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पूर्वी भारतीय शहर कोलकाता में बुनना सीखती 2000 लड़कियों को स्वैच्छिक संगठन संलाप द्वारा वेश्यावृत्ति से बचाया गया है|

कोलकाताः 2005-06 से नौ वर्षों में, भारत का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 76% बढ़ा है, इसके साथ वे नकारात्मक बदलाव छिप गए जो इस आर्थिक कायापलट के साथ उभरे थे। इनमें से एक मानव तस्करी में 20% की वृद्धि है जो “वेश्यावृति के उद्देश्यों” से संबंधित थी- बच्चों और व्यस्कों को यौन गुलामी के लिए मजबूर करने की आपराधिक प्रक्रिय- इसी अवधि के दौरान, पिंकी और आमीना की कहानियों द्वारा एक पारस्परिक संबंध सामने आया। उनके जीवन, जैसा कि हम देखते हैं, उस राज्य में एक ही समय चल रहे थे जो इस तरह के मामलों के 20 प्रतिशत का योगदान देता है और भारत के मानव-तस्करी उद्योग का केंद्र हैः पश्चिम बंगाल।

जीडीपी बढ़ा, इसके साथ ही मानव तस्करी भी

Source: Reserve Bank of India, Rajya Sabha

11 वर्ष की आयु में, मां द्वारा वेश्यावृति में धकेली गई

“मैं मुंबई में चार वर्ष के उस दर्द भरे अनुभव के बारे में बात नहीं करना चाहती। वे वर्ष मेरे जीवन का सबसे काला दौर हैं।”

पिंकी (उसका वास्तविक नाम नहीं) 16 वर्ष की, शर्मीली और घबराई हुई लड़की है। धीरे-धीरे, वह कुछ जानकारी देती है। लगभग 18 महीने पहले, उसे मुंबई में मानव-तस्करी रोधी यूनिट (एएचटीयू) ने पूर्वी मुंबई के बाहरी हिस्से में मौजूद उल्हासनगर से बचाया था- जो पश्चिम बंगाल में उत्तर 24 परगना जिले में उसके घर से 1,900 किलोमीटर से अधिक दूर है।

11 वर्ष की होने पर, उसने अपनी मां के साथ पश्चिमी हिस्से की यात्रा की, उसकी मां “काम करती थी”- जैसा पिंकी कहती है, वेश्यावृति के लिए सभ्य भाषा का इस्तेमाल करते हुए- मुंबई में। पिंकी को उल्हासनगर के वेश्यालय में एक अज्ञात रकम में बेचा गया था। पिंकी से जबरदस्ती- और निश्चित तौर पर सदमे के साथ- यौन कार्य की शुरुआत कराई गई। जब मुंबई एएचटीयू ने वेश्यालय पर छापा मारा, उसकी मां भाग गई। पिंकी को तब से उसके बारे में कोई जानकारी नहीं है।

15 वर्ष की आयु में भागी दुल्हन ने पार की सीमा, गुलामी से बची

आमीना खातून की कहानी इसकी –तुलना में- खुशनुमा है। 15 वर्ष की आयु में आमीना (बदला हुआ नाम) अपने मामा के उसका निकाह जबरदस्ती एक दो बच्चों वाले विवाहित व्यक्ति से कराने के बाद बांग्लादेश के सतखिरा में अपने घर से भाग गई थी।

बड़ी आंखों वाली एक बातूनी किशोरी आमीना कहती हैं, “मेरी मां कुछ नहीं कर सकती थी।” “मेरे पिता नहीं रहे थे। हमारी देखभाल करने वाला कोई नहीं था।”

आमीना ने अपने पति के घर में प्रवेश करने से मना कर दिया था, और विरोध करने के बाद वह भाग गई। जल्द ही, इस भागी हुई दुल्हन ने खुद को सीमा पार पश्चिम बंगाल में पाया, उसके पास कोई दस्तावेज नहीं थे, कुछ नहीं था, लेकिन उसके पास कपड़े थे।

उसने बताया, “मुझे यह नहीं पता था कि क्या करना है और कहां जाना है।” “तीन दिन बाद मुझे पुलिस ने हावड़ा स्टेशन (कोलकाता का एक रेलवे टर्मिनस) से पकड़ा और इस घर में भेज दिया।”

देशभर में तस्करों द्वारा बंधक बनाई गई अव्यस्क लड़कियों में से 42% पश्चिम बंगाल से हैं

हमारी आमीना और पिंकी के साथ मुलाकात मध्य कोलकाता से 17 किलोमीटर दूर, नरेद्रपुर में एक एनजीओ, संलाप की ओर से चलाए जा रहे घर में हुई थी। उनका भविष्य अनिश्चित है, लेकिन यौन गुलामी में बेची गई हजारों अव्यस्क लड़कियों को ये सुविधाएं भी नहीं मिलती, विशेषतौर पर पश्चिम बंगाल में नहीं, जो निर्धन परिवारों की लड़कियों के लिए काफी खतरनाक है।

इसके परिणाम स्वरूप, मध्य कोलकाता में सोनागाची को एशिया में वेश्यालयों का सबसे बड़ा ठिकाना बताया जाता है, जो तस्करी कर लाई गई बहुत सी लड़कियों का गंतव्य है, इनमें से अधिकतर के पास बच निकलने की बहुत कम या कोई उम्मीद नहीं है।

2014-15 में- नवीनतम वर्ष जिसके लिए आंकड़े उपलब्ध हैं- भारत में पिछले वर्ष की तुलना में मानव तस्करी में 38.7% की वृद्धि हुई थी, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार। पश्चिम बंगाल ने इसमें 1,096 मामलों के साथ भारत के कुल मामलों में 20.1% का योगदान दिया।

मानव तस्करी, राज्य के अनुसार (2014)

Source: National Crime Records Bureau

एनसीआरबी के आंकड़ों से खुलासा हुआ है कि देशभर में तस्करों द्वारा बंधक बनाई गई अव्यस्क लड़कियों में राज्य की हिस्सेदारी 42% (850) की थी।

अव्यस्क लड़कियों की तस्करी, राज्य के अनुसार (2014)

Source: National Crime Records Bureau

संलाप की गीता बनर्जी कहती हैं, बहुत से सरकारी कार्यक्रमों के बावजूद, पश्चिम बंगाल में मानव तस्करों से खतरोंको लेकर “जागरूकता की भारी कमी है।”

एक सहयोगी, तापोती भौमिक, ने पश्चिम बंगाल में इस तरह की तस्करी के फैलने का उदाहरण देते हुए कोलकाता में एक सड़क पर कुछ पुलिस अधिकारियों के साथ चाय की दुकान पर रुकने के दौरान एक घटना का जिक्र किया। चाय की दुकान के मालिक का व्यवहार “बेईमान” लग रहा था और इससे उन्हें चिंता हुई। अपनी वापसी पर, उन्होंने स्थानीय प्रशासन को फोन किया और अपने “शक” के बारे में बात की। दो सप्ताह बाद, भौमिक को बताया गया कि पुलिस ने चाय की दुकान के तहखाने से 50 नेपाली लड़कियों को छुड़ाया था- उनमें से 19 की आयु नौ और 14 के बीच थी।

तस्करी-रोधी यूनिट्स की पर्याप्त संख्या नहीः 1 लाख रुपये प्रति महीना दिए जाते हैं, बहुत से परवाह नहीं करते

बहुत सी लड़कियां क्यों कभी भी तस्करों और वेश्यालयों की दुनिया से निकल नहीं पाती? इसके उत्तर राज्य और केंद्र सरकारों की ओर से अपर्याप्त प्रतिक्रिया में हैं।

2011 में अंतरराष्ट्रीय संगठित अपराध पर एक वैश्विक संधि पत्र को मंजूरी देने के बाद, केंद्र ने देश के “असुरक्षित” जिलों में से आधों में 335 एएचटीयू (मानव तस्करी रोधी यूनिट्स) स्थापित करने और 10,000 पुलिस अधिकारियों, वकीलों, न्यायधीशों और अन्य संबंधित व्यक्तियों को प्रशिक्षित करने का प्रस्ताव दिया था। एक दशक से अधिक समय से, नई दिल्ली ने भारत के राज्यों को इस विषय पर 15 विस्तृत परामर्श भी जारी किए हैं।

ये योजनाएं असफल हो रही हैं, जैसा कि इंडियास्पेंड की एक जांच में खुलासा हुआ है, इसके दो प्रमुख कारण हैं:

1. उदाहरण के लिए, 2013 तक स्थापित की जाने वाली प्रस्तावित 335 एएचटीयू में से, जनवरी 2016 तक 270 से अधिक नहीं बनाई गई थी, राज्यसभा (संसद का ऊपरी सदन) में सरकार के उत्तर के अनुसार।

2. केंद्र सरकार के अनुसार, इन यूनिट्स को कुल मिलाकर 2010-11 से 2014-15 के दौरान 20 करोड़ रुपये, एक लाख रुपये प्रति महीना प्रति यूनिट दिए गए, या 54 करोड़ की आवश्यकता का आधे से भी कम। एएचटीयू मीटिंग्स के मिनट्स से पता चलता है कि बहुत सी यूनिट्स ने इस राशि का भी इस्तेमाल नहीं किया। एक मामले में, 10 टेबल, एक कंप्यूटर और एक 3,000 रुपये का मोबाइल फोन खरीदने के बाद, कुछ नहीं बचा था।

मानव-तस्करी-रोधी यूनिट्स क्यों असफल हो रही हैं

एक टेबल, 10 कुर्सियां, एक डेस्कटॉप कंप्यूटर। दो मोबाइल फोन (प्रत्येक 3,000 रुपये से अधिक नहीं)। एक वीडियो कैमर। एक मोटरसाइकिल।

ये इक्विपमेंट केंद्र 20 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में मानव तस्करी के खतरे वाले पुलिस जिलों के आधे में स्थापित होने वाली प्रत्येक एएचटीयू को उपलब्ध कराता है।

ऐसी यूनिट्स की स्थापना और प्रशिक्षण की शुरुआत एक दशक पहले हुई थी, जो भारत के गृह मंत्रालय और नशीले पदार्थों और अपराध पर संयुक्त राष्ट्र के कार्यालय की एक संयुक्त कोशिश है।

स्थिर और कभी संशोधित न होने की वजह से, यह योजना एक असफलता है, जैसा कि इन्हें चलाने वाले लोगों ने इंडियास्पेंड को बताया है।

छत्तीसगढ़ एएचटीयू के प्रमुख पी. एन. तिवारी ने कहा, “संसाधनों की कमी एक समस्या है, यूनिट्स के पास पूरे समय कार्य करने वाले पुलिस कर्मी नहीं हैं, और अपर्याप्त फंड और इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी समस्या को और बढ़ा रहे हैं।”

महाराष्ट्र एएचटीयू के पूर्व प्रमुख (अब इंस्पेक्टर जनरल, कोल्हापुर), संजय वर्मा का कहना हैः “अधिक यूनिट्स की आवश्यकता है।”

पुलिस सुपरिटेंडेंट डी. एन. शेटेनावार ने बताया, बेंगलुरु में, एएचटीयू “के पास पर्याप्त संसाधन हैं।” यह एक कमरे से चलती है लेकिन इसके पास छह कंप्यूटर और कई टेलीफोन लाइन हैं।

इसकी अगुवाई एक सुपरिटेंडेंट, तीन डीएसपी, तीन इंस्पेक्टर, चार हेड कॉन्सेटबल और दो कॉन्सटेबल की एक टीम के साथ करते हैं।

शेटेनावार ने कहा, इसके बावजूद, “कार्यबल पर्याप्त नहीं है, और केंद्र की फंडिंग अपर्याप्त है।”

बेंगलुरु की तुलना में, इसकी कोलकाता की समकक्ष के पास संसाधनों की कमी है।

यहां, यौन गुलामी के लिए मजबूर की जाने वाली महिलाओं के व्यापार के केंद्र में, एएचटीयू के पास एक अलग टेलीफोन लाइन भी नहीं है- यह महिला और बाल संरक्षण शाखा के साथ टेलीफोन साझा करती है।

पश्चिम बंगाल के एएचटीयू प्रमुख, सरबरी भट्टाचारजी टिप्पणी के लिए उपलब्ध नहीं थे। गृह मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी, मलय कुमार को ईमेल द्वारा भेजे गए प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं मिला।

2011 में, पश्चिम बंगाल के पास चार एएचटीयू थी- इसके पास 19 जिलों के लिए नौ होनी चाहिए थी (जून 2015 तक)। 2012 में, बढ़ने के बजाय, संख्या गिरकर तीन रह गई, लोकसभा के आंकड़ों के अनुसार। केंद्र की ओर से पश्चिम बंगाल में एएचटीयू की स्थापना के लिए दिया गया 30 लाख रुपये का फंड 25% गिरकर 22.7 लाख रुपये हो गया।

मानव तस्करी रोधी यूनिट्स के लिए मंजूर किए गए फंड

Source: Rajya Sabha

बांग्लादेश के साथ 2,217 किलोमीटर की सीमा, नेपाल के साथ 92 किलोमीटर और भूटान के साथ 175 किलोमीटर सीमा की वजह से पश्चिम बंगाल तस्करी का एक केंद्र बिंदु है। राज्य में तस्करी की बढ़ती समस्या की जड़ पुलिसिंग की कमी है, जैसा कि कोलकाता के बाहरी इलाकों में पबों और बारों में महिलाओं की बड़ी संख्या से पता चलता है।

पूरे भारत में, तस्करों की एक नई पीढ़ी पुलिस को चकमा देने के लिए टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर रही है।

पश्चिम बंगाल में पुलिस की जांच से खुलासा हुआ है, कम आयु की लड़कियों और युवा महिलाओं की तस्करी में शामिल लोगों में एक प्राइवेट ट्यूटर, एक फार्मासिस्ट और एक जीवन-बीमा सेल्समैन जैसे लोग भी थे।

यह कहानी काफी हद तक पूरे भारत में एक जैसी है।

2013 में, मानव तस्करी के 3,940 मामलों की रिपोर्ट मिली। 2014 में, यह संख्या बढ़कर 5,466 हो गई। तमिलनाडु की 509 और कर्नाटक की 472 के साथ क्रमशः 9.3% और 8.6% मामलों की हिस्सेदारी रही, इनका स्थान पश्चिम बंगाल के बाद दूसरा और तीसरा था। बेंगलुरु में, इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी उद्योग द्वारा बन रही संपत्ति तस्करों के लिए एक चुंबक का काम कर रही है।

तस्करी हुई महिलाओं के बचाव और उनके पुनर्वास के लिए काम करने वाली प्रजव्ला की संस्थापक के रूप में कार्य करने के लिए 2016 में पदमश्री से सम्मानित, सुनीता कृष्णन ने बताया, तस्कर “काफी आधुनिक” बन गए हैं और “टेक्नोलॉजी ने भारत में तस्करी को बढ़ाया है और इसके रूपों में विविधता आई है।”

गैंग-रेप की शिकार हो चुकी, कृष्णन कहती हैं कि समाज “खराब समय में फंस गया है”, वह मानता है कि केवल ग्रामीण लड़कियों की ही तस्करी होती है। उन्होंने कहा, “वास्तविकता यह है कि इन दिनों तस्कर साक्षर, शहरी लड़कियों की भी तस्करी कर रहे हैं। हम यह समझने में असफल हैं कि मानव तस्करी एक संगठित अपराध है, एक सामाजिक समस्या नहीं।”

नशीले पदार्थों और अपराध पर संयुक्त राष्ट्र के कार्यालय (यूएनडीओसी) की रिपोर्ट के अनुसार, मानव तस्करी दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ने वाला आपराधिक उद्योग है, यह $32 अरब का होने का अनुमान है, अवैध नशीले पदार्थों और हथियारों की तस्करी के बाद तीसरा।

संलाप की भौमिक कहती हैं, “आज तस्कर लड़कियों को स्मार्टफोन, सुंदर पोशाकों और अन्य आधुनिक गैजेट्स के साथ लुभा रहे हैं। दिन में दो वक्त का खाना अब काम नहीं करता।” वह सरकार से इस दिशा में और कार्य करने का निवेदन करती हैं और कहती हैं कि सरकार को और काम करना चाहिए। उन्होंने कहा, “खतरनाक जिले अभी भी खतरनाक हैं।”

इसी वजह से हम कहते हैं, पिंकी, किसी दिन एक सैलून की मालिक बनने की उम्मीद रखने वाली, और आमीना, जो पढ़ना चाहती है, काफी हद तक खुशकिस्मत हैं। गुलामी के लिए मजबूर की गई हजारों लड़कियों का कभी पता नहीं चलता।

यह लेख मूलतः अंग्रेजी में 23 अप्रैल 2016 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

(घोष जमीनी स्तर पर काम करने वाले पत्रकारों के अखिल-भारतीय नेटवर्क, 101reporters.com के साथ हैं। वह राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव डालने वाली कहानियों पर लिखते हैं।)

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