पटना: पिछले साल दिसंबर में अंतरराष्ट्रीय मेडिकल जर्नल लैंसेट में प्रकाशित, बर्डन ऑफ़ मेंटल डिसऑडर रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर सात में से एक व्यक्ति मानसिक विकार का शिकार है और उनकी स्थिति ‘माइल्ड’ से ‘सिवियर’ के बीच है। इसी रिपोर्ट में बिहार में मानसिक स्वास्थ्य के बारे में चौंकाने वाले तथ्य पेश किए गए थे।

रिपोर्ट कहती है कि बिहार में प्रति एक लाख लोगों पर औसतन 407 डिप्रेसिव डिसऑर्डर, 292 एंग्ज़ायटी डिसऑर्डर, 252 इडियोपैथिक डेवलपमेंटल इंटिलेकच्युअल डिसेबिलिटी, 133 सिज़ोफ्रेनिया (schizophrenia), 102 बायपोलर डिसऑर्डर, 117 कंडक्ट डिसऑर्डर, 54 ऑटिज़्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर, 26 इटिंग डिसऑर्डर और 114 लोग अन्य मानसिक विकारों से ग्रस्त हैं।

इसी साल 28 अगस्त को जारी नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के 2019 के आंकड़े भी बिहार में तेज़ी से पैर फैला रही मानसिक बीमारियों की तरफ़ इशारा करते हैं। साल 2019 में बिहार में होने वाली आत्महत्याओं में साल 2018 के मुक़ाबले 44.7% की बढ़ोत्तरी हुई है। साल 2019 में राज्य में आत्महत्या के 641 मामले सामने सामने आए जबकि साल 2018 में आत्महत्या के 443 मामले दर्ज हुए थे, एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार। आत्महत्या का सीधा संबंध मानसिक स्वास्थ्य से माना जाता है

पिछले कुछ साल में बिहार में दिमाग़ी मरीज़ों का ग्राफ़ तेज़ी से बढ़ा है, लेकिन उसके बावजूद भी इस दिशा में राज्य में कोई ख़ास काम नहीं हुआ है। 2011 जनगणना के मुताबिक़ राज्य की जनसंख्या 10 करोड़ से अधिक थी मगर फिर भी राज्य में सिर्फ़ एक ही मानसिक चिकित्सालय है। वो भी डॉक्टरों और अन्य स्टाफ़ की कमी से जूझ रहा है। राज्य में हर साल दिमाग़ी मरीज़ों की संख्या 30% की दर से बढ़ रही है, टाइम्स ऑफ़ इंडिया में पिछले साल अक्टूबर में प्रकाशित इस रिपोर्ट के अनुसार।

एशियन डवेलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट (एडीआरए) ने साल 2017 में राज्य में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े आंकड़ों के संबंध में एक सख़्त टिप्पणी की थी, “मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े आंकड़ों में बिहार फिसड्डी है। यही कारण है कि राज्य में अब तक मेंटल हेल्थ एक्ट (2017) और डिस्ट्रिक्ट मेंटल हेल्थ प्रोग्राम (2000) भी लागू नहीं हो सका है।”

“बिहार की स्थिति द लैंसेट के आंकड़ों से भी भयावह है,” पटना के जाने माने मनोचिकित्सक डॉ. सत्यजीत सिंह ने कहा।

बुरे हाल में है बिहार का इकलौता मानसिक अस्पताल

साल 2001 में तमिलनाडु के एक मेंटल हॉस्पिटल में आग लगने के हादसे के बाद सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेते हुए सभी राज्य सरकारों को नोटिस जारी किया। राज्य सरकारों से पूछा गया कि क्या उनके राज्यों में सरकारी मानसिक रोग अस्पताल है। अगर नहीं है तो क्यों नहीं है? और उसके लिए राज्य सरकार क्या कर रही है? अपने आदेश में कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि हर राज्य के पास अपना मानसिक रोग अस्पताल होना चाहिए।

कोर्ट की सख़्ती का ही नतीज़ा था कि 2005 में बिहार के भोजपुर ज़िले के कोइलवर टीबी अस्पताल परिसर में ही वैकल्पिक तरीके से मानसिक आरोग्यशाला की शुरूआत की गई। साल 2000 में झारखंड के अलग राज्य बनने के बाद संयुक्त बिहार का कांके में स्थित रांची तंत्रिका मनोचिकित्सा एवं संबद्ध विज्ञान संस्थान (रिनपास) इकलौता मानसिक आरोग्यशाला झारखंड में चला गया था। उसके पांच साल बाद तक बिहार के पास अपना कोई मानसिक चिकित्सालय नहीं था। 2005 में मानसिक अस्पताल शुरु होने के बाद भी यहां आउट-पेशेंट डिपार्टमेंट (ओपीडी) शुरु होने में छह साल लग गए। साल 2011 में जाकर यहां ओपीडी शुरु हो पाई। 15 साल बीत जाने के बाद भी स्थिति बिल्कुल वैसी ही है। राज्य में अभी भी एक ही मानसिक अस्पताल है।

चूंकि टीबी अस्पताल में ही मानसिक आरोग्यशाला को वैकल्पिक तौर शुरू कर दिया गया था, यहां मरीज़ों को भर्ती करने की सुविधा शुरू नहीं हो सकी थी। संसाधनों की कमी में ही मानसिक आरोग्यशाला शुरू कर दिया गया। इस बीच सरकार, मरीज़ों को इलाज के लिए रिनपास रेफर करती थी और उनके इलाज का ख़र्च वहन करती थी। पिछले साल राज्य सरकार ने इसका ख़र्च उठाना बंद कर दिया। सरकार ने ऐलान किया कि रिनपास जाने वाले बिहार के मरीज़ों को अपना ख़र्च ख़ुद ही उठाना होगा। बिहार सरकार मानसिक रोगियों के इलाज पर ख़र्च हुए 74 करोड़ रुपए की राशि रिनपास को नहीं चुका पाई है।

पटना के गर्दनीबाग निवासी 45 साल की माधुरी देवी (बदला हुआ नाम) साल 2019 से अपनी मानसिक बीमारी का इलाज करवा रही हैं। उनका परिवार उनका इलाज एक बेहतर मनोचिकित्सक से करवाना चाहता है। “हमें कोइलवर मेंटल हॉस्पिटल के बारे में पिछले साल पता चला था। हम लोग वहां गए भी। हमें लगा डेडिकेटेड मेंटल हॉस्पिटल है तो वहां कम से कम बाकी जगहों से बेहतर इलाज मिलेगा। लेकिन हमें निराशा ही हाथ लगी। मानसिक रोग से ग्रस्त मरीज़ को एक अलग और सकारात्मक माहौल की ज़रूरत होती है। कोइलवर में वह माहौल नहीं है,” माधुरी की बेटी रश्मि ने बताया।

“सामान्य परिवारों के लोग यहां नहीं आते। सुविधा है ही नहीं तो आकर क्या करेंगे? यहां ज़्यादातर कैदियों, लावारिस लोगों और अज्ञात मानसिक रोगियों को रखा जाता है। कइयों के तो परिवारों ने ही उन्हें अपनाने से मना कर दिया है। हम लोग अक्सर यहां से मरीज़ों के भागने की ख़बर भी सुनते रहते हैं,” स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता दीपक कुमार ने बताया।

लगातार बढ़ती मानसिक रोगियों की संख्या

बिहार राज्य मानसिक स्वास्थ्य एवं संबद्ध विज्ञान संस्थान, कोइलवर में हर साल मरीज़ों की संख्या बढ़ रही है। पिछले पांच साल के आंकड़ें इस बात का प्रमाण देते हैं। साल़ 2015 में संस्थान में 148 मरीज़ भर्ती किए गए थे। इनके कुल भर्ती दिनों की संख्या 16,711 दिन दर्ज की गई थी। साल 2019 में मरीज़ों की संख्या 230 और भर्ती दिनों की संख्या 24,126 हो गई।

Source: Bihar State Institute of Mental Health and Allied Sciences

ओपीडी के भी आंकड़ें चिंताजनक हैं। साल 2015 में यहां कुल 7,265 नए मरीज़ आए। जबकि 24,996 मरीज़ पहले से ही ओपीडी से संबद्ध थे। 2019 में नए मरीज़ बढ़कर 15,597 हो गए और पुराने मरीज़ों की संख्या भी बढ़कर 53,529 हो गई। इस तरह 2019 में कुल मरीज़ों की संख्या लगभग 70 हज़ार पहुंच गई।

Source: Bihar State Institute of Mental Health and Allied Sciences

“लैंसेट के आंकड़े वही संख्या बता रहे हैं जो किसी तरह के मेडिकल रिकॉर्ड में दर्ज है। इसमें उन मानसिक रोगियों के आंकड़े दर्ज नहीं हैं जिन्हें मंदिरों और मस्जिदों में इलाज के लिए ले जाया जाता है। हमें नहीं मालूम भूत-प्रेत, डायन, पागल और माता बताकर कितने मानसिक रोगी अस्पतालों तक नहीं पहुंच सके हैं। अशिक्षा, डॉक्टरों की कमी और एडहॉक व्यवस्थाएं इस समस्या को और गंभीर ही बनाती हैं ,” एम्स पटना के साइकेट्री विभाग में रहे, डॉ. सत्यजीत सिंह ने इंडियास्पेंड से कहा। डॉ. सत्यजीत अब पटना में अपनी निजी प्रैक्टिस करते हैं।

डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों की भारी कमी

आंकड़ों साफ़ है कि पिछले पांच साल में बिहार राज्य मानसिक स्वास्थ्य एवं संबद्ध विज्ञान संस्थान में मरीज़ों की संख्या लगातार बढ़ रही है। लेकिन मरीज़ों की बढ़ोत्तरी के अनुपात में स्वास्थ्यकर्मियों की संख्या नहीं बढ़ी है।

इस अस्पताल में डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मियों की नियुक्ति तीन तरीकों से होती है - स्वास्थ्य सेवा संवर्ग, संविदा और प्रतिनियुक्ति (डेपुटेशन)। स्वास्थ्य सेवा संवर्ग के तहत नियुक्त स्वास्थ्यकर्मी पूर्णत: सरकारी होते हैं। संविदा के तहत नियुक्त हुए स्वास्थ्यकर्मी कॉन्ट्रेक्ट पर रखे जाते हैं। प्रतिनियुक्ति उसे कहा जाता है कि जब किसी स्वास्थ्यकर्मी को किसी एक संस्थान से दूसरे संस्थान की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ट्रांसफर कर दिया जाता है।

साल 2015 में यहां स्वास्थ्य सेवा संवर्ग के तहत 3, संविदा पर 2 और प्रतिनियुक्ति पर 6 डॉक्टर थे। साल 2019 में स्वास्थ्य सेवा संवर्ग के एक डॉक्टर के रिटायर हो जाने के बाद उनकी संख्या घटकर 4 रह गई। प्रतिनियुक्ति पर 6 डॉक्टर थे। अगस्त 2020 में ये संख्या भी कम होकर 5 रह गई। ग़ौरतलब है कि साल 2016 से अगस्त 2020 तक संविदा डॉक्टरों की नियुक्ति नहीं हुई है।

Source: Bihar State Institute of Mental Health and Allied Sciences

बिहार का ये इकलौता मानसिक स्वास्थ्य संस्थान, डॉक्टरों के अलावा अन्य स्वास्थ्य कर्मचारियों की कमी से भी जूझ रहा है। इन स्वास्थ्यकर्मियों में - वार्ड अटेंटडेंट, रिकॉर्ड रूम कर्मी, क्लर्क, लैब अटेंटडेंट, टेकनिशियन, साइकोलॉजिस्ट, फार्मासिस्ट आदि - शामिल हैं।

2015 में 66 स्वास्थ्यकर्मी संविदा पर, 47 प्रतिनियुक्ति पर थे। 2019 में प्रतिनियुक्ति वाले 38 स्वास्थ्यकर्मियों को हटा दिया गया। सिर्फ़ संविदा वाले 32 स्वास्थ्य कर्मी ही रह गए। अगस्त 2020 तक संविदा कर्मचारियों की संख्या में कोई बदलाव नहीं हुआ जबकि 8 नए कर्मचारी प्रतिनियुक्ति पर तैनात किए गए।

Source: Bihar State Institute of Mental Health and Allied Sciences

“बिहार में साइकेट्री (मनोविकार) को गंभीरता से लिए जाने की ज़रूरत है। यह सच है कि बिहार में मेंटल हेल्थ को लेकर जो इंफ्रास्ट्रक्चर है, उसमें कमी है। कोइलवर मेंटल हेल्थ हॉस्पिटल में भी कमी है। डॉक्टरों और पेरामेडिकल स्टाफ़ की कमी है। हालांकि यह अभी भी प्रारंभिक स्थिति में ही है। सरकार अपनी तरफ से इस कमी को दूर करने की कोशिश कर रही है। सरकार की योजना है कि आने वाले सालों में कम से कम तीन मानसिक स्वास्थ्य आरोग्यशाला तैयार की जाए। कोइलवर के अलावा पूर्णिया और बेतिया में हॉस्पिटल बनाने की बात चल रही है,” बिहार सरकार में मानसिक रोग विभाग के पूर्व प्रभारी डॉ. अशोक कुमार ने इंडियास्पेंड को बताया। डॉ. अशोक कुमार इसी साल 31 अगस्त को ही रिटायर हुए हैं।

“जो हमारे पास संसाधन हैं, उसमें हम अपना बेस्ट दे रहे हैं। बेशक हमारे पास उतने संसाधन नहीं जितने की अपेक्षा होती है,” बिहार राज्य मानसिक स्वास्थ्य एवं संबद्ध विज्ञान संस्थान, कोइलवर के निदेशक डॉ. प्रमोद कुमार सिंह ने इंडियास्पेंड से कहा। डॉ. प्रमोद पटना मेडिकल कॉलेज और हॉस्पिटल (पीएमसीएच) में साइकेट्री विभाग के अध्यक्ष भी हैं। कोइलवर मानसिक आरोग्यशाला का उन्हें अतिरिक्त प्रभार दिया गया है।

साल 2013 में मेंटल हेल्थ केयर के संबंध में संसद में सांसदों को दिए गए रेफ़रेंस नोट में बिहार में जनसंख्या और मानसिक रोगियों की संख्या के अनुपात में 828 साइकेट्री डॉक्टरों की ज़रूरत बताई गई थी। जबकि उस वक़्त पूरे राज्य में सिर्फ़ 28 साइकेट्री डॉक्टर थे। 1,214 क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट की ज़रूरत थी और कार्यरत सिर्फ़ 13 थे। जबकि साइकोलॉजिस्ट सोशल वर्कर और साइकेट्रिक नर्सों के आंकड़ें सासंदों के रेफ़रेंस नोट में भी नहीं थे।

“कोइलवर राज्य का इकलौता मानसिक आरोग्यशाला है। पर इसका मतलब ये कतई नहीं है कि लोगों के लिए इलाज की व्यवस्था सिर्फ़ यहीं है। बिहार के सभी मेडिकल कॉलेजों में साइकेट्री विभाग है। लोग इलाज के लिए उन विभागों में भी जा सकते हैं,” डॉ. प्रमोद ने कहा।

डॉ. प्रमोद राज्य में मेंटल हेल्थ प्रोफ़ेशनल्स की बात को स्वीकार करते हैं। “12 से 13 करोड़ की आबादी वाले राज्य में सौ से भी कम मेंटल हेल्थ प्रोफ़ेशनल्स हैं, यह दुखद है। जो प्रोफ़ेशनल्स हैं भी उन्हें भी उचित ट्रेनिंग नहीं मिलती है,” उन्होंने कहा। लेकिन वो भविष्य के प्रति आशावान नज़र आते हैं। “मैं फिर भी कह सकता हूं कि धीरे-घीरे ही सही स्थितियां बदलेंगी,” डॉ. प्रमोद ने कहा।

(रोहिण, पटना में स्वतंत्र पत्रकार हैं। इस रिपोर्ट में कोइलवर से दीपक गुप्ता और पटना से सत्यम कुमार झा का इनपुट शामिल है।)

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