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यदि आपने कभी ऑनलाइन या अखबार में नौकरी के विज्ञापनों पर गौर किया हो तो , कितनी बार आपने दिल्ली में एक आईटी कंपनी के लिए दिए गए विज्ञापन का प्रारूप इस तरह देखा है “रिसेप्शनिस्ट -सहित -कार्यालय प्रशासक (केवल महिलाएं )" ?

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ऐसा होने की संभावना बहुत है । और एक छोटे से उद्यमी अध्ययन ने इसके अंकन का प्रयास भी किया है।एक गैर सरकारी संगठन TheBetterIndia के राहुल आनंद ने कुछ अग्रणी भारतीय दैनिको के 950 वर्गीकृत विज्ञापन के एक छोटा से नमूने के अध्ययन में पाया कि इनमे से 146 या 15% के लगभग विज्ञापनों में महिलाओं को पसंद किया जाता है। और दोषी ? हमेशा से संदिग्ध रिसेप्शनिस्ट , कॉल सेंटर कर्मचारी और विक्रेता के लिए प्रकाशित विज्ञापन।

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और ऐसा नही है कि सिर्फ महिलाओं को ही कुछ निश्चित व्यवसायों के लिए प्राथमिकता दी जाती है, कई लिपिक और विक्रय संबंधित व्यवसायों के विज्ञापनों में पुरुष उम्मीदवारों को भी प्राथमिकता दी गई है । कुल मिला के 20%, या लगभग पांच विज्ञापन में एक में, किसी विशेष लिंग, पुरुष अथवा महिला के लिए प्राथमिकता व्यक्त की गई है । जहां सरकारी क्षेत्र में सेक्स या लिंग के आधार पर किसी के खिलाफ भेदभाव या किसी भी विशेष लिंग के उम्मीदवारों के लिए ज़बरदस्त मांग संवैधानिक रूप से निषेध है, वहीं निजी क्षेत्र में किसी भी तरह का प्रतिबंध नहीं है। यह सवाल ज़रूर पूछा जाना चाहिए की यह अभ्यास, भले ही गैरकानूनी नही है परन्तु क्या यह नैतिक रूप से उचित है ?

अमेरिका जैसे कुछ देशों में लिंग के अनुसार भेदभाव से नियोक्ताओं को रोकने का प्रयास किया जाता है । लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र में वहां भी सक्रिय रूप से "सकारात्मक कार्रवाई" या सकारात्मक भेदभाव के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

दूसरे समाज से सार्वजनिक नैतिकता उधार लेना सही नहीं होगा। लेकिन यह भी यथार्थ है कि हमारे देश में जहां ऐतिहासिक रूप से ही कुछ समूहों के खिलाफ भेदभाव का चलन रहा है वहाँ इसी तरह की पद्धतियों से जैसे नकरात्मक रूप से भेदभाव पर रोक लगाते हुए साथ ही सकारात्मक भेदभाव को प्रोत्साहित कर कुछ समूहों की भागीदारी को बढ़ावा दिया जा सकता है ।

हालांकि यदि आप उन विज्ञापनों की गौर से जांच करें जिनमे महिलाओं को प्राथमिकता दी गई है तो पाएंगे इस तरह की नियुक्तियां शायद ही कार्यस्थल में विविधता में सुधार लाने के इरादे से की जाती है। इसके विपरीत , वे केवल जैसे रिसेप्शनिस्ट से संबंधित कार्य में, कार्य क्षेत्र में लैंगिक अवधारणा को सुदृढ़ करने का कार्य करते हैं।

लेकिन क्या आँकड़े एक निश्चित पेशे "gendered" है के दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करते हैं? यदि हम ऊपर उल्लेखित अध्ययन में इस्तेमाल आंकड़ों में देखें , तो रिसेप्शनिस्ट / सचिव / फ्रंट ऑफिस असिस्टेंट श्रेणी के लिए प्रकाशित 119 में से 49 विज्ञापनों (41.2%) में महिलाओं को प्राथमिकता दी गई है लेकिन 67 (56.3%)विज्ञापन के लिए कोई भी प्राथमिकता व्यक्त नही की गई । जब उस वर्ग के लिए आधे से अधिक विज्ञापनों में प्राथमिकता व्यक्त नहीं की गई तो यह कहना कि इस श्रेणी में नियुक्तियों में लिंग पूर्वाग्रह है कहाँ तक सही हो सकता है? वहीं क्या 41.2% का आंकड़ा इस पूर्वाग्रह के घटने का सबूत है?

यह भी जानना होगा कि क्या ऐसे आंकड़े उपलब्ध हैं जिनसे जाना जा सके कि सम्पूर्ण भारत में इस श्रेणी के अंतर्गत कितनी नियुक्तियाँ की गई हैं , 119 विज्ञापन पर्याप्त नमूना नही हैं कि उनके अनुसार हम पूरे देश के लिए मान्य निष्कर्ष प्राप्त कर सकें । और हम यह तथ्य नहीं भूलें कि अगर हमे कोशिश करनी है और ये सुनिश्चित करना है कि किसी नियुक्ति में लिंग पूर्वाग्रह हैं , तो केवल भर्ती विज्ञापनों का आकलन से काफी नही है।

हमें कार्यस्थल में उस कार्य श्रेणी के अन्तर्गत नियुक्त किये गए लोग और वर्तमान में कार्यरत लोगो के लिंग विभाजन, लिंग का कार्यस्थल के पदानुक्रम में उच्चता पर प्रभाव आदि को भी देखना होगा ।

ऐसा नही है की इस अध्धयन से सीखने के लिए कुछ भी नहीं है। उदाहरण के लिए, आपको ऐसा लगता होगा कि केवल कम कौशल वाली नौकरियाँ जैसे लिपिक या विक्रय के लिए दिए गए विज्ञापनों में ही एक निश्चित लिंग के लिए एक प्राथमिकता व्यक्त होती है । लेकिन इस आंकलन के अनुसार, प्रबंधकीय स्तर पर नौकरियों के लिए विज्ञापनों में 47 (या 19%) में से 9 में भी एक लिंग को प्राथमिकता दी गई थी ।

यदि हम अपने शैक्षिक मुकुट उतार फेंके और अपनी जांच के दायरे को दिए गए आंकड़ों तक सीमित कर लें और इसकी सीमितता का ध्यान रखें तब भी इस अध्धयन से प्राप्त आंकड़े विश्लेषण के लिए बेहद दिलचस्प हैं ।

Image credit: Dreamstime|Ziprashantzi

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