मुंबई: 45 के बिपिन जाना के 8 साल के बेटे परमेश्वर को कैंसर है। परमेशवर हॉजकिनज लिंफोमा के चौथे स्टेज में है। सही जांच और उसका इलाज शुरु होने में ही छह महीने का वक्त लग गया। सही इलाज की उम्मीद में बिपिन का परिवार 2000 किलोमीटर का सफ़र तय कर पश्चिम बंगाल से नई दिल्ली होता हुआ मुंबई पहुंचा है।

परमेश्वर का इलाज फ़िलहाल मुंबई के टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल (टीएमएच) में चल रहा है, जो भारत का सबसे प्रमुख कैंसर हॉस्पिटल है। परमेश्वर की किमोथेरेपी चल रही है। रिकॉर्ड्स के मुताबिक यहां भर्ती कैंसर से पीड़ित बच्चों में से लगभग आधों (43.6%) को अस्पताल तक पहुंचने के लिए लगभग 1,300 किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ी है। 10% पीड़ित बच्चों ने तो 2,200 किमी से अधिक की दूरी तय की है। लगभग 20% बच्चों को टीएमएच तक पहुंचने से पहले कई तरह के वैकल्पिक या अधूरे इलाज मिल पाए ।

समय पर बीमारी का पता लग जाए तो कैंसर से पीड़ित बच्चों के बच जाने की संभावना ज्यादा होती है। अगर वह उच्च-आय वाले देश में यह संभावना और प्रबल हो जाती है।

अगर परमेश्वर ऐसे किसी देश में रहता तो उसके ठीक होने की संभावना 90%होती। लेकिन फिर भी परमेश्वर की किस्मत अच्छी है क्योंकि उसकी बीमारी का इलाज शुरु हो चुका है। उसकी हालत में सुधार हुआ है। उसकी स्थिति ‘नेशनल सर्वाइवल रेट ऑफ जूवनाइल कैंसर’ से बेहतर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, यह दर 20% से कम है।

जुलाई 2019 में द लैंसेट ऑन्कोलॉजी में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चलता है कि दुनिया भर में, कैंसर से पीड़ित ज्यादातर बच्चे निम्न-मध्यम-आय वाले देशों से हैं और उनके बचने की दर कम है।

2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में बच्चों में कैंसर का फैलाव सबसे ज्यादा है। भारत की 30% आबादी की आयु 14 वर्ष से कम है।

यह समझने के लिए कि भारत में कैंसर से पीड़ित ज्यादातर बच्चे पांच साल से ज़्यादा क्यों नहीं ज़िंदा रह पाते हैंं, इंडियास्पेंड ने मरीजों, गैर-सरकारी संगठनों और डॉक्टरों से बातचीत की। हमने पाया कि इसका महत्वपूर्ण कारण बीमारी की पहचान में देरी, महंगा इलाज और इलाज का पूरा न हो पाना है। अगर इस बीमारी का समय पर पता चल जाए और समय पर इलाज शुरु हो जाए तो 70% तक बच्चों को बचाया जा सकता है।

>द लैंसेट की ओर से किए गए अध्ययन के अनुसार, प्रत्येक वर्ष 0 से 19 वर्ष के आयु के करीब 50,000 भारतीय बच्चे कैंसर का शिकार हो जाते हैं। लेकिन टीएमएच के प्रमुख ऑन्कोलॉजिस्ट गिरीश चिन्नास्वामी कहते हैं कि असली आंकड़ा 75,000 के आस-पास हो सकता है।

गिरीश चिन्नास्वामी इस पर विस्तार से बात करते हैं, “करीब 20,000 बच्चों की बीमारी की पहचान और उनका इलाज नहीं हो पाता है और उनके बचने की दर 0% है। करीब 55,000 की इलाज तक पहुंच है और इनमें से 15,000 बच्चे ही ऐसे हैं जिनका इलाज प्रशिक्षित ऑन्कोलॉजिस्ट की देख-रेख में हो पाता है। इन्हें सामाजिक सहयोग के साथ-साथ आहार और आर्थिक मदद भी मिल जाती हैं। इन बच्चों के इस बीमारी से बचने की दर 70% है।”

अन्य 20,000 से 30,000 मरीज ऐसे केंद्रों पर जाते हैं, जहां कम प्रशिक्षित ऑन्कोलॉजिस्ट हैं और ना तो वो शिक्षित हैं, ना ही उन्हें सामाजिक सहयोग और पौष्टिक भोजन मिलता है। चिन्नास्वामी बताते हैं कि ऐसे लोगों के बचने की दर लगभग 30 से 40% है।

सेंट जुड इंडिया चाइल्डकेयर सेंटर्स (एसजेआईसीसी) के सीईओ अनिल नायर से भी इस मुद्दे पर बातचीत हुई। वे बताते हैं, "समस्या उचित इलाज न मिल पाने से बढ़ रही है। कई बार मरीज का इलाज शुरु तो होता है, लेकिन फिर वे इलाज छोड़ देते हैं।" सेंट जुड इंडिया चाइल्डकेयर सेंटर्स मुंबई सहित छह शहरों में कैंसर का इलाज करा रहे मरीजों और उनकी देखभाल करने वालों को रहने की जगह मुहैय्या कराता है।

एक दूसरा बड़ा मुद्दा बच्चों के कैंसर के इलाज में होने वाला खर्च है। यह खर्च काफी ज्यादा है। टीएमएच में एकैड्मिक्स के डायरेक्टर और पेडियाट्रिक और मेडिकल ऑन्कोलॉजी के प्रोफेसर, श्रीपाद बनवाली बताते हैंं," बच्चों के कैंसर में मेडिकल ऑन्कोलॉजिस्ट, रेडियोलॉजिस्ट, पैथोलॉजिस्ट, इंटर्नोलॉजिस्ट जैसे विशेषज्ञों की एक पूरी टीम की जरूरत होती है। जबकि अगर व्यस्क मरीज़ों के मामले में ऐसा नहीं होता है।"

ग्रामीण क्षेत्रों में कोई सुविधा नहीं

करीब 70% भारतीय आबादी गांवों में रहती है और लगभग 95% कैंसर-केयर सुविधाएं शहरी भारत में हैंं। भारत में प्रति दस लाख आबादी पर औसतन 0.98 ऑन्कोलॉजिस्ट है, जबकि चीन में यह आंकड़ा 15.39, फिलीपींस में 25.63 और ईरान में 1.14 है।

इंडियास्पेंड ने अपनी सितंबर 2017 की रिपोर्ट में इसके बारे में बताया था।

टीएमएच जैसे केंद्र टर्शरी यानी तीसरे चरण से इलाज करते हैं, यानी वे सिर्फ़ विशेष चिकित्सा सेवाएं दे सकते हैं। तो रोगी बीमारी की पहचान के लिए पहले एक प्राइमरी या सेकेंड्री सुविधा वाले केंद्र में एक डॉक्टर के पास जाता है। फिर उसे इलाज के लिए पास के बड़े अस्पताल में भेजा जाता है और अंत में एक कैंसर उपचार केंद्र में भेजा जाता है।

श्रीपाद बनवाली के अनुसार, हर साल टीएमएच कैंसर से पीड़ित 2,800 बच्चों का इलाज करता है। हालांकि भारत में 10 से भी कम, बड़े पीडियाट्रिक कैंसर केंद्र हैं और लगभग सभी केंद्र मुंबई, दिल्ली, पुणे, बेंगलुरु, चेन्नई और कोलकाता जैसे बड़े शहरों में हैं।

बनवाली का अनुमान हैं कि भारत भर में बाल कैंसर के इलाज के लिए हमें कम से कम 20 बड़े केंद्रों की ज़रूरत है। उन्होंने आगे जोर देकर कहा कि, कि यह इलाज महंगा है, इसलिए और लोगों को फंड देने के लिए भी आगे आना चाहिए।

इलाज के लिए लम्बी दूरी

इलाज के लिए परमेश्वर की यात्रा पश्चिम बंगाल के दक्षिण-पूर्वी जिले पुरबा मेदिनीपुर के नंदीग्राम गांव से शुरू हुई थी। परमेश्वर की कहानी से पता चलता है कि भारत में अधिकांश रोगियों को इलाज के लिए लम्बी दूरी तय करनी पड़ती है।

परमेश्वर को तीन महीने से तेज बुखार आता था। बुखार के लिए दवा का भी कोई असर नहीं हो रहा था। परमेश्वर का पिता मुंबई के एक होटल में बर्तन धोने का काम करता था, फिर बेटे की देखभाल के लिए उसे अपना काम छोड़ना पड़ा। डॉक्टरों ने परमेश्वर की बीमारी का गलत इलाज किया। पहले टाइफाइड बताया गया, फिर कहा गया कि बुखार का कारण मलेरिया है। इसके बाद परिवार परमेश्वर को लेकर कोलकाता पहुंचा, जहां उसे एक अस्पताल में कई हफ्ते तक भर्ती रखा गया, फिर भी इलाज नहीं हो पाया।

जब कहीं भी बात बनती नहीं दिखी तो परमेश्वर के परिवार वाले उसे नई दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी एम्स लेकर आए। एम्स में एक बेहतर तीसरे चरण का देखभाल केंद्र है। लेकिन वहां कोई बेड ख़ाली नहीं था। तब परमेश्वर को शहर के पांच सरकारी अस्पतालों में से एक, सफदरजंग अस्पताल भेजा गया । यहां पहली बार उसका अल्ट्रासाउंड टेस्ट हुआ। अब तक बीमारी के तीन महीने गुजर चुके थे।

बिपिन जाना ने याद करते हुए बताया, "अस्पताल के कर्मचारियों ने मुझसे पूछा कि हम इतने दिनों से क्या कर रहे थे, जांच शुरू करने में इतना समय क्यों लगा? मैंने सारी बातें बताईं। यह भी कहा कि डॉक्टर मेरी बात सुनते ही नहीं थे।" परमेश्वर को काला अजार बीमारी निकली । करीब एक महीने तक इस बीमारी इलाज तो चला, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।

सफदरजंग अस्पताल के डॉक्टरों ने तब एक बायोप्सी और बोन मैरो टेस्ट किया। अंत में उन्हें स्टेज -4 हॉजकिनज लिंफोमा का पता चला। घटना से बेहद दुखी जाना ने कहा, "अगर मुझे पता होता कि यह कैंसर है, तो मैं बीमारी की पहचान के लिए छह महीने तक इंतजार नहीं करता, मैं सीधे मुंबई आ जाता।"

परमेश्वर को आखिरकार टीएमएच भेज दिया गया और अगस्त 2019 में उसके कैंसर का इलाज शुरू हुआ। अब तक छह महीने का समय बीत चुका था।

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Parmeshwar, 8, with his parents Bipin and Mamata Jana, at the St Jude India ChildCare Centre in Mumbai.

चिन्नास्वामी इलाज की प्रक्रिया पर बात करते हैं, "शुरु में इलाज ठीक से ना हो पाने की वजह से कैंसर, इलाज के दौरान अधिक प्रतिरोधी हो सकता है। जिससे इलाज और लम्बा खिंच जाता है।"

Source: Tata Memorial Hospital records accessed by IndiaSpend Note: Data for the year 2018

सेंट जुड के नायर कहते हैं, " इलाज के लिए यात्रा कभी सीधी नहीं होती है। वास्तविक इलाज तक पहुंचने से पहले एक डॉक्टर से दूसरे डॉक्टर के चक्कर काटते हुए पीड़ित परिवार अक्सर अपनी जमा-पूंजी खर्च कर चुके होते हैं।”

अधूरा इलाज

इलाज कराने वाले बच्चों में, जीवित रहने का अंतर का कम से कम एक तिहाई अधूरे इलाज के कारण होता है।

निम्न-मध्यम आय वाले देशों में 90% कैंसर पीड़ित बच्चों का इलाज अधूरा रह जाता है, जबकि विश्व के लिए यह आंकड़ा 15% है। यह अनुमान लगाया गया है कि, दुनिया भर में इलाज अधूरा छोड़ने की घटनाएं निम्न मध्यम आय वाले देशों में 99% है।

एक अध्ययन में टीएमएच में छह साल तक मरीज़ों का विश्लेषण किया गया। अध्ययन में पाया गया कि इलाज अधूरा छोड़ देने के कई कारण हैं। इलाज शुरु होने के बाद 31% पारंपरिक वैकल्पिक इलाज अपना लेते हैं, 28% का इलाज आर्थिक समस्याओं की वजह से रूक जाता है और 26% इस ग़लत धारणा की वजह से इलाज बंद कर देते हैं कि कैंसर एक ला-इलाज बीमारी है।

सेंट जूड के नायर इसे इस तरह समझाते हैं, "इलाज के दौरान मुंबई में रहने का खर्च उतना ही है जितना इलाज पर होता है और इससे कई परिवार घर वापस जाने के लिए मजबूर हो सकते हैं।"

अपने बेटे के इलाज के लिए बिपिन जाना ने दोस्तों और रिश्तेदारों से उधार लेकर करीब 1 लाख रुपये खर्च किए हैं। मुंबई आने के बाद, परिवार भाग्यशाली था कि उसे सेंट जूड में रहने के लिए जगह मिल गई। नायर ने बताया कि यहां सुविधाओं में पीड़ित के परिवार के लिए रहने के लिए यूनिट, साझा आम रसोई और खाने-पीने की जगह, आभिभावकों के लिए स्वच्छता संबंधी मार्गदर्शन और परिवार परामर्श शामिल हैं। ऐसा माहौल कैंसर से पीड़ित बच्चे को बीमारी से लड़ने का बेहतर मौका देता है।

जिन परिवारों की इस तरह की सुविधाओं तक पहुंच नहीं है, वे अक्सर दो साल तक कैंसर केंद्रों के बगल वाले फुटपाथ पर रहते हैं, जिससे बच्चों को इंफेक्शन का ख़तरा रहता है। इस तरह के परिवारों को न तो शौचालय और न ही खाना पकाने की सुविधा होती है। ऐसे हालात में परिवार निराश हो कर अपने घर वापस चला जाता है और इलाज अधूरा छोड़ देने की संभावना बढ़ जाती है।

चिन्नास्वामी कहते हैं, “इलाज अधूरा छोड़ने के इन कारणों को रोकने के लिए एक टीम की आवश्यकता होती है - जिनमें ऑन्कोलॉजिस्ट, पोषण विशेषज्ञ, नर्स, मनोवैज्ञानिक, डेटा वैज्ञानिक और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हैं।"

यह देश में कम से कम 50 केंद्रों के बीच का अंतर है, जिसमें जीवित रहने की दर 70% है, जबकि अन्य के लिए यह दर 30-40% है।”

सामाजिक कार्यकर्ताओं के सहयोग, आर्थिक सहायता, रहने को जगह, परामर्श, संक्रमण मार्गदर्शन नियंत्रण, इलाज प्रक्रिया के लिए माता-पिता के लिए स्कूल शिक्षा शरु करने से टीएमएच में हर साल दोगुनी जानें बचने लगी हैं। साथ ही इलाज अधूरा छोड़ने की दर में भी कमी आई है। टीएमएच के मार्च 2019 के अध्ययन के मुताबिक 2009 में इलाज अधूरा छोड़ने की दर 20% थी, जो 2016 में घटकर 4% हो गई। इसके अलावा इलाज शुरू करने से इनकार करने वाले 9% थे, जो घटकर 2.7% हो गए हैं।

हालांकि बिपिन जाना अपने बेटे को मुंबई में मिले इलाज से संतुष्ट हैं, लेकिन यहां आने से पहले उनके छह महीने बर्बाद हो गए, जाना को इसका मलाल है। वह कहते हैं, "मेरे बेटे का जीवन अब भगवान के हाथ में है।"

(हैबरसन, मैनचेस्टर विश्वविद्यालय से ग्रैजुएट हैं और इंडियास्पेंड में इंटर्न हैं। यदवार विशेष संवाददाता हैं और हेल्थचेक.इन और इंडियास्पेंड से जुड़ी हैं।)

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