असम के चाय बगान गर्भवती महिलाओं के लिए हैं बहुत खतरनाक
सोनितपुर, असम: भोजाखोवा गांव में एक कमरे वाले सरकारी स्वास्थ्य उप-केंद्र के बाहर डामर की सड़क को दिखाती हुई 52 वर्षीय अरुंधति दास कहती हैं, “अब मॉनसून के दौरान भी माएं हम तक पहुंचने में सक्षम हैं।" केंद्र असम के बाढ़ग्रस्त सोनितपुर जिले में लगभग 10,000 लोगों की सेवा करता है और साल 2001 से दास इसके प्रभारी हैं। इसके एक कोने में एक बिस्तर और उसके ऊपर एक बच्चे का वजन लेने वाली एक मशीन है। दीवार पर कपड़े की थैली में टीकाकरण कार्ड रखे हुए हैं। उन कार्ड के जरिए क्षेत्र में बच्चों को दिए गए टीका का रिकार्ड रखा जाता है।
उप-केंद्र प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करता है जैसे कि आयरन की गोलियां, सरकारी योजनाओं के तहत टीकाकरण और गर्भ निरोधकों के बारे में जानकारी। यहां हर मानसून में बाढ़ आती है। दास कहती हैं, "माताएं घर पर रहने के लिए मजबूर हो जाती हैं।" असम के 33 से अधिक जिलों में हर साल ब्रह्मपुत्र नदी से बाढ़ आती है। बाढ़ इलाके के फसलों को खराब करती हैं और राज्य की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को अपंग करती हैं।
दास को यह याद नहीं है कि उनके उप-केंद्र के बाहर की सड़क कब बनी थी, लेकिन वह बताती हैं कि यह स्वास्थ्य देखभाल और टेटनस इंजेक्शन तक लोगों की पहुंच को बढ़ाता है। टेटनस इंजेक्शन प्रसव के ठीक बाद माताओं के बीच संक्रमण की संभावना को कम करते हैं। दास कहती हैं, "सड़कें लोगों की जान बचाने में मदद कर रही हैं।"
सरकार के थिंक-टैंक नीति आयोग के अनुसार, प्रत्येक 100,000 जीवित जन्मों पर भारत में 130 महिलाएं गर्भावस्था से संबंधित जटिलताओं के कारण मर जाती हैं। जबकि केरल में सबसे कम मातृ मृत्यु दर (एमएमआर) 46 है। असम का 237 का एमएमआर भारत के औसत से दोगुना है और वर्तमान में जाम्बिया (224) से ज्यादा है, जैसा कि विश्व बैंक के आंकड़ों से पता चलता है। पोलैंड का एमएमआर तीन है और दुनिया में सबसे कम है।
असम की वर्तमान एमएमआर स्थिति राज्य द्वारा मातृ स्वास्थ्य सेवा में उठाए गए कदमों के परिणामों को फीका कर सकती है। हालांकि, केवल एक दशक में, असम ने अपने एमएमआर को 480 से घटाकर 237 कर दिया है। यह 50 फीसदी से अधिक की कमी है।
मातृ मृत्यु दर वहां अधिक है, जहां कुशल और आपातकालीन देखभाल तक पहुंच या तो उपलब्ध नहीं है या सीमित है, जैसा कि गांधीनगर में ‘इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ’ (आईआईपीएच) के निदेशक दलीप मावलंकर कहते हैं- "जहां भी ऐसी स्थिति में सुधार हुआ है, चाहे वह सरकारी हो या निजी क्षेत्र हो, मृत्यु दर में कमी आई है।"
दाएं से बाएं) अपने सहकर्मी और सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता मीरा भुईया के साथ भोजखोवा स्वास्थ्य उप-केंद्र में 52 वर्षीय अरुंधति दास। दास क्षेत्र में बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं के लिए उप-केंद्र के बाहर सड़क का श्रेय देती हैं।
इंडियास्पेंड ने सोनितपुर जिले के पांच गांवों में स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं और डॉक्टरों से बात की। उनके अनुसार, 2000 में शुरू की गई प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत असम में बनाई गई 15,000 सड़कों ने स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच में सुधार की है। हालांकि, स्वास्थ्य को लेकर असम परमें कई ऐसे मुद्दे हैं, जिस पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
गर्भवती महिलाओं में एनीमिया
44 वर्षीय की रुकिया बेगम, सोनपुर जिले के टेंगाबस्ती गांव में एक मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा) हैं। उनके गांव के पास के उप-केंद्र की मरम्मत की जा रही है, इसलिए अब स्वास्थ्य अधिकारी उनके एक कमरे वाले ईंट के घर का उपयोग कर रहे हैं। हरे रंग के कपड़े से ढकी एक प्लास्टिक की कुर्सी और एक टेबल है। इस पर आयरन की गोलियों का एक बॉक्स है। रुकिया को ट्रेनिंग में बताया गया है कि गर्भवती महिलाओं को एनीमिया से बचाने के लिए आयरन की गोलियां देनी है।
2016 के एक अध्ययन के अनुसार, एनेमिक महिलाओं में गर्भावस्था से संबंधित जटिलताओं के बढ़ जाने का खतरा अधिक होता है। इस अध्ययन में, असम में पांच सरकारी मेडिकल कॉलेजों में होने वाले जन्मों को देखा-परखा गया था। एनेमिक माताओं में बच्चे के जन्म के बाद संक्रमण होने की संभावना अधिक होती है, और उनके बच्चे भी संभवत: छोटे होते हैं। असम में, शेष भारत की तरह, 15-49 वर्ष की आयु की सभी गर्भवती महिलाओं में से लगभग आधी एनेमिक हैं।
मेडिकल जर्नल ‘द लैंसेट’ में प्रकाशित 2018 के एक अध्ययन के अनुसार, एनीमिया से पीड़ित एक गर्भवती महिला की प्रसव के दौरान मृत्यु होने की आशंका दोगुनी होती है।
रुकिया अपनी 18 वर्षीय भाभी के बारे में बताती हैं, जिनकी 2007 में प्रसव के दौरान मृत्यु हो गई थी, "चूंकि इस क्षेत्र में बाढ़ आ गई थी, इसलिए हमें उन्हें अस्पताल तक ले जाने में कई घंटे लग गए। बच्चे के जन्म के बाद उनकी मृत्यु हो गई।” उसके बाद ही रुकिया एक आशा कार्यकर्ता बन गई थीं, हालांकि उनका प्रशिक्षण सीमित है।
एनीमिया से ग्रसित एक महिला में हीमोग्लोबिन कम होता है,जो उसके शरीर के सभी अंगों तक ऑक्सीजन ले जाने की क्षमता को कम कर देता है। प्रसव के बाद गंभीर रूप से एनेमिक महिला के खून बहने के कारण परेशानियां हो जाती हैं। रक्त में ऑक्सीजन की सीमित एकाग्रता के लिए अंगों तक अधिक रक्त लाने के लिए उसके दिल को उच्च दर पर पंप करना पड़ता है, जिससे ‘कार्डियक अरेस्ट’ की संभावना बढ़ जाती है। एक सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ और असम सहित पूरे भारत में 12 राज्यों में काम करने वाला गैर-सरकारी संगठन, ‘डॉक्टर्स फॉर यू’ के संस्थापक, रविकांत सिंह बताते हैं, "डॉक्टर के पास उसे खून देने के लिए बहुत कम समय होता है।"
असम के 33 जिलों में से 10 में कोई ब्लड बैंक नहीं है, और अगर किसी महिला को सी-सेक्शन के बाद रक्त की जरूरत है, तो इसकी उपलब्धता नहीं है।
असुरक्षित गर्भपात
रुकिया बेगम असम के सोनितपुर जिले के तेंगाबस्ती गांव में एक आशा कार्यकर्ता हैं। गांव की महिलाओं को गर्भ निरोधकों के वितरण के लिए जिम्मेदार रुकिया कहती हैं कि तीन महीने से आपूर्ति नहीं हुई है।
एक आशा कार्यकर्ता के रूप में, रुकिया की नौकरी में गर्भ निरोधकों का वितरण भी शामिल है। तीन महीने से इसकी आपूर्ति नहीं हुई है, लेकिन वह बताती हैं कि ऐसा पहली बार हुआ है।
2006 के एक अध्ययन ने गर्भ निरोधकों और मातृ मृत्यु के बीच के रिश्ते को एक नए नजरिये से देखा है। महिलाओं को अपने परिवारों की योजना बनाने के लिए विकल्प प्रदान करने से वैश्विक मातृ मृत्यु दर में 32 फीसदी और बच्चों की मृत्यु में 10 फीसदी कमी हो सकती है। गर्भनिरोधक एक महिला को अनियोजित गर्भावस्था से बचने में मदद करते हैं।
असम में, 22 फीसदी महिलाएं खानेवाली गर्भनिरोधक गोलियों पर निर्भर हैं - राष्ट्रीय औसत से पांच गुना ज्यादा। हालांकि, असम में परिवार नियोजन के तरीकों में सुधार की कमी है। 15-49 आयु वर्ग में केवल 37 फीसदी विवाहित महिलाएं परिवार नियोजन के किसी भी नए साधन का उपयोग करती हैं। यह संख्या शेष भारत के लिए 47.8 फीसदी है।
यूएस में ‘सेंटर ऑर डिजिज कंट्रोल एंड प्रेवेंशन’ (सीडीसी)की पूर्व निदेशक और ‘एमोरी यूनिवर्सिटीज रोलिंस स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ’ में वैश्विक स्वास्थ्य की प्रोफेसर, रोजर रोचट कहती हैं, “खानेवाली गर्भ निरोधक गोलियों और इंजेक्शनों को लेकर अनियमितता की दर उच्च है, अक्सर महिलाएं इसे लेना भूल सकती हैं।”
एक अवांछित गर्भावस्था को समाप्त करने के लिए, महिलाएं या तो ‘ओवर-द-काउंटर’ गर्भपात की गोलियों का विकल्प चुनती हैं या नीम-हकीम के पास जाती हैं। जब अकुशल चिकित्सक असुरक्षित वातावरण में गर्भपात कराते हैं, तो इससे संक्रमण की संभावना बढ़ जाती है।
रुकिया बताती हैं,"कुछ महीने पहले पड़ोसी गांव की एक महिला ने गर्भपात की गोलियां लीं और फिर उनकी मौत हो गई।"
क्या इन गोलियों को प्राप्त करना आसान है?
"हां, मेडिकल शॉप उन्हें स्टॉक करती हैं, लेकिन मुझे उनके बारे में नहीं पता है," इसपर अधिक बातें करने में वह अनिच्छुक दिखीं।
तेंगाबस्ती जैसे ग्रामीण इलाकों में, पर्याप्त नैदानिक प्रयोगशालाओं की अनुपस्थिति में, एक महिला के गर्भवती होने का पता चलने से कुछ समय बाद तक गर्भपात कराया जा सकता है। एक बार जब गर्भावस्था 20 सप्ताह से अधिक हो जाती है, तो एक डॉक्टर इसे कानूनी रूप से समाप्त नहीं कर सकता है। हताश, महिलाएं अक्सर नीम-हकीम या निजी चिकित्सकों की ओर रुख करती हैं।
मुम्बई के प्रसूति और स्त्री रोग विशेषज्ञ सहित कई मेडिकल पाठ्य पुस्तकों के लेखक अजीत विरकुद कहते हैं, "यहां तक कि सबसे अच्छी स्वास्थ्य सुविधा में भी गर्भपात जोखिम भरा हो सकता है और मृत्यु भी हो सकती है। ग्रामीण क्षेत्रों में, अधिकांश गर्भपात असुरक्षित होते हैं, विशेष रूप से उन लोगों द्वारा किए जाते हैं जो इसके लिए योग्य नहीं हैं।" इन मौतों को कभी भी रिपोर्ट नहीं किया जाता, क्योंकि पूरी प्रक्रिया अवैध होती हैं।
रोचट कहती हैं, “समस्या का समाधान गर्भनिरोधक विकल्प (इंजेक्शन और अंतर्गर्भाशयी डिवाइस या आईयूडी) प्रदान करना है, जो लोगों के लिए स्वीकार्य हैं। दूसरी बात, गर्भपात सेवाओं का संचालन करने के लिए कुशल चिकित्सक उपलब्ध कराना भी जरूरी है।"
गर्भावस्था के पहले तीन महीनों में होने वाली मातृ मृत्यु का एमएमआर में महत्वपूर्ण योगदान होता है।
चाय बागान मजदूरों की उपेक्षा
असम के मातृ स्वास्थ्य में सबसे महत्वपूर्ण कमजोर बिंदु यहां चाय बागानों में काम करने वाली महिलाओं की उपेक्षा है। यहां 27 जिलों में 803 बगान हैं, जहां से मातृ मृत्यु की एक बड़ी संख्या में सूचना मिलती है। यह पाया गया कि असम के चाय बागानों में, लगभग सभी महिलाओं में एनीमिया था, जैसा कि इंडियास्पेंड ने अप्रैल 2017 की रिपोर्ट में बताया है।
असम के सबसे पुराने ड्यूरंग चाय बागान में वह एक सुखद दोपहर थी। यहां वर्षा जल्दी होती है, और तापमान 20 डिग्री सेल्सियस के आसपास होता है। असम की पारंपरिक मेखला चदर (एक प्रकार की साड़ी) पहनने वाली महिलाओं के एक समूह ने चाय के बागान तक जाने वाली कीचड़ वाली सड़क पर प्लास्टिक की चादरें बिछा दीं। कुछ के पास छोटे बच्चे हैं, जो उनसे चिपके थे। वे महिलाएं सुबह 8 बजे के बाद पहली बार बाहर निकली थीं।
असम के चाय बागानों में, महिलाएं चाय की पत्तियां तोड़ती हैं, जो एक श्रमसाध्य प्रक्रिया है। पुरुष पौधों को पानी देते हैं और कीटनाशकों का छिड़काव करते हैं।
32 साल की बिलासी उराव, चाय के बगान में पली-बढ़ी हैं। उनके साथ खाना खाने बैठी अन्य सभी महिलाएं उसी तरह बड़ी हुई हैं और वे सब सैकड़ों एकड़ में फैले गांवों में रहते हैं। उन सभी महिलाओं के पास अपने गांव की किसी न किसी ऐसी महिला की कहानी है, जिनकी गर्भावस्था के दौरान मृत्यु हो गई है।
क्या महिलाओं के पास स्वास्थ्य सेवा है?
उराव कहती हैं, “हां, अगर हमें कुछ चाहिए, तो हमें सरदार [सुपरवाइजर] को सूचित करना होगा। वह हमें बाहर ले जाएगा -अस्पताल या एक डॉक्टर के पास।”
क्या वे बिना अनुमति के बाहर नहीं जा सकती हैं?
उराव कहती हैं, "हम कर सकते हैं। हालांकि, इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि हमें फिर से यहां लौटने की अनुमति होगी, इसलिए हम ऐसा नहीं करते। जब हम बाहर जाते हैं तो हमें उस जगह का पता देना होता है जहां हम जा रहे होते हैं।”
सड़कों का निर्माण स्वास्थ्य केंद्रों, गर्भ निरोधकों और टेटनस इंजेक्शन तक पहुंच में सुधार करते हैं। सड़कें बाढ़ से ग्रस्त असम में माताओं को बचाने में मदद करती हैं। हालांकि, इससे चाय-बागान श्रमिकों तक अब भी लाभ नहीं पहुंचा है।
जब इंडियास्पेंड ने इस जगह का दौरा किया था, तो यह जानने के लिए कि कहीं महिलाएं आराम तो नहीं फरमा रही हैं, सुपरवाइजर चारों तरफ साइकिल से निगरानी करते हुए पाया गया।
इस साल फरवरी में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि चाय बगानों के कामगारों के बीच मातृ मृत्यु दर बहुत ज्यादा है। 150 मातृ मृत्यु की जांच करने वाले शोधकर्ताओं ने पाया कि सभी मौतों में 69 फीसदी चाय बागान समुदाय के बीच हुई थी। मरने वालों में से आधी संख्या ऐसी महिलाओं की थी, जो पहली बार मां बन रही थी और आधे से ज्यादा मरने वाली महिलाएं के पति अस्थायी कर्मचारी थे।
गर्भवती चाय-बागान श्रमिकों (मुख्य रूप से आदिवासी - स्वदेशी आदिवासी लोगों) के बीच मृत्यु दर की एक उच्च दर को एक कानूनी सशक्तिकरण संगठन, ‘नजदीक’ द्वारा 2018 की रिपोर्ट में भी उजागर किया गया था।
चाय बागानों में अधिकांश श्रमिक मध्य भारत के हाशिए के समुदायों से हैं। उन्हें ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के तहत 1900 की शुरुआत में असम लाया गया था। इन समुदाय के लोगों का आज भी राज्य के न्यूनतम वेतन से कम कमाई है, और 60-70 फीसदी श्रमिकों को कम या बिना किसी अन्य श्रमिक लाभ के काम पर रखा जाता है, जैसा कि नजदीक रिपोर्ट में बताया गया है।
प्रांती दत्ता कहती हैं, “महिलाओं जो काम कर रही होती हैं, उन्हें चाय बागान से बाहर जाने के लिए किसी का सहारा लेना पड़ता है। जटिल मामलों में, इस तरह की देरी मौत का कारण बन सकती है। एनीमिया की उच्च दर मौतों का एक और कारण है।" दत्ता ने गुवाहटी के ‘इंडियन इंस्टयूट ऑफ टेक्नोलोजी’ से पीएचडी थीसिस के लिए असम के चार जिलों में मातृ मृत्यु का अध्ययन किया है।
जैसे ही यह रिपोर्टर और स्थानीय अनुवादक जाने के लिए तैयार हुई, महिलाओं ने खाना शुरू कर दिया - चावल और हरी मिर्च जैसी दिखने वाली चटनी। यह सुबह 8 से 4 बजे के बीच महिलाओं के लिए एकमात्र भोजन था। ‘मलगामेटेड प्लांटेशंस प्राइवेट लिमिटेड’ के चीफ मेडिकल ऑफिसर, पूर्णानंद खाउंड स्वीकार करते हैं, " चाय बागानों में कुपोषण निश्चित रूप से समस्या है और यह केवल खराब आर्थिक स्थिति के कारण नहीं, बल्कि पौष्टिक भोजन की अनुपलब्धता के कारण भी है।”
इंडिया टुडे की 2 अक्टूबर, 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले साल, असम सरकार ने चाय बागानों में गर्भवती महिलाओं के लिए मजदूरी मुआवजा योजना शुरू की थी। इस नकद हस्तांतरण कार्यक्रम के तहत, चाय बागानों में काम करने वाली गर्भवती महिलाओं को सरकार द्वारा 12,000 रुपये प्रदान किए जाते हैं। सोनितपुर जिले की स्वास्थ्य सेवा की संयुक्त निदेशक कृष्णा केम्पराय कहती हैं, "महिलाओं को यह पैसा गर्भावस्था के दौरान और प्रसव के बाद किस्तों में मिलेगा। जो महिलाएं प्रति दिन 167 रुपये कमाती हैं, उन्हें पौष्टिक भोजन खरीदने के लिए मौद्रिक सहायता प्रदान करने से उनके स्वास्थ्य में सुधार हो सकता है।"
इन चाय बागान को अंग्रेजों द्वारा असम में बसाने के बाद से आठ पीढ़ियां बीत चुकी हैं। गांव बड़े हो गए हैं, और कुछ ग्रामीणों ने बागान के बाहर रोजगार पाया है, लेकिन सभी ने नहीं। खाउंद कहते हैं, “इतने सारे लोग हैं, जिन्हें चाय बागान में रोजगार मिला हुआ है। यह स्थिति गंभीर है और एक ईमानदार राजनीतिक समाधान की आवश्यकता है।”
जब एक मातृ मृत्यु की सूचना मिलती है, तो कारणों की जांच के लिए एक जिला-स्तरीय समिति का गठन किया जाता है। हालांकि, तंत्र प्रभावी रूप से कार्य नहीं करता है। जिला-स्तरीय अस्पतालों जैसे तेजपुर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल (ऊपर) में केवल कुछ मौतों की सूचना है। कई बिना लाइसेंस के चलते हैं।
अपंजीकृत मौतें
माताओं को बचाने का काम करने से पहले, भारत को मातृ मृत्यु की पहचान करने की आवश्यकता है। भारत नागरिक पंजीकरण और महत्वपूर्ण सांख्यिकी पोर्टल पर जन्म और मृत्यु के पंजीकरण की बात करें तो पता चलता है भारत पिछड़ रहा है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ो के अनुसार, भारत में लगभग 83.60 फीसदी जन्म और 67.40 फीसदी मौतें पंजीकृत हैं। भारत का पड़ोसी श्रीलंका जन्म और मृत्यु दोनों के 90 फीसदी या अधिक का पंजीकरण करता है, और भारत की तरह विकासशील देश ब्राजील, 99 फीसदी के करीब पंजीकृत करता है।
घर पर प्रसव के दौरान या अवैध गर्भपात के परिणामस्वरूप मातृ मृत्यु दर्ज नहीं की जाती। ‘डॉक्टर फॉर यू’ के सिंह कहते हैं, "अगर कोई प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र या ग्रामीण अस्पताल बहुत अधिक मातृ मृत्यु का पंजीकरण करता है, तो प्रशासन का दवाब उन पर बढ़ सकता है और इसलिए अगर कोई नहीं देख रहा है तो उन्हें पंजीकृत न करने की प्रवृत्ति है।"
यह कहने की बात नहीं है कि मातृ मृत्यु की जांच के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। सिद्धांत रूप में, प्रत्येक मृत्यु की जांच की जानी चाहिए। अब समितियों को जिला स्तर पर गठित करने की आवश्यकता है।
सोनितपुर के ‘तेजपुर मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल’ के प्रसूति एवं स्त्री रोग विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर जगन्नाथ पातर कहते हैं, "जब कोई मातृ मृत्यु होती है तो हम कारणों पर चर्चा करने और एक रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए एक बैठक आयोजित करते हैं।"
हालांकि, ऐसी जांच की सीमाएं हैं। अस्पताल में शव परीक्षण करने के लिए कोई सुविधा नहीं है। पातर ने कहा, "हमें यकीन नहीं है कि अगर हम रिपोर्ट बनाते हैं तो इसका असर पड़ता है या प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में प्रतिक्रिया पहुंचती है।"
प्रतिक्रिया सही जगह तक नहीं पहुंचती है, ‘नजदीक’ की रिपोर्ट ने इसकी पृष्टि की है।
यह सुनिश्चित करने का एक और तरीका है कि मातृ मृत्यु को सही तरीके से दर्ज किया जाए। आईआईपीएच के मावलंकर सुझाव देते हैं,“15 से 49 की प्रजनन आयु में महिलाओं की सभी मौतों को रिकॉर्ड करें और फिर जांच करें कि क्या वह महिला गर्भवती थी या हाल ही में वह मां बनी थी। इस तरह आप किसी भी मौत को छोड़ेंगे नहीं।”
यह प्रक्रिया महंगी नहीं है। श्रीलंका जैसे देश कम लागत पर सभी मातृ मृत्यु की जांच करते हैं। कई अध्ययन के अनुसार, श्रीलंका के मॉडल को दोहराया जा सकता है। मावलंकर कहते हैं, "भारत ने मातृ मृत्यु सहित सभी तरह की मौतों की रिकॉर्डिंग पर ध्यान नहीं दिया है।"
प्रत्येक मृत्यु को पंजीकृत करना और उनके पीछे के कारण की जांच करने से समस्याओं और इसके समाधानों की पहचान करने में मदद मिलेगी, जिससे बदले में हम अधिक मांओं की जिंदगी को बचा सकते हैं।
(शेट्टी इंडियास्पेंड में रिपोर्टिंग फेलो हैं।)
इस रिपोर्ट को अंतर्राष्ट्रीय महिला मीडिया फाउंडेशन (आईड्ब्ल्यूएमएफ) की ओर से रिपोर्टिंग अनुदान मिला था,उद्देश्य था महिलाओं की स्थिति को लेकर रिपोर्ट सामने आए।
यह आलेख पहली बार यहां HealthCheck पर प्रकाशित हुई थी।
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