उत्तर प्रदेश में क्यों बदहाल है मिड डे मील योजना
लखनऊ: अगस्त 2019 में सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुआ। यह वीडियो उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर ज़िले के एक स्कूल का था जिसमें स्कूल के बच्चों को मिड डे मील में नमक और रोटी परोसते दिखाया गया है। मीडिया रिपोर्ट्स में उत्तर प्रदेश में मिड डे मील के दौरान नमक और रोटी परोसने पर सवाल खड़े किए गए और फिर मामले की जांच शुरु हो गई। यह मामला अभी ठंडा भी नहीं हुआ था कि अक्टूबर 2019 में उत्तर प्रदेश के ही सीतापुर ज़िले का एक और वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया। इस वीडियो में मिड डे मील के दौरान बच्चों को हल्दी का पानी और कच्चे चावल परोसते दिखाया गया था।
मिड डे मील में अनियमितताओं को लेकर देशभर के लगभग हर कोने से ऐसी ख़बरें आती रहती हैं। मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने एक सवाल के जवाब में 25 नवंबर 2019 को लोकसभा को बताया कि 2016 से लेकर 2019 तक कुल 931 बच्चे मिड डे मील का खाना खा कर बीमार हुए हैं। उत्तर प्रदेश में बीमार होने वाले बच्चों की संख्या कुल 154 रही। निशंक ने मिड डे मील से जुड़े भ्रष्टाचार के मामलों की भी जानकारी दी। पिछले तीन साल में मिड डे मील में भ्रष्टाचार के 52 मामले सामने आए जिसमें से 14 उत्तर प्रदेश से थे। इन 52 में से 47 मामलों की जांच अभी चल रही है।
बजट
मिड डे मील, भारत सरकार की एक महत्वाकांक्षी योजना है जिसके अंतर्गत पूरे देश के प्राइमरी और अपर प्राइमरी स्कूलों के छात्रों को स्कूलों में दोपहर का पका हुआ भोजन दिया जाता है। 15 अगस्त 1995 में शुरू हुई इस योजना के तहत पहले छात्रों को अनाज दिया जाता था। सितंबर 2004 में यूपीए-1 सरकार ने स्कूल आने वाले बच्चों को स्कूल में पका हुआ भोजन देने का फ़ैसला किया।
वित्त वर्ष 2019-20 के बजट में मिड डे मील योजना के लिए 11,000 करोड़ रुपये आवंटित किए गए। मिड डे मील के लिए आवंटित यह राशि मोदी सरकार के अब तक पेश हुए सभी बजट के मुक़ाबले सबसे ज़्यादा है, लेकिन फिर भी यह यूपीए सरकार के वित्त वर्ष 2013-14 में आवंटित 13,215 करोड़ रुपये से काफ़ी कम है। मोदी सरकार के पहले बजट में मिड डे मील के लिए 9,236 करोड़ रुपये आवंटित किए गए, जो यूपीए सरकार के आख़िरी बजट से लगभग 30% कम था। 2018-19 के बजट में मिड डे मील के लिए 10,500 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे लेकिन बजट के संशोधित अनुमान में इस राशि को घटाकर 9949.04 करोड़ रुपये कर दिया गया।
“बजट में कटौती, निश्चित ही इसकी (मिड डे मील की) गुणवत्ता में गिरावट का कारण हो सकता है। बच्चे चूंकि मतदाता नहीं है, इसलिए सरकार की नज़र में उनके मुद्दे, मुद्दे ही नहीं हैं,” देहात संस्था के निदेशक समाजसेवी डॉ जितेन्द्र चतुर्वेदी ने कहा। उनका कहना था कि किसी भी सरकार का बच्चों के अधिकारों की अनदेखी करना दुर्भाग्यपूर्ण है। मिड डे मील साल 2001 में दायर एक याचिका के तहत सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद लागू हुआ था। इसकी गुणवत्ता सरकारों की जवाबदेही है।
गांव के स्तर पर अनियमितताएं
दरअसल मिड डे मील का जो बजट आता है वह स्कूल के प्रिंसीपल और गांव के प्रधान के संयुक्त खाते में 4.48 रुपये प्रति छात्र के हिसाब से आता है। मिड डे मील में कोई टीचर या प्रिंसीपल बच्चों को अपनी मर्ज़ी का भोजन नहीं दे सकता। सरकार की तरफ़ से यह निर्धारित है कि किस दिन छात्रों को खाने में क्या दिया जाना है। सोमवार को दाल-रोटी, मंगलवार को दाल-चावल, बुधवार को तहरी, बृहस्पतिवार को रोटी-सब्ज़ी, शुक्रवार फिर तहरी और शनिवार सब्ज़ी-चावल। इस भोजन के लिए मात्रा भी तय है। चावल और आटे की मात्रा 100 ग्राम प्रति छात्र निर्धारित की गई है। चावल-आटे के अलावा दाल-तेल हर चीज़ की मात्रा निर्धारित है।
Mid day meal’s weekly schedule in UP | |
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Day | Meal |
Monday | Dal-chapati |
Tuesday | Dal-rice |
Wednesday | Veg. pulao |
Thursday | Vegetable-chapati |
Friday | Veg. pulao |
Saturday | Vegetable-rice |
Source: www.upmdm.org
“प्राथमिक स्तर के 100 बच्चों के लिए 10 किलो आटा, एक किलो दाल, आधा किलो तेल और अगर सब्ज़ी का दिन है तो 5 किलो सब्ज़ी दिए जाने का प्रावधान है और अगर बच्चे उच्च माध्यमिक स्तर के हैं तो यह बढ़ कर 15 किलो आटा या चावल, ढेड़ किलो दाल और साढ़े सात किलो सब्ज़ी हो जाती है। लेकिन ज़्यादातर मामलों में रसोइये को यह पूरा सामान मिल नहीं पता क्योंकि मिड डे मील का जो पैसा आता है वह ग्राम प्रधान और प्रधानाचार्य के संयुक्त खाते में आता है। ज़्यादातर ग्राम प्रधान इसे अपनी कमाई का ज़रिया मानते हैं,” बहराइच ज़िले के यादवपुर गांव के स्कूल के प्रधानाध्यापक राजेश कुमार पाण्डेय ने बताया।
यादवपुर के प्रधानाचार्य राजेश कुमार पाण्डेय ने बताया कि ग्राम प्रधान यह मानकर नहीं चलते कि यह हम जनसेवा का काम कर रहे हैं। उसको वह एक कमाई का ज़रिया मानते हैं।
“आमतौर पर गांव के प्रधान ज़रूरत के हिसाब से सामान नहीं देते। जैसे कि अगर 3 किलो तेल की ज़रूरत है तो एक या डेढ़ किलो दे दिया। जहां-जहां ग्राम प्रधान का हस्तक्षेप है, सब जगह कमोबेश यही स्थिति है,” राजेश ने बताया।
“अब हमारे यहां सभी ठीक-ठाक मास्टर आ गए हैं इसलिए मिड डे मील की व्यवस्था सुचारू रूप से चल रही है, मेरी किसी से कभी कोई झड़प नहीं हुई है,” यादवपुर ग्राम की प्रधान, अक़ीदा बेग़म के प्रतिनिधि, उनके पुत्र अल्लादीन ने सफ़ाई देते हुए कहा।
“टीचर चूंकि बाहर से आता है इसलिए वह सीधे उनसे टकरा नहीं सकता। कई बार ऐसी घटनाएं हुई हैं जब ग्राम प्रधान या उनके प्रतिनिधि ने ज़रूरत के हिसाब से सामान मांगने पर अध्यापक को स्कूल में बेइज़्ज़त किया है,” आर टी आई एक्टिविस्ट रौशन लाल नाविक ने बताया।
“ग्राम प्रधान का इसमें हस्तक्षेप होने से वह गुणवत्ता नहीं आ पा रही है जैसी सरकार चाहती है। अध्यापक खाना बनवाता है तो उसे अपनी नौकरी का डर रहता है। ग्राम प्रधान जनप्रतिनिधि होने के साथ-साथ स्थानीय होता और कोई जांच या कार्रवाई होती है तो वह प्रधान पर नहीं बल्कि अध्यापक पर होती है,” नाविक बताते हैं।
“मिड डे मील को और बेहतर बनाने के लिए नई तकनीकों का इस्तेमाल करना चाहिए,” शिक्षा के अधिकार पर काम करने वाली समाजसेवी समीना बानो ने बताया। उन्होंने कहा, “भोजन की गुणवत्ता को बेहतर करने के लिए स्कूलों में किचन गार्डन की शुरूआत करनी चाहिए। इससे बच्चों को ताज़ी सब्ज़ी भी मिलेगी और बाग़बानी सीखने का मौका भी मिलेगा।”
इंडियास्पेंड ने 7 जनवरी 2020 की अपनी रिपोर्ट में बताया था कि स्कूलों में किचन गार्डन यानी पोषण वाटिका से बच्चों के पोषण की स्थिति में सुधार आ रहा है।
रसोई की कमी
उत्तर प्रदेश में रसोई की संख्या की बात करें तो अभी भी 23,610 रसोई की कमी है। एक जांच के अनुसार उत्तर प्रदेश के 29 ज़िलों से मिड डे मील की 1,394 थालियों के सैंपल लिये गये थे जिनमें से 1,031 खाने योग्य थीं।
मिड डे मील में हो रही लापरवाहियों से साफ़ नज़र आता है कि बच्चों के खाने में पोषक तत्वों की कमी है। बच्चों के भोजन में पोषक तत्वों का होना बहुत ज़रूरी है। इसके अभाव में वो कुपोषण का शिकार हो सकते हैं। इंडियास्पेंड ने 13 दिसंबर 2019 की अपनी रिपोर्ट में बताया था कि देश की बड़ी आबादी में माइक्रोन्यूट्रीएंट्स यानी सूक्ष्म पोषक तत्वों की भारी कमी पाई गई है।
मिड डे मील और कुपोषण
11 जुलाई 2019 को राज्य सभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने एक रिपोर्ट साझा की। इस रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में 5 साल से कम उम्र के 39.5% बच्चे अंडरवेट हैं और 46.2% बच्चे अविकसित क़द वाले हैं। इन सब का एक मात्र कारण है कुपोषण।
स्कूल जाने वाले सभी बच्चों को मिड डे मील दिया जाता हो ऐसा नही्ं है। उत्तर प्रदेश में मिड डे मील पर केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट इसकी तरफ़ इशारा करती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ साल 2017-18 में उत्तर प्रदेश में 57% बच्चों को मिड डे मील सुविधा का लाभ मिला। यानि 43% बच्चे इस सुविधा से वंचित रहे। प्राइमरी स्कूलों में 59% और अपर प्राइमरी में यह आंकड़ा 53% रहा। प्राइमरी स्कूलों का कवरेज राष्ट्रीय औसत से 17 फ़ीसदी कम था। अपर प्राइमरी में यह आंकड़ा राष्ट्रीय औसत से 23 फ़ीसदी कम रहा।
अगले साल यानी 2018-19 में भी इस आंकड़े में कोई सुधार नज़र नहीं आया। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की रिपोर्ट के मुुताबिक़ 2018-19 में प्राइमरी स्कूलों में 58% और अपर प्राइमरी स्कूलों में 54% बच्चों को ही मिड डे मील मिला।
“हर स्कूल को फ़ोन कॉल की जाती है कि आज कितने बच्चे आए, कितनों ने खाना खाया, इस तरह की चीज़ों को और बढ़ाने की ज़रूरत है और इसके आंकड़े सार्वजनिक कर देने चाहिए,” समीना बानो ने कहा।
(अज़ीम और आदित्य, लखनऊ में स्वतंत्र पत्रकार हैं और 101Reporters.com के सदस्य हैं।)
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