लखनऊ: उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में रहने वाले जगदीश चंद्र सिंह एक प्राथमिक विद्यालय के हेड मास्टर हैं। कोरोनावायरस की वजह से इनका स्कूल 13 मार्च से बंद है। जगदीश पर बच्चों को पढ़ाने के साथ-साथ मिड-डे मील बनवाने की भी ज़िम्मेदारी है, लेकिन स्कूल बंद होने और यूपी सरकार की ओर से कोई निर्देश न मिलने की वजह से वह मिड-डे मील नहीं बनवा पा रहे हैं। उनके स्कूल के 151 बच्चे 13 मार्च से मिड-डे मील से वंचित हैं।

जगदीश जिस प्राथमिक स्कूल में हेड मास्टर हैं वो राजधानी लखनऊ से 30 किलोमीटर दूर बाराबंकी ज़िले के अखईपुर गांव में पड़ता है। यह कहानी सिर्फ अखईपुर गांव के प्राथमिक स्कूल की ही नहीं है, बल्कि पूरे उत्तर प्रदेश में मिड-डे मील की व्‍यवस्‍था ठप पड़ी है।

लॉकडाउन के बढ़ने के बाद स्कूलों के अब अगले सत्र में ही खुलने की संभावना लग रही है। प्रदेश में कक्षा 1 से 8 तक के छात्रों को बिना परीक्षा के ही अगली कक्षा में भेजने का फैसला लिया जा चुका है। अगर इस सत्र में स्कूल नहीं खुले तो इन बच्चों को क़रीब चार महीने (मार्च से जून) तक मिड-डे मील नहीं मिलेगा।

उत्तर प्रदेश के 114,460 प्राथमिक विद्यालयों और 54,372 उच्च प्राथमिक विद्यालयों में मिड-डे मील योजना चल रही है। इन विद्यालयों में प्राथमिक स्तर पर 1.23 करोड़ और उच्च प्राथमिक स्तर पर 57.05 लाख छात्र हैं। यानी इन स्कूलों में पढ़ने वाले लगभग 1.80 करोड़ बच्चे मिड-डे मील का लाभ लेते हैं, उत्तर प्रदेश मिड-डे मील प्राधिकरण की वेबसाइट यूपीएमडीएम के के आंकड़ों में कहा गया है।

इन 1.80 करोड़ छात्रों में से औसतन 86.81 लाख (49%) रोज़ाना मिड-डे मील खाते हैं, अप्रैल से जून 2019 की प्रगति रिपोर्ट में बताया गया है।

Source: http://www.upmdm.org/

''हमारा पूरा विभाग अभी कोरोनावायरस से जुड़े राहत कार्यों में लगा हुआ है। कोई हेल्पलाइन नंबर देख रहा है तो कोई राशन बंटवा रहा है। महामारी है तो एमडीएम का काम सेकेंड्री हो चुका है। अभी जो काम है उसमें सबको बचाना है, चाहे वो अभिभावक हो या बच्चे। जब स्कूल खुलेंगे तो फिर से मिड-डे मील बनना शुरू हो जाएगा,” यूपी मिड-डे मील प्राधिकरण के उप-निदेशक उदय भान ने इंडियास्पेंड से कहा।

बच्चों के लिए क्‍यों ज़रूरी है मिड-डे मील

मिड-डे मील योजना, केंद्र और राज्य सरकार मिलकर चलाती हैं। यह योजना 15 अगस्त, 1995 को शुरू हुई थी। पहले इस योजना का लाभ प्राथमिक विद्यालयों (कक्षा 1 से 5 तक) में पढ़ने वाले उन बच्चों को मिलता था जिनकी उपस्थिति 80% होती थी। शुरुआत में हर महीने तीन किलो गेहूं या चावल दिए जाने की व्यवस्था थी, लेकिन परिवारों को मिलने वाले इस अनाज का पूरा लाभ बच्चों को नहीं मिलता था। ऐसी स्थिति में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि प्राथमिक विद्यालयों में पका हुआ भोजन उपलब्ध‍ कराया जाए। इस आदेश के बाद एक सितम्बर 2004 से प्राथमिक विद्यालयों में ही मिड-डे मील बनने लगा। बाद में इस योजना का दायरा बढ़ाकर उच्च प्राथमिक विद्यालयों को भी इसमें शामिल कर लिया गया।

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“बच्चों के लिए मिड-डे मील में एक पौष्टिक भोजन की गारंटी होती है। यह अगर विद्यालय में ही मिल जाए तो बच्चों के लिए और आसान है। स्कूल में रहते हुए अगर बच्चों को भूख लगेगी तो वह पढ़ाई पर ध्‍यान नहीं दे पाएंगे,” बच्चों के लिए इस योजना के महत्व पर यूपी मिड-डे मील प्राधिकरण में पोषण विशेषज्ञ तरुना सिंह ने कहा।

मिड-डे मील के तहत बच्चों को मिलने वाला यह एक वक़्त का खाना ग़रीब परिवारों के लिए बहुत महत्व रखता है। यूपी के गोरखपुर ज़िले के पानापार गांव के रहने वाले रणजीत दिहाड़ी मज़दूर हैं, उनकी पत्नी प्रियंका घर का काम देखती हैं। “हमारे दो बच्चे हैं जो गांव के ही प्राइमरी स्कूल में जाते हैं। बच्चों को स्कूल से खाना मिल जाता था तो दोपहर की चिंता नहीं रहती थी। हम रोज़ कमाने-खाने वाले लोग हैं। मेरे पति मज़दूरी करते थे, अब काम भी नहीं मिल रहा। ख़र्च बढ़ गया है और आमदनी नहीं है,” प्रियंका ने कहा।

प्रियंका के परिवार की तरह ही बहुत से परिवारों के बच्चों के लिए मिड-डे मील एक आसरा है, जिससे उनकी दोपहर की भूख मिट जाया करती थी।

प्रियंका और रणजीत अपने दो बच्चों के साथ। इन बच्चों को प्राथमिक स्कूल में मिड-डे मील मिलता था जो अब नहीं मिल रहा। फ़ोटो:रणविजय सिंह

बच्चों की भूख शांत करने के अलावा मिड-डे मील कुपोषण दूर करने में भी अहम भूमिका अदा करता है। इसी के मद्देनज़र मिड-डे मील के लिए जारी दिशा-निर्देशों में बच्चों को दिए जाने वाले खाने में कितनी कैलोरी और प्रोटीन हो यह भी तय किया गया है। मसलन, प्राइमरी स्कूल के एक बच्चे को मिड-डे मील से 450 कैलोरी और 12 ग्राम प्रोटीन मिलना चाहिए। इसी तरह उच्च प्राथमिक विद्यालय के एक बच्चे को मिड-डे मील से 700 कैलोरी और 20 ग्राम प्रोटीन मिलना चाहिए।

Source: PIB

“हम बच्चों को एक वक़्त का खाना देते हैं, बाकी दो वक़्त का भोजन वह अपने घर पर करते हैं। हम कुपोषण का पूरा बचाव सिर्फ एमडीएम से नहीं कर सकते। हां, यह एक पौष्टिक खाना होता है, जो कुपोषण से बचाव में सहायक हो सकता है,” तरुना सिंह ने कहा।

2011 की जनगणना के मुताबिक, क़रीब 20 करोड़ (19.98) की जनसंख्‍या वाला उत्तर प्रदेश, देश की सबसे अधिक आबादी वाला राज्य है। उत्तर प्रदेश जैसी बड़ी जनसंख्‍या वाले राज्य में कुपोषण भी एक बड़ी समस्‍या है। बिहार के बाद यूपी देश का दूसरा ऐसा राज्य है जहां कुपोषण सबसे अधिक है। यूपी में पांच साल तक के 46.3% बच्चे अविकसित क़द के हैं, इन बच्चों की लंबाई उनकी उम्र के हिसाब से नहीं बढ़ती। इस मामले में राष्ट्रीय औसत 38.4% है। इसी तरह यूपी में पांच साल तक की उम्र के 39.5% बच्चों का वज़न उनकी उम्र के हिसाब से कम पाया गया। इस मामले में राष्ट्रीय औसत 35.7% है, नेशनल फ़ैमिली हेल्‍थ सर्वेक्षण-4 (NFHS-4) की रिपोर्ट में कहा गया है।

इसके बाद 2016 से 2018 के बीच हुए राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण में भी यह आंकड़े चिंताजनक ही रहे। उत्तर प्रदेश में चार साल से कम उम्र के 38.8% बच्चे अव‍िकसित कद के थे। इसके अलावा 18.5% बच्चों का वज़न उनकी उम्र के हिसाब से कम था, राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण के आंकड़ों में बताया गया। यह रिपोर्ट 2019 में आई थी।

यह आंकड़े बताने के लिए काफी हैं कि यूपी में कुपोषण कितनी गंभीर समस्या है। इसी समस्या से निपटने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर कई तरह की योजनाएं चलाती हैं। इन्हीं में से एक मिड-डे मील योजना भी है जो फ़िलहाल लॉकडाउन की वजह से ठप पड़ी हुई है।

कई राज्यों में दिया जा रहा मिड-डे मील

कोरोनावायरस की वजह से स्कूलों के बंद होने और बच्चों को मिड-डे मील न मिल पाने पर सुप्रीम कोर्ट ने लॉकडाउन से पहले 18 मार्च को इस मामले में स्वत: संज्ञान लेते हुए सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को नोटिस जारी किया था। इस नोटिस में चीफ़ जस्टिस एसए बोबड़े की अध्यक्षता वाली बैंच ने पूछा था कि स्कूल बंद रहने के दौरान बच्चों को मिड-डे मील कैसे दिया जाएगा।

इसके बाद से कई राज्यों ने अपने यहां मिड-डे मील पहुंचाने की अलग-अलग व्‍यवस्‍था की है। जैसे आंध्र प्रदेश में मिड-डे मील के लाभार्थियों को राशन देने की व्‍यवस्‍था की गई है। इसी तरह पश्चिम बंगाल भी बच्चों के घरों तक राशन पहुंचा रहा है।

केरल सरकार बच्चों को मिड-डे मील का पका हुआ खाना घर पर पहुंचा रही है। राज्य सरकार ने यह फैसला इसलिए लिया ताकि ग़रीब तबके से जुड़े बच्चे म‍िड-डे मील से वंचित ना रहें, यह उनके पोषण का एक मुख्य ज़रिया है।

केरल में महिला और बाल विकास विभाग की ओर से बच्चों को घर पर ही पका हुआ खाना पहुंचाया जा रहा है। इस काम में केरल के 33,115 आंगनबाड़ी केंद्र लगे हैं, जिनसे 3.75 लाख बच्चों को लाभ मिल रहा है, केरल की स्वास्थ्य और सामाजिक न्याय मंत्री के.के. शैलजा ने एक फेसबुक पोस्ट में कहा।

उधर, असम सरकार भी 14 साल से कम उम्र के 40 लाख बच्चों को घर पर म‍िड-डे मील पहुंचाने का काम कर रही है, असम के मुख्य सचिव कुमार संजय कृष्ण‍ के हवाले से 26 मार्च की इंडिया टुडे की इस रिपोर्ट में कहा गया।

उत्तर प्रदेश में इन राज्यों की तर्ज़ पर मिड-डे मील बच्चों को घर पर क्यों नहीं पहुंचाया जा रहा है? “छोटे राज्यों में यह मुमकिन है। यूपी जैसे बड़े राज्य में- जहां 1.80 करोड़ बच्चे इस व्‍यवस्‍था के लाभार्थी हैं- घर-घर जाकर बांटना संभव नहीं है। साथ ही लॉकडाउन के दौरान अगर स्कूलों में खाना बनवाया गया तो भीड़ लग जाएगी और फिर सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं हो सकेगा,” नाम न लिखने की शर्त पर उत्तर प्रदेश मिड-डे मील प्राधिकरण के एक अधिकारी ने कहा।

बढ़ सकते हैं कुपोषण के मामले

“मिड-डे मील से बच्चों को करीब 30 से 40% कैलोरी मिल जाती है, बाकी का पोषण उसे घर के खाने से मिलता है। अब जबकि ग़रीब तबके के पास काम नहीं है, उनकी ख़रीदने की क्षमता नहीं है, खाने की कमी है, ऐसे में बच्चों के लिए यह 30 से 40% का पोषण बहुत ज़रूरी हो जाता है। बहुत से ग़रीब परिवारों के बच्चों के लिए मिड-डे मील उनके खाने का एक महत्वपूर्ण ज़रिया है,” बच्चों को मिड-डे मील न मिलने से उन्हें होने वाले नुकसान के बारे में 'सेव द चिल्ड्रन' के हेड ऑफ़ न्यूट्रीशन अंतर्यामी दाश ने इंडियास्पेंड से कहा। उन्होंने कहा, “कोरोनावायरस से पहले ही देश में 5 साल से कम उम्र के करीब 38% बच्चे कुपोषित हैं। इस स्थिति को देखते हुए मुझे लगता है कि बच्चों को मिड-डे मील न मिलने से आने वाले वक्त में कुपोषण के मामले और बढ़ेंगें।”

(रणविजय, लखनऊ में स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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