज में समानता के अधिकार को प्राप्त करने में सहायक होगी।

गोरखपुर की रहने वाली 29 वर्षीय दीक्षा शर्मा कहती हैं, "अपने मुद्दों को लेकर लड़कियां जागरूक और मुखर भी हो रही हैं, इसलिए उनकी राजनीतिक सक्रियता बढ़ी है। किसी भी राजनीतिक पार्टी पर हमें भरोसा नहीं। कोई भी पार्टी दूध की धुली नहीं है, चुनाव से पहले वादा करती हैं और जीतने के बाद भूल जाती हैं। हमें कोरे वादे नहीं रोजगार सृजन और पारदर्शी तरीके से नियुक्तियों का ठोस कार्यक्रम चाहिये।"

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में इस बार सभी राजनीतिक पार्टियों में महिलाओं का वोट हासिल करने के लिये तीखी प्रतिस्पर्धा दिख रही है। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), प्रदेश में प्रमुख विपक्ष माने जाने वाली समजवादी पार्टी (सपा), कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सभी के नेता ख़ुद को महिला हितैषी साबित करने में लगे हुए हैं।

प्रदेश की 403 सीटों में से 40% पर महिला प्रत्याशियों को टिकट देने की घोषणा को लागू करने का संदेश देकर कांग्रेस पार्टी महिलाओं के मुद्दे पर दूसरी पार्टियों से आगे नज़र आ रही है। प्रियंका गांधी वाड्रा के नेतृत्व में कांग्रेस इस विधानसभा चुनाव में दूसरी ऐसी प्रमुख पार्टी है जिसका नेतृत्व किसी महिला के पास है। बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती लंबे समय से पार्टी का नेतृत्व कर रही हैं।

राजनीतिक पार्टियों द्वारा महिला मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए तमाम तरह के वादे करना और टिकट वितरित करने का कारण समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक मानसिकता के ख़िलाफ़ संघर्ष करने की दिशा में पहल करना या महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देना नहीं है। महिलाओं की राजनीति में बढ़ती सक्रियता ने पार्टियों को ऐसा करने के लिये मजबूर कर दिया है।

पिछले चुनावों के विश्लेषण से पता चलता है कि महिला मतदाता मतदान करने में पुरुषों से आगे निकल रही हैं और उनकी यह सक्रियता चुनावी नतीजों को गहराई से प्रभावित कर रही है। इसलिये सोची-समझी रणनीति के तहत महिलाओं को केन्द्रित कर जीत की रणनीति तैयार की जा रही है।

2007 के बाद जिसने जीता महिलाओं का विश्वास, उसे मिली सत्ता

उत्तर प्रदेश में 2007 के विधानसभा चुनाव में पुरुषों ने 49.35% और महिलाओं ने 41.92% मतदान किया था। करीब 5 करोड़ महिला मतदाताओं का 32% वोट बसपा ने प्राप्त कर 206 सीटों के साथ बहुमत से सरकार बनाई थी। अगले चुनाव में महिलाओं के मतदान प्रतिशत में 18% की वृद्धि हुई।

साल 2012 के विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में 7 करोड़ पुरुष और 5.7 करोड़ महिला सहित 12.74 करोड़ मतदाता थे। मतदान में 58.68% पुरुष और 60.28% महिलाओं ने हिस्सा लिया। करीब 31% महिला मतदाताओं का वोट पाकर समाजवादी पार्टी ने 224 सीटें जीतीं और बहुमत के साथ सत्ता हासिल की।

साल 2017 के चुनाव में 14.16 करोड़ मतदाता थे, जिसमें पुरुषों की संख्या 7.7 करोड़ और महिलाओं की संख्या 6.46 करोड़ थी। मतदान 59.15% पुरुष और 63.31% महिलाओं ने किया। भाजपा ने अपने लोक कल्याण संकल्प पत्र में महिलाओं से जुड़े कई लुभावने वादे किये थे। करीब 41% महिलाओं ने भाजपा को वोट दिया और भाजपा को इस चुनाव में 312 और सहयोगी दलों को 13 सहित एनडीए गठबंधन को 325 सीटें मिली थीं।

महिलाओं के बढ़ते मतदान प्रतिशत पर गौर करें तो 2007 से 2012 के बीच 18%, 2012 से 2017 के बीच 3% की वृद्धि हुई है। इस बार महिला मतदाताओं की संख्या करीब 7 करोड़ है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि इस बार भी महिलाओं के मतदान प्रतिशत में इज़ाफ़ा हो सकता है।

लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति और महिलाओं के मुद्दों पर मुखर, प्रोफेसर रूपरेखा वर्मा कहती हैं, "यह सही है कि महिलाएं राजनीतिक रूप से जागरूक हो रही हैं। मतदान प्रतिशत बढ़ने का एक कारण यह भी है कि पुरुष अपने प्रत्याशी को जिताने के लिये महिलाओं का मतदान सुनिश्चित करते हैं।"

उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनाव में मतदाताओं की संख्या 15.02 करोड़ है। पुरुष 8.04 करोड़ और महिलाओं की संख्या 6.98 करोड़ है। साथ ही प्रदेश में 8,853 थर्ड जेंडर मतदाता हैं।

मतदाताओं की सूची में 23,92,258 पुरुष और 28,86,988 महिलाओं सहित कुल 52,80,882 नये मतदाता जुड़े हैं, युवाओं की संख्या 14,66,470 है। वहीं नये थर्ड जेंडर मतदाताओं की संख्या 1,636 है। यह तथ्य बताते हैं कि लड़कों की तुलना में लड़कियां राजनीति में भागीदारी को लेकर ज़्यादा उत्सुक हैं।

भाजपा ने नहीं पूरे किये वादे

साल 2017 के विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद महिला मतदाताओं को भारतीय जनता पार्टी का साइलेंट वोटर कहा गया। भाजपा ने लोक कल्याण संकल्प पत्र-2017 में महिलाओं से कई लुभावने वादे किए थे। चुनाव जीतने के बाद भाजपा ने उन्हें लागू नहीं किया।

समाजवादी पार्टी के कार्यकाल में प्रदेश में महिलाओं की सुरक्षा व्यवस्था एक बड़ा मुद्दा थी। जिसे भाजपा सहित सभी विपक्षी पार्टियों ने चुनाव में मुद्दा बनाया था। भाजपा ने सत्ता में आने के बाद महिलाओं को सुरक्षा का आश्वासन दिया था। भाजपा सरकार में महिलाओं की स्थिति और भी चिंताजनक हो गई।

महिलाओं की सुरक्षा के लिये भाजपा ने वादा किया था कि महिला उत्पीड़न के मामलों के लिये 1,000 महिला अफ़सरों का विशेष जाँच विभाग और 100 फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित किये जायेंगे, हर ज़िले में तीन महिला पुलिस स्टेशन स्थापित किये जायेंगे। सरकार के 5 वर्ष का कार्यकाल समाप्त होने को है पर यह दावे हक़ीक़त नहीं बन सके।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ( एनसीआरबी ) की ओर से जनवरी 2021 में जारी की गई रिपोर्ट के अनुसार 2020 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले में उत्तर प्रदेश सभी राज्यों से आगे है, हालांकि यह आंकड़ा 2018 और 2019 से कम है । राष्ट्रीय महिला आयोग में दर्ज शिकायतों में लगभग आधी उत्तर प्रदेश की हैं। राष्ट्रीय महिला आयोग को 2021 में 30,864 शिकायतें मिलीं। केवल उत्तर प्रदेश में मिली शिकायतों की संख्या 15,828 है।

भाजपा सरकार के महिला सुरक्षा के दावे की हक़ीक़त हाथरस और उन्नाव ज़िले की चर्चित बलात्कार की घटनाओं से समझी जा सकती है। हाथरस में बर्बरता और सामूहिक बलात्कार की शिकार एक दलित युवती की इलाज के दौरान मौत हो गई। पूरे गाँव को पुलिस छावनी में तब्दील कर युवती के परिवार की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ पीड़िता के शव को जला दिया गया था। कई दिनों तक पीड़िता के परिवार से किसी नेता या पत्रकार को नहीं मिलने दिया गया।

उन्नाव में भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर पर एक युवती ने बलात्कार का आरोप लगाया तो पुलिस ने उसके पिता को ही जेल में पीटा, कुछ दिनों बाद उनकी मौत हो गई। आरोप लगने के एक वर्ष बाद तक आरोपी विधायक गिरफ्तार नहीं हुआ। उसकी गिरफ्तारी के बाद एक "सड़क दुर्घटना" में सुनवाई पर जा रही पीड़िता और उसके वकील घायल हो गये। इसी दुर्घटना में पीड़िता की चाची की अपने बहन के साथ मौत हो गई।

कांग्रेस ने उन्नाव सदर विधानसभा से पीड़िता की माँ आशा सिंह को इस बार अपना उम्मीदवार बनाया है साथ ही सपा और बसपा ने उन्हें अपना समर्थन दिया है।

महिलाओं को लुभा रहीं राजनीतिक पार्टियां

महिला मतदाताओं के महत्व को पहचानते हुए उनका समर्थन हासिल करने के लिये सभी राजनीतिक पार्टियाँ आकर्षक वादे कर रही हैं। बसपा घोषणा पत्र नहीं जारी करती है। बसपा प्रमुख महिलाओं के लिये लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में 33% आरक्षण की वकालत शुरू से करती रही हैं। कोई और बड़ा वादा उन्होंने इस बार नहीं किया है।

कांग्रेस ने "लड़की हूँ, लड़ सकती हूँ" को अपना केन्द्रीय नारा बना लिया है। पार्टी ने शक्ति विधान महिला घोषणा पत्र भी जारी किया है। जिसकी मुख्य घोषणाओं के अनुसार कांग्रेस के सत्ता में आने पर इंटर की छात्राओं को स्मार्टफ़ोन और ग्रेजुएट को इलेक्ट्रिक स्कूटर, राज्य में महिलाओं के लिये सरकारी बसों में मुफ्त यात्रा और 20 लाख नई नौकरियों में महिलाओं को 40% आरक्षण देने का वादा किया है। साथ ही कांग्रेस ने आंगनवाड़ी कार्यकत्रियों को प्रति माह ₹10,000 प्रतिमाह मानदेय देने का आश्वासन दिया है।

सपा ने "22 में 22 संकल्प" नाम से से संकल्प पत्र जारी किया है जिसमें "महिला सशक्तिकरण" शीर्षक से 3 वादे किये गये हैं। सभी वर्ग की महिलाओं ( सामान्य, ईडब्ल्यूएस, एससी एवं एसटी ) को सरकारी नौकरियों में 33% आरक्षण पुलिस समेत सभी सरकारी नौकरियों में प्रदान किया जाएगा, वूमेन पॉवर लाइन 1090 को दोबारा मजबूत किया जाएगा इसके तहत ई-मेल, व्हाट्सएप, एफआईआर की व्यवस्था की जाएगी और लड़कियों की शिक्षा को केजी से लेकर पीजी तक मुफ्त किया जाएगा साथ ही कन्या विद्याधन योजना को दोबारा शुरू किया जाएगा।

भाजपा ने 8 फरवरी को लोक कल्याण संकल्प पत्र 2022 जारी कर दिया है। "सशक्त नारी" शीर्षक के तहत घोषणा पत्र में महिलाओं से जुड़े 14 वादे किए हैं। मुख्यमंत्री सामूहिक विवाह अनुदान योजना के तहत गरीब परिवार की बेटियों विवाह हेतु ₹1 लाख की वित्तीय सहायता दी जाएगी, 60 वर्ष से अधिक उम्र की महिलाओं के लिये सार्वजनिक परिवहन में मुफ्त यात्रा की व्यवस्था।

₹1,000 करोड़ की लागत से मिशन पिंक टॉयलेट की शुरुआत की जायेगी, 3 नई महिला बटालियन के नेटवर्क का विस्तार कर उसे दोगुना करते हुए महिलाओं की सुरक्षा और भी सुनिश्चित करेंगे, 3,000 पिंक पुलिस बूथ स्थापित करेंगे, 1 करोड़ महिलाओं को आत्मनिर्भर एसएचजी क्रेडिट कार्ड के माध्यम से ₹1 लाख तक ऋण न्यूनतम दर पर उपलब्ध कराएँगे, लोक सेवा आयोग सहित सभी सरकारी नौकरियों में महिलाओं की संख्या को दोगुना करेंगे आदि। इन घोषणाओं को किस तरह से अमल में लाया जाएगा इसकी जानकारी नहीं दी गई है।

आधी आबादी का चुनाव में क्या मुद्दा है?

महिलाओं के लिये सुरक्षा का मुद्दा इस चुनाव में भी बहुत अहम है। कक्षा 12वीं के बाद नीट की तैयारी कर रही संस्कृति कहती हैं, "शाम होते ही घर वालों के फ़ोन आ जाते हैं और वह जल्दी घर आने की हिदायत देने लगते हैं। रास्ते में शोहदे अक्सर छेड़खानी करते हैं रात ही नहीं दिन में भी घर से बाहर असुरक्षित महसूस होता है। पुलिस शोहदों पर तत्परता से कार्रवाई नहीं करती जिससे उनका हौसला बढ़ता है।"

बीएससी प्रथम वर्ष की छात्रा अदिति कहती हैं, "लड़कियाँ अब राजनीति में सक्रिय हो रही हैं। समाज में अभी भी लड़कियों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है। लड़कों की तुलना में हम पर सामाजिक बंदिशें कहीं ज़्यादा हैं। कपड़े, कैरियर और जीवनसाथी चुनने की भी लड़कियों को स्वतंत्रता नहीं है। हम आत्मनिर्भर होना चाहते हैं इसलिये रोजगार हमारे लिये महत्वपूर्ण मुद्दा है।"

लखनऊ की महिला अधिकार कार्यकर्ता नाइश हसन कहती हैं, "मंदिर-मस्जिद, बुरखा-दुपट्टा हमारे मुद्दे नहीं हैं। यह मुद्दे हम पर थोपे जा रहे हैं। महिलाएं राजनीति को लेकर संजीदा हो रही हैं और वास्तविक मुद्दों पर काम करना चाहती हैं। नागरिकता संशोधन कानून और किसान आंदोलन में महिलाओं ने बढ़-चढ़कर भाग लिया और नेतृत्व भी किया।"

महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराधों पर सख्त कार्रवाई और अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों की चर्चा करते हुए वह आगे कहती हैं, "सरकार चाहे जो भी दावे करे महिलाओं के खिलाफ अपराध होने पर पीड़िता के लिये एफआईआर दर्ज करवाना ही बड़ी बात बन जाती है। महिलाओं के लिए सुरक्षा, नौकरियों में आरक्षण, बढ़ती महंगाई, महिलाओं के खिलाफ अपराधों के लिये प्रदेश में फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट का गठन, महिला विश्वविद्यालय की स्थापना जैसे मुद्दे महत्वपूर्ण हैं।"

महिलाओं को नहीं मिलता टिकट

चुनावों में कम महिला जनप्रतिनिधियों के चुने जाने का सबसे बड़ा कारण है पार्टियों द्वारा टिकट नहीं दिया जाना। राजनीतिक पार्टियों के नेता महिला सशक्तिकरण की बातें तो खूब करते हैं, लेकिन राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करना तो दूर टिकट देने से भी बचते हैं। विधानसभा चुनाव 2022 के पहले चरण में 615 प्रत्याशियों में से सिर्फ 74 महिला हैं।

पहले चरण की 58 सीटों पर कांग्रेस ने 42 पुरुष 16 महिला (28%), भाजपा ने 50 पुरुष 7 महिला (12%), बसपा ने 52 पुरुष 4 महिला (7%), आम आदमी पार्टी ने 45 पुरुष 7 महिला (13%), आरएलडी ने 27 पुरुष 2 महिला (7%), सपा ने 26 पुरुष 2 महिला (7%), निर्दलीय 151 पुरुष 18 महिला (11%) और अन्य 148 पुरुष 18 महिला (11%) प्रत्याशियों को टिकट वितरित किया है।

प्रमुख पार्टियों की ओर से अधिकांश राजनीतिक परिवार की महिलाओं या आरक्षित सीट होने की स्थिति में सक्रिय नेता की पत्नी या माँ को टिकट दिया जाता है। यह अध्ययन का एक दिलचस्प विषय है कि व्यक्तिगत संघर्ष कर राजनीति में आने वाली सामान्य परिवार की कितनी महिलाएं विधायक बन पाती हैं।

मुख्यधारा की राजनीति में सफलता सीढ़ियां चढ़ने के लिये महिलाओं को हर कदम पर पितृसत्तात्मक मानसिकता से टकराना पड़ता है। यह मानसिकता ही महिलाओं के रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा है। इसके बाद भी महिलाएं राजनीति में अपना मुक़ाम हासिल कर रही हैं।

गरीब महिलाओं के बीच से राजनीतिक नेतृत्व क्यों नहीं उभरता?

नीति आयोग ने नवंबर 2021 में बहुआयामी गरीबी सूचकांक रिपोर्ट जारी की थी। रिपोर्ट के अनुसार देश की सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश की 37.79% आबादी गरीब है। पहले नंबर पर बिहार (51.91%) और दूसरे पर झारखंड (42.16%) है। 37.79% ग़रीब आबादी की महिलाएं क्या मुख्यधारा की राजनीति में सफल हो सकती हैं? जवाब के लिए चुनावों में हुए खर्च से जुड़े आंकड़ों पर नज़र डालते हैं।

चुनाव आयोग ने विधानसभा चुनाव 2022 में अधिकतम खर्च की सीमा को ₹28 लाख से बढ़ाकर ₹40 लाख कर दिया है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट के अनुसार पहले चरण के चुनाव में 58 सीटों पर दावेदारी कर रहे 615 प्रत्याशियों में से 280 करोड़पति हैं। आम जनता की पार्टी होने का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी के 52 प्रत्याशियों में से 22 करोड़पति हैं। प्रत्याशियों की औसत संपत्ति ₹3.72 करोड़ रुपये है।

प्रदेश में मौजूदा 396 विधायकों (7 सीटें रिक्त हैं) में से 313 करोड़पति हैं और विधायकों की औसत संपत्ति ₹5.85 करोड़ रुपये है।

ग़ैर-सरकारी संगठन सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ ( सीएमएस ) द्वारा 2017 में विधानसभा चुनाव से पहले और बाद में किये गये सर्वेक्षण के अनुसार एक वोट पर औसतन ₹750 रुपया खर्च किया गया, जो देश में सर्वाधिक था। विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दलों ने ₹5,500 रुपये खर्च किये थे।

चुनाव में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के जरिये प्रचार पर ही ₹600-900 करोड़ तक खर्च किये गये थे। चुनाव के दौरान ₹200 करोड़ पकड़े गये। सर्वेक्षण में अनुमान लगाया गया कि मतदाताओं को वोट के बदले क़रीब ₹1,000 करोड़ नकद बाँटे गये थे।

एडीआर ने ही प्रत्येक प्रत्याशी के खर्च का ब्यौरा जानने के लिये 2017 के विधानसभा चुनाव में प्रत्याशियों के हलफनामे का विश्लेषण किया था। जिसके अनुसार बुंदेलखंड से निर्वाचित होने वाले विधायकों ने ₹16.07 लाख, पश्चिमी यूपी से जीत दर्ज करने वाले विधायकों ने औसतन ₹15.6 लाख, पूर्वांचल से निर्वाचित होने वाले विधायकों ने ₹11.87 लाख, मध्यांचल से निर्वाचित होने वाले विधायकों ने औसतन ₹12.30 लाख और रुहेलखंड से निर्वाचित होने वाले विधायकों ने ₹11.39 लाख रुपये खर्च किये थे। सर्वविदित है कि चुनाव के दौरान प्रत्याशी जो खर्च बताते हैं वह वास्तविकता से बहुत कम होता है।

महिलाओं के लिये मुख्यधारा की राजनीति में विधायक चुने जाने के लिये पुरुषों की तुलना में कहीं अधिक संघर्ष करना पड़ता है। आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ी महिलाओं के लिये यह रास्ता और मुश्किल है। दलित और आदिवासी महिलाओं के लिये यह रास्ता तय कर पाना लगभग नामुमकिन है।

प्रोफ़ेसर वर्मा इस पर कहती हैं, "राजनीति में जो महिलाएं विधायक या सांसद के तौर पर चुनी जा रही हैं उनमें अधिकांश राजनीतिक परिवारों की विरासत संभाल रही हैं। फिलहाल चुनावों में अधिक खर्च एक ऐसा कारण है जिसके कारण गरीब महिलाओं के लिये जनप्रतिनिधि के रूप में चुने जाने के रास्ते बंद होते जा रहे हैं। लोकतंत्र का केन्द्रीय प्रश्न यही है कि समाज में विकास के पायदान सबसे नीचे खड़े व्यक्ति के पास भी जनप्रतिनिधि के तौर पर चुने जाने के पर्याप्त अवसर कैसे हों?"

(हम फीडबैक का स्वागत करते हैं। कृपया respond@indiaspend.org पर लिखें। हम भाषा और व्याकरण के लिए प्रतिक्रियाओं को संपादित करने का अधिकार सुरक्षित रखते हैं।)


Similar News