आय और लैंगिक असमानताएं भारत के विकास में बाधक
नई दिल्ली: ‘यूनाइटेड नेशन्स डेवल्पमेंट फंड ’ के हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, भारत मानव विकास सूचकांक ( ह्यूमन डेवल्पमेंट इंडेक्स- एचडीआई ) पर अपने कई दक्षिण एशियाई पड़ोसियों से पीछे है। इसका मुख्य कारण असमानताएं है। ये असमानताएं भारत की आर्थिक वृद्धि में भी बाधाएं डालती हैं।
0.640 के स्कोर के साथ 2018 एचडीआई इंडेक्स पर 189 देशों में से भारत 130 वें स्थान पर है, जो इसे विकास के ‘मध्यम’ श्रेणी में रखता है। यह श्रीलंका (एचडीआई 0.77, रैंक 76) और चीन (0.75, 86) की तुलना में बद्तर है, लेकिन पाकिस्तान (0.56 और 150), नेपाल (0.57, 149) और बांग्लादेश (0.68, 136) से बेहतर है।
ह्यूमन डेवलप्मेंट इंडेक्स (एचडीआई) ब्रिक्स और दक्षिण एशिया- 2017
Source: 2018 Statistical Update, Human Development Indices and Indicators
भारत ने असमानताओं के कारण सूचकांक पर 26.8 अंक खोए हैं, जबकि इस कारक के लिए दक्षिण एशियाई औसत 26.1 अंक है। चूंकि ‘ह्यूमन डेवलप्मेंट इंडेक्स’ स्वास्थ्य, शिक्षा और आय से प्रेरित है। भारत को आर्थिक रूप से प्रगति करने और असमानताओं को कम करने के लिए इन मोर्चों पर ध्यान केंद्रित करना होगा।
यदि 2022 तक भारत अपनी अर्थव्यवस्था को दोगुना 350 लाख करोड़ रुपये करने की योजना बना रहा है, जैसा कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने अगस्त 2018 में कहा था और जैसा कि उन्होंने उम्मीद जाहिर की थी कि अर्थव्यवस्था में प्रति वर्ष 8 फीसदी की वृद्धि होगी, तो इसे स्वास्थ्य और शिक्षा में अधिक निवेश करने की आवश्यकता होगी।
अब जरा एक नजर कुछ जरूरी बातों पर:
180 लाख करोड़ रुपए के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के साथ, दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद, दुनिया भर के स्टंट बच्चों में से भारत की 30.8 फीसदी की हिस्सेदारी है। अपनी आयु के मुकाबले केवल कम कद ही नहीं, बल्कि भारत में पांच बच्चों में से एक कमजोर और कम वजन का है। अल्पपोषित बच्चे स्वस्थ रहने के लिए संघर्ष करते हैं और उनके लिए और स्कूल की कक्षाओं में और कार्यस्थल पर भी अपने साथ वालों के साथ चलना मुश्किल होता है।
आय के अवसरों की कमी के संदर्भ में,कुपोषण के कारण भारत की लागत 3.2 लाख करोड़ रुपये हो सकती है, जो कि 2018-19 के केंद्रीय बजट (1.38 लाख करोड़ रुपये) में स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा योजनाओं पर भारत द्वारा खर्च की गई राशि के दोगुने से अधिक है।
चीन में 20 वर्ष, ब्राजील में 16 और श्रीलंका में 13 वर्षों की तुलना में भारतीय चरम उत्पादकता पर केवल 6.5 वर्षों के लिए काम करते हैं। मेडिकल जर्नल ‘द लांसेट’ में प्रकाशित भारत मानव पूंजी की अंतर्राष्ट्रीय रैंकिंग में 195 देशों में से भारत 158 वें स्थान पर है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने सितंबर 2018 की रिपोर्ट में बताया है। वाशिंगटन विश्वविद्यालय में ‘इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन’ (आईएचएमइ) के निदेशक क्रिस्टोफर मरे कहते हैं, "हमारे निष्कर्ष शिक्षा और स्वास्थ्य में निवेश और मानव पूंजी और जीडीपी में सुधार के बीच के संबंध को दर्शाते हैं। नीति निर्धारकों का ध्यान अपने जोखिम पर नहीं है।” इंडियास्पेंड ने लिंग और आय असमानताओं का विश्लेषण किया है और कुछ समाधान के रास्ते दिखाए हैं:
लिंग का असंतुलन
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-4) 2015-16 के अनुसार, पिछले पांच वर्षों में प्रत्येक 1,000 लड़कों पर 919 लड़कियों का जन्म हुआ है। ( ग्रामीण क्षेत्रों 925 की तुलना में शहरी क्षेत्रों 899 की संख्या बदतर है ) इससे पुरुषों को वरीयता दिखती है। इसके अलावा, जब साक्षरता की बात आती है, तो पुरुषों (85.7 फीसदी) के साथ महिलाएं खराब (68.4 फीसदी) प्रदर्शन करती हैं। सर्वेक्षण से पता चलता है कि, केवल 35.7 फीसदी महिलाओं ने स्कूली शिक्षा में 10 से अधिक वर्ष पूरे किए हैं।
जबकि 16 वर्ष की आयु तक लड़के और लड़कियों की स्कूल में लगभग समान नामांकन दर थी। जब तक वे 18 के हुए तो महत्वपूर्ण अंतर दिखाई दिए हैं। लड़कियों और लड़कों दोनों के बीच कुछ सामान्य चीजों के लिए भी मुश्किलें दिखाई देती हैं, जैसे कि गिनती करना, समय बताना और वजन को जोड़ना-इसमें लड़कियों का प्रदर्शन बदतर रहा है, जैसा कि 2017 एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट से पता चलता है। घरेलू कामों पर ध्यान केंद्रित करने के साथ, चार में से एक लड़की(26.8 फीसदी) की शादी 18 साल की उम्र से पहले हुई है। शादी के बाद उसकी स्थिति खराब बनी रही - दो गैर-गर्भवती महिलाओं में से एक एनीमिक (53.2 फीसदी) थी, चार में से एक का वजन कम (22.9 फीसदी) था और तीन विवाहित महिलाओं में से एक (31.1 फीसदी) को वैवाहिक हिंसा का सामना करना पड़ा, जैसा कि एनएफएचएस -4 में दिखाया गया है। पहले की तुलना में अधिक शिक्षित होने के बावजूद, भारतीय महिलाएं उतना काम नहीं कर रही हैं। 2013 में, भारतीय कार्यबल में, 15 वर्ष से ऊपर की महिलाओं की केवल 27.2 फीसदी हिस्सेदारी थी।पुरुषों की तुलना में बहुत कम, जिनके लिए आंकड़े 78.8 फीसदी थे । यह दस साल पहले महिलाओं के 34.8 फीसदी के आंकड़ों से नीचे था, जैसा कि इंडियास्पेंड ने अगस्त 2017 की रिपोर्ट में बताया है। लिंग संकेतक पर भारत का प्रदर्शन अपने पड़ोसियों की तुलना में खराब है - यूएनडीपी के लिंग असमानता सूचकांक में भारत 189 में से 127 वें स्थान पर है, जो नेपाल (118), चीन (36), श्रीलंका (80) से कम है, लेकिन बांग्लादेश (134) और पाकिस्तान (133) से जरूर अधिक है।
व्यापक असमानता
2018 के विश्व असमानता रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुल धन के 55 फीसदी को टॉप 10 फीसदी द्वारा नियंत्रित किया जाता है और यह दुनिया के सबसे असमान देशों में से एक है। हम बता दें कि 1980 में यह आंकड़े 31 फीसदी थे। नीचे के लोग 50 फीसदी कुल धन का केवल 15.3 फीसदी नियंत्रित करते हैं। रिपोर्ट से पता चलता है कि जबकि 1980 के दशक से टॉप 1 फीसदी की संपत्ति बढ़ रही है, नीचे के 50 फीसदी की संपत्ति घट रही है।
कुछ जातियां और समुदाय दूसरों की तुलना में अधिक नुकसान में हैं। मुसलमानों और बौद्धों के पास संपत्ति का सबसे कम हिस्सा है और इसमें 2002 से 2012 तक गिरावट हुई है, जैसा कि 2018 के ऑक्सफैम इंडिया रिपोर्ट से पता चलता है। भारत की आबादी में 8 फीसदी हिस्सेदारी के बावजूद, अनुसूचित जनजाति की सबसे कम धन समूह में 45.9 फीसदी की हिस्सेदारी है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने फरवरी 2018 की रिपोर्ट में बताया है। अधिकांश धन के वितरित होने की संभावना कम है। पांच अन्य बड़े विकासशील देशों - ब्राज़ील, चीन, मिस्र, इंडोनेशिया और नाइजीरिया के नागरिकों की तुलना में भारतीयों की अपने माता-पिता की आय और शैक्षिक ब्रैकेट तो तोड़ने की कम संभावना है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने जून 2018 में विश्व बैंक की एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताया है।
विभिन्न अध्ययनों से पता चलता है कि, कम धन का परिणाम कम जीवन प्रत्याशा, खराब स्वास्थ्य परिणामों और खराब शिक्षा के रुप में होता है। यह इस तथ्य को जोड़ता है कि स्वास्थ्य की आपात स्थिति अक्सर लोगों को गरीबी में धकेल देती है - 2011-12 में 50 लाख भारतीय।
लोगों पर निवेश करना क्यों है महत्वपूर्ण
ये कारक बताते हैं कि सामाजिक खर्च में निवेश एक जरूरत है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक टेड्रोस एडहोम घेब्यियस ने एक बयान में कहा है, "मुख्य रूप से बुनियादी ढांचे के बजाय लोगों में निवेश करना स्थायी विकास को प्राप्त करने का सबसे अच्छा तरीका है। मानव स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए निवेश आकर्षक रिटर्न प्रदान करता है।"
महिलाओं की भलाई सुनिश्चित करें: इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा 2018 के एक अध्ययन के अनुसार बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) शिक्षा, प्रारंभिक विवाह और प्रसवपूर्व देखभाल (एएनसी) तक पहुंच से अनुमानित महिलाओं की भलाई में भारत में उच्च और निम्न स्टंटिंग दरों के बीच के आधे अंतर को समझा सकता है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने जुलाई 2018 की रिपोर्ट में बताया है। अध्ययन में पाया गया है कि, जब बच्चों में स्टंटिंग की संभावना बढ़ी तो बच्चों के पर्याप्त आहार (9 फीसदी) से भी ज्यादा महिलाओं के बीएमआई (19 फीसदी) का महत्व रहा है। पिछले कई अध्ययनों में (यहां और यहां ) भी इस बात की पुष्टि हुई है कि महिला स्वास्थ्य और सशक्तीकरण ने बाल स्वास्थ्य और पोषण को सीधे प्रभावित किया है।
अच्छे स्वास्थ्य को सुनिश्चित करना और लड़कियों के लिए आर्थिक विकास के अधिक अवसरों का परिणाम न केवल उत्पादकता और आर्थिक रिटर्न में वृद्धि है, बल्कि यह भविष्य में एक अधिक स्वस्थ आबादी के लिए जरुरत भी है।
नकद हस्तांतरण: नकद हस्तांतरण का उपयोग लैटिन अमेरिका, अफ्रीका और एशिया में गरीबी को कम करने के लिए किया गया है और इनसे आर्थिक नीतियों के "ट्रिकल-डाउन" प्रभावों से अपेक्षित परिणाम तेजी से प्राप्त हुए हैं, जैसा कि 2017 की इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन वर्किंग पेपर में कहा गया है। पेपर में कहा गया है कि, "हालांकि व्यवहारगत लाभ जरूरत से कम हो गया है, लेकिन पर्याप्त स्तर पर नकदी हस्तांतरण लोगों को रातों-रात गरीबी से बाहर निकाल सकता है।" असमानता का एक मापक गिनी इंडेक्स के अनुसार, 1995 से 2004 के बीच ब्राजील में नकदी हस्तांतरण यानी कैश ट्रांसफर ने 28 फीसदी तक असमानता को कम करने में मदद की और 2006 में बाल स्टंटिंग को 13.6 फीसदी से 7 फीसदी तक आधा किया है। एक सार्वभौमिक बुनियादी आय-यूबीआई (आवधिक, आवर्ती, बिना शर्त नकद भुगतान ) की 2016-17 में भारत के आर्थिक सर्वेक्षण में चर्चा की गई थी। रिपोर्ट में कहा गया है कि यूबीआई मौजूदा कल्याण प्रणालियों से रिसाव को कम करने और गरीबों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने में मदद कर सकता है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने जून 2017 में बताया है। हमने बताया है कि, अगर 75 फीसदी आबादी को प्रति व्यक्ति 6,450 रुपये प्रति वर्ष मिलते हैं, तो यूबीआई की लागत भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 4.2 फीसदी होगा। हालांकि, सरकार ने कहा था कि यह राजनीतिक या आर्थिक रूप से संभव नहीं है।
वास्तविक ‘सार्वभौमिक’ स्वास्थ्य कवरेज:
जीडीपी का 1.02 फीसदी पर, भारत का सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय दुनिया में सबसे कम है। यह आंकड़े विशेषज्ञों द्वारा अनुशंसित 5 फीसदी और अन्य निम्न-आय वाले देश-जिनका औसत 1.4 फीसदी है- उनसे कम है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के अनुसार 2025 तक भारत ने अपने सकल घरेलू उत्पाद का 5 फीसदी तक खर्च करने की प्रतिबद्धता जताई है।
अधिक निवेश सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को मजबूत करने और स्वास्थ्य देखभाल की पहुंच और सामर्थ्य में सुधार का तरीका है।
हालांकि भारत ने अपने महत्वाकांक्षी आयुष्मान भारत योजना को 10 करोड़ भारतीय परिवारों का बीमा करने और 500,000 रुपये तक का कवर प्रदान करने के लिए शुरू किया है, लेकिन पिछले अनुभव से पता चला है कि बीमा मॉडल से गरीबी नहीं रूकती है, क्योंकि यह आउट पेशेंट लागत या दवाओं की लागत को कवर नहीं करता है, जो स्वास्थ्य देखभाल में दो बड़े खर्च हैं। थिंक टैंक ‘पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया' के निदेशक श्रीनाथ रेड्डी ने जनवरी 2018 में इंडियास्पेंड को बताया था, “हमें एक (स्वास्थ्य सेवा) प्रणाली की जरूरत है, जो वास्तव में वित्तीय सुरक्षा, उचित देखभाल और सार्वभौमिक पहुंच प्रदान करे। बीमा कार्यक्रमों को अच्छे इरादे से लाया जाता है, लेकिन वे इन उद्देश्यों को पूरा नहीं करते हैं।” रेड्डी कहते हैं, “प्राथमिक, माध्यमिक और तृतीयक सेवाओं के संयोजन और कई हेल्थकेयर-फंडिंग संसाधनों के माध्यम से एक एकल भुगतान प्रणाली बनाना और एक बड़ा जोखिम पूल बनाना सही मायने में सार्वभौमिक कवरेज प्रदान करने का एक तरीका है।”
( यदवार प्रमुख संवाददाता हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं।)
यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 2 जनवरी 2019 को indiaspend.com पर प्रकासित हुआ है।
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