पूर्णिया, बिहारः अमिता कुमार की उम्र 14 साल है। वह बड़े होकर अपनी मां की तरह एक पुलिस अधिकारी बनना चाहती है। अमिता, पूर्वी बिहार में पूर्णिया ज़िले के एक शहर, कस्बा में सरकारी मिडिल स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ती है। वह जानती है कि एक पुलिस अधिकारी बनने के लिए उसे “मज़बूत” होने की ज़रूरत है। अमिता की लंबाई 5 फीट 3 इंच है जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के मापदंडों के हिसाब से ठीक है। लेकिन वह उसकी कक्षा में एक अपवाद है। उसके साथ पढ़ने वाली ज़्यादातर छात्राएं लंबाई में उससे कम हैं। “पहले मुझे सब्ज़ियां पसंद नहीं थी, लेकिन अब मैं काफी सब्ज़ियां खाती हूं क्योंकि मैं मज़बूत बनना चाहती हूं,” अमिता ने बताया।

अमिता के खानपान में यह बदलाव तब आया जब उसकी एक टीचर ने फल और सब्ज़ियों के महत्व के बारे में बताना शुरु किया। “उन्होंने हमें ख़ुद सब्ज़ियां उगाना सिखाया और यह बताया कि हमें क्यों उन्हें रोज़ खाना चाहिए,” अमिता ने कहा।

‘उन्होंने’ से अमिता का इशारा यूनिसेफ़ इंडिया की एक टीम से था जिसने उसके स्कूल में 2016 में ‘पोषण वाटिका’ बनाने में सहायता की थी। यह वाटिका अंकुरण नाम की एक परियोजना का हिस्सा था। इस परियोजना की शुरुआत 2016 में छात्रों के आहार में सुधार करने के लिए हुई थी। एक ऐसा संतुलित आहार जिसमें अनाज और मोटे अनाज, दालें, हरी पत्तेदार सब्ज़ियां, फल आदि को सही मात्रा में लेना शामिल है। इस परियोजना का उद्देश्य छात्रों को स्कूल परिसर में सब्ज़ियों की ऑर्गेनिक खेती के साथ जोड़ना है क्योंकि सब्ज़ियों और फलों से विटामिन, खनिज और फाइटोन्यूट्रिएंट्स जैसे आवश्यक संरक्षक तत्व मिलते हैं।

अंकुरण कार्यक्रम बिहार में 2016 के स्वाभिमान कार्यक्रम का एक हिस्सा है, जिसका लक्ष्य लड़कियों, गर्भवती महिलाओं और दो वर्ष से कम आयु के बच्चों की मांओं के पोषण में सुधार करना था। इसके पायलेट प्रोजेक्ट के दौरान, यूनिसेफ़ ने पूर्णिया ज़िले में 100 स्कूलों में पोषण वाटिका लगाने के लिए हर एक को 10,000 रुपये दिए थे।

अमिता कुमारी, 14 (दायें) और रक्षा कुमारी, 14, बिहार में कस्बा के सरकारी मिडिल स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ती हैं, अमिता ने अपनी टीचर से आहार में विविधता के महत्व के बारे में जानने के बाद अधिक सब्जियां और फल खाना शुरू किया है।

बिहार में माइक्रोन्यूट्रिएंट्स की कमी

अंकुरण योजना को 2017 में बिहार में 20,000 स्कूलों तक पहुंचाया गया था। बिहार में माइक्रोन्यूट्रिएंट्स की कमी और कुपोषण के कारण बड़ी संख्या में बच्चों की मृत्यु होती है। अक्टूबर 2019 के कॉम्प्रिहेन्सिव नेशनल न्यूट्रीशन सर्वे (सीएनएनएस) के अनुसार, सभी राज्यों में बिहार में स्टंटेड (उम्र के हिसाब से लंबाई का कम होना) बच्चों का प्रतिशत सबसे ज़्यादा था। बिहार में पांच साल से कम उम्र के 42% बच्चे स्टंटेड थे, जबकि देशभर में ये आंकड़ा 34.7% था। राज्य में कम वज़न वाले बच्चों का अनुपात भी ज़्यादा था (देशभर के 33.4% की तुलना में 38.7%)।

सीएनएनएस ने यह भी पाया कि बिहार में विटामिन-ए, विटामिन-डी और ज़़िंक की कमी वाले बच्चों का प्रतिशत राष्ट्रीय औसत से ज़्यादा है। राज्य में आयरन, फोलेट और विटामिन-बी12 की कमी पूरे देश के औसत की तुलना में कम थी। बिहार में पांच से नौ साल की उम्र के बच्चों और 10 से 19 वर्ष की उम्र के किशोरों में से लगभग एक-तिहाई अनीमिक थे। छोटे बच्चों में, यह दर ज़्यादा थी, एक से चार साल की उम्र के बच्चों में यह 43.9% थी जबकि देशभर का औसत 40.6% था।

Source: Comprehensive National Nutrition Survey

भारत में 2017 में कुपोषण, पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मौत सबसे बड़ा कारण था। इंडियास्पेंड ने 19 सितंबर, 2019 की अपनी रिपोर्ट में बताया था कि, इस उम्र के 68.2% बच्चों की मौत कारण कुपोषण था।

कुपोषण की वजह से देश की अर्थव्यवस्था को भी नुक़सान हुआ है। इंडियास्पेंड ने पिछले साल रिपोर्ट दी थी कि बचपन में लंबाई कम रहने से, देश के कार्यबल में से 66% की आमदनी 13% कम रही। वर्ल्ड बैंक की 2014 की एक रिपोर्ट के अनुसार, विटामिन और खनिज की कमी से भारत को जीडीपी में 73,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा (12 बिलियन डॉलर) का सालाना नुक़सान हुआ।

पोषण वाटिका

पूर्वी बिहार के पूर्णिया ज़िले में बेलोरी के एक सरकारी स्कूल में पोषण वाटिका़ में मूली उगाई गई है। बिहार सरकार ने यूनिसेफ़ के साथ मिलकर सरकारी स्कूलों में सब्ज़ियों की वाटिका़ लगाकर छात्रों के आहार में सुधार करने की एक योजना शुरू की।

बिहार के स्वास्थ्य, शिक्षा और कृषि मंत्रालयों की तरफ़ से चलाए जा रहे अंकुरण कार्यक्रम का मक़सद बच्चों को अधिक पौष्टिक भोजन के लिए प्रोत्साहित करना है। इसमें छात्रों के बीच पोषण और स्वच्छता को लेकर जागरूकता फैलाने के साथ ही स्कूलों में बच्चों की देखभाल में चलने वाली पोषण वाटिका लगाना शामिल है।

पायलेट प्रोजेक्ट के लिए, वाटिका का आकार 225 वर्ग फ़ुट तय किया गया था। स्कूलों को ज़मीन की उपलब्धता के आधार पर इन वाटिकाओं के लिए चुना गया था। ज़मीन को कई हिस्सों में बांटा गया था, जहां कई सब्ज़ियों के बीज बोए गए और उन्हें ऑर्गेनिक तरीके से उगाया गया।

ज़िला कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) और पंचायत-स्तर के कृषि समन्वयकों ने उन फ़सलों की पहचान करने में स्कूलों की सहायता की जिन्हें मिट्टी की स्थिति और मौसम के आधार पर लगाया जा सकता था। इसके साथ ही स्कूलों को वाटिका लगाने में भी सहायता मिली थी। सभी 100 स्कूलों को कार्यक्रम के दिशा-निर्देश दिए गए थे।

बाल संसद (बच्चों की संसद, जिसमें बच्चे मंत्रियों के तौर पर काम करते हैं) और मीना मंच (लड़कियों का एक ग्रुप जो महिला स्वच्छता और मासिक धर्म की समस्याओं के बारे में बात करता है) पोषण वाटिकाओं के रखरखाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

पोषण वाटिका में ज़मीन के हर हिस्से की ज़िम्मेदारी 2-3 छात्रों के एक ग्रुप को दी गई थी। बाल संसद के कृषि मंत्री ने यह सुनिश्चित किया कि सभी छात्र ज़मीन के अपने हिस्से की देखभाल करें। छात्र नेताओं ने सभी ग्रुपों के साथ समस्याओं पर बातचीत की।

एक आदर्श पोषण वाटिका
स्कूलों ने वाटिकाओं को आठ हिस्सों में बांटा। बड़े हिस्सों पर तीन और छोटे हिस्सों पर पांच सब्ज़ियां उगाईं। वाटिका के हिस्से में पेड़ लगाए गए। सब्ज़ियों को मिट्टी, वातावरण और सीज़न के आधार पर चुना गया।

Source: Ankuran Operational Guidelines

“हमारा लक्ष्य छात्रों को केवल पोषण पर जानकारी उपलब्ध कराना नहीं, बल्कि पोषण को लेकर उनका उत्साह बढ़ाना भी था,” पूर्णिया में यूनिसेफ़ इंडिया के सलाहकार अरुणेंदु झा ने इंडियास्पेंड को बताया।

स्कूलों में छात्रों का इस कार्यक्रम के साथ जुड़ाव दिख रहा है। “पीला, सफ़ेद और हरा!”, बेलोरी में सरकारी स्कूल में छात्र अपनी टीचर, निकिता कुमारी के साथ ज़ोर से बोल रहे हैं। निकिता, एक नियमित पोषण सत्र आयोजित कर रही हैं। “भोजन में इन तीन रंगों के खाद्य पदार्थों का होना ज़रूरी है।” सुबह की असेंबली में जागरूकता अभियान को शामिल किया गया है। छात्रों को 30 मिनट के सत्र में पोषण और स्वच्छता के बारे में चर्चा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

पूर्वी बिहार के पूर्णिया ज़िले में, बेलोरी के सरकारी स्कूल की टीचर, निकिता कुमारी, पोषण पर एक सत्र में।

दूसरी योजनाओं के साथ जोड़ना

योजना को पोषण आधारित अन्य सरकारी कार्यक्रमों के साथ भी जोड़ा गया है। इनमें मिड-डे मील योजना भी शामिल है। पोषण वाटिकाओं में उगाई गईं सब्ज़ियों का इस्तेमाल मिड-डे मील को पोषक बनाने में भी किया जाता है। हालांकि, वाटिकाओं से उगने वाली सब्ज़ियां और फल मिड-डे मील के लिए बहुत कम हैं।

“हमें एक वक़्त के खाने के लिए लगभग 25 किलो सब्ज़ियों की ज़रूरत होती है। लेकिन हमें वाटिका से 2 किलो से भी कम सब्जियां मिलती हैं”, जलालगढ़ सरकारी स्कूल में खाना पकाने की इंचार्ज सोना देवी ने इंडियास्पेंड को बताया।

बिहार के पूर्णिया ज़िले में सिमल गच्ची के सरकारी मिडिल स्कूल में छात्र मिड-डे मील खाते हुए। मिड-डे मील में स्कूल की वाटिका से सब्ज़ियां तो होती हैं, लेकिन उनकी मात्रा कम रहती है।

पूर्णिया ज़िले के कुछ स्कूलों में मिड-डे मील की व्यवस्था बाहर से करने पर सब्ज़ियां परोसना एक समस्या बन गई है। अक्टूबर 2019 से इन स्कूलों को अब पूर्णिया में एक एनजीओ के किचेन से रोज़ खाने की सप्लाई मिल रही है।

ऐसे स्कूलों में से कुछ ने अब समस्या का अस्थाई समाधान निकाला है। उदाहरण के लिए, बेलोरी के स्कूल में पैदा हुई सब्ज़ियों को छात्रों में बांटा जा रहा है, स्कूल टीचर प्रेरणा किरन ने बताया। इसके अलावा थड्डा के स्कूल के प्रिंसिपल ने तय किया है कि बाहर से आने वाले खाने में इन सब्ज़ियों को मिला दिया जाए, जब तक स्कूल में गैस सप्लाई है। स्कूल की प्रिंसिपल अर्चना ने इंडियास्पेंड को यह जानकारी दी।

“इस कार्यक्रम का मक़सद वास्तव में मिड-डे मील के पोषण स्तर में सुधार का नहीं है। पोषण में सुधार तो साथ में हो रहा है,” यूनिसेफ़ बिहार की राबी परही ने बताया।

अंकुरण कार्यक्रम को वीकली आयरन फ़ोलिक एसिड सप्लिमेंटेशन (डब्ल्यूआईएफ़एएस) के साथ भी जोड़ा गया है, जिसमें आयरन, फ़ोलिक एसिड की गोलियां हर सप्ताह बांटी जाती हैं। इसके पीछे मक़सद यह है कि पौष्टिकता को लेकर जागरूकता बढ़ने से छात्र इन गोलियों को लेना शुरु करेंगे। राष्ट्रीय बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम के तहत हर तीन महीने में स्वास्थ्य जांच भी की जाती है।

सिमल गाची सरकारी स्कूल में सुबह की असेंबली में आठ साल की एलिना हाथ धोने का सही तरीका बता रही है। अंकुरण कार्यक्रम को कई सरकारी स्वास्थ्य और पोषण योजनाओं के साथ जोड़ा गया है।

आहार में विविधता

यूनिसेफ़ इंडिया की ओर से 2018 में कराए गए एक सर्वे के अनुसार, पूर्णिया ज़िले में इस कार्यक्रम के शुरू होने के दो साल में किशोर लड़कियों के आहार में सुधार हुआ था। यह सर्वे कस्बा और जलालगढ़ के 104 गांवों में 484 परिवारों के बीच किया गया। इस सुधार को आंकड़ों के लिहाज़ से पूरी तरह अंकुरण कार्यक्रम से नहीं जोड़ा जा सकता। एक दूसरे महत्वपूर्ण स्वाभिमान कार्यक्रम ने पूरे ज़िले और सभी बच्चों पर असर डाला है, केवल उन स्कूलों के छात्रों पर नहीं जहां पोषण वाटिकाएं हैं।

सर्वे के मुताबिक़, 2016 और 2018 के बीच 10 से 19 साल उम्र की लड़कियों ने अधिक प्रकार के खाद्य पदार्थों को अपने भोजन में शामिल करना शुरू किया था। सर्वे ने बड़े स्तर पर चलाए जाने वाले स्वाभिमान कार्यक्रम के प्रभाव का आंकलन किया था।

कार्यक्रम के प्रभाव वाले क्षेत्र में, औसत आहार विविधता स्कोर (सर्वे से 24 घंटे पहले भोजन में शामिल खाद्य समूहों की संख्या) 2016 में 3.9 से बढ़कर 2018 में 4.87 हो गया था। स्कोर की गणना 10-प्वाइंट के स्केल पर की गई थी, जो संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन के 2016 के मापदंड के अनुसार 10 खाद्य समूहों पर आधारित था।

किशोरियों ने अधिक हरी पत्तेदार सब्जियां और विटामिन-ए वाले फलों और गाजर, साग और स्थानीय उत्पादन वाली पत्तेदार सब्ज़ियों को भी खाना शुरू किया था। उदाहरण के लिए, 62.1% लड़कियों ने 2018 में विटामिन-ए की अधिकता वाला भोजन खाया, यह प्रतिशत 2017 में 36.3% था। सर्वे के अनुसार (अंकुरण के सीधे प्रभाव से बाहर के समूह में) इन सब्ज़ियों और फलों को खाने वाली लड़कियों का प्रतिशत 2016 में 50.3% से बढ़कर 2018 में 64.3% हो गया था।

आहार विविधता में आए परिवर्तन को अंकुरण कार्यक्रम के जल्द प्रभाव के तौर पर नहीं देखा जा सकता, यूनिसेफ़ इंडिया के सलाहकार, प्रकाश सिंह ने इंडियास्पेंड को बताया। “छात्रों के आहार में परिवर्तन लाने में वर्षों की निरंतर कोशिश और प्रभाव की ज़रूरत होती है,” उन्होंने कहा। “छात्रों को अब पौष्टिक भोजन की आवश्यकता का पता है। वे अपने भोजन में अधिक पोषण वाले खाद्य पदार्थों को शामिल करना शुरू कर देंगे।”

कर्मचारियों और फ़ंड की कमी

इंडियास्पेंड ने पूर्णिया ज़िले के स्कूलों में पाया कि कर्मचारियों और वित्तीय सहायता की कमी से अंकुरण कार्यक्रम पर असर पड़ रहा है। जब कार्यक्रम का परीक्षण किया गया तो हर स्कूल में यूनिसेफ़ इंडिया से मिले फ़ंड की वजह से एक केयरटेकर रहता था। इस परियोजना को बढ़ाकर 20,000 स्कूलों तक करने के बाद, केयरटेकर का पद ख़त्म कर दिया गया। इससे पोषण वाटिकाओं का रखरखाव बिगड़ गया।

“जब कार्यक्रम शुरू हुआ था तो एक केयरटेकर होता था। वह वाटिका की देखभाल करता था। अब कुक के पास इन पौधों के रखरखाव का एक अतिरिक्त बोझ है,” सिमल गाची में स्कूल के प्रिंसिपल, सत्येन्द्र कुमार सुमन ने बताया।

अन्य स्कूलों में भी फ़ंड की कमी के कारण वाटिकाओं की देखभाल नहीं हो पा रही है। उदाहरण के लिए, बेलोरी के सरकारी स्कूल में बिना बाड़ वाली वाटिका नष्ट हो गई, इसका कारण अक्टूबर में छुट्टियों के दौरान पैदल चलने वाले लोग और आवारा जानवर हो सकते हैं। “जब हमने बाड़ लगाने के लिए फंड मांगे, तो प्रिंसिपल ने बताया कि स्कूल के पास कोई फंड नहीं है,” निकिता कुमारी ने कहा।

इंडियास्पेंड ने बिहार में मिड-डे मील स्कीम के निदेशक विनोद कुमार सिंह से यह पूछने के लिए संपर्क किया कि क्या स्कूलों को पोषण वाटिका के रखरखाव के लिए अलग फ़ंड दिया जाता है। वह अंकुरण कार्यक्रम के भी इंचार्ज हैं। उनका जवाब मिलने पर इस रिपोर्ट को अपडेट किया जाएगा।

कुछ रुकावटों के बावजूद अंकुरण कार्यक्रम पोषण के बारे में छात्रों को जानकारी देने में महत्वपूर्ण रहा है, सुमन ने बताया। राज्य में आंगनवाड़ियों में इस कार्यक्रम को शुरू करने की योजना बनाई जा रही है, और उम्मीद है कि इससे अमिता कुमारी जैसे दूसरे बच्चों और किशोरों को अधिक सब्ज़ियां खाने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा।

(इस रिपोर्ट में रोशनी-सेंटर ऑफ विमेन कलेक्टिव्स लेड सोशल एक्शन की ओर से सहायता मिली है।)

(श्रेया, इंडियास्पेंड के साथ डेटा एनालिस्ट हैं।)

यह रिपोर्ट मूलत: अंग्रेज़ी में 10 दिसंबर 2019 को IndiaSpend पर प्रकाशित हुई है।

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