गढ़वा ज़िला, झारखंड: लातेहार ज़िले के महुआदांड़ ब्लॉक की रहने वाली भाग्या बिरिजा को हर महीने अंत्योदय अन्न योजना के तहत 35 किलो अनाज मिलता है। खेतों में मज़दूरी करने वाली भाग्या को ‘पर्टिकुलरली वलनरेबल ट्राइबल ग्रुप’ (पीवीटीजी) के वर्ग में होने की वजह से ये सुविधा मिलती है। लेकिन भाग्या को ये अनाज अपने भाई के परिवार के साथ साझा करना पड़ता है। 7 सदस्यों वाला उसके भाई का परिवार, राशन कार्ड रद्द हो जाने की वजह से इस सुविधा से वंचित है।

भाग्या का भाई अकेला नहीं है। झारखंड के सबसे ग़रीब लोगों में से कुई को अनाज नहीं मिल पा रहा है और इसकी वजह, पीडीएस से फ़र्ज़ी राशनकार्ड रद्द करने के लिए 2014 से 2018 के बीच चलाया गया एक अभियान है।

राज्य के 3.3 करोड़ लोगों में से, 71% यानी 2.33 करोड़ लोग राशन के लिए पीडीएस पर निर्भर हैं। पिछले पांच साल में, पीडीएस से राज्य के सबसे कमज़ोर तबके को अक्सर निराशा मिली है। खाद्य सुरक्षा से जुड़े राइट टू फूड कैम्पेन के मुताबिक़, झारखंड में 2015 से 2019 के बीच भूख और सब्सिडी पर अनाज नहीं मिलने की वजह से 23 मौतें हो चुकी हैं।

इंडियास्पेंड ने राज्य के खाद्य, सार्वजनिक वितरण और उपभोक्ता मामलों के प्रभारी सचिव, अमिताभ कौशल से सरकार का पक्ष जानने की कोशिश की, लेकिन चार दिन तक कई कॉल और मैसेज करने के बावजूद उनकी तरफ़ से कोई जवाब नहीं आया।

झारखंड में ग़रीबी की दर बहुत ज़्यादा है। राज्य में बेरोज़गारी दर 9.2% (राष्ट्रीय औसत 7.4%), साक्षरता दर 70.3% (राष्ट्रीय औसत 75.4%) और देश में सबसे ख़राब पोषण है। इस सबके बावजूद यहां के पीडीएस में काफ़ी ख़ामियां हैं।

नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफ़एचएस), 2015-16 के मुताबिक़, 15 से 49 साल की महिलाओं में उम्र के हिसाब से कम क़द के मामले में झारखंड, देश में तीसरे नंबर पर आता है। लंबाई के अनुपात में कम वज़न और एनीमिया के मामलों में ये पहले नंबर पर है। झारखंड में पांच साल से कम उम्र के बच्चों में मृत्यु दर प्रति 1000 बच्चों में 29 है।

इस संकट का भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की अगुवाई वाली सरकार को बड़ा नुकसान हुआ है; मुख्यमंत्री रघुबर दास की भूमिका, राज्य में भूख से होने वाली मौतों से इनकार करने, फिर जांच का आदेश देने और बाद में ऐसी मौतों के कारण खोजने और हालात में सुधार के सुझाव देने के लिए एक कमेटी नियुक्त करने तक रही है।

भाग्या बिरिजा की मुश्किलः एक महीने की आमदनी ख़र्च करे या राशन में से भाई के परिवार को हिस्सा देती रहे

अकेले रहने वाली विधवा, भाग्या बिरिजा को एक महीने में 12 से 15 दिन ही रोज़गार मिलता है, उसकी एक दिन की कमाई 150 रुपये है।

उनके भाई के परिवार के सात सदस्यों में से किसी के पास भी राशन कार्ड नहीं है, जो उन्हें मुफ्त अनाज दिला सके, इसकी वजह ये है कि उनमें से किसी के पास भी आधार नहीं है।

30 नवंबर, 2019 तक राज्य की 91.3% आबादी के पास आधार कार्ड थे। यूआईडीएआई की रिपोर्ट के मुताबिक़, देशभर में 89.6% लोगों के पास आधार है।

भाग्या के भाई के परिवार को अगर आधार कार्ड चाहिए तो उन्हें 120 किलोमीटर दूर ज़िला मुख्यालय तक जाना होगा और इसके लिए उन्हें अपनी जेब से ख़र्च करना होगा। स्थानीय प्रशासन उन्हें आधार के लिए एनरोल करने से इंकार कर रहा है।

भाग्या के मुुताबिक़, सात सदस्यों में से हर एक के लिए दोनों तरफ़ के बस टिकट के 80 रुपये और हर सदस्य के एनरोलमेंट के लिए 300 से 400 रुपये देने होंगे। नियम कहता है कि आधार एनरोलमेंट मुफ्त है, लेकिन भाग्या ने बताया कि एजेंट और ब्लॉक में सरकारी अधिकारियों ने भी उनसे यह राशि मांगी है।

भाग्या के भाई के परिवार के लिए आधार कार्ड बनवाने का मतलब पूरे एक महीने की आमदनी खर्च करना है।

उन्होंने कहा, “इस वजह से मैं उन्हें अपने हिस्से में से अनाज देती हूं क्योंकि वे इसे बाज़ार से ख़रीदने में असमर्थ हैं।”

दिसंबर 2018 में, उनके भाई बीमार थे, और उनकी भाभी कुछ ढाबों पर बर्तन धोकर एक दिन में लगभग 100 रुपये कमाती थी। उस महीने परिवार के पास अनाज बिल्कुल ख़त्म हो गया था।

नए साल के दिन, उनके भाई के साथ रहने वाली उनकी मां बुधनी की मृत्यु हो गई थी।

मृत्यु से पहले कई दिन तक परिवार को भूखा रहना पड़ा था भाग्या ने बताया, “चूल्हा नहीं जला था तीन-चार दिन से।

उनकी बूढ़ी मां को कुछ दिनों से खाना नहीं मिला था। ग्रामीणों ने उनके घर के अंदर उन्हें मृत पाया था। परिवार के सदस्य बाहर थे, कोई रोज़गार की तलाश में गया था और कोई स्कूल गया था।

झारखंड सरकार की एक योजना है जिसमें बुधनी जैसे पीवीटीजी के सदस्यों को हर महीने उनके घर पर जाकर राशन देना होता है। लेकिन इंडियास्पेंड ने पाया कि ये हर व्यक्ति तक नहीं पहुंचता। भाग्या को हर महीने लगभग एक किलोमीटर दूर राशन की दुकान पर जाकर लाइन में लगना पड़ता है।

उनकी मां की मौत के बावजूद, स्थानीय अधिकारी परिवार को अनाज देने से मना कर रहे हैं।

भाग्या ने बताया, “मैं कई बार उनके पास गई हूं, लेकिन वे कहते हैं कि हमें आधार कार्ड नहीं दिया जा सकता। वे कहते हैं कि हम बाहरी हैं।” भाग्या ने कहा कि उनका परिवार पिछले चार दशकों से यहीं वोट दे रहा है।

हालांकि नियमों के तहत, घर के पते के दस्तावेज़ होने पर कोई भी देश में कहीं से भी आधार के लिए आवेदन कर सकता है।

भाग्या के जैसे कई मामले पूरे राज्य में हैं। झारखंड के 39.1% लोग, ग़रीबी (27,000 रुपये तक की परिवार की सालाना आमदनी वाले) में रहते हैं, छत्तीसगढ़ के बाद किसी भी राज्य में ये देश में ग़रीबों का सबसे ज़्यादा प्रतिशत है।

आधार-पीडीएस लिंक

भाग्या बिरिजा के मामले की तरह, झारखंड की पीडीएस समस्याओं में से कई का कारण एक आधार लिंक है।

झारखंड उन राज्यों में एक है जिन्होंने शुरुआत में ही राशन कार्ड के साथ आधार को लिंक करना ज़रूरी कर दिया था।

संसद में फरवरी 2018 में पेश किए गए आंकड़ों के मुताबिक़, 2013 से 2017 के बीच, 2.75 करोड़ जाली राशन कार्ड पकड़े गए और उन्हें रद्द किया गया। जिनमें से 4,53,000 झारखंड में थे। सरकार का कहना है कि इस प्रक्रिया का मक़सद पीडीएस को अधिक प्रभावी और कुशल बनाना था।

लेकिन सच्चाई ये है कि राशन कार्ड को आधार से लिंक करने से भाग्या जैसे लोगों के लिए नई समस्याएं खड़ी हो गई हैं।

दिसंबर 2017 में, मीडिया में झारखंड के सिमडेगा ज़िले में 11 साल की संतोषी कुमारी की भूख से मौत की रिपोर्ट आई थी। उनके परिवार को छह महीने से राशन नहीं दिया जा रहा था।

जांच में पता चला था कि परिवार के राशन कार्ड को इस अभियान के दौरान सरकार ने रद्द कर दिया था।

राशन कार्ड का आधार के साथ लिंक होना ज़रूरी करने के अलावा, 2016 में झारखंड सरकार ने पीडीएस की दुकानों पर प्वाइंट-ऑफ-सेल (पीओएस) मशीनें लगा दीं। राशन देते वक़्त राशन कार्ड धारकों की पहचान के लिए बायोमेट्रिक्स का इस्तेमाल करने के लिए कहा गया था।

हालांकि, साधारण सा लगने वाला ये सिस्टम कई परिवारों को भूखमरी के कगार पर पहुंचा सकता है।

महुआदांड़ से 150 किलोमीटर उत्तर में गढ़वा ज़िले के पेशका गांव में, 28 वर्षीय शकीला बीबी के परिवार को अप्रैल 2018 से 20 महीने में से आठ महीने राशन नहीं मिला था। राशन की सप्लाई विधानसभा चुनाव से ठीक पहले अगस्त 2019 के बाद ही नियमित हुई है।

शकीला बीबी (28) अपना राशन कार्ड दिखाते हुए जिसमें राशन की अनियमित सप्लाई दिख रही है।

शकीला के पास क़रीब तीन साल से आधार कार्ड है। लेकिन उसे इस बात का अहसास हो गया है कि राशन लेने के लिए इतना काफ़ी नहीं है।

उसने बताया, “हर बार मैं राशन की दुकान पर जाती हूं तो मशीन मेरे अंगूठे के निशान को नहीं पहचानती और दुकानदार दोबारा आने के लिए कहता है।” ये सिलसिला चलता रहता है।

शकीला ने बताया, “दुकानदार कहता है कि अनाज ख़त्म हो गया है अब अगले महीने आना।” लेकिन अगले महीने जाने पर दुकानदार कहता है कि पिछले महीने का राशन अब नहीं मिल सकता।

शकीला बीबी के चार बच्चे हैं, सबसे बड़ा 13 और सबसे छोटा आठ साल का है। उसके पति को नियमित मज़दूरी नहीं मिलती जिससे परिवार की आमदनी फ़िक्स नहीं है।

पिछले साल आठ महीने तक, शकीला बीबी को राशन नहीं मिला था क्योंकि प्वाइंट-ऑफ-सेल मशीन के ज़रिये उसके अंगूठे के निशान की पहचान नहीं हुई।

परिवार के पास दो एकड़ का एक छोटा सा खेत है जिसमें वे चावल, थोड़ी मक्का और सर्दियों के दौरान कुछ सरसों उगाते हैं। लेकिन राशन न मिलने से परिवार को पिछले साल के बचे हुए कुछ चावल से काम चलाना पड़ा था।

शकीला बीबी दिन में दो बार चावल उबालती थी और अपने बच्चों को मांड-भात खिलाती थी। कभी वह बच्चों को नमक के साथ चावल देती थी; कभी सरसों की चटनी के साथ चावल देती थी।

फिर वो एक दिन डिस्ट्रिक्ट लीगल सर्विसेज़ के सदस्य और उसी गांव के निवासी कलमुद्दीन अंसारी के पास गई। अंसारी ने शकीला बीबी को नियम बताएः अगर बायोमेट्रिक मिलान नहीं होता, तो दुकानदार को लाभार्थी की खुद पुष्टि कर राशन देना चाहिए।

अंसारी ने इंडियास्पेंड को बताया, “नियमों में साफ़ कहा गया है कि किसी भी वजह से डीलर, राशन देने से मना नहीं कर सकता। डीलर्स को एक रजिस्टर रखना होता है जिसमें उन्हें बायोमेट्रिक मिलान नहीं होने राशन कार्ड धारकों के विवरण दर्ज करने चाहिए, और इसके बाद उन्हें राशन देना चाहिए।”

शिकायत करने के बावजूद, शकीला बीबी को कम से कम दो महीने तक अपना राशन नहीं मिला था। डीलर के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई, लेकिन उन्हें जून 2019 से अपना राशन मिलना शुरू हो गया था। पीओएस मशीन पर अभी भी उनके अंगूठे के निशान का मिलान नहीं हो पाता लेकिन अब उन्हें वन-टाइम पासवर्ड (ओटीपी) मिल जाता है जिसका इस्तेमाल उनकी पहचान के लिए किया जाता है।

टेकनॉलोजी से हमेशा समाधान नहीं

शकीला बीबी के मिट्टी की दीवार वाले घर से कुछ दूर, एक धूल भरी, ऊबड़-खाबड़ सड़क पर झाड़ियों के पीछे, हलीमा अंसारी का घर है।

28 साल की हलीमा अंसारी को भी अप्रैल 2018 से नौ महीने के लिए राशन मिलना बंद हो गया था, क्योंकि पीओएस मशीन पर उनके अंगूठे के निशान का मिलान नहीं हो रहा था। शकीला बीबी का राशन शुरू होने के कुछ दिन बाद ही, दुकानदार ने उसी तरीक़े का इस्तेमाल कर हलीमा को भी राशन देना शुरू कर दिया।

शुरुआती कुछ महीने तक, हलीमा अंसारी खुश थी कि उन्हें आसानी से राशन मिल रहा है। उन्होंने कहा, “वह आसान लग रहा था”। दो महीने बाद, उन्हें समझ आया कि इसमें एक समस्या हो सकती है।

हलीमा अंसारी का पति ट्रक चलाने की वजह से महीनों तक घर से बाहर रहता है, जिसकी वजह से उसे राशन नहीं मिल सकता। उनके पास एक ही मोबाइल फोन है जो उसके पति को ले जाना पड़ता है। ऐसे में वह अपनी पहचान के लिए ज़रूरी वन-टाइम पासवर्ड नहीं दे सकेंगी।

हलीमा के पति एक ट्रक डाइवर हैं। काम के लिए बाहर जाने पर वो मोबाइल फ़ोन अपने साथ ले जाते हैं। हलीमा ने बताया, “मेरे पति आमतौर पर झारखंड से ओडिशा, पश्चिम बंगाल और अन्य राज्यों में जाते हैं। इस वजह से वह दो से तीन महीने तक घर से बाहर होते हैं।”

हलीमा अंसारी ने कहा, “मैंने दुकानदार को स्थिति बताई और कहा कि हम एक और मोबाइल फ़ोन का खर्च नहीं उठा सकते। लेकिन उसने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया।”

कलमुद्दीन अंसारी ने बताया कि पहचान के लिए ओटीपी पर निर्भर होने से अनाज का अपना कोटा लेने में लोगों के सामने नई समस्याएं खड़ी हो गई हैं।

उन्होंने कहा, “गढ़वा ज़िले में कुछ गांव ऐसे हैं जहां मोबाइल फोन कनेक्टिविटी नहीं है। ग्रामीणों को नेटवर्क से कनेक्ट होने के लिए 5-6 किलोमीटर दूर हाइवे पर जाकर ओटीपी का इंतेज़ार करना पड़ता है।”

इंडियास्पेंड ने पेशका गांव के राशन डीलर, वीरेन्द्र दुबे से संपर्क किया, लेकिन उन्होंने शिकायतों के बारे में कुछ कहने से मना कर दिया।

कल्याणकारी योजनाओं से बाहर

नवंबर 2019 में, मुंबई के सोशल इम्पैक्ट एडवाइज़री ग्रुप, दलबर्ग के एक सर्वे ने लाभार्थियों के बाहर होने की जानकारी दी थी।

आधार से अनिवार्य तौर पर जुड़ी सर्विसेज़ में से, लोगों ने आधार-राशन कार्ड लिंक को सबसे बड़ी मुश्किल पाया है। सर्वे में पता चला था कि आधार से जुड़ी समस्याओं के कारण झारखंड के 5.9% लोग, कल्याणकारी योजनाओं के दायरे से बाहर हो गए थे।

पोषण संकट

सामाजिक कार्यकर्ताओं को अब आशंका है कि झारखंड के पीडीएस में ख़ामियों की वजह से राज्य का पोषण संकट बढ़ रहा है।

गढ़वा से डीएलएसए सदस्य कलमुद्दीन ने बताया कि क्षेत्र में अधिकतर परिवार कभी फल नहीं ख़रीद पाते और कुछ ही नियमित तौर पर सब्ज़ियां ख़रीद सकते हैं।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2018 के जारी होने के साथ नागरिक समाज संगठनों की ओर से भी एक सर्वेक्षण कराया गया था। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में पता चला था कि भारत में भूख की समस्या, पड़ोसी देशों श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल से भी “गंभीर” है। सर्वे में पता चला था कि झारखंड में केवल 59.3% आबादी को ही दिन में तीन बार भोजन मिल पाता है, और 50.3% लोगों के पास पर्याप्त भोजन नहीं है।

राइट टू फ़ूड कैम्पेन के झारखंड के संयोजक और राज्य में भुखमरी और खाद्य सुरक्षा पर स्टडी करने वाले राज्य सरकार की ओर से नियुक्त पैनल के सदस्य, असरफी नंद प्रसाद ने बताया कि झारखंड जैसे राज्य में ख़राब पोषण के स्वभाविक कारण हैं। इनमें बहुत ज़्यादा ग़रीबी और एनीमिया जैसे कारण शामिल हैं।

इसके साथ ही अनाज नहीं मिलने और राज्य की ओर से पोषण संबंधी सुरक्षा कमज़ोर होने से स्थिति और ख़राब हुई है।

उन्होंने कहा, “र्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं के साथ ही कम आयु के बच्चों से जुड़ी इंटीग्रेटेड चाइल्ड डवेलेपमेंट सर्विसेज़ की ओर से सरकार की योजनाओं को लागू करने में कई समस्याएं हैं। स्कूलों में दिए जाने वाले मिड-डे मील में भी कटौती देखी गई है।”

(कुणाल एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। वह राजनीति, जेंडर, विकास आदि मुद्दों पर लिखते हैं। वे स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ़्रीकन स्टडीज़, लंदन के छात्र रहे हैं।)

यह रिपोर्ट 7 दिसंबर को IndiaSpend पर प्रकाशित हुई थी।

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