केवल आरक्षण है बेरोज़गारी की समस्या का हल?
नई दिल्ली में विरोध प्रदर्शन के दौरान नारे लगाते जाट समुदाय के लोग। पिछले हफ्ते भर से ये लोग जाट समुदाय के लिए आरक्षण की मांग कर रहे हैं जिसमें कम से कम 19 लोगों की मौत हुई है एवं कई गाड़ियों को जलाया गया है। हिंसा घटनाओं को काबू में करने के लिए सेना तैनात किया गया है।
सोनीपत, गुड़गांव, नई दिल्ली: चौड़ी ठोड़ी और बिखरे हुए बालों वाले विकास ठकरान की आंखों में गुस्सा दिखता है जब वह भारत की राजधानी के 30 किमी दक्षिण पश्चिम स्थित बख्तावर चौक को जाम करने की जुलूस में शामिल होने का कराण बताते हैं। सप्ताह भर से चल रहें हिंसक अभियान में कम से कम 12 लोगों की जान गई है, कई गाड़ियां एवं रेलवे स्टेशन फूंके गए हैं। स्थिति को काबू में रखने के लिए सेना को तैनात करना पड़ा है।
24 वर्षिय ठकरान कंप्यूटर साइंस इंजीनियर है, लेकिन बेरोज़गार है। इंडियास्पेंड से बात करते हुए ठकरान बताते हैं कि, “मैंने सरकारी नौकरियों के लिए चार-पांच बार आवेदन दिया लेकिन एक बार भी मेरा चुनाव नहीं हुआ हैं।” हमने प्रदर्शन कर रहे जाट समुदाय के लोगों में, (जिनके संबंध में लोगों का कहना है कि विरोध करने की कोई आवश्यकता नहीं है) ठकरान की ही तरह कई शिक्षित एवं नाराज़ लोगों को पाया जिनके पास या तो कई रोज़गार नहीं है या जिन्हें अपनी शिक्षा एवं योग्यता अनुसार काम नहीं मिला है।
I still don't understand why Jats need reservations. Even richest people give them space on roads when they read "Jat Boy Inside. Stay Far"
— Rahul Raj (@bhak_sala) February 20, 2016
पारंपरिक रुप से जमीन मालिक, एक शक्तिशाली हिंदू समुदाय जाट, अब "पिछड़े" जाति के रूप में वर्गीकरण की मांग कर रहे हैं - एक विवाद जिसे सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल खारिज कर दिया था – ताकि सरकारी नौकरियों में उनके लिए जगह आरक्षित की जा सके। हालांकि, रोज़गार आंकड़ों पर इंडियास्पेंड के विश्लेषण एवं युवा जाट की आकांक्षाओं के मूल्यांकन से पता चलता है कि यह विरोध प्रदर्शन का कारण भारत में धीमी गति से हो रहे अपर्याप्त नौकरी सृजन एवं असफल शिक्षा प्रणाली से हज़ारों स्नातकों का “बेरोज़गार” बनना है। शिक्षा, आकांक्षाओं और रोजगार के अवसरों के बीच असंबंधन, इसी तरह संतोषजनक रोजगार खोजने के संघर्ष के लिए "पिछड़े" एवं सामाजिक रूप से शक्तिशाली जाति समूहों द्वारा "अन्य पिछड़े जाति (ओबीसी)" - गुर्जर (राजस्थान), मराठों (महाराष्ट्र), पटेल (गुजरात) और कापू (आंध्र प्रदेश) - में वर्गीकृत होने की मांग की व्याख्या करते हैं।
2014 में संगठित उद्योग में 500,000 नौकरियां जुड़ी हैं; भारत में एक महीने में एक मिलियन से भी अधिक की आवश्यकता
रोहतक शहर के रहने वाले, 24 वर्षिय, सौरभ रंगी ने अखिल भारतीय इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा (एआईईईई) में 75 फीसदी अंक प्राप्त किया है लेकिन अब भी वह हरियाणा के गुड़गांव शहर – दिल्ली से 30 किमी दूर – की सड़कों पर खाक छान रहा है क्योंकि उसे किसी भी सरकारी कॉलेज में दाखिला नहीं मिला है एवं किसी प्राइवेट कॉलेज से स्नातक होने के लिए उसे लाखों रुपए देने होंगे। रंगी नाराज़ है; वह cardekho.com, ऑटोमोबाइल वेबसाइट, में बतौर ट्रेनी काम कर रहा है लेकिन वह सरकारी नौकरी करना चाहता है। गोहाना, सोनीपत, रोहतक के 43 किलोमीटर पश्चिम में किए गए प्रदर्शन में भाग लेने वाले केशव लाथर कहते हैं, “मैंने 2013 में बी-टेक किया है। मैंने केंद्रीय सरकारी नौकरी के लिए आवेदन दिया है लेकिन आरक्षण के कारण हमेशा मैं पीछे रह जाता हूं...एक प्रोफेशनल शिक्षा का मतलब हमेशा एक अच्छी नौकरी नहीं होती है। जिस तरह की नौकरियां एवं तनख्वाह हमारे कुछ दोस्तों को ऑफर की गई हैं, उसे देख कर हम अचंभित हैं।”
जैसा कि इंडियास्पेंड ने पहले ही अपनी खास रिपोर्ट में बताया है कि हर महीने श्रम-शक्ति में जुड़ने वाले एक मिलियन से अधिक भारतीयों में अधिकर श्रमिक, गार्ड, घरों में काम करने वाले रोज़गार शामिल हैं। हम विस्तार में बाद में यह बताएंगे कि 30 वर्षों के दौरान, हर वर्ष भारत में सात मिलियन नौकरियों से अधिक का सृजन नहीं किया गया है। यही कारण है कि देश भर में प्रदर्शकारी सुरक्षित सरकारी नौकरियों की मांग कर रहें हैं; यही कारण है कि क्यों डॉक्टर और इंजीनियर, चपरासी, क्लर्क और कांस्टेबलों की नौकरियों के लिए भी तैयार रहते हैं (जैसा कि पिछले वर्ष इन्होंने उत्तर प्रदेश में किया है जब 368 चपरासी के पोस्ट के लिए 2.3 मिलियन लोगों ने आवेदन दिया था।) हमने पहले यह भी बताया है कि, नए रोज़गार आंकड़ों से दो बेचैन करने वाली प्रवृतियों के संकेत मिलते है। एक, औपचारिक, संगठित क्षेत्र, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मेक इन इंडिया कार्यक्रम की मुख्य नींव है, उसमें रोज़गार की धीमी गति होना (जिससे भारत की श्रम शक्ति के केवल 12 फीसदी को रोजगार मिलता है)। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, वित्त वर्ष 2012-13 के दौरान, भारतीय कारखानों में, 400,000 से अधिक लोगों को अपनी नौकरी गवां दी है। दूसरा, यह धीमी गति एक बड़ी और लंबी अवधि की प्रवृति छुपाता है: इंडिया इंक स्वचालित है एवं अपने कार्यकर्ताओं से अधिक उत्पादन कराने में समर्थ है और इसलिए इसे कम कार्यकर्ताओं की आवश्यकता है। यदि अलग से देखा जाए तो, ताज़ा सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 2013-14 में, संगठित उद्योग ने करीब 500,000 नौकरियां जोड़ी हैं। श्रम मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, भारत में बेरोज़गारी 5 फीसदी से कम है, लेकिन यह आंकड़े आंशिक या प्रच्छन्न -रोजगार को प्रतिबिंबित नहीं करते हैं। 2013-14 की श्रम मंत्रालय की इस रिपोर्ट के अनुसार, कुल भारतीयों में से करीब 17 फीसदी वेतन अर्जक थे। इनमें से 15 वर्ष की उम्र से ऊपर लोगों की संख्या करीब 60 फीसदी थी जिन्हें एक साल की तलाश के बाद काम मिला हो। (शहरी भारत के 46 फीसदी से अधिक लोगों को काम नहीं मिला था)।
इतनी बेरोज़गारी के साथ, आरक्षण से कैसे निकलेगा रोज़गार की समस्या का समाधान?
हमने हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश में कई जाट युवाओं से इसी तरह की बेरोज़गारी और असंतोष की कहानियां सुनी हैं। झज्जर, मलिकपुर, दिल्ली के 72 किलोमीटर पश्चिम, में रहने वाले अमित नेनीवाल कंपनी सचिव बनने की पढ़ाई कर रहे हैं लेकिन कई लोगों की तरह है इनके दिमाग में भी बेरोज़गारी के डर ने घर किया हुआ है। दिल्ली के दूसरी ओर, उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के 23 वर्षिय मनीष बलयान कहते हैं कि, “जाटों की मांग पूरी तरह सही है। हमारे समुदाय के भीतर कुछ लोग पीढ़ियों से सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं।”
आशा से कम उपलब्धि एवं हताशा काफी हद तक बढ़ती जनसंख्या और कम होते खेतों का परिणाम है। जो लोग खेतों से दूर हो गए हैं उन्हें अक्सर लगता है कि शिक्षा पर्याप्त नहीं है। उद्हारण के लिए, एसपायरिंग माइंड्स, एक रोजगार समाधान कंपनी, के अध्ययन के अनुसार, 74 फीसदी खराब अंग्रेज़ी कौशल, 58 फीसदी पर्याप्त विश्लेषणात्मक या मात्रात्मक कौशल की कमी के साथ, सॉफ्टवेयर या कोर इंजीनियरिंग जॉब चाहने वालों में से ऐसे लोगों की संख्या 3 फीसदी से अधिक नहीं है जो इन नौकरियों के लिए बेहतर हों। 21 फरवरी को, केंद्र ने कुछ जाट आरक्षण की मांगों को मान लिया है, लेकिन क्या अकेले आरक्षण से बेरोजगारी की बड़ी समस्या का समाधान होगा? इसकी संभावना तो नहीं लगती है। कोटक सिक्योरिटीज की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में सालाना 23 मिलियन नौकरियों की आवश्यकता है लेकिन पिछले 30 वर्षों में देश में हर साल सात मिलियन नौकरियों का ही सृजन हुआ है।
क्षेत्रों में रोज़गार की वृद्धि
वर्ष 2012 में, भारत में 9.9 मिलियन रोज़गार का सृजन हुआ है। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 9 फीसदी विकास दर से – सरकार का जीडीपी विकास दर 7 से 7.5 फीसदी का अनुमान करती है- 12.9 मिलियन से अधिक नौकरियों का सृजन नहीं हो सकता है, जो कि आवश्यकता के अनुमानित आंकड़ों से लगभग आधी है।
उद्योग द्वारा अनुमानित वार्षिक रोज़गार सृजन
संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि 2020 तक दुनिया की सबसे बड़ी युवा आबादी भारत में होगी, और वह आबादी, 15-34 वर्ष की आयु वर्ग, 2001 में 353 मिलियन से बढ़ कर 2011 में 430 मिलियन हुई है जिसमें से कई मिलियन बेरोज़गार हैं। अर्थशास्त्री अजित रानाडे कहते हैं, “भारत को केवल हर साल 23-24 मिलियन नौकरियों की ही आवश्यकता नहीं है, ज़रुरत है आजीविका की।” कोटक रिपोर्ट कहती हैं कि जैसा कि अधिक महिलाएं श्रम शक्ति में शामिल हो रही है, अगले दस वर्षों में 250 मिलियन से अधिक लोग नौकरी की तलाश में होंगे। इस संख्या में उन लोगों को शामिल नहीं किया गया है जो कृषि से पलायन करेंगे। रानाडे कहते हैं कि रोजगार के अवसर केवल नए निवेश और उद्यमों से ही आएंगे। वह आगे कहते हैं कि, “यदि हर महीने हमें दो मिलियन रोज़गार का सृजन करना है तो हमें हर महीने 20,000 से 50,000 नए उद्यमों को भी बनाने की ज़रुरत है। व्यापार चक्र के इस स्तर पर, हमें बुनियादी ढांचे में निवेश के लिए एक बड़े धक्के या दबाव की जरूरत है।” यदि ऐसा होता है तो भी, कार्यक्षमता के मुद्दों – एवं रोज़गार विकास की धीमी गति - को देखना होगा।
सरकार का लक्ष्य: हर सप्ताह एक मिलियन लोगों को कौशल सक्षम बनाना (2022 तक 400 मिलियन लोग)
मिंट की इस रिपोर्ट के अनुसार, पिछले पांच वर्षों में कृषि - जो सभी रोज़गार का 60 फीसदी प्रदान करता है – में भारी गिरावट हुई है। द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रों में, आंकड़े बताते हैं कि सीमित विकास के बाद भी रोज़गार दर में गिरावट हुई है। प्रति फैक्ट्री श्रमिकों की संख्या 1970-71 में लगभग 65 से गिरकर 2012-13 में 45 हुई है। कोटक की रिपोर्ट के अनुसार, एक आंकड़ा जो जाट इंजीनियरों के बीच कुंठा की व्याख्या करती है, वर्ष 2015 में, सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में, 1.4 मिलियन लोगों को नौकरी की तलाश थी जिनमें से 209,000 या 17 फीसदी लोगों को रोज़गार प्राप्त हुआ है।
प्रतिभा उत्पादन एवं उद्योग मांग (वित्तीय वर्ष, 2011-15)
Source: Kotak Game-Changer Perspectives compilation, December 31, 2015
प्रतिभा की मांग, वित्तीय वर्ष, 2011-15
बैंकिंग क्षेत्र में, सरकारी और निजी बैंकों द्वारा शुद्ध काम पर नियुक्त करने की संख्या वर्ष 2012 में 124,857 से गिर कर 2015 में 33,224 हुई है।
बैंक: कुल कर्मचारी एवं काम पर रखे गए लोगों की शुद्ध संख्या वित्तीय वर्ष, 2010-15
Source: Kotak Game-Changer Perspectives compilation, December 31, 2015
जैसा कि इंडियास्पेंड ने बताया है कि, सड़कों पर उतरे युवा जाटों से बातचीत कर पता चलता है कि यह अनौपचारिक क्षेत्रो की नौकरियां नहीं चाहते हैं, लेकिन यहां भी 2004-05 के बाद से रोज़गार में 6 फीसदी की गिरावट हुई है – और यह वह क्षेत्र है जो सबसे अधिक रोज़गार प्रदान करता है, करीब 340 मिलियन।
रानाडे कहते हैं कि सरकार को छोटे और मध्यम उद्यमों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, बुनियादी ढांचे में सुधार करना चाहिए, कर ढांचे को तर्कसंगत बनाना चाहिए, पारंपरिक उद्योगों में कौशल पुनर्जीवित करना चाहिए, श्रमिकों को कुशल बनाने के लिए तकनीकी प्रशिक्षण संस्थानों की स्थापना करनी चाहिए एवं और व्यापार करने में आसानी सुनिश्चित करनी चाहिए।
नए कौशल का विकास एवं पुराने श्रमिकों को फिर से कुशल बनाना सबसे महत्वपूर्ण दृष्टिकोण है लेकिन जैसा की इंडियास्पेंड की रिपोर्ट से संकेत मिलता है कि मोदी द्वारा बड़े पैमाने पर आरंभ किए गए कौशल विकास के प्रयास में काफी कुछ करने की आवश्यकता है।
दिसंबर 2015 में, हार्वर्ड यूनिवर्सिटिज़ के केनेडी स्कूल ऑफ गवर्मेंट के शोधकर्ताओं ने इंडियास्पेंड में लिखा था कि, “2022 तक 40 करोड़ (400 मिलियन) भारतीयों को प्रशिक्षित करने का लक्ष्य निश्चित रुप से बहुत महत्वकांक्षी है, योजना को सफल बनाने के लिए प्रति सप्ताह एक मिलियन लोगों को प्रशिक्षित करना होगा।”
"परिप्रेक्ष्य के लिए: 2014 में केवल 7 मिलियन भारतीयों को प्रशिक्षित किया गया है, और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण से पता चलता है कि 2012 तक, 5 फीसदी से भी कम लोगों ने कभी औपचारिक कौशल प्रशिक्षण प्राप्त किया है। इस योजना को सफल बनाने के लिए प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले युवाओं की पहचान करना एवं लक्ष्य साधना महत्वपूर्ण है। हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि मौजूदा भर्ती रणनीतियां इन भारी भरकम लक्ष्य तक पहुँचने के पर्याप्त हैं या नहीं।"
(बाबू दिल्ली स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं। घोष 101reporters.com के साथ जुड़े हैं। यह जमीनी पत्रकारों के एक भारतीय नेटवर्क है। अतिरिक्त जानकारी 101reporters के प्रथमेश मुल्य ने दिया है।)
यह लेख मूलत: अंग्रेज़ी में 23 फरवरी 2016 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।
हम फीडबैक का स्वागत करते हैं। हमसे respond@indiaspend.org. पर संपर्क किया जा सकता है। हम भाषा और व्याकरण के लिए प्रतिक्रियाओं को संपादित करने का अधिकार रखते हैं।
________________________________________________________________________________
"क्या आपको यह लेख पसंद आया ?" Indiaspend.com एक गैर लाभकारी संस्था है, और हम अपने इस जनहित पत्रकारिता प्रयासों की सफलता के लिए आप जैसे पाठकों पर निर्भर करते हैं। कृपया अपना अनुदान दें :