नई दिल्ली: देश की सबसे बड़ी बिजली उत्पादक कम्पनी नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन (एनटीपीसी) की अगुवाई में पावर इंडस्ट्री घातक नाइट्रस ऑक्साइड (NOx) उत्सर्जन के नियमों में ढिलाई देने का दबाव डाल रही है। इंडियास्पेंड को मिले दस्तावेज़ों के अनुसार, पावर इंडस्ट्री का कहना है कि उत्सर्जन को कम करने वाली तकनीक के पायलेट प्रोजेक्ट भारत में प्रभावी नहीं रहे हैं।

पायलेट प्रोजेक्ट में शामिल कंपनियों ने एनटीपीसी के निष्कर्षों का विरोध किया है। इनका कहना है कि एनटीपीसी ने परीक्षण करने से पहले उन्हें संयंत्रों में कुछ बदलाव करने की अनुमति नहीं दी थी। इसके साथ ही इन कंपनियों ने बताया है कि परीक्षण के दौरान अच्छे परिणाम मिले थे और इनका इस्तेमाल चीन, जापान और यूरोपीय देशों में नाइट्रस ऑक्साइड के प्रदूषण को कम करने के लिए किया जा रहा है।

इन परीक्षणों के परिणाम, और एनटीपीसी के दावे सुप्रीम कोर्ट में चल रहे वायु प्रदूषण के मामले के लिए महत्वपूर्ण हैं। इस मामले से यह तय होगा कि क्या भारतीय बिजली संयंत्रों को नए, कड़े नियमों का पालन करना चाहिए। कोर्ट यह भी निर्णय लेगा कि क्या नियमों में छूट दी जानी चाहिए या नहीं।

2015 के नए नियमों के तहत, 2003 और 2016 के बीच शुरू हुए बिजली संयंत्रों (जो देश की कुल 197 गीगावॉट क्षमता का 65% हैं) को अपने नाइट्रस ऑक्साइड के उत्सर्जन को 300 मिलिग्राम प्रति क्यूबिक मीटर पर सीमित करना होगा। 2017 के बाद से शुरू हुए नए संयंत्रों (जो ईंधन के तौर पर कोयले का इस्तेमाल करने वाली थर्मल पावर क्षमता का 5% हैं) को नाइट्रस ऑक्साइड उत्सर्जन को 100 एमजी/एनएम3 पर सीमित करना चाहिए।

केंद्र सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में दिए गए शपथ-पत्र से पता चलता है कि सरकार पहले ही नियमों में छूट देने की तैयारी कर रही है (2003 से 2016 के बीच शुरू हुए बिजली संयंत्रों के लिए 300 एमजी/एनएम3 से 450 एमजी/एनएम3 तक)। हमारी जांच में पाया गया है कि एनटीपीसी अब सुझाव दे रही है कि 2017 के बाद शुरू हुए नए संयंत्रों के लिए भी नियमों में छूट देकर 100 एमजी/एनएम3 से 450 एमजी/एनएम3 किया जाए।

वास्तव में, नए संयंत्रों के लिए नाइट्रस ऑक्साइड की सीमा में कमी का प्रभाव (100 एमजी/एनएम3 से 450 एमजी/एनएम3) पुराने संयंत्रों की तुलना में अधिक है (300 एमजी/एनएम3 से 450 एमजी/एनएम3)।

देश के अधिकतर बिजली संयंत्रों के लिए लागू 300 एमजी/एनएम3 की सीमा चीन में बिजली संयंत्रों की ओर से पहले ही पूरे किए जा रहे मापदंडों से पांच गुना अधिक है। यह जर्मनी और यूरोपीयन यूनियन में नियम से दोगुनी और अमेरिका की तुलना में तीन गुना से अधिक है। भारत में 100 एमजी/एनएम3 का सबसे निचला NOx नियम भी चीन की ओर से कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों के लिए तय किए गए 50 एमजी/एनएम3 के दुनिया के सबसे कड़े नियम से दोगुनी है। ये सभी देश एनटीपीसी की ओर से नकार दी गई तकनीक के इस्तेमाल से अपने NOx नियमों का पालन कर रहे हैं, जानकारों ने इंडियास्पेंड को बताया।

इंडियास्पेंड को मिले दस्तावेज़ों से पता चलता है कि नए नियमों की घोषणा होने के बाद से, पावर इंडस्ट्री ने नियमों को कमज़ोर करवाने के लिए कई कोशिशों की हैं -- इन्होंने धन की कमी या तकनीक उपलब्ध नहीं होने के कारण बताए हैं।

हालांकि, बहुत से अध्ययनों (यहां और यहां पढ़िए) से साबित हुआ है कि ऐसी बहुत सी तकनीक मौजूद हैं जिनसे भारतीय बिजली संयंत्र निर्धारित नियमों का पालन करने में सक्षम हो सकते हैं। अध्ययनों से पता चला है कि NOx में कमी करने वाली तकनीक को लगाने के लिए भारतीय थर्मल संयंत्रों को 12,233 करोड़ रुपये (1.8 बिलियन डॉलर) से 15,430 करोड़ रुपये (2.3 बिलियन डॉलर) के बीच ख़र्च करने होंगे, जो इस प्रदूषण फैलाने वाले कारण को कम करने के स्वास्थ्य पर होने वाले ख़र्च की तुलना में बहुत कम है।

NOx एक ज़हरीली गैस है जिससे सांस की बीमारियां हो सकती हैं और इसके पीएम 2.5 में परिवर्तित होने के बाद (हवा में रहने वाले कण जो फेफेड़ों में प्रवेश करते हैं और मानव के एक बाल से 30 गुना बारीक़ होते हैं) यह लोगों को बीमार करती है या मृत्यु का कारण बनती है। देश की हवा में प्रदूषण के बड़े कारणों में बिजली संयंत्र शामिल हैं। इसका उत्सर्जन देश में हर साल 83,000 मौतों का कारण बनता है। यह संख्या 2030 तक 186,500 से 229,500 सालाना तक पहुंच सकती है, तब देश में कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों की कुल क्षमता दोगुनी से अधिक बढ़कर 450 गीगावाट (वर्तमान 197 गीगावाट से) तक पहुंचने का अनुमान है।

मापदंडों में छूट देने का क़दम केंद्र सरकार की ओर से पहले ही बिजली संयंत्रों के लिए NOx नियमों को लागू करने की समय सीमा पांच साल बढ़ाकर 2022 करने के बाद उठाया जा रहा है। इन संयंत्रों ने नए मापदंडों को पूरा करने की दिसंबर 2017 की शुरुआती समय सीमा पूरी नहीं की थी। देरी के बाद भी, देश में कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों की आधे से अधिक क्षमता के अपने उत्सर्जन को सीमित करने की समयसीमा चूकने की आशंका है।

पायलेट प्रोजेक्ट

एनटीपीसी के परीक्षण में दो तरह की तकनीक शामिल थीः सेलेक्टिव कैटालिटिक रिडक्शन (एससीआर) और सेलेक्टिव नॉन-कैटालिटिक रिडक्शन (एसएनसीआर)। इन तरीकों का इस्तेमाल दुनिया भर में 40 से अधिक वर्षों से अमोनिया या यूरिया के इस्तेमाल NOx उत्सर्जन को कम करने के लिए किया जा रहा है।

इन्हें सेकेंडरी मेथड कहा जाता है। एसएनसीआर को लगाने का ख़र्च लगभग 2 लाख रुपये प्रति मेगावाट और एससीआर का प्रति ख़र्च लगभग 10 से 15 लाख रुपये प्रति मेगावाट है।

कम्बस्चन के दौरान NOx को कम करने वाले सस्ते प्राथमिक तरीक़े भी मौजूद हैं। इनमें लो-NOx बर्नर लगाने के ज़रिए कम्बस्चन में बदलाव, जिससे NOx 30 से 50% कम हो जाता है, और ओवर फ़ायर एयर बर्नर (ओएफ़ए) शामिल है, जो NOx को 20 से 45% तक घटा देता है। कम्बस्चन में बदलाव का ख़र्च लगभग 2 लाख रुपये प्रति मेगावाट है।

एक बिजली संयंत्र को उत्सर्जन कम करने के लिए प्राथमिक और द्वितीय दोनों तरीकों का इस्तेमाल करना होता है।

देश के बिजली संयंत्र 2003 से पुराने संयंत्रों (जिन्हें विंटेज कहा जाता है) के लिए 600 एमजी/एनएम3 के छूट वाले मापदंड को पूरा करने के लिए प्राथमिक बदलाव करने पर विचार कर रहे हैं। देश की कुल इंस्टॉल्ड क्षमता में इन संयंत्रों की 60 गीगावाट (30%) की हिस्सेदारी है। एसएनसीआर और एससीआर तकनीक पर उन संयंत्रों के लिए विचार किया जा रहा है जिन्हें 300 एमजी/एनएम3 और 100 एमजी/एनएम3 के नए मापदंडों का पालन करना है।

2017 में केंद्र सरकार ने कहा था कि इन दोनों तकनीक का भारत के कोयले के लिए परीक्षण नहीं किया गया है, जिसमें राख की मात्रा अधिक होती है। हमारी रिपोर्ट्स से पता चलता है कि उसी वर्ष एनटीपीसी ने अपनी कुछ यूनिट्स में इन दोनों तकनीक के परीक्षण की शुरुआत की थी।

एनटीपीसी ने एससीआर और एसएनसीआर पर काम करने वाली अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों को इन परीक्षणों के लिए आमंत्रित किया था। इंडियास्पेंड के पास मौजूद दस्तावेज़ों के अनुसार, इन कंपनियों में दूसान (दक्षिण कोरिया), मित्सुबिशी (जापान), जनरल इलेक्ट्रिक (अमेरिका) और यारा (नॉर्वे) शामिल थी।

इन परीक्षण के परिणामों से वह आधार बनेगा जिस पर एनटीपीसी अपने संयंत्रों में 2015 NOx उत्सर्जन मापदंडों को पूरा करने के उद्देश्य से दोनों तकनीक लागू करने के लिए टेंडर मंगाएगी। एससीआर और एसएनसीआर के लिए एनटीपीसी के सर्टिफ़िकेट देश में अन्य बिजली संयंत्रों के लिए इनके उपयुक्त होने की स्वीकृति की एक मोहर के तौर पर होंगे।

वायु प्रदूषण पर वर्तमान मामले में सुप्रीम कोर्ट भी परिणामों का इंतेज़ार कर रहा है, जिसमें कोर्ट 2015 के नए भारतीय उत्सर्जन मापदंडों के बिजली उद्योग की ओर से पालन की समीक्षा कर रहा है।

तीन साल लंबे परीक्षणों की शुरुआत अप्रैल 2017 में हुई थी। समय सीमा के अनुसार, एनटीपीसी को सभी संयंत्रों के 4,400 रनिंग आवर तक तकनीक का परीक्षण करने के बाद परिणाम प्रकाशित करने थे। बहुत सी कंपनियों ने ये परीक्षण जून-जुलाई 2019 तक पूरे कर लिए थे, लेकिन एनटीपीसी ने अभी तक परिणाम प्रकाशित नहीं किए हैं। इन परिणामों से अन्य विवरणों के साथ यह पता चलेगा कि NOx में कितनी कमी हुई है।

“पायलेट प्रोजेक्ट का अनुबंध कुछ महीने (अप्रैल 2020 तक) में समाप्त हो रहा है। हमें पहले बताया गया था कि परिणाम सितंबर-अक्टूबर 2019 तक सार्वजनिक तौर पर आएंगे, लेकिन कुछ नहीं हुआ। अब हमने एनटीपीसी को दोबारा सर्टिफ़िकेट जारी करने की याद दिलाई है,“ परीक्षण में शामिल कंपनियों में से एक के अधिकारी ने नाम ज़ाहिर न करने की शर्त पर इंडियास्पेंड को बताया।

एनटीपीसी ने इन परीक्षणों के परिणामों को देश की मुख्य पर्यावरणीय एजेंसी, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) को 2 नवंबर, 2019 को एक मीटिंग में पेश किया था, जिसमें यह घोषणा की गई थी कि दोनों ही तकनीक भारतीय बिजली संयंत्रों में 'लगाने के लिए उपयुक्त नहीं हैं।' सूत्रों ने हमें बताया कि इसमें शामिल कंपनियां मीटिंग में मौजूद नहीं थी।

इंडियास्पेंड ने एनटीपीसी के पायलेट प्रोजेक्ट में शामिल तीन कंपनियों से ईमेल और फोन के ज़रिए संपर्क किया, लेकिन उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

एनटीपीसी ने इसके बाद सुझाव दिया था कि नए संयंत्रों के लिए नियमों में ढिलाई कर 100 एमजी/एनएम3 से 450 एमजी/एनएम3 किया जाए। एनटीपीसी ने बताया था कि इस स्तर को 'कम्बस्चन में बदलाव और संचालन मापदंडों को सुधार कर' प्राप्त किया जा सकता है। हमने पहले बताया था कि ये सस्ते प्राथमिक तरीके हैं।

एनटीपीसी के प्रज़ेंटेशन की एक स्लाइड

यह मानना बहुत मुश्किल है कि प्रमाणित तकनीक भारतीय संयंत्रों के लिए कारगर नहीं है, इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ सस्टेनेबल डेवेलेपमेंट (आईआईएसडी) की सीनियर एनर्जी स्पेशियलिस्ट, विभूति गर्ग ने इंडियास्पेंड को बताया। एनटीपीसी की ओर से किए गए दावों की जांच के लिए एक ग़ैर-सरकारी संगठन से एक स्वतंत्र विश्लेषण कराने की ज़रूरत है, और सरकार को एनटीपीसी और अन्य बिजली संयंत्र उत्सर्जन डेटा को विस्तृत विवरण के लिए सार्वजनिक करना चाहिए, उन्होंने कहा।

“मौजूदा संयंत्रों के लिए उत्सर्जन सीमा (300 एमजी/एनएम3) को कई प्रकार की तकनीकों के इस्तेमाल से प्राप्त किया जा सकता है,” सेंटर फ़ॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर (सीआरईए) में एडवोकेसी के लीड एनालिस्ट, लाउरी मायलिविरता ने कहा। मायलिविरता यूरोपियन यूनियन के थर्मल बिजली संयंत्रों के लिए उत्सर्जन सीमा में बदलाव करने वाले यूरोपियन यूनियन टेक्नीकल वर्किंग ग्रुप के एक पूर्व सदस्य हैं।

“अगर सरकार प्रदूषण फैलाने वालों की शिकायत पर हर बार नियमों में बदलाव करती है तो केंद्र सरकार का 2024 तक पीएम 2.5 प्रदूषण को 20 से 30% घटाने के नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम टारगेट के पूरा नहीं हो पाएगा,“ उन्होंने कहा।

इंडियास्पेंड की ओर से एनटीपीसी और सीपीसीबी को भेजे गए सवालों का कई बार कोशिश करने के बावजूद जवाब नहीं मिला।

Source: Centre For Science and Environment

एनटीपीसी के पायलेट टेस्ट के निष्कर्ष

सीपीसीबी को दिए गए एनटीपीसी के प्रेज़ेंटेशन में दोनों तकनीक से जुड़े कुछ मुद्दों की जानकारी थी। इंडियास्पेंड ने इस प्रेज़ेंटेशन की समीक्षा की।

प्रेज़ेंटेशन में एसएनसीआर पर कहा गया है, “NOx में कमी - 23.4% से 30%। NOx को 450 से 345 एमजी/एनएम3 तक लाया जा सकता है और नियम पूरे नहीं किए जा सकते।” प्रेज़ेंटेशन में अतिरिक्त यूरिया, कोयले और पानी की ज़रूरत को भी एक समस्या बताया गया है।

एनटीपीसी की मीटिंग के दौरान प्रज़ेंटेशन की स्लाइड

एनटीपीसी के प्रेज़ेंटेशन में एससीआर के लिए NOx में लगभग 80% की कमी को स्वीकार किया गया था, “लेकिन एक निरंतर आधार पर नहीं।“ प्रेज़ेंटेशन में बताया गया था कि एससीआर तभी कुशलता के साथ काम कर सकती है जब एक विशेष आवश्यक तापमान हो और यह तभी हो सकता है जब यह संयत्र अपनी क्षमता के 80% से ऊपर संचालित हों।

प्रेज़ेंटेशन में बिजली संयंत्रों में एससीआर तकनीक के परीक्षण के दौरान सामने आई कई रुकावटों की भी जानकारी थी। इनमें एससीआर तरीक़े में इस्तेमाल होने वाले कैटालिस्ट की अधिक मात्रा का निपटारा और देश में उपलब्ध कोयले में राख की मात्रा अधिक और इसके खुरदुरा होने के कारण कैटालिस्ट का बहुत अधिक घिसना शामिल हैं। इसमें यह भी कहा गया है कि कुछ संयंत्रों में एससीआर को लगाने के लिए जगह की कमी थी।

एनटीपीसी के प्रेज़ेंटेशन के बाद, सीपीसीबी ने इन समस्याओं पर बातचीत करने के लिए 7 नवंबर, 2019 को इनमें से कुछ कंपनियों के साथ मीटिंग की थी। इंडियास्पेंड के पास मौजूद आंतरिक पत्राचार के अनुसार, इस मीटिंग में कंपनियों ने पायलेट प्रोजेक्टस के एनटीपीसी के निष्कर्षों को अस्वीकार कर दिया था। इस मीटिंग में एनटीपीसी के प्रतिनिधि शामिल नहीं हुए थे।

7 नवंबर की मीटिंग में एससीआर और एसएनसीआर की कुशलता से जुड़े कुछ तकनीकी मुद्दों पर, पायलेट प्रोजेक्टस में शामिल कंपनियों में से एक ने सीपीसीबी को बताया था कि भारतीय बिजली संयंत्रों से NOx उत्सर्जन को केवल प्राथमिक उपायों (कम्बस्चन में बदलाव) से 450 एमजी/एनएम3 तक घटाया जा सकता है। अगर प्राथमिक उपायों के साथ एससीआर और एसएनसीआर को जोड़ा जाए तो इसे 280 एमजी/एनएम3 से 80 एमजी/एनएम3 तक और कम किया जा सकता है।

नई तकनीक की समस्याएं सुलझाई जा सकती हैं

विशेषज्ञों का कहना है कि कोयले में राख की अधिक मात्रा को छोड़कर इन दोनों तकनीक की समस्याएं केवल भारत में ही नहीं हैं, लेकिन दुनियाभर के देश इनसे सफलतापूर्वक निपट रहे हैं।

कम्बस्चन में बदलाव से NOx को 20-30% और कम किया जा सकता है, दिल्ली में मौजूद थिंक टैंक सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट में एनवायरमेंट गवर्नेंस (एनर्जी) की डिप्टी प्रोग्राम मैनेजर सौंदरम रामानाथन ने इंडियास्पेंड को बताया। जैसा कि हमने पहले बताया था कि कम्बस्चन में बदलाव एससीआर या एसएनसीआर को लगाने से पहले का क़दम है।

सीपीसीबी को शुरुआत से ही पता था कि इन दोनों तकनीक में अतिरिक्त यूरिया, कोयले और पानी का इस्तेमाल होगा। लेकिन यह बहुत कम है (कुल इस्तेमाल या CO2 उत्सर्जन के 1 से 2% से कम)। इसके लाभ अधिक हैं क्योंकि NOx से ग्लोबल वॉर्मिंग का अधिक ख़तरा है, सौंदरम ने कहा।

इंजीनियरिंग के कुछ विकल्पों से देश के कोयले में राख की अधिक मात्रा की समस्या से निपटा जा सकता है। ये विकल्प दुनियाभर में बिजली संयंत्र पहले ही इस्तेमाल कर रहे हैं, सीआरईए के माइलिविरता ने बताया।

चीन (जो अधिक राख और कम कैलोरिफिक वैल्यू वाले कोयले का इस्तेमाल करता है) ने 50 एमजी/एनएम3 की NOx सीमा का पालन करने के लिए कोयले से चलने वाली हज़ारों गीगावॉट की क्षमता में नए उपकरण लगाए हैं। यह भारत की 100 एमजी/एनएम3 की सबसे कड़ी सीमा का आधा है। जापान, दक्षिण कोरिया में कोयले से चलने वाले पुराने बिजली संयंत्रों में 100 एमजी/एनएम3 से कम के उत्सर्जन के लिए नियमित तौर पर उपकरणों में बदलाव किया जाता है, मायलिविरता ने बताया।

“एससीआर में जाने वाली फ़्लू गैस में धूल के स्तर को कम करने और एनटीपीसी की ओर से बताई गई समस्याओं से बचने के लिए एससीआर से पहले हमेशा धूल को नियंत्रित करने वाले उपकरण लगाए जा सकते हैं,” उन्होंने कहा। NOx मापदंड का पालन नहीं करने का यह कोई कारण नहीं हो सकता।

“एनटीपीसी ने पहले ही मौजूदा बिजली संयंत्रों में परीक्षण के लिए एससीआर में बदलाव किए हैं। अब यह कहना कि एससीआर में बदलाव करना संभव नहीं है हैरान करने वाला है। अगर जगह उपलब्ध नहीं है तो तकनीकी डायग्राम और अन्य वैध प्रमाण आगे के आंकलनों के लिए शामिल किए जाने चाहिए,” सीएसई की सौंदरम ने बताया। वह एनटीपीसी के इस दावे की ओर इशारा कर रही थी कि नई तकनीक लगाने के लिए संयंत्रों में जगह नहीं है।

“कंपनी (एनटीपीसी) को इसे संयंत्रों में संचालन करने के एक अवसर के तौर पर देखना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य से अभी तक इसकी प्रतिक्रिया वायु गुणवत्ता और सार्वजनिक स्वास्थ्य को इसके संयंत्रों से हो रहे बड़े नुकसान की समस्या को सुलझाने वाले सभी उपायों का विरोध करने वाली रही है,” मायलिविरता ने कहा,

लॉबी का दबाव

यह पहली बार नहीं है जब एनटीपीसी और देश के ऊर्जा मंत्रालय ने बिजली संयंत्रों के लिए प्रदूषण के नियमों को कमज़ोर करने की कोशिश की है।

सुप्रीम कोर्ट में वायु प्रदूषण पर मामले में, केंद्र सरकार ने कोर्ट को बताया था कि “कम्बस्चन में बदलाव” से 450 एमजी/एनएम3 का स्तर हासिल किया जा सकता है और 2003 से 2016 के बीच बने संयंत्रों के लिए NOx नियमों को 300 एमजी/एनएम3 से छूट देकर 450 एमजी/एनएम3 किया जाएगा।

शपथ-पत्र में सरकार की दलील सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी रेगुलेरी अथॉरिटी (सीईओ) और सीपीसीबी की ओर से फ़रवरी और अप्रैल 2019 में किए गए एक संयुक्त निगरानी अध्ययन पर आधारित थी। इसके अध्ययन के लिए, दोनों अथॉरिटीज़ ने कम्बस्चन में बदलाव वाले चार बिजली संयंत्रों की सात यूनिट से उत्सर्जन की निगरानी की थी -- इनमें दो संयंत्र एनटीपीसी और दो प्राइवेट कंपनी अडानी पावर के थे।

अध्ययन के निष्कर्षों में कहा गया था कि कम्बस्चन में बदलावों के साथ सात में से पांच यूनिटों ने उत्सर्जन मापदंडों को पूरा किया था, लेकिन शपथ-पत्र में बताया गया था कि देश के ऊर्जा और पर्यावरण मंत्रालयों के प्रतिनिधि और सीईए, सीपीसीबी और एनटीपीसी के अधिकारी 7 मई, 2019 को 2003 और 2016 के बीच बने संयंत्रों के लिए मापदंडों में ढिलाई देकर 450 एमजी/एनएम3 करने पर सहमत हो गए हैं।

सुप्रीम कोर्ट में दायर सरकार के शपथ-पत्र में बताया गया है, 'निगरानी वाली सात यूनिटों में से पांच पूरी क्षमता पर 300 एमजी/एनएम3 के NOx उत्सर्जन मापदंड का पालन कर रही थी।' इंडियास्पेंड ने इस शपथ-पत्र की समीक्षा की है।

शपथ-पत्र के अनुसार, 300 एमजी/एनएम3 के नियम का पालन नहीं कर पाने वाली दो यूनिटें अडानी पावर की थीं, जो लगभग 'पूरी क्षमता पर चल रही थी।'

संयुक्त अध्ययन करने का कारण एनटीपीसी और ऊर्जा मंत्रालय का सीपीसीबी का यह दावा (संयंत्रों के प्रदूषण की उसकी निरंतर निगरानी पर आधारित) अस्वीकार करना था कि देश के बिजली संयंत्र वास्तव में 300 एमजी/एनएम3 के मापदंड के अंदर प्रदूषण फैला रहे हैं और नई तकनीक से उत्सर्जन मापदंडों को पूरा करने में उसे मदद मिलेगी। इस बारे में बिज़नेस स्टैंडर्ड ने अगस्त 2019 में रिपोर्ट दी थी।

यह क्यों महत्वपूर्ण है

इंडियास्पेंड ने 15 फरवरी, 2018 को रिपोर्ट दी थी कि इस दशक में 2015 तक, थर्मल बिजली संयंत्रों (देश में प्रदूषण के बड़े कारणों में से एक) ने देश भर में NOx के स्तर में 20% तक बढ़ोतरी की थी। धूल जैसे अन्य प्रकारों की तुलना में NOx से अधिक प्रदूषण होता है। इसका कारण यह है कि प्रदूषण फैलाने वाली गैसें एक अन्य पीएम 2.5 में बदलने से पहले 24 से 48 घंटे तक हवा में रहती हैं।

पर्यावरण से जुड़े मुद्दों को उठाने वाली अंतर्राष्ट्रीय संस्था, ग्रीनपीस ने दिसंबर 2018 में एक विश्लेषण में अनुमान लगाया था कि अगर देश के कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों ने 2017 की वास्तविक समयसीमा तक NOx, SOx और PM उत्सर्जन मापदंडों को लागू किया होता, तो ‘समय से पहले’ हुई लगभग 76,000 मौतों को टाला जा सकता था। ग्रीनपीस के अध्ययन में बताया गया है कि 2017 तक NOx उत्सर्जन में 48% की कमी से ही प्रति वर्ष 28,000 मौतों को टालने में मदद मिल सकती थी।

Source: Environment Protection Act, 2015

तकनीक के ख़र्च पर भारी हैं सेहत से जुड़े फ़ायदे

कोयले से चलने वाले संयंत्रों में नए उपकरण लगाने में देरी के लिए पावर इंडस्ट्री उत्सर्जन पर नियंत्रण करने वाली तकनीक पर होने वाले ख़र्च को एक बहाने के तौर पर इस्तेमाल कर रही हैं, लेकिन अध्य्यनों के अनुसार, यह ख़र्च इसके स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव की तुलना में काफ़ी कम है।

आईआईएसडी और थिंक टैंक, काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) की ओर से अगस्त 2019 में किए गए एक संयुक्त अध्ययन के अनुसार, NOx पर नियंत्रण के लिए उपकरण लगाने पर देश के कोयले से चलने वाले सभी बिजली संयंत्रों को 12,233 करोड़ रुपये (1.8 बिलियन डॉलर) से 15,430 करोड़ रुपये (2.3 बिलियन) के बीच ख़र्च करना होगा।

अध्ययन में पता चला है कि सभी तीनों (SOx, NOx और PM) पर नियंत्रण के लिए संयंत्रों में नए उपकरण लगाने का कुल ख़र्च 73,176 करोड़ रुपये (10 बिलियन डॉलर) से 86,135 करोड़ रुपये (12 बिलियन डॉलर) के बीच होगा। इससे कोयले से मिलने वाली बिजली की लागत 0.32 से 0.72 प्रति किलोवॉट आवर या केडब्ल्यूएच (1 यूनिट) बढ़ जाएगी।

बढ़ी हुई लागत का भार उपभोक्ताओं पर डालने के कारण, यह महत्वपूर्ण है कि संयंत्रों में लगे कंटीन्युअस एमिशन मॉनिटरिंग सिस्टम (सीईएमएस) से आंकड़े विद्युत नियामक (जैसे सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी रेगुलेटरी कमीशन) और जनता का भरोसा हासिल करने और वैल्यू दिखाने के लिए उपलब्ध कराया जाएं, सीईईडब्ल्यू के रिसर्च फ़ेलो और आईआईएसडी और सीईईडब्ल्यू अध्ययन के लेखक, कार्तिक गणेशन ने बताया। केंद्र सरकार ने 2014 में बिजली संयंत्रों और अन्य बहुत अधिक प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों के प्रदूषण की वास्तविक समय में निगरानी के लिए सीईएमएस को अनिवार्य किया था।

अध्ययन में कहा गया है कि उत्सर्जन नियमों का पालन नहीं होने से 2030 तक के 11 वर्षों में लगभग 300,000 से 320,000 लोगों की समय से पहले मौत हो सकती है और सांस की बीमारियों के कारण लगभग 5.1 करोड़ लोग अस्पतालों में भर्ती होंगे।

आईआईएसडी और सीईईडब्ल्यू के अध्ययन में बताया गया है कि प्रदूषण नियंत्रण पर $0.28 प्रति यूनिट (2019 की दरों पर 19.95 रुपये) के ख़र्च से, सरकार स्वास्थ्य पर ख़र्च में $11.25 प्रति यूनिट (801.25 रुपये) बचा सकती है।

(भास्कर, इंडियास्पेंड के एक रिपोर्टिंग फ़ेलो हैं।)

यह रिपोर्ट अंग्रेज़ी में 18 जनवरी 2020 को IndiaSpend पर प्रकाशित हुई है।

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