बिजली उत्पादन के व्यापार में पर्यावरण की बाज़ी लगाता उत्तराखंड

71.05% वन क्षेत्र वाले उत्तराखंड के लिए राज्य की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए आय के साधन जुटाना बड़ी चुनौती है। इस स्थिति में प्रदेश की आय बहुत कुछ कृषि, पर्यटन और जलविद्द्युत पर निर्भर करती है। पिछले कुछ वर्षों में उत्तराखंड ने जलविद्द्युत परियोजनाओं पर बहुत ज़ोर दिया है और इसे अधिकतम क्षमता तक ले जाने का प्रयास किया है।

By :  Megha
Update: 2021-02-23 08:18 GMT

जेसीबी के ज़रिये मलबे में शवों की तलाश फोटो: वर्षा सिंह

देहरादून / लखनऊ: उत्तराखंड के चमोली जिले में हुई त्रासदी को 15 दिन से ज्यादा हो चुके है और सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अब तक 68 शव बरामद हुए हैं और 136 से ज्यादा लोग अब भी लापता हैं। इस घटना में 184 पशु भी मारे गए। एनडीआरएफ और एसडीआरएफ के जवान अब भी रैणी गांव और अलकनंदा नदी के आसपास खोज और राहत कार्यों में लगे हुए हैं।

त्रासदी के दिन ऋषिगंगा नदी का जल स्तर कई गुना बढ़ गया और नदी में भारी मात्रा में मलबा आ गया। ये पूरा इलाका नंदा देवी बायोस्फेयर रिजर्व में आता है। वैज्ञानिकों के मुताबिक ऋषिगंगा के कैचमेंट एरिया के ग्लेशियर्स के बीच भू-स्खलन और ग्लेशियर टूटने से बना रॉक और स्नो एवलॉन्च इस तबाही की वजह बना।

भारत के गृह मंत्री अमित शाह ने राज्य सभा को बताया था की समुद्री सतह से 5600 मीटर की ऊंचाई पर हुए हिमस्खलन की वजह से यह हादसा हुआ।

लेकिन विशेषज्ञों और स्थानीय निवासियों का मानना है कि इस दुर्घटना को एक प्राकृतिक आपदा बताकर सिर्फ खानापूर्ति की जा रही है और इसके असल कारण को छुपाया जा रहा है । प्रदेश सरकार प्राकृतिक आपदा की आड़ में पर्यावरण सम्बन्धी नियमों को दरकिनार कर रही है। साथ ही जलविद्द्युत और अन्य परियोजनाओं को लगातार मंजूरी देती जा रही है।

नियमों की अनदेखी

2013 में आयी भीषण बाढ़ के बाद उच्चतम न्यायलय ने उत्तराखंड में निर्माणाधीन 24 जलविद्द्युत परियोजनाओं पर रोक लगा दी थी।

पीपल साइन्स इंस्टीट्यूट के पूर्व डायरेक्टर डॉ रवि चोपड़ा का मानना है कि उत्तराखंड में होने वाली घटनाएँ एक तरह से मानव निर्मित हैं।

"ऐसा नही है कि ऐसी घटनाएँ सिर्फ़ गर्मियों के दिनों में होती हैं या फिर सर्दियों में ऐसी घटनाओं का होना एक आश्चर्यजनक बात है। ऐसी घटनाएँ होती रहती है। इस घटना में अभी तक समझ में आया है कि इसमें किसी प्रकार का ग्लेशियर नहीं टूटा बल्कि एक ग्लेशियर लेक बह गई है। जिसकी वजह सोलर इंसोलशन थी। घटना से पहले उस इलाके में भारी बर्फबारी हुई थी फिर उसके बाद अचानक से गर्मी बढ़ जाने की वजह से बर्फ पिघली और यह हादसा हुआ," डॉ चोपड़ा ने इंडियास्पेंड हिंदी से फ़ोन पर बात करते हुए बताया।

डॉ चोपड़ा आगे बताते है कि इस घटना का लोगों को इसलिए पता चला क्योंकि इसमें जनहानि हुई। ये पूछे जाने पर कि उच्चतम न्यायलय द्वारा पहाडी क्षेत्रों में हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स पर दिए गए निर्देशों पर क्या कभी कोई पालन हुआ तो उनका जवाब था कि ऐसे दिशा निर्देश आते रहते है लेकिन उनका पालन कड़ाई से नहीं हो पाता है।

डॉ चोपड़ा ने 2013 कि घटना के लिए भी उत्तराखंड की जलविद्द्युत परियोजनाओं और विकास कार्यों को ज़िम्मेदार ठहराया था

ऊंचाई पर एक कतार में परियोजनाएं दुर्घटनाओं को निमंत्रण

जानकारों के अनुसार ऊंचाई वाले क्षेत्रों में एक के नीचे एक बन रही जलविद्द्युत परियोजनाएं या बाँध दुर्घटनाओं को आमंत्रित करने जैसा है ।

इस महीने हुई त्रासदी में भी कुछ ही मिनटों में 13 मेगावाट की ऋषिगंगा जलविद्द्युत परियोजना का नामो निशान मिट गया। इससे करीब 5 किलोमीटर नीचे तपोवन क्षेत्र में एनटीपीसी की 530 मेगावाट की तपोवन-विष्णुगाड परियोजना निर्माणाधीन थी। जहां रविवार का दिन होने के बावजूद बड़ी संख्या में मज़दूर काम कर रहे थे। कई मज़दूर टनल के भीतर मौजूद थे। जो इस आपदा की चपेट में आए। ये टनल करीब 2 किलोमीटर लंबी थी।

तपोवन टनल के पास रेस्क्यू ऑपरेशन। फोटो: वर्षा सिंह

तपोवन से करीब 15 किलोमीटर आगे नदी का तेज़ बहाव जोशीमठ तक आया। जोशीमठ के नीचे विष्णुप्रयाग संगम पर अलकनंदा और धौलीगंगा नदी मिलती है। इस पर नदी से करीब 50-60 फीट ऊपर बना वर्षों पुराना पुल भी बाढ़-मलबा बहा कर ले गया। यह पुल इतना मजबूत था कि 2013 की आपदा में भी इसे नुकसान नहीं हुआ था। आगे नंदप्रयाग तक आते-आते नदी का वेग थमा। लेकिन पानी में मौजूद मलबे ने नदी की सूरत ही बदल दी।

नदी पर एक सीध में बनाई गयी परियोजनाएं ऐसी स्थिति में ऊंचे क्षेत्रों में काफी घातक सिद्ध होती हैं।

डॉ चोपड़ा कि अध्यक्षता वाली एक समिति की 2013 की रिपोर्ट में ये बताया गया था की 2,200 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों को जलविद्द्युत परियोजनाओं से मुक्त रखा जाना चाहिए।

वैज्ञानिकों के मुताबिक ऋषिगंगा के कैचमेंट एरिया के ग्लेशियर्स के बीच भू-स्खलन और ग्लेशियर टूटने से बना रॉक और स्नो एवलॉन्च इस तबाही की वजह बना। फोटो: वर्षा सिंह

ऋषिगंगा प्रोजेक्ट पेरा ग्लैशिअल जोन (समुद्री सतह से 2200 मीटर से अधिक ऊंचाई पर स्थित) में आता है जबकि तपोवन प्रोजेक्ट 1803 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है।

वाडिया इंस्टीटूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी में कार्यरत जियोलॉजिस्ट डॉ विक्रम गुप्ता बताते है कि पहले रॉक एवलांच आया जो कि बर्फ को लेकर नीचे आया और क्योंकि रौन्ति गढ़ का रास्ता काफ़ी संकरा है और ऊपर से आये बर्फ, चट्टान के मलबे के कारण वहां पर कुछ अवरोध जैसी स्थिति बनी, इस वजह से फ़्लैश फ्लड कि स्थिति निर्मित हुई।

"यह इलाका बहुत ही संवेदनशील है और यह इस तरह के एक के बाद एक बनने वाले विद्द्युत परियोजनाओं के लिए उपयुक्त नहीं है",साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम, रिवर्स एंड पीपल के हिमांशु ठक्कर का ऐसा मानना है।

बिजली से आय एक घाटे का सौदा

उत्तराखंड में 2857 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में तकरीबन 968 ग्लेशियर मौजूद हैं। जो राज्य के कुल क्षेत्रफल का तकरीबन 7.63% है। इन ग्लेशियरों से निकलने वाली नदियां स्थानीय लोगों के जीवन में तो कोई अहम भूमिका नहीं निभाती, लेकिन इनका तीव्र वेग जल-विद्युत उर्जा उत्पादन की दृष्टि से काफी फ़ायदेमंद है।

71.05% वन क्षेत्र वाले उत्तराखंड के लिए राज्य की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए आय के साधन जुटाना बड़ी चुनौती है। इस स्थिति में प्रदेश की आय काफी हद तक कृषि, पर्यटन और जल विद्युत पर निर्भर करती है। पिछले कुछ वर्षों में उत्तराखंड ने जल विद्युत परियोजनाओं पर बहुत ज़ोर दिया है और इसे अधिकतम क्षमता तक ले जाने का प्रयास किया है।

उत्तराखंड सरकार की आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 की रिपोर्ट के मुताबिक राज्य में 25,000 मेगावाट से भी अधिक जलविद्द्युत उत्पादन की क्षमता है। जबकि अभी तकरीबन 4 हज़ार मेगावाट की परियोजनाएं ही चल रही हैं।

इसलिए उत्तराखंड सरकार रुकी हुई जलविद्द्युत परियोजनाओं को हरी झंडी दिलाने की भरपूर कोशिश करती है।

आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2017-18 में राज्य की जीडीपी 167.73 लाख करोड़ रुपये रही। जलविद्द्युत निगम लिमिटेड के मुताबिक राज्य को वर्ष 2017-18 में जलविद्द्युत ऊर्जा से कुल 770 करोड़ की आय हुई। जबकि 2016-17 में ये रकम 640 करोड़ थी। जलविद्द्युत निगम लिमिटेड ने वित्तीय वर्ष 2019-20 में 1318 मेगावाट की स्थापित क्षमता के साथ 923 मेगावाट बिजली की बिक्री के साथ 121 करोड़ रुपये का मुनाफा कमाया । इस वर्ष कंपनी की आय 964 करोड़ रुपये थी ।

"हिमाचल और उत्तराखंड दोनों हिमालयी राज्य हैं। दोनों की जलविद्द्युत उर्जा उत्पादन की क्षमता करीब 25,000 मेगावाट है। हिमाचल प्रदेश में 10 हज़ार मेगावाट की परियोजनाएं कार्य कर रही हैं और 9 हज़ार मेगावाट की परियोजनाओं पर काम चल रहा है। उत्तराखंड में 4000 मेगावाट की जल-विद्युत परियोजनाएं कार्य कर रही हैं और 2500 मेगावाट की परियोजनाओं पर काम चल रहा है", ऐसा उत्तराखंड पावर ट्रांसमिशन लिमिटेड के प्रबंध निदेशक संदीप सिंघल का कहना है।

सिंघल आगे कहते हैं, "दोनों ही प्रदेशों में बड़ा अंतर है। इस तरह की आपदाओं के बाद हम बांधों को दोष देने लगते हैं। वह बताते हैं कि उच्च हिमालयी क्षेत्रों में कोई नई जलविद्द्युत परियोजना न बनाने का फ़ैसला लिया जा चुका था। 2013 की आपदा के बाद कोई भी नया प्रोजेक्ट अलकनंदा-भागीरथी पर शुरू नहीं हुआ है।"

स्थानीय निवासियों का लगातार विरोध

वर्ष 2003-04 में तपोवन-विष्णुगाड परियोजना प्रस्तावित हुई थी। स्थानीय लोगों ने कई वर्षों तक इस परियोजना का विरोध किया था। जोशीमठ में मौजूद अतुल सती इस विरोध में शामिल मुख्य लोगों में से एक हैं। वह बताते हैं "तपोवन प्रोजेक्ट को लेकर स्थानीय विरोध बेहद तेज़ था। उस समय के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी परियोजना के उदघाटन के लिए जोशीमठ आने वाले थे। लेकिन स्थानीय विरोध के चलते वे नहीं आ सके। फिर दो-तीन महीने बाद देहरादून के परेड ग्राउंड से उन्होंने प्रतीकात्मक उदघाटन किया।"

अतुल बताते हैं कि तपोवन प्रोजेक्ट से पहले लोग जेपी कंपनी की विष्णुप्रयाग जलविद्द्युत परियोजना देख चुके थे। उस समय सुरंग में जबरदस्त विस्फोट किये जाते थे और पूरा जोशीमठ कांप जाता था। लोगों की खेती तबाह हो गई थी। बगीचे खत्म हो गए थे। इसलिए तपोवन प्रोजेक्ट का भारी विरोध किया गया। स्थानीय विरोध के बावजूद सरकार विकास के नाम पर इन परियोजनाओं को हरी झंडी दिए जा रही थी।

चिपको आंदोलन के लिए गौरा देवी और उनका गांव रैणी पूरी दुनिया में जाना जाता है। इस गांव के लोग अपनी धरती पर बन रहे ऋषिगंगा जलविद्द्युत परियोजना का शुरू से ही विरोध कर रहे थे। चमोली हादसे के बाद रैणी गांव में भारी तबाही हुई है। पहाड़ से गिरे पत्थरों की चपेट में आकर तकरीबन सभी मकानों में दरारें पड़ गई हैं। आपदा के बाद प्राथमिक विद्यालय में बने राहत शिविर में रह रहे लोगों का कहना है कि पूरा गांव दहशत में जी रहा है। वे विस्थापन की मांग कर रहे हैं।

तपोवन टनल के पास रेस्क्यू ऑपरेशन। फोटो: वर्षा सिंह 

देहरादून की डाटा रिसर्च संस्था सोशल डेवलपमेंट ऑफ कम्यूनिटीज़ फाउंडेशन के अनूप नौटियाल के मुताबिक हरिद्वार को छोड़ राज्य के 12 ज़िलों में 395 ऐसे गांव हैं जो आपदा के लिहाज़ से बेहद संवेदनशील हैं। इन सभी को विस्थापित किये जाने की मांग लंबे समय से की जा रही है।

इस घटना का असर ये भी हुआ है कि उत्तराखंड सरकार ने 11 फरवरी को चार ज़िलों टिहरी, उत्तरकाशी, चमोली और बागेश्वर में आपदा के लिहाज से अति-संवेदनशील परिवारों के पुनर्वास के लिए तकरीबन 2 करोड़ रुपये जारी किए हैं।

बांध बनाने से पहले ग्लेशियर का नहीं होता अध्ययन

केंद्रीय जल आयोग की वर्ष 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक उत्तराखंड में 25 बड़ी जल-विद्युत परियोजनाएं हैं। इनमें से 17 परियोजनाओं से बिजली बन रही है। जबकि 8 परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। एनटीपीसी की तपोवन परियोजना भी इनमें से एक थी।

इन परियोजनाओं का पर्यावरणीय अध्ययन तो कराया जाता है। लेकिन वाडिया संस्थान के वैज्ञानिक डॉ प्रदीप श्रीवास्तव कहते हैं कि किसी परियोजना की डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट या पर्यावरणीय अध्ययन के लिए सरकार के पास कई संस्थाएं होती हैं। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी, सेंट्रल वाटर कमीशन, सेंट्रल रोड रिसर्च इंस्टीट्यूट, सेंट्रल बिल्डिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट, आईआईटी, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ रिमोट सेंसिग, वाडिया हिमालयन जियोलॉजी, जीबी पंत इस्टीट्यूट जैसे कई संस्थान हैं जो इस तरह का अध्ययन करते हैं।

सभी संस्थाओं की अपनी ख़ास विशेषता है जिसके आधार पर वो अध्ययन करते हैं। जैसे हाइड्रोलॉजी इंस्टीट्यूट जल प्रवाह से जुड़ा अध्ययन करेगा। आईआईटी की विशेषता इंजीनियरिंग में है। तो जिस संस्था से सरकार को बांधों के पक्ष में रिपोर्ट मिल जाती है उसे मंजूर कर लिया जाता है। जबकि एक जलविद्द्युत परियोजना के लिए नदी का प्रवाह, वहां की भौगोलिक स्थिति, बांध की तकनीकी दक्षता, वहां मौजूद ग्लेशियर की स्थिति जैसे कई पक्षों को देखना होता है।

वाडिया संस्थान के वैज्ञानिक रहे ग्लेशियरोलॉजिस्ट डॉ डीपी डोभाल ने भी यही बात कही। तपोवन परियोजना के पर्यावरणीय अध्ययन में वहां मौजूद ग्लेशियर के बांध पर पड़ने वाले असर का आकलन नहीं किया गया। जबकि यहां तबाही की वजह ग्लेशियर बने।

डॉ डोभाल कहते हैं कि बांधों को बनाने से जुड़े पर्यावरणीय अध्ययन में हम उसके ईर्द-गिर्द मौजूद ग्लेशियर का अध्ययन नहीं करते। नदी के जिस पानी के आधार पर हम बिजली बना रहे हैं, वो पानी जिस ग्लेशियर से आ रहा है, उसकी स्थिति समझनी बेहद जरूरी है। डॉ डोभाल आगे कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वॉर्मिंग का असर ग्लेशियर पर भी पड़ रहा है। जिससे ग्लेशियर में बदलाव आ रहे हैं लेकिन उनकी मॉनीटरिंग नहीं हो रही। ग्लेशियर में झीलें बन रही हैं, झीलों की मौजूदा स्थिति क्या है, ग्लेशियर से होने वाला पानी का डिस्चार्ज कितना है, बांधों से जुड़ी परियोजना तैयार करने में इन बातों का ध्यान रखना जरूरी है।

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