बिहार की महिलाओं ने शराब के ख़िलाफ़ लड़ाई जीती मगर कच्ची शराब और ड्रग्स ने मुश्किलें बढ़ाईं
रोहतास: साक्षी देवी (बदला हुआ नाम) के पति ने उन्हें रोकने की हर संभव कोशिश की मगर साक्षी (30) अपना मन बना चुकी थीं। दक्षिणी-पश्चिमी बिहार के सुदूर इस गांव की लगभग 150 महिलाएं लाठी-डंडे, झाड़ू और बेलन लेकर साक्षी के घर के बाहर जमा हुईं। इन महिलाओँ के प्रदर्शन का हिस्सा बनने के लिए साक्षी देवी अपने किचन से बेलन लेकर घर से बाहर आईं। “हमारा धैर्य टूट चुका था,” उन्होंने कहा, “गांव के पास की शराब की दुकान बंद होनी चाहिए थी।”
शराब की वो दुकान, साक्षी के घर से लगभग एक किलोमीटर दूर और रोहतास ज़िले के सासाराम शहर के बाहरी इलाके में एक बाज़ार में थी। आस-पास के कई गांवों के पुरुषों की यहां भीड़ लगी रहती थी, साक्षी ने बताया। "यह रोज़ाना का सिलसिला बन गया था," उन्होंने कहा, “नशे करो और घर में जाकर हंगामा करो। हम इसे और बर्दाश्त नहीं कर सकते थे।”
इन महिलाओं में बहुत सी दलित महिलाएं भी शामिल थीं। गुस्से से भरी ये महिलाएं शराब की दुकान के ठेकेदार के पास पहुंच गईं। “उसने हमसे बहुत विनती की,” आंखों में चमक लिए साक्षी देवी उस दिन को याद करते हुए बताती हैं। “एक त्यौहार का वक्त था और शराब की ख़ूब बिक्री का भी, ठेकेदार ने हमसे त्यौहार के बाद दुकान बंद कर देने का वादा किया। लेकिन हम टस से मस नहीं हुए। हम वहां से तभी हिले जब दुकान के शटर पर ताला लग गया।” ये बात साल 2013 की है। उसके बाद शराब की ये दुकान कभी नहीं खुली। आज वहां शराब की दुकान की जगह पशुओं के चारे की दुकान है।
सासाराम में शराब की दुकान की जगह खुली पशुओं के चारे की दुकान। पास के एक गांव की क़रीब 150 महिलाओं ने 2013 में ज़बर्दस्ती शराब की दुकान बंद करा दी थी क्योंकि उनके पति यहां शराब पीकर घर आते और अपनी पत्नियों को पीटते थे।
अगले दो साल तक, साक्षी देवी और आसपास के गांवों की महिलाएं प्रगतिशील महिला मंच के बैनर तले सासाराम में हुए प्रदर्शनों में शामिल होती रहीं। प्रगतिशील महिला मंच की स्थापना सुनीता देवी (50) ने की थी। सुनीता देवी ने ही शराब की दुकान बंद कराने के लिए महिलाओं को लामबंद किया था। “महिलाओं की प्रतिक्रिया ज़बर्दस्त थी,” उन्होंने कहा। “सिर्फ़ सासाराम ही नहीं बिहार के बाकी इलाक़ों में भी प्रदर्शन होने लगे थे। हमारी मांग बस एक ही मांग थी: बिहार में पूरी तरह से शराबबंदी।”
पहली अप्रैल 2016 को राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने गुजरात, मिज़ोरम, नागालैंड और लक्षद्वीप की तर्ज़ पर बिहार में शराबबंदी की घोषणा कर दी। पहली बार इसका उल्लंघन करने वाले को 5 साल की जेल की का प्रावधान था जिसे 2018 में संशोधित कर पहली बार उल्लंघन करने वालों के लिए जुर्माने का प्रावधान कर दिया गया।
इस घोषणा के चार साल हो चुके हैं और राज्य में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। चार साल में शराबबंदी का बिहार के लोगों और वहां की अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ा, इंडियास्पेंड ने दो भाग की श्रंखला में इसका विश्लेषण किया। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े बताते हैं कि इस दौरान घरेलु हिंसा के मामलों में कमी आई है। जो आमतौर पर शराब पीने की वजह से होते हैं, जो हम आपको आगे बताएंगे, शराबबंदी के अनपेक्षित परिणाम भी हुए हैं: मसलन, अवैध शराब के व्यापार की समानांतर अर्थव्यवस्था बिहार में फल-फूल रही है, राज्य को शराब की बिक्री से मिलने वाले राजस्व का नुकसान हो रहा है। शराब के तस्कर ज़्यादा कीमत पर शराब बेच रहे हैं, जो ग़रीबों को सस्ती ड्रग और कच्ची शराब की तरफ़ जाने को मजबूर रहा है।
शराबबंदी का उल्लंघन करने वालों पर पुलिस के क़ड़े शिकंजो ने भी समाज में हाशिए पर पड़े लोगों को प्रभावित किया है।
इस रिपोर्ट की पहली कड़ी में, हम जानेंगे कि कैसे शराबबंदी ने राज्य की महिलाओं के जीवन को बदल दिया - कुछ के जीवन को बेहतर बनाया लेकिन दूसरों के लिए नई समस्याएं पैदा कीं।
शराबबंदी की कीमत
साल 2015 के विधानसभा चुनाव से पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राज्य में पूर्ण शराबबंदी का वादा किया था। उनका ये वादा एक तरह से उनके पिछले फ़ैसलों के उलट था: 2006 में, मुख्यमंत्री के तौर पर अपने पहले कार्यकाल के दौरान उन्होंने राज्य की शराब नीति को उदार बनाया था, इस दौरान उन्होंने हर पंचायत में एक शराब की दुकान खोलने की नीति अपनाई थी। वित्त वर्ष 2005-06 में राज्य को देश में निर्मित विदेशी शराब से 87.18 करोड़ रुपए का राजस्व मिला, जो 2014-15 में बढ़कर 1,777 करोड़ रुपए हो गया- 1938% की बढ़ोत्तरी।
2015 में, नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) ने लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल के साथ गठबंधन में भारी बहुमत से चुनाव जीत लिया और नीतीश कुमार लगातार तीसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री बने। शराबबंदी के उनके लोकप्रिय फ़ैसले की वजह से राज्य की महिलाओं ने उनकी जीत योगदान दिया।
लेकिन राज्य को इस बदलाव की एक कीमत चुकानी पड़ी। वित्त वर्ष 201ौ4-15 में, बिहार शराब बिक्री से मिलने वाली एक्साइज़ ड्यूटी से 3,100 करोड़ रुपए कमाए, आर्थिक सर्वेक्षण-2016 के मुताबिक। वित्त वर्ष 2015-16 के बजट अनुमान 4,000 करोड़ के थे।
तब से लगातार, राज्य को शराब की बिक्री से मिलने वाले राजस्व का नुकसान हो रहा है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि राज्य के लोगों ने शराब पीनी बंद कर दी है, प्रगतिशील महिला मंच की सुनीता देवी ने कहा। “शराबबंदी वाले अन्य राज्यों की तरह ही बिहार भी ‘ड्राई’ नहीं रह पाया है,” उन्होंने कहा। “शराब घर-घर पहुंचाई जा रही है। विधानसभा चुनावों के दौरान शराबबंदी का पालन करवाना किसी इम्तेहान से कम नहीं है।”
साक्षी देवी 23 साल की थीं जब उन्होंने सासाराम में हुए आंदोलन में भाग लिया था। उनके तीन बच्चों की उम्र पांच, चार और तीन साल थी। “मेरे तीन बच्चों में से दो लड़के हैं,” उन्होंने बताया। “मैं नहीं चाहती थी कि वो अपने पिता को शराब के नशे में हंगामा करते हुए देखकर बड़े हों। लड़के अक्सर अपने पिता का अनुसरण करते हैं। मेरे पति उनके सामने कोई अच्छा उदाहरण पेश नहीं कर रहे थे। मैं नहीं चाहती थी कि मेरे लड़के बड़े होकर अपने पिता की तरह बने।”
सुनीता देवी और दो अन्य महिलाएं जिन्होंने 2013 में सासाराम में शराब की दुकान बंद कराई थी।
घरेलु हिंसा में कमी
साक्षी देवी और 2013 से 2015 तक के आंदोलन में भाग लेने वाली अन्य महिलाओं के लिए, शराब बंदी के मिश्रित परिणाम आए हैं। "जो भी शराब पीना चाहता है, उसके लिए शराब आसानी से मिल रही है,” उन्होंने कहा। “अभी भी कई मामलों में घरेलू हिंसा के जारी है। लेकिन यह उस स्तर की नहीं जितनी पहले हुआ करती थी। ”
पहले महिलाओं को घर में खाने-पीने के सामान या पैसे की कमी की शिकायत करने पर भी शराबी पति पीटा करते थे, साक्षी देवी ने कहा। "अगर वो दिहाड़ी में 300 रुपए कमाता, तो वह इसका आधा हिस्सा शराब में उड़ा देता," उन्होंने कहा। “मैं बाकी के पैसों से घर कैसे चलाती? बच्चों के लिए किताबें कैसे खरीदती? दवाएं, अनाज कैसे खरीदती? और जब भी मैं इस बारे में बात करती, तो यह अचानक मेरी ग़लती बन जाती। पूरे बिहार में यही वह माहौल था जिसमें बच्चे बड़े हुए।”
साक्षी देवी के साथ मौजूद संध्या कुमारी (बदला हुआ नाम), 20, ने हां में सिर हिलाया। "घर के हालात इन दिनों अपेक्षाकृत बेहतर हैं," उन्होंने कहा। "इससे पहले, जब भी मेरे पिता घर लौटते मेरे दिल की धड़कन रुक जाती था। मैं अपनी पढ़ाई पर ध्यान नहीं दे पाई। मैं पढ़ नहीं पाती। मुझे केवल अपनी मां की चिंता होती।”
हालांकि शराब अब भी मिल रही है, लेकिन यह अवैध होने की वजह से महंगी है, जैसा कि हमने पहले कहा। "मेरे पिता अब नियमित रूप से नहीं पी सकते,” संध्या ने कहा। “हम इन दिनों एक साथ खाते हैं। वह मेरी पढ़ाई के बारे में पूछते हैं। हम बचत भी ज़्यादा कर पा रहे हैं। अभी भी कभी-कभी पहले जैसे हालात हो जाते हैं लेकिन उतने नहीं जितने पहले हुआ करते थे।”
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक फ़ैक्ट शीट में पार्टनर के साथ हिंसा को शराब की खपत से जोड़ा गया है, "विशेष रूप से हानिकारक और खतरनाक स्तरों पर"। इसमें चिली, मिस्र, भारत और फिलीपींस में हुए एक अध्ययन का हवाला दिया गया है कि "सभी चारों देशों में हुए अध्ययन में पति या पार्टनर द्वारा रोज़ाना शराब पीने को जीवन भर के लिए हिंसा के जोखिम कारक के रूप पहचान की गई है”।
बिहार में, भारतीय दंड संहिता की धारा 498A के तहत घरेलू हिंसा के मामले (पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता) शराबबंदी के बाद से 37% कम हो गए, जबकि अपराध दर - प्रति 100,000 महिलाओं पर- 45% गिर गई। देश भर में इस दरमियान, मामलों में 12% और अपराध दर में 3% की वृद्धि हुई।
हालांकि, इन आंकड़ों को कुछ प्रतिवादों के साथ देखने की ज़रूरत है, बिहार में लैंगिक समानता के लिए काम करने वाले एक ग़ैर-लाभकारी संगठन, जेंडर एलायंस से जुड़ी प्रशांति ने कहा। "शराब आमतौर पर घरेलू हिंसा के लिए ट्रिगर का काम करती है,” उन्होंने कहा। “लेकिन हमने ऐसे परिवारों को भी देखा है जहां पुरुष शराब पीते हैं मगर वह अपनी पत्नियों के साथ मारपीट नहीं करते और हमने ऐसे मामले भी देखे हैं जहां पर शराब बिल्कुल न पीने वाले भी पत्नी वाले भी पत्नी के साथ बुरा बर्ताव करते हैं। इससे भी महत्वपूर्ण बात, एनसीआरबी के आंकड़ों में केवल रिपोर्ट किए गए मामले शामिल हैं। ज़्यादातर बार, महिलाएं अपने पति के ख़िलाफ आधिकारिक शिकायत दर्ज नहीं करती हैं क्योंकि पुलिस का सहयोग मिलता नहीं और जिस पितृसत्तात्मक समाज में हम रहते हैं वो उसे दोष देता है।”
आर्थिक मंदी और बेरोज़गारी बड़ी चिंता
घरेलू हिंसा में गिरावट के बावजूद, नीतीश कुमार महिलाओं के बीच उतने लोकप्रिय नहीं हैं, सुनीता देवी ने कहा। "पहली बात, यह पूर्ण शराबबंदी नहीं है [शराब आसानी से उपलब्ध है],” उन्होंने कहा। “दूसरी बात, मुख्यमंत्री का केवल यही काम नहीं है। रोज़गार कौन देगा? वर्कफ़ोर्स पर ध्यान कौन देगा? एक महिला को अपना घर चलाना होता है।”
जिन महिलाओं से हमने बात की उनमें से ज़्यादातर अपने घर पति की मज़दूरी से मिलने वाली दिहाड़ी से चलाती हैं, जो लॉकडाउन के बाद से गहरे हुए कृषि संकट के बाद से लगातार घट रही है। "बिहार में किसानों के हालात बुरे हैं इसलिए वो बेहतर मज़दूरी नहीं दे सकते,” साक्षी देवी ने कहा। “इसलिए, जो राज्य से बाहर जा सकते हैं, वो पलायन कर जाते हैं। बाकी, मेरे पति की तरह, घंटों काम करते हैं और बदले में बहुत कम मज़दूरी मिलती है। हम जैसे लोगों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार के लिए बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है। मुख्यमंत्री को रोज़गार और शिक्षा के लिए भी ज़िम्मेदार होना चाहिए। बुरी तरह लागू शराबबंदी के आधार पर वह हमारे वोटों की उम्मीद नहीं कर सकते।”
बिहार की राज्य सरकार ने, हालांकि, शराबबंदी पर एक रिपोर्ट कार्ड जारी कर इसकी सफ़लता का दावा किया है। इसमें शराबबंदी के बाद भोजन, शिक्षा और स्वास्थ्य पर औसत साप्ताहिक ख़र्च में 32%, 68% और 31% की वृद्धि बताई गई है। रिपोर्ट कार्ड में आगे कहा गया है कि महिलाओं के साथ भावनात्मक और शारीरिक हिंसा के मामले कम हुए हैं। शराबबंदी से पहले हुए सर्वे में शामिल महिलाओं में से 79% ने भावनात्मक हिंसा की बात कही थी जो अब घटकर 11% रह गई है। शारीरिक और यौन हिंसा के मामले, 54% और 15% से घटकर क्रमशः 5% और 4% रह गए हैं।
हालांकि, शराबबंदी ने अलग-अलग तरीकों से परिवारों को प्रभावित किया है, पटना के कोशिश चैरिटेबल ट्रस्ट के रूपेश कुमार ने कहा। "जब आप बिहार जैसे राज्य के लिए एक नीति लागू करते हैं, तो आपके पास स्पष्ट परिणाम नहीं हो सकते हैं," उन्होंने कहा। “यह थोड़ा जटिल है। कुछ पुरुषों ने ज़्यादा महंगे होने की वजह से शराब छोड़ दी है। कुछ लोग सस्ती कच्ची शराब पीने लगे हैं, जो गांवों में बनाई जाती है क्योंकि इस पर रोक लगाना मुश्किल है।"
कच्ची शराब 50 रुपए प्रति गिलास मिलती है, सुकन्या देवी (बदला हुआ नाम) ने कहा। 55 साल की सुकन्या देवी सासाराम आंदोलन में भाग लेने वालों में से एक हैं। "तब से मेरा जीवन बदतर हो गया है,” उन्होंने कहा। “मेरे पति रात में चौकीदार के तौर पर काम करते हैं। अपनी ड्यूटी ख़त्म करने के बाद दो ग्लास पीकर घर आता है। जब वह नशे में होता है, तो कोई भी उसे कंट्रोल नहीं कर सकता। ”
मुज़फ़्फ़रपुर के एक गांव के एक घर कच्ची शराब की दो बोतलें। इस गांव में जहां पहले नाम मात्र के लिए कच्ची शराब बनती थी, शराबबंदी के बाद अब क़रीब 2 लाख रुपए मूल्य की कच्ची शराब रोज़ बन रही है।
50 रुपए कीमत वाली कच्ची शराब 200 रुपए में बिक रही है
राज्य में शराबबंदी को लागू करने के लिए एक “ठोस अभियान” शुरू किया गया है, बिहार के पुलिस महानिरीक्षक (आईजी) नैय्यर हसनैन ख़ान ने कहा। “यह एक लंबा अभियान है और इसमें उतार-चढ़ाव होंगे,” उन्होंने कहा। “लेकिन बड़ी धारणा शराबबंदी के पक्ष में है। घरेलू हिंसा के मामले कम हो गए हैं, सड़कें महिलाओं के लिए सुरक्षित हैं, और यहां तककि त्यौहार भी अधिक शांतिपूर्ण हैं।”
नैय्यर हसनैन ने बिहार में शराबबंदी के अनुपालन के लिए किए गए कुछ हालिया उपायों की लिस्ट गिनाई। "हमने अधिक चेक-पोस्ट बनाए हैं, अधिक सीसीटीवी कैमरे स्थापित किए हैं, कैनिन्स वगैरह की ख़रीद की है,” उन्होंने कहा। “हमने नई ‘आईजी निषेध’ की एक नई स्थिति भी बनाई है। बिहार दूसरे राज्यों और नेपाल से घिरा राज्य है। हमारी प्राथमिकताएं दो मोर्चों पर है: एक यह सुनिश्चित करना है कि शराब की तस्करी न हो और दूसरा उन गांवों पर नज़र रखना जहां शराब बनाई जाती है।”
लेकिन हमारी पड़ताल से पता चला कि राज्य के आंतरिक क्षेत्रों में अवैध शराब की तस्करी जारी है।
मुज़फ़्फ़रपुर के एक सुदूर गांव में - सासाराम से 220 किलोमीटर दूर - सौरव साहनी, 50 (बदला हुआ नाम) ने समझाया कि कच्ची शराब कैसे बनाई जाती है - लेकिन एक बुनियादी सवाल पूछने के बाद: "क्या आप सीआईडी [अपराध जांच विभाग] से हैं?”
एक बार आश्वस्त होने के बाद ही उन्होंने बताना शुरु किया।
“हम 200 लीटर का ड्रम लेते हैं और उसे ज़मीन में गाड़ देते हैं, ऊपर हिस्सा खुला छोड़ देते हैं,” सौरव ने कहा। हम कार्बाइड, यूरिया, खमीर, गुड़ और थोड़ा-सा महुआ [शराब बनाने के काम आने वाला फूल] मिलाते हैं और एक हफ़्ते तक इसे छोड़ देते हैं। फिर हम ड्रम को बाहर निकालते हैं, और उसके ऊपर ठंडे पानी का एक बर्तन रखते हैं। एक प्लेट ड्रम और बर्तन को अलग रखती है।”
अगला काम ड्रम के ऊपर के हिस्से के पास एक छेद बनाना और उसे गर्म करना है, सौरव ने कहा। "छेद से टपकता घोल ही कच्ची शराब है।"
यह गांव गंडक नदी के किनारे बसा हुआ है। "हम नाव से नदी के उस पार जाते हैं और उससे आगे के जंगलों में कच्ची शराब तैयार करते हैं,” सौरव ने बताया। “हम फ़िलहाल चुनाव वजह से इसे नहीं बना रहे हैं। लेकिन हम अगले महीने वीडियो कॉल के ज़रिए आपको इसे लाइव दिखा सकते हैं।”
गंडक नदी के पार का जंगल जहां स्थानीय लोग कच्ची शराब बनाते हैं।
गांव में कम से कम 50 लोग ऐसे हैं जो रोज़ाना 20 लीटर कच्ची शराब बनाते हैं, सौरव ने बताया। "यह अनुमान कम से कम है,” उन्होंने कहा। “हम एक लीटर कच्ची शराब बनाने के लिए 50 रुपए खर्च करते हैं। हम इसे 200 रुपए में बेचते हैं।”
इस दर से, बिहार का एक अकेला गांव हर रोज़ 2 लाख रुपए की आमदनी कर सकता है। “आप बिहार के अधिकांश गांवों में लोगों को कच्ची शराब बनाते हुए पाएंगे। जब मांग है तो आपूर्ति होगी,” उन्होंने कहा। "हमने शराबबंदी से पहले इसका 20% भी नहीं बनाया था।”
कच्ची शराब सामान्य व्हिस्की की तुलना में कहीं अधिक नशीली है, जो अब काला बाज़ारी में ज़्यादा कीमत पर बेची जाती है। इसलिए, इसकी मांग बढ़ रही है, 30 वर्षीय सुशीला देवी (बदला हुआ नाम) ने कहा, जो सासाराम में उस शराब की दुकान के पास रहती है, जिसे 2013 में महिलाओं ने बंद कर दिया था। “कच्ची शराब हर गांव में उपलब्ध है,” उन्होंने कहा। “आपको नशे में धुत्त करने के लिए इसका एक गिलास ही काफ़ी है। मेरा पति पीता है, और मेरा छह साल का बेटा उसे देखता है।”
मुज़फ़्फ़रपुर के एक गांव में 200 लीटर का ड्रम। स्थानीय लोग ऐसे ड्रम में कच्ची शराब बनाते हैं।
सुशीला देवी ने कुछ महीने पहले की एक ऐसी घटना सुनाई जिसे वह भूल नहीं पाई हैं। "एक शाम, मेरे पति कॉलोनी में नशे में धुत्त आए,” उन्होंने उस घटना को याद करते हुए कहा। “वह इतने धुत्त थे कि घर पहुंचने से पहले ही गिर गए। जब मैं और मेरा बेटा उन्हें लाने के लिए बाहर निकले, तो उनके बगल में कच्ची शराब की बोतल पड़ी थी। मेरा बेटा कौतुहलवश उसकी ओर दौड़ा, और बोतल से एक घूंट लिया। मुझे नहीं पता था कि मैं क्या करूं। मैं अब भी इसके बारे में सोचती हूं। क्या नीतीश कुमार ने शराबबंदी लागू करते समय इन नतीजों के बारे में सोचा था?”
कच्ची शराब से होने वाली मौतें
2016 में हुई शराबबंदी के बाद, बिहार में 12 पुरुष और तीन महिलाओं की मौत कच्ची शराब के पीने से हो चुकी है, एनसीआरबी के साल 2016, 2017, 2018 और 2019 के आंकड़ों के अनुसार। इस साल, 48 वर्षीय, अजय साहनी ने जनवरी में अपने चचेरे भाई को खो दिया। मुज़फ़्फ़रपुर के मनियारी गांव के रहने वाले अजय ने बताया कि उनके चचेरे भाई 53 साल के थे। उनके दो बच्चे और एक पत्नी है। “वह पंजाब में एक खेत मज़दूर के तौर पर काम करता था। अब उनकी पत्नी मज़दूरी करती है और घर चलाती है। यह कच्ची शराब लोगों के जीवन को बर्बाद कर सकती है।”
अजय साहनी के भाई उन चार लोगों में शामिल थे, जिनकी इस साल मनियारी में कच्ची शराब पीने से मौत हो गई। "उसे शराब की लत थी,” अजय ने कहा, जो फ़िलहाल मुज़फ़्फ़रपुर से निर्दलीय चुनाव लड़ रहे एक मनरेगा कार्यकर्ता के समर्थन में अभियान चला रहे हैं। “लेकिन जब आप अचानक किसी से कुछ छीन लेते हैं तो जिसे लत लगी है वो नियंत्रण से बाहर हो सकता है। उन्हें अपनी लत के लिए कुछ तो चाहिए। मेरे भाई ने कच्ची शराब पी। कई लोग सस्ती ड्रग लेने लगे हैं।”
ड्रग्स का बढ़ता इस्तेमाल
पटना के एक डी-एडिक्शन केंद्र, दिशा की सीईओ राखी शर्मा, बताती हैं कि अचानक हुई शराबबंदी के बाद उन्होंने पिछले तीन साल में ड्रग्स के मामलों में भारी उछाल देखा है।
शराबबंदी से एक साल पहले, 2015-16 में, दिशा के दो मुख्य केंद्रों पर, जहां पूरे बिहार से नशे की लत वाले लोग आते हैं, 9,745 नशे की लत वाले लोग पंजीकृत किए गए थे। ज़्यादातर ऐसे परिवार से थे जो 20,000 रुपए महीना से भी कम कमाते हैं, और 18 से 35 साल की उम्र के हैं। पंजीकृत 3,126 यानी 32% लोग शराब की वजह से आए थे, जबकि 1,509 या 15.5% चरस और भांग के लिए आए थे।
शराबबंदी के एक साल बाद, 2016-17 में दोनों केंद्रों पर 6,634 लोगों का पंजीकरण हुआ। उस साल शराब के आदी लोगों की संख्या 2,673 पर आ गई, जो अभी भी केंद्र में पंजीकृत लोगों का 40% है। हालांकि,,आदी लोगों की संख्या चरस और भांग आदि की लत वाले लोगों की संख्या 1,921 यानी 29% तक पहुंच गई, जो एक साल पहले के प्रतिशत का दोगुना है।
2017-18 और 2018-19 के बीच, दोनों केंद्रों में 9,628 पंजीकरण हुए थे - उनमें से 3,444 यानी 36% शराब के लिए। लेकिन पंजीकृत लोगों में से 4,427 यानी 46% गांजा, चरस और भाांग के लिेए। शराबबंदी से एक साल पहले पहले के 14.5% से रिकॉर्ड तीन गुना अधिक।
दिशा के एक केंद्र में भर्ती नशे के आदी एक शख़्स, जो पटना के बाहरी इलाके में एक कस्बे से रहता है, ने कहा कि वह शराबबंदी के पहले इम्पीरियल ब्लू (एक ब्रांड) व्हिस्की पीता था। "मैं 400 रुपए में पूरी बोतल ख़रीदता था,” उसने बताया। “शराबबंदी के बाद, यह दोगुना हो गया। इसलिए मैं दूसरे नशे करने लगा। मुझे 200 रुपये में एक पैकेट मिल जाता है और यह 800 रुपये की बोतल के विपरीत दो दिन में ख़त्म हो जाता है। मैं एक किसान का बेटा हूं। मैं सामान्य तौरर पर भी पैसे (पीने के लिए) उधार लेता था। शराबबंदी के बाद कुछ दोस्तों ने मुझे इस नशे के बारे में बताया।”
एक बार शराब का आदी व्यक्ति कोई दूसरा नशा करने लगे तो शरीर को उसकी आदत हो जाती है, राखी शर्मा ने कहा। जिस व्यक्ति से हम मिले उसके साथ ऐसा ही हुआ है। “शुरुआत में ये डरावना था क्योंकि प्रशासन शराब के मामले में सख़्त था,” उसने बताया। “चरस अपेक्षाकृत सुरक्षित थी। बाद में, जब शराब आसानी से मिलने लगी, तब भी शराब पीने का मेरा मन नहीं हुआ।”
वह पिछले ढाई महीने से चरस पी रहा था और उसे दोबारा न छूने की कसम भी खाता है। "मेरी पत्नी और एक बच्चा है,” उसने बताया। “मैं उनके पास अपने पैरों पर चलकर वापस जाना चाहता हूं। मैं भाग्यशाली था कि मैं यहां भर्ती हुआ। लेकिन अधिकांश लोगों को नशा मुक्ति केंद्र में भर्ती होने के तरीकों के बारे में पता नहीं है। राज्य सरकार को शराबबंदी लागू करने से पहले इस बारे में सोचना चाहिए था।”
यह दो-भागों की श्रृंखला का पहला भाग है। दूसरे भाग में हम तस्करों की मॉडस ऑपरेंडी को समझाएंगे और बताएंगे कि कैसे समाज में हाशिए के लोगों को शराबबंदी ने प्रभावित किया है।
(पार्थ, इंडियास्पेंड में प्रिंसिपल कॉरोसपॉंडेंट हैं।)