कैसे भारत के ढहते शहर अपना रहस्य छिपाते हैं
पिछले कुछ वर्षों में ऐसा लगने लगा है जैसे कि "बिग डाटा" उन्माद ने असाधारण रूप से गति हासिल कर ली है। इंटरनेट और मोबाइल की बढ़ती लोकप्रियता(पैठ ) से हम अब कुछ भी माप सकते हैं - सार्वजनिक परिवहन की दक्षता से ले कर जनसंख्या को प्रभावित करने वाले आकस्मिक कारकों तक। अब हम लगभग कुछ उपाय कर सकते हैं। खुलासों की मांग और आंकड़ों एवम सहयोगी नेटवर्क की जांच के लिए नए प्रविष्टियों की संख्या सिर्फ बढ़ी ही है जिससे कोई भी क्षेत्र, खंड या उद्योग समूह अछूता नही रहा है।
शायद, भारत के राज्यों में (राजकीय) नगर निगमों के सिवा।
करीब से देखें तो भारत के शहरी स्थानीय निकायों (यूएलबी) द्वारा किए गए खुलासों में हमारे शहरों में अपारदर्शिता की एक भयावह तस्वीर दिखाई देती है । सार्वजनिक प्रकटीकरण कानून (पीडीएल) द्वारा अनिवार्य होने के बावजूद किसी भी शहर ने अपने नवीनतम तिमाही वित्तीय वक्तव्यों, वार्षिक वित्तीय बयान या मानक सेवा स्तर से संबंधित आंकड़ों को अपनी वेबसाइट- जो एकमात्र डिजिटल माध्यम है जिससे नागरिक शहर की रेखदेख करने वालों से सम्पर्क कर सकते हैं - पर प्रकाशित नही किया है ।
Source: Annual Survey of India’s City Systems 2014 by Janaagraha
भारत में केवल 21 प्रमुख शहरों में से केवल आठ ने ही सार्वजनिक डोमेन (अनुक्षेत्र ) में अपना नवीनतम बजट प्रकाशित किया है जबकि 2010 से केवल चार ही शहरों ने अपना बजट प्रकाशित किया है। मुंबई ही सिर्फ एक ऐसा शहर है जिसने अपनी वेबसाइट पर वित्तीय वर्ष 2013-14 के लिए अपनी वित्तीय जानकारी अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित की है । ऐसा प्रतीत होता है जैसे पारदर्शिता भारत की राजधानी के लिए शायद काम प्राथमिकता रखती है जहां तीन नगर निगमों में से किसी ने भी अपने वेब पोर्टल पर अपने वित्तीय या परिचालन आंकड़ों का खुलासा नहीं किया है ।
हालांकि मुंबई ही केवल ऐसा एक शहर है जो अपनी प्रमुख परियोजनाओं की स्थिति को प्रकाशित करता है लेकिन इसके दस्तावेज की गुणवत्ता पर संदेह होता है क्योंकि वे स्पष्ट रूप से किया कार्य का विवरण देने में विफल होते हैं। दूसरी ओर, सूरत सार्वजनिक प्रकटीकरण की सच्ची भावना मिसाल है जहां साप्ताहिक रूप से नगर निगम के बजट और पानी की गुणवत्ता के नमूने प्रकाशित किए जाते हैं ।
हमारे शहरी स्थानीय निकायों की इस अस्पष्टता ने उनकी नगरपालिका बांड के माध्यम से धन जुटाने की क्षमता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया है। देश में नगर निगम के बाजारों की स्थापना के बाद से शहरी स्थानीय निकायों द्वारा 1695 करोड़ रुपए ($ 273,4 मिलियन ) संचित पूँजी के विपरीत, बाजार के माध्यम से संयुक्त राज्य अमेरिका में 2012 में शहर सरकारों द्वारा किया गया पूंजी संचय 22,736 हजार करोड़ रुपए ($ 3.6 ट्रिलियन ) तक पहुंच गया था।
भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक, केन्द्रीय सरकार के लेखा परीक्षक, कई बार शहरी निगमों में सार्वजनिक धन के लेखा में अपर्याप्तता और बजटीय नियंत्रण की कमी पर चिंता व्यक्त की है। दिल्ली में, 1964-65 के बाद से ऑडिट आपत्तिय लम्बित हैं। राजस्थान मे राजकोष पर 1,300 करोड़ रुपये ($ 209.7 मिलियन ) से अधिक लागत वाली अनियमितताओं को हल किया जाना अभी बाकी है।
वर्तमान में, शहरी स्थानीय निकायों के पास उनकी किताबों को ऑडिट करने के लिए कोई भी स्वतंत्र चार्टर्ड एकाउंटेंट्स नही है। वहीं इस स्पेक्ट्रम के दूसरे छोर पर, कॉर्पोरेट्स को भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड और कंपनी अधिनियम द्वारा यह नर-िर्देश दिया गया है कि वे अपने प्रमुख परिचालन और वित्तीय प्रदर्शन के मेट्रिक्स को अनिवार्य रूप से घोषित करें । इस जनादेश का अनुपालन न करने पर उन्हें जेल की सजा और भारी जुर्माना देना पड़ सकता है ।
Source: Annual Survey of India’s City Systems 2014 by Janaagraha
इस तरह की सख्ती भारत के शहरों की जांच के लिए नही है। करोड़ों रुपए हमारे शहरों की व्यवस्था प्रणाली में खर्च कर दिए जाए हैं यह जानते हुए भी कि वहाँ प्रलेखन का अभाव है और यह पता ही नही चला कि इस पैसे का क्या होता है। मुंबई शहर 12 लाख नागरिकों के प्रति जवाबदेह है दिल्ली 11 लाख के लिए , बंगलौर 8 लाख; हमारे शहरों के स्टेक होल्डर्स का आकार भारत की बड़ी से बड़ी कंपनियों से प्रतिद्वंद्वता कर सकता है। फिर भी, हमारे शहरों की वेबसाइट पर उपलब्ध पुराने वित्तीय बयान हमारे लिए स्वीकार्य हैं ।
प्रशासन में जवाबदेही को हमे उसी स्तर तक लाना होगा जो हमने निजी नागरिकों और कॉर्पोरेट संस्थाओं के लिए निर्धारित की है ।
(अनुराग गुम्बर एवं शिवानंद शाहपुर, बेंगलुरू में स्थित एक सार्वजनिक नीति की वकालत करने वाले समूह जनाग्रह के साथ वकालत एसोसिएट्स के रूप में कार्यरत हैं।)
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