‘ड्रिंक एंड ड्राइव’ दुर्घटनाओं में हर रोज होती है 19 भारतीयों की मौत
‘ड्रिंक एंड ड्राइव’ दुर्घटनाओं में हर रोज होने वाली 19 भारतीयों के मौत के आंकड़ों को कम जा सकता है अगर पुलिस की चेकिंग औचक कर दी जाए। आमतौर पर पीकर गाड़ी चलाने वालों को पहले से ही पता होता है कि पुलिस की चेकिंग कहां होगी? अगर इसे औचक कर दिया जाए तो दुर्घटनाओं के आंकड़े कम हो सकते हैं। यह जानकारी राजस्थान पुलिस के साथ मिलकर अमेरिकी शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक अध्ययन में सामने आई है।
यह निष्कर्ष विशेष रूप से अप्रैल 2017 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले की पृष्ठभूमि में प्रासंगिक है। कोर्ट के इस फैसले के तहत राष्ट्रीय राजमार्गों पर शराब की बिक्री पर प्रतिबंध लगाया गया है। कोर्ट के इस कदम को अधिक महत्वाकांक्षी फैसला मानते हुए आलोचना भी गई थी।
यह अध्ययन वर्ष 2010 और 2011 में आयोजित किया गया और मई 2017 में जारी किया गया है। अध्ययन में मुख्य समाधान कुछ इस प्रकार बताया गया है। स्थायी चेकनाका के कारण ड्राइवरों को यह पता होता है कि चेकिंग कहां होगी और वे जरूरत के अनुसार अपने मार्ग बदलते रहते हैं। सलाह में कहा गया है कि स्थायी चोक पोस्ट की बजाए अलग-अलग रास्तों पर चेकपोस्ट बनाए और हटाए जाएं, तो बेहतर लाभ होगा।
‘एंटी-ड्रिंक ड्राइविंग प्रोग्राम’ को लागू करने और इसका मूल्यांकन करने के लिए बोस्टन के ‘मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी’ की शोध इकाई ‘अब्दुल जमील पोवर्टी एक्शन लैब (जे-पाल) के शोधकर्ताओं ने राजस्थान राज्य पुलिस के साथ मिलकर इस अध्ययन को आगे बढ़ाया। उन्होंने देखा कि दो महीने की कड़ी कानूनी कार्यवाही और बाद के छह सप्ताह के दौरान, एक विशेष पुलिस स्टेशन द्वारा कवर किए गए क्षेत्र में रात की दुर्घटनाओं में 17 फीसदी और मृत्यु में 25 फीसदी की कमी आई है।
सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय ( एमओआरटीएच ) के नवीनतम उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2015 में भारत में 501,423 सड़क दुर्घटनाएं दर्ज की गईं, जिनमें से 16,298 (3.2 फीसदी) दुर्घटनाओं की वजह शराब पीकर गाड़ी चलाना था। आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2015 में ‘ड्रिंक एंड ड्राइव’ दुर्घटनाओं में 6,755 लोग मारे गए, जबकि 18,813 घायल हुए।
वर्ष 2015 में 9 सड़क दुर्घटनाओं में हर 10 मिनट में तीन लोगों की मौत हुई हैं। यह आंकड़े चार वर्षों की तुलना में 9 फीसदी ज्यादा हैं। इस संबंध में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के आधार इंडियास्पेंड ने 9 जनवरी, 2017 को विस्तार से बताया है।
छह वर्षों में सड़क दुर्घटनाओं में रोजाना 383 लोगों की मौत
Source: Ministry of Road Transport and Highways 2015, 2014, 2013, 2012, 2011, 2010
जे-पाल अध्ययन का निष्कर्ष है कि गाड़ी चलाने वाले ड्राइवर की किसी अन्य तरह की गलती की तुलना में शराब पी कर गाड़ी चलाने से औसनतन ज्यादा मौतें होती हैं। ‘एमओआरटीएच रिपोर्ट-2015’ ड्राइवर की ज़िम्मेदारियों के मामले में दुर्घटनाओं को वर्गीकृत करती है। प्रति 2.4 दुर्घटनाओं पर एक मौत का कारण शराब है। मौत का दूसरा मुख्य कारण पहाड़ी सड़कों पर दूसरी गाड़ियों से आगे निकलने की कोशिश करना (2.9 दुर्घटनाओं में एक मौत) और अनुचित पास (3.06 दुर्घटनाओं में एक मौत) देना है।
दुर्घटनाओं का सबसे खतरनाक कारण शराब पी कर गाड़ी चलाना
एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, सभी दुर्घटनाओं में से 1.5 फीसदी दुर्घटनाओं का कारण शराब पी कर गाड़ी चलाना है। यह अन्य खतरों की तुलना में सबसे ज्यादा घातक दर है, जैसा कि 5 अप्रैल, 2017 को इंडियन एक्सप्रेस के इस विश्लेषण में बताया गया है। शराब पी कर गाड़ी चलाने पर हुई दुर्घटनाओं में कम से कम 42 फीसदी पीड़ितों की मौत हुई है। वहीं तेज गति से गाड़ी चलाने पर हुई दुर्घटनाओं में 30 फीसदी पीड़ितों की मौत, लापरवाही से गाड़ी चलाने के बाद दुर्घटनाओं में 33 फीसदी पीड़ितों की मौत और खराब मौसम से हुई दुर्घटनाओं की स्थिति में मौत के आंकड़े 36 फीसदी रहे हैं। हालांकि, कुछ हद तक इन आंकड़ों में परिवर्तन देखा जा सकता है।
येल विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर और अध्ययन के सह-लेखक डैनियल केनिस्टन ने इंडियास्पेंड को बताया, “शराब पी कर गाड़ी चलाने वालों से हुई दुर्घटनाओं में मौत का अनुमान कम हो सकता है। अगर पुलिस दुर्घटना के समय में देर से आती है तो यह कहना मुश्किल है कि क्या हर घटना शराब के कारण हुई है।” लेकिन तेज गति से गाड़ी चलाने के कारण 64,633 मौतें हुई हैं। ये आंकड़े किसी भी अन्य कारण से ज्यादा हैं।
भारत और राजस्थान में पिछले 6 वर्षों में शराब पी कर गाड़ी चलाने के कारण हुई मौतें
Source: Ministry of Road Transport and Highways 2015, 2014, 2013, 2012, 2011, 2010
अध्ययन के लिए राजस्थान के 10 जिलों में 183 पुलिस स्टेशनों में से 123 को बेतरतीब ढंग से चुना गया है। इन स्टेशनों ने ट्रीटमेंट ग्रुप का गठन किया जिसे ट्रीटमेंट स्टेशन कहा जाता है। शेष पुलिस स्टेशनों ने तुलना समूह का गठन किया और प्रवर्तन के लिए विशिष्ट निर्देश या अतिरिक्त संसाधन नहीं दिए गए। जे-पाल शोधकर्ताओं ने " सिलेक्टिव ब्रेथ चेकपॉइंट पद्धति" आयोजित किया, जिसमें निम्नलिखित बिंदु शामिल थे-
जगह-जगह रोड ब्रेकर: पुलिस की तीव्रता और आपराधिक व्यवहार के बीच के रिश्ते की जांच करने के लिए, ट्रीटमेंट स्टेशन को हर सप्ताह एक या दो या तीन रातों को बेतरतीब ढंग से रोड ब्रेकर लगाने का काम सौंपा गया। हमेशा शाम 7 बजे से रात 10 बजे के बीच ऐसा किया गया।
रोड ब्रेकर का लोकेशन: निश्चित चेकपॉइंट की तुलना में अलग-अलग स्थानों पर या स्थानीय पुलिस द्वारा चुने गए स्थानों पर हर हफ्ते नशे में धुत्त ड्राइवरों को पकड़ने के लिए रोड ब्रेकर्स लगाए गए थे।
दो वर्षों के अध्ययन के दौरान, सड़क दुर्घटनाओं, सांस की जांच से एकत्र आंकड़े, मौतों और पुलिस प्रदर्शन पर जानकारी इकट्ठा करने के लिए शोधकर्ताओं ने प्रशासनिक आंकड़ो, अदालत के अभिलेख, आकस्मिक जांच बिंदुओं के सर्वेक्षण का उपयोग किया ।
परिणाम स्पष्ट थे। केवल सर्वश्रेष्ठ तीन स्थानों के आसपास घुमाए गए चौकसों वाले पुलिस स्टेशनों पर ही रात के समय मौत और दुर्घटनाओं में महत्वपूर्ण कमी देखी गई है। जब सांस लेने वाली जांच को एक ही जगह पर संचालन किया गया तो कुछ दिनों के भीतर अधिकांश ड्राइवरों ने वैकल्पिक मार्ग लेना शुरु कर दिया। इससे जिससे कई सड़क दुर्घटनाओं या मौतों की सूचना मिली।
जानकारी जल्द ही बाहर तक फैल गई। ड्राइवरों को यह भी पता चल गया कि चेकिंग कब बंद हुई। अध्ययन में यह भी पाया गया कि, अच्छे प्रदर्शन से बेहतर पदभार की संभावना में जिला आरक्षित पुलिस के ‘ड्रिंक ड्राइविंग चेकिंग यूनिट’ ने स्थानीय पुलिस की तुलना में बेहतर काम किया।
केननिस्टन कहते हैं, “हमने पाया कि विशेष दल स्थानीय पुलिस स्टेशन से टीम के मुकाबले हर पैरामीटर पर बेहतर प्रदर्शन करते हैं। चेकपॉइंट पर संयमित प्रदर्शन की उनकी संभावना 28.4 फीसदी अधिक है, जबकि समय पर पहुंचने की संभावना 24.7 फीसदी ज्यादा है। इसके अलावा, समर्पित टीमों ने अधिक नशे में गाड़ी चलाने वालों को पकड़ा और दंड का भुगतान करने के लिए अदालत भेजा । ” इस प्रदर्शन के दो कारण हो सकते हैं।
केननिस्टन कहते हैं, “ पहला यह कि विशेष टीम को ठोस प्रोत्साहन मिला। उन पर अधिक बारीकी से नजर रखी गई थी, उनका प्रदर्शन वरिष्ठ अधिकारियों की नजर में सकारात्मक रुप से आया। दूसरा यह कि विशेष टीम ने अपने काम पर अधिक ध्यान केंद्रित किया, क्योंकि अन्य पुलिसिया कामों के बोझ से वे थके हुए नहीं थे। ”
(साहा एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। वह ससेक्स विश्वविद्यालय के इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज़ से जेंडर एंड डिवलपमेंट में एमए हैं।)
यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 17 जुलाई 2017 को indiaspend.com पर प्रकाशित हैं।
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