लखनऊ: गोंडा ज़िले के कर्नलगंज ब्लॉक के धमसड़ा गांव की राजेश्वरी देवी (65 वर्ष) बीते एक हफ़्ते से रोज़ शाम को अपने घर की चौखट पर दीया जला रही हैं। राजेश्वरी देवी और गांव की कई महिलाओं को लगता है कि चौखट पर दीया रखने से कोरोनावायरस उनके घर में नहीं आएगा। दीया जलाने के लिए एक शर्त भी है वह यह कि उन्हीं महिलाओं के दीया जलाने से असर होगा जिनके बेटे हैं। बेटियों की मांए अगर दीया जलाएंगी तो वायरस पर कोई असर नहीं होगा।

“सूरज ढलने के बाद तेल का दीया जलाना है, जिसके जितने लड़के हों वह उतने दिये जलाए और चौखट पर रख दे तो वायरस घर के अंदर नहीं घुस पाएगा,” राजेश्वरी देवी बताती हैं। यह सिर्फ़ एक ज़िले की बात नहीं है। बाराबंकी, रायबरेली, प्रतापगढ़, शाहजहांपुर, प्रयागराज, बरे ली, बस्ती के तमाम गांवों में यह भ्रम फैला हुआ है।

उत्तर प्रदेश के गोंडा ज़िला मुख्यालय से लगभग 70 किमी दूर धमसड़ा गांव की राजेश्वरी देवी रोज़ शाम को कोरोनावायरस के असर को कम करने के लिए घर की चौखट पर दीया जलाती हैं।

भ्रम सिर्फ़ महिलाओं में फैला हो ऐसा नहीं है। शाहजहांपुर के नारायणपुर गांव के प्रकाश का कहना है कि यह बीमारी तो सिर्फ़ उसको होती है जो विदेश से लौटता है, हम जब गए नहीं तो हमें कैसे होगी।

सबकी अलग-अलग थ्योरियां हैं, अलग-अलग भ्रम हैं लेकिन एक बात जो सामने आई वो यह कि गांवों के स्तर पर कोरोनावायरस से लड़ने के लिए हमारी तैयारियां पूरी नहीं हैं। ना तो जागरुकता फैलाने के स्तर पर और ना ही स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में।

चीन के वुहान शहर से फैला कोरोनावायरस पूरी दुनिया के कई देशों के लिए मुसीबत बन चुका है। दुनिया भर में कोरोनावायरस से संक्रमित लोगों की संख्या 31 मार्च को 8,83,000 से ज़्यादा हो गई है, जॉन्स हॉपकिन्स कोरोनावायरस रिसोर्स सेंटर के आंकड़ों के अनुसार। इटली, स्पेन, अमेरिका और ब्रिटेन जैसे बड़े देशों की स्थिति इस समय खराब हैं। भारत में भी कोरोनावायरस के 1,637 मामले सामने आ चुके हैं और 38 लोगों की मौत हो चुकी है, कोरोनावायरस मॉनीटर के एक अप्रैल के आंकड़ों बताते हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक़ भारत में अभी यह महामारी दूसरे चरण में हैं, इसका तीसरा चरण कम्युनिटी ट्रांसमिशन यानी व्यापक फैलाव है। स्वास्थ्य मंत्रालय इसके कम्युनिटी ट्रांसमिशन से बार-बार इंकार कर चुका है।

बड़े शहरों में कोरोनावायरस से निपटने के लिए तमाम उपाय किए जा रहे हैं। यहां बड़े अस्पताल हैं, स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की फ़ौज है और टेस्ट करने के लिए लैबोरेट्रीज़ हैं, लेकिन क्या ग्रामीण भारत इसके लिए तैयार है? यह सवाल ऐसे में और अहम हो जाता है जब बड़े शहरों के लाखों प्रवासी मज़दूर अपने गांवों को लौट रहे हैं।

उत्तर प्रदेश के गांवों की बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था

भारत की लगभग 69% जनसंख्या की अभी भी गांवों में रहती है, 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार। प्रवासी मज़दूरों के अपने गांव लौटने के साथ ही कोरोनावायरस का ख़तरा गांवों की दहलीज़ तक पहुंच गया है। क्या ग्रामीण भारत की मौजूदा स्वास्थ्य प्रणाली इस ख़तरे से निपटने में सक्षम है?

अगर हम ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य उप-केंद्रों पर नज़र डालते हैं तो 31 मार्च 2019 तक देश भर में 189,765 स्वास्थ्य उप-केंद्रों की ज़रूरत थी लेकिन कुल 157,411 उप-केंद्र ही काम कर रहे थे। उत्तर प्रदेश में 34,726 उप-केंद्रों की ज़रूरत थी और काम कर रहे थे 20,782, यानि 13,944 उप-केंद्रों की कमी। यह जानकारी 6 मार्च 2020 को लोकसभा में ख़ुद केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री हर्षवर्धन ने एक सवाल के जवाब में दी।

देश के ग्रामीण क्षेत्रों में कुल मिलाकर 2,65,275 बेड हैं (सभी स्वास्थ्य केंद्रों को मिलाकर) जबकि शहरों के 4,375 अस्पतालों में 4,48,711 बेड हैं। देश में वैसे तो हर 1,700 मरीज़ों पर एक बेड है लेकिन ग्रामीण भारत में यह अनुपात 3,100 मरीज़ों पर एक बेड का है। उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में कुल 4,442 अस्पतालों में 39,104 बेड हैं, नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2019 के आंकड़ों के अनुसार।

ग्रामीण भारत के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में कुल 27,567 डॉक्टर हैं और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में 4,074, यानि कुल मिलाकर 31,641 एलोपैथिक डॉक्टर। 2011 की जनगणना के मुताबिक ग्रामीण भारत की जनसंख्या 83.3 करोड़ है। इसका मतलब 26,326 व्यक्तियों पर सिर्फ एक डॉक्टर। उत्तर प्रदेश के सामुदायिक व प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रोें में कुल मिलाकर 1,536 डॉक्टर हैं, नेशनल हेल्थ प्रोफ़ाइल 2019 की रिपेार्ट के मुताबिक।

वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइज़ेशन (डब्ल्यूएचओ) की गाइडलाइंस के हिसाब से हर 1,000 लोगों पर एक डॉक्टर का अनुपात होना चाहिए। स्वास्थ्य व परिवार मंत्रालय ने लोकसभा में 22 नवंबर 2019 को मंत्री हर्षवर्धन ने एक सवाल के जवाब में राज्यवार आंकड़े दिए जिससे पता चलता है कि उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार व ओडिशा में डॉक्टरों की भारी कमी है। इसमें यूपी में सबसे ज़्यादा यानि 2,277 डॉक्टरों की कमी है। प्रदेश के 942 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर बिजली-पानी की सप्लाई बराबर नहीं हैं। सड़कें ऐसी हैं कि ख़़राब मौसम में मरीज़ अस्पताल तक पहुंच ही नहीं सकते।

यूपी के गांवों में बाहर से आने वालों पर नज़र

देश भर में 21 दिन का लॉकडाउन घोषित होने के बाद बड़ी संख्या में प्रवासी मज़ूदर अपने गांवों को लौट चुके हैं। दिल्ली, यूपी-बिहार की सीमाओं पर इन मजदूरों की भीड़ जमा थी। इनकी स्क्रीनिंग की क्या व्यवस्था थी? यह जानने के लिए हमने नेशनल हेल्थ मिशन के निदेशक विजय विश्वास पंत को अपने सवाल मेल के जरिए भेजे हैं। उनका जवाब मिलने के बाद हम इस रिपोर्ट को अपडेट करेंगे।

गोंडा ज़िले के कर्नलगंज ब्लॉक के भटोलिया गांव में मुंबई से लौटे मज़दूरों को क्वारंटाइन करने के लिए प्राथमिक स्कूल को वार्ड में बदलने की कोशिश की गई है लेकिन यहां सुविधाएं न होने की वजह से उन्हें खाने-पीने की दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।

गोंडा ज़िले के भटोलिया गांव के कई लोग मुंबई में काम करते थे। कोरोनावायरस ने उन्हें गांव लौटने पर मजबूर कर दिया। “हम वहां एक होटल में काम करते हैं। जब मरीज़ों की संख्या बढ़ने लगी तो हम मौका मिलते ही किसी तरह अपने गांव वापस आ गए। हम एक ही गांव के पांच लोग थे,” मुंबई से लौटे रमेश ने बताया। रमेश से जब यह पूछा गया कि क्या गांव लौटकर उनकी कोई जांच या स्क्रीनिंग हुई तो उन्होंने बताया कि उनके साथ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

कई ज़िले इसके लिए व्यवस्था कर रहे हैं। “हमारे यहां दो टीमें बनाई गई हैं एक सर्विलांस और एक कंट्रोल रूम बनाया गया है सीएचसी पर। इसके अलावा एक टीम और बनाई जा रही हैं जिसमें डॉक्टर, फार्मेसिस्ट, एएनएम और आशा कार्यकर्ता हैं,” रायबरेली ज़िले में ब्लॉक प्रोग्राम मैनेजर आरती सिंह ने बताया।

“जब किसी गांव में कोई बैगलुरु या मुंबई से आता है तो आशा उनसे एक फ़ॉर्म भरवाती हैं और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) पर जमा कराती हैं उसमें सभी का फोन नंबर होता है,” आरती ने आगे बताया। कंट्रोल रूम की टीम उनको फ़ोन करके उनका हाल पूछती है अगर किसी की तबियत ख़राब होती है तो डॉक्टर वहां जाते हैं। सीएचसी में जांच की कोई सुविधा नहीं है इसलिए उन्हें ज़िला अस्पताल ले जाया जाता है, उन्होंने बताया।

“इसके लक्षणों में बुख़ार भी है इसलिए ज़िला अस्पतालों में थर्मोस्कैनर के ज़रिए जांच हो रही है। हम हर जगह उसी के आधार पर संदिग्ध मरीज़ों का पता लगाते हैं और फिर उन्हें जांच के लिए आगे भेजते हैं। बाकी अभी तक कोई और सुविधा नहीं है,” उत्तर प्रदेश लैब टेक्नीशियन एसोसिएशन के अध्यक्ष योगेश उपाध्याय ने बताया।

आशा बहुओं को कितनी है ट्रेनिंग

गांवों के स्तर पर आंगनबाड़ी और आशा कार्यकर्ताओं की भूमिका अहम हो जाती है। ऐसे में क्या उन्हें वो सुविधाएं भी मुहैया कराई गई हैं कि वो गांव-गांव में जाकर लोगों को जागरूक करें?

‘’हमसे कहा गया है कि घर-घर जाकर हम लोगों को जानकारी दें लेकिन हमें न तो मास्क दिया गया है न ही सेनेटाइज़र। अब आप खुद ही सोचिए हमारी भी तो जान है। कोई सूरत से लौटा है तो कोई मुंबई से। जो भी कहीं बाहर से वापस आया है हम उसकी जानकारी दे देते हैं,’’ रायबरेली ज़िले के हरचंदपुर गांव की आशा बहू अमिता ने बताया।

“अगर यह महामारी गांव में फैली तो नियंत्रण करना मुश्किल हो जाएगा,” लखनऊ ज़िले के गोसाईंगंज ब्लॉक के सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र अधीक्षक डॉ हेमंत ने बताया। “आशा कार्यकर्ताओं को दस्तक कैम्पेन के लिए ट्रेनिंग दी गई थी लेकिन अब उन्हें कोरोनावायरस की जानकारी देने को कहा जा रहा है। लोगों में भ्रम इतना है कि उन्हें समझाना भी कठिन है। ग्राम प्रधानों से भी कहा गया है कि वह अपने गांव के लोगों की जानकारी रखें,” उन्होंने आगे कहा।

सीएचसी और ज़िला अस्पतालों में भी जांच की सुविधा तो है नहीं, वहां उन्हें लक्षणों (खांसी, बुख़ार और सांस लेने में तकलीफ़) के आधार पर बस संदिग्ध बताया जा सकता है। जांच तो कुछ ही लैब में हो सकती है, डॉ. हेमंत कुमार ने आगे बताया।

जांच की प्रक्रिया

“सीएचसी टीम के डॉक्टर सिर्फ बुख़ार के आधार पर मरीज़ को संदिग्ध कैटेगरी में रखते हैं और उन्हें अस्पताल की गाड़ी से ज़िला अस्पताल भेजा जाता है वहां भी थर्मोस्कैनर के ज़रिए शरीर का तापमान अगर 100 फ़ेरेनहाइट से ऊपर होता है तो बाकी लक्षणों से संबंधित सवाल पूछे जाते हैं, उनकी पूरी हिस्ट्री पता की जाती है कि वह पिछले दिनों कहां थे, क्या किसी यात्रा पर थे, क्या उन्हें सांस लेने में दिक्कत है, गले में ख़राश है आदि। इसके बाद उनका सैंपल लेकर लैब में भेज दिया जाता है और संदिग्ध व्यक्ति को 14 दिन के लिए क्वांरटाइन में रहने की सलाह दी जाती है। सीएचसी या पीएचसी अपनी तरफ़ से कोई सैंपल अभी नहीं भेज रहा है,” उत्तर प्रदेश लैब टेक्नीशियन एसोसिएशन के महामंत्री हेमंत पाल ने बताया।

सरकार की तरफ़ से लैब टैक्नीशियनों को सुरक्षात्मक उपकरण नहीं मिल रहे हैं। बदायूं, मुरादाबाद जैसे कई ज़िलों में अभी तक इन्हें मास्क तक मुहैया नहीं कराए गए हैं। उन्हें सिर्फ एक या दो लेयर वाला सर्जिकल मास्क दिया गया है। इस तरह उन्हें खुद भी संक्रमण का ख़तरा रहता है, हेमंत ने आगे कहा।

टेस्टिंग लैब कम

देश में इस वक़्त 125 सरकारी और 51 प्राइवेट लैब्स हैं, कोरोनावायरस मॉनीटर के के 31 मार्च के अपडेट के मुताबिक़। उत्तर प्रदेश में इस समय कुल नौ लैब हैं, जिसमें से लखनऊ में चार (किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी, एसजीपीजीआई लखनऊ, राममनोहर लोहिया संस्थान, मेहरोत्रा लैब), गाेरखपुर में एक (बीआरडी मेडिकल कॉलेज इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज़), बनारस में एक (इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज़, बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी), अलीगढ़ में एक (जवाहर लाल नेहरू मेडिकल कॉलेज, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी) और मेरठ में एक (लाला लाजपत राय मेमोरियल मेडिकल कॉलेज) लैब है। यह सभी बड़े शहरों में हैं।

उदाहरण के लिए अगर हम बात करें पूरे उत्तर प्रदेश की जनगणना 2011 के अनुसार यहां की जनसंख्या लगभग 20 करोड़ है और इसपर कुल टेस्टिंग लैब सिर्फ नौ। यानी दो करोड़ से ज़्यादा की जनसंख्या के लिए एक लैब है। ईस्टर्न और वेस्टर्न उत्तर प्रदेश के लिए दो-दो लैब हैं जबकि अपेक्षाकृत कम जनंख्या वाले सेंट्रल यूपी के लिए पांच लैब हैं, जिनमें से चार अकेले लखनऊ शहर में हैं।

“मेरे पास दिन भर में 40 से 45 फोन आते हैं कि उनके गांव में कोई आदमी मुंबई से आया है उसको कोरोनावायरस है। लोगों में जानकारी अभी कम है लेकिन उनपर डर हावी है। उन्हें लगता है जो भी बाहर से आया है उसको कोरोनावायरस है। ऐसे में हमारे लिए भी स्थिति को संभालना मुश्किल हो गया है,” डॉ. हेमंत ने कहा।

(श्रृंखला, दिल्ली में स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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