झारखंड में नहीं चल पा रही डिजिटल इंडिया की ‘जादू की छड़ी’: सर्वे
बेंगलुरुः सरकारी सुविधाओं को घर के नज़दीक लाने के मक़सद से शुरु किए गए कॉमन सर्विस सेंटर यानी सीएससी, झारखंड में फ़ेल हो रहे हैं। हाल ही में हुए एक सर्वे में ये सामने आया है। वैसे तो सीएससी की शुरुआत साल 2006 में हुई थी लेकिन अब ये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के डिजिटल इंडिया प्रोग्राम का अहम हिस्सा है।
सर्वे के दौरान पाया गया कि सर्टिफ़िकेट जारी करने, आधार से जुड़े पेमेंट सिस्टम के ज़रिए बैंकिंग, पैन कार्ड के लिए अप्लाई करने, स्वास्थ्य से जुड़ी सरकारी योजनाओं का फ़ायदा उठाने जैसे कामों के लिए ये सीएससी ग्राहकों से तय से ज़्यादा फ़ीस वसूल रहे हैं।
राज्य में बिजली की आंखमिचौली और बार-बार इंटरनेट कनेक्शन में रुकावट की वजह से ये केंद्र अक्सर ऑफ़लाइन रहते हैं।
ग्राम पंचायतों को डिजिटल पंचायतों में बदलने के लिए सीएससी-स्पेशल पर्पज़ व्हेकिल और पंचायती राज मंत्रालय के बीच हाल ही में साइन हुए एमओयू के मद्देनज़र सर्वे के नतीजे महत्वपूर्ण हैं।
केंद्र और झारखंड में सरकार चला रही भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के लिए सरकारी सेवाओं के लिए डिजिटल माध्यम एक पसंदीदा चुनावी मुद्दा रहा है। झारखंड में फिर विधानसभा चुनाव हैं, और बीजेपी एक बार फिर सत्ता हासिल करने की कोशिश में है।
जैसा कि हमने पहले भी बताया कि सीएससी की शुरुआत 2006 में नेशनल ई-गवर्नेंस प्लान के तहत हुई थी, लेकिन अब ये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के डिजिटल इंडिया प्रोग्राम का एक “अहम हिस्सा” हैं। ह्यूमन डवेलेपमेंट इंडिकेटर्स के मामले में झारखंड 36 में से 34वें पायदान पर है। झारखंड उन शुरुआती राज्यों में से था जिन्होंने 100% सीएससी खोलने में सफलता हासिल की थी।
इन केंद्रों का संचालन निजी हाथों में है, जिन्हें गांव के स्तर के उद्यमी यानी विलेज लेवल एंटरप्रन्योर (वीएलई) कहा जाता है। इन वीएलई को राज्य सरकार कमीशन देती है। इनसे उम्मीद की जाती है कि ये सामाजिक बदलाव का ज़रिया (“चेंज एजेंट”) बनेंगे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बताया था कि कैसे 3,00,000 से ज़्यादा केंद्र “डिजिटल इंडिया के सपने” को पूरा कर रहे हैं। मोदी ने 15 अगस्त 2018 को लाल क़िले से अपने भाषण में कहा था कि ये केंद्र इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी का ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल कर गांवों में हर किसी को “किसी भी समय-कहीं भी कनेक्टिविटी” की सेवा दे रहे हैं।
सेवाएं देने में नाकाम
इस सर्वे के नतीजे मोदी के दावों को कम से कम झारखंड में तो ग़लत बताते हैं।
झारखंड के 10 ज़िलों में प्रज्ञा केंद्र (पीके) यानी सीएससी के 401 यूज़र्स और 61 वीएलई से जून 2018 में बातचीत की गई थी। इसमें यूज़र्स से पीके में दी जाने वाली सेवाओं, संसाधनों और समस्याओं की शिकायतों के निपटारे को लेकर उनकी जानकारी और अनुभव के बारे में पूछा गया था। वीएलई से उनकी ओर से दी जाने वाली सेवाओं, उनकी वित्तीय स्थिति और उनके ख़ुद को उद्यमी या सरकारी सेवक मानने के बारे में सवाल किए गए थे।
पीके की सुविधा सबकी पहुंच में हो इसलिए इनका ग्राम पंचायत भवनों में चलना ज़रूरी है। लेकिन जून 2018 में झारखंड के जिन ज़िलों में ये सर्वे हुआ उनमें से केवल 37% ही ग्राम पंचायत भवनों में चल रहे थे।
पीके के कम इस्तेमाल की वजहों में बिजली और इंटरनेट कनेक्टिविटी की समस्या को बताया गया था। चार में से एक यूज़र ने अपने घर के सबसे क़रीब होने के बावजूद पीके (जो पंचायत भवन में नहीं चल रहे थे) का इस्तेमाल नहीं किया।
एक आधिकारिक रेट चार्ट होने के बावजूद, सेवाओं के लिए यूज़र्स से बहुत ज़्यादा पैसे वसूले जा रहे थे। हर पीके को बाहर साफ़-साफ़ शब्दों में लिखा एक रेट चार्ट को लगाना होता है लेकिन ऐसा अक्सर होता नहीं है। ये चार्ट अक्सर ऐसी हालत में होते हैं, जिन्हें पढ़ा नहीं जा सकता। यूज़र जन्म और जाति जैसे एक सर्टिफ़िकेट के लिए औसतन 101 रुपये का भुगतान कर रहे थे, जबकि सरकारी रेट 30 रुपये है। सर्वे में पाया गया कि आधार से संबंधित काम के लिए लोगों से 80 रुपये वसूल किए गए, जबकि ये मुफ़्त है।
Source: https://pkas2018.wordpress.com/ (photos were taken by local and student volunteers)
सभी सीएससी में, साफ़-साफ़ शब्दों में लिखे एक रेट चार्ट को लगाना होता है। पहली तस्वीर: गिरिडीह ज़िले के चिल्गा में साफ़-साफ़ शब्दों में लिखे गए रेट चार्ट का उदाहरण है। दूसरी तस्वीर: पूर्वी सिंहभूम ज़िले के बनकाती में एक ग़लत तरीक़े से लगाए गए रेट चार्ट का उदाहरण है।
सर्वे में केवल 22% यूज़र्स ने कहा कि उन्होंने पीके में चार्ट लगा देखा है। कम जानकारी और साफ़-साफ़ लिखे रेट चार्ट का न होना वीएलई के यूज़र्स को आसानी से ठगने का एक कारण हो सकता है। सर्वे में लगभग 40% यूज़र्स ने कहा कि उन्हें लगता था कि इन कामों के लिए वीएलई ने ही रेट तय किया है और 43% का कहना था कि उन्हें यह नहीं पता कि रेट सरकार ने तय किया है या वीएलई ने।
सर्वे में शामिल लोगों ने बताया कि पीके में काम करवाने के लिए उन्हें काफ़ी वक़्त लगता है और कई चक्कर काटने पड़ते हैं। आधे से ज़्यादा यूज़र्स (55%) ने पीके में काम करवाने के लिए अनुमान से ज़्यादा वक़्त लगने की बात कही। कोई भी सर्टिफ़िकेट लेने के लिए लगने वाला औसत वक़त साढ़े सात घंटे (टेबल 1) था।
Table 1: Cost, Time & Frequency Of Visits To Access Services | |||||||
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Respondents Using The Service (In %) | Official Rate (In Rs) | Median Actual Paid (In Rs) | Mean Actual Paid (In Rs) | Median Time Taken (Hours) | Mean Time Taken (Hours) | Avg. Visits Required | |
Certificates | 56 | 30 | 75 | 101 | 4.64 | 7.5 | 6.56 |
Banking | 30 | 0 | 0 | 34 | 4.86 | 8.1 | 3 |
Aadhaar | 27 | 0 | 70 | 80 | 3.48 | 4.4 | 2.09 |
Other / Jhar Sewa* | 36 | 30 | 78 | 105 | 2.62 | 6.8 | 8.36 |
Source for this table: Pragya Kendra Assessment Study *Jharkhand Sewa Servicesसर्वे में जिन 401 यूज़र्स से बात की गई उनमें से 37% ने कहा कि उन्हें नेटवर्क या बिजली की समस्या के कारण पीके में दोबारा आना पड़ा था (टेबल 2)। औसतन, यूज़र्स को एक सर्टिफ़िकेट लेने के लिए पीके में छह बार से ज़्यादा, बैंकिंग के काम के लिए तीन बार, और अन्य सेवाओं के लिए आठ बार से ज़्यादा आना पड़ा था।
ग्रामीण बैंकिंग में रुकावटें
बैंकिंग, पीके में दूसरी सबसे ज़्यादा इस्तेमाल की जाने वाली सेवा है। लेकिन यूज़र्स को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के लिए, सर्वे में शामिल 63% लोगों को उनके ट्रांज़ेक्शन की रसीद नहीं मिली और लगभग एक तिहाई को एक बैंक की ब्रांच में भेजा गया था। क्योंकि पीके में पासबुक अपडेट करने की सुविधा नहीं है इसलिए यूज़र्स को रसीद दिया जाना ज़रूरी है। रसीद न मिलने से धोखाधड़ी की आशंका रहती है।
सर्वे में पता चला कि आधार से जुड़े ट्रांज़ेक्शन के लिए, 42% यूज़र्स को मुखिया के पास चक्कर लगाना पड़ा था। वीएलई के मुताबिक़, 42% यूज़र्स के बायोमेट्रिक्स पहली बार में काम नहीं करते।
रिसर्च करने वालों ने पाया कि झारखंड में बड़े बैंकों में अधिकारी अक्सर लोगों को ब्रांच से ये कहकर वापस कर देते हैं कि 10 हज़ार से कम रुपये निकालने के लिए वो पीके जाएं। अगर वे बायोमेट्रिक ऑथेंटिकेशन फ़ेल होने के कारण पीके से राशि नहीं निकाल पाते, तो उन्हें वीएलई के साइन वाला पत्र लाने के लिए कहा जाता है जिसमें लिखा होता है कि बायोमेट्रिक ऑथेंटिकेशन फ़ेल रहा।
वीएलई की दिलचस्पी केवल आमदनी में
सर्वे में यूज़र्स और वीएलई के बीच बड़ा सामाजिक-आर्थिक अंतर पाया गया। वीएलई में, लगभग 15% दलित या आदिवासी थे, जो कि यूज़र्स और राज्य के प्रोफ़ाइल के लगभग उलट हैः झारखंड की 40% जनसंख्या दलित और आदिवासी है।
यह अंतर जेंडर और शिक्षा के मामले में भी है। सर्वे में पाया गया कि 93% वीएलई पुरुष हैं जबकि राज्य में महिलाओं की जनसंख्या 49% है। 90% से अधिक वीएलई ने 12वीं तक पढ़ाई की थी, लेकिन 37% यूज़र्स या तो पढ़े-लिखे नहीं थे या उन्होंने पांच साल से कम की स्कूली शिक्षा पूरी की थी।
वीएलई ने प्रधानमंत्री के ‘किसी भी समय-कहीं भी कनेक्टिविटी’ के दावे को ग़लत बताया और कहा कि पंचायत भवनों में पीके नहीं चलाने की वजह इन्फ़्रास्ट्रक्चर और सुविधाओं की कमी है।
आधे से ज़्यादा (54%) वीएलई का कहना था कि वे आमदनी के दूसरे ज़रियों के भरोसे हैं। उन्होंने बताया कि कमीशन से एक पीके लगाना व्यावसायिक तौर पर फ़ायदे का सौदा नहीं है, 90% से अधिक ने कहा कि वे कमीशन के बजाय एक तय तनख़्वाह पर काम करना पसंद करेंगे।
वीएलई ने हर महीने औसतन 3,000 रुपये कमाने की बात कही है, जबकि उन्होंने एक पीके शुरु करने में 87,000 रुपये ख़र्च किए थे। लगभग एक चौथाई ने बताया कि उन्हें अधिकारियों को ‘अलग से भी पैसे’ देने पड़े थे। ज़्यादातर वीएलई ने बताया कि कम कमीशन के कारण यह मॉडल आर्थिक तौर पर मज़बूत नहीं है। राज्य के अधिकारी मानते हैं कि वीएलई, यूज़र्स से ज़्यादा पैसे वसूल करते हैं।
शिकायतों के निपटारे की व्यवस्था नहीं
यूज़र्स और वीएलई की शिकायतों के निपटारे की व्यवस्था न होने से मुश्किलें और बढ़ जाती हैं। सरकार प्रत्येक वीएलई की निगरानी नहीं करती, जबकि वीएलई अपने यूज़र्स के लिए जवाबदेह नहीं हैं। फ़ीडबैक देने की भी कोई व्यवस्था नहीं है।
75% यूज़र्स ने कहा कि उन्हें यह जानकारी नहीं है कि वे पीके के ख़िलाफ़ शिकायत भी कर सकते हैं।
22% यूज़र्स चाहते थे कि वे पीके के ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज कराएं लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। एक यूज़र ने बताया, “मुझे नहीं पता कि कहां शिकायत करनी है। यह प्राइवेट है और इस वजह से जवाबदेही कम है।”
एक विकल्प, मगर बेहतर माध्यम नहीं
वीएलई, यूज़र्स, सरकारी अधिकारियों और सिविल सोसाइटी सदस्यों, सभी का मानना था कि सेवाओं के लिए इस तरह का डिजिटल प्लेटफॉर्म, जवाबदेही और पारदर्शिता के रास्ते में रुकावट बन रहा है। मौजूदा स्थितियों में, तकनीक एक छलावा बन गई है और जवाबदेही एक “कंप्यूटर” पर डाल दी गई है। (टेबल 3)
Table 4: Magic Wand Of Digital Service? | |
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Government’s claim | Reality on ground |
One-stop shop | 42% of citizens had to additionally visit a Mukhiya/Official |
Quick | 55% of respondents said it took longer than anticipated to get work done at a PK |
Corruption-free | Almost all services were overcharged |
Transparent | 63% said they did not receive receipts for their transactions |
Better Clarity | 43% did not know whether the government or PK was responsible for fixing rates |
Accountable | 48% of VLEs said they signed an MoU while the rest didn’t have to. No accountability towards the users of PK |
Source: Pragya Kendra Assessment Study
राज्य की राजधानी रांची में एक सार्वजनिक विचार-विमर्श के दौरान संबंधित पक्षों ने सुझाव दिया था कि सार्वजनिक सेवाएं देने के ज़रियों में पीके एक मज़बूत भागीदार तो हो सकते हैं, लेकिन एक बेहतर माध्यम नहीं।
(अनोग्नया, बेंगलुरु में नेशनल लॉ स्कूल में पब्लिक पॉलिसी के छात्र हैं। राजेंद्रन नारायणन, अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी (एपीयू) में पढ़ाते हैं। राजेंद्रन ने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी, अमेरिका से इनायत साभिकी के साथ और एपीयू से राहुल लाहोटी के साथ मिलकर रिसर्च की है।)
ये रिपोर्ट मूलत: अंग्रेज़ी में 25 नवंबर 2019 को IndiaSpend पर प्रकाशित हुई है।
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