बिहार में चमकी बुख़ार के मामले कम: लॉकडाउन, कम गर्मी और जागरुकता अभियान का असर
पटना/मुज़फ़्फ़रपुर: अनुष्का अब पांच साल की हो गई है और पूरी तरह स्वस्थ है। पिछले साल अनुष्का को चमकी बुख़ार हुआ था। अनुष्का की तीन साल की एक और बहन है। अनुष्का के पिता राघो राय इस साल मार्च से जून के दरमियान अपनी दोनों बेटियों को लेकर अतिरिक्त सतर्क रहे।
“दोनों बेटियों को मैं रात में ख़ाली पेट नहीं सोने देता था। दिन में पानी और चीनी का घोल देता था और घर से बाहर जाने नहीं देता था,” मुज़फ़्फ़रपुर जिले के मोहनपुर के रहने वाले राघो राय ने इंडियास्पेंड को बताया।
पिछले साल बिहार में बच्चों में चमकी बुख़ार के 500 से ज़्यादा मामले रिपोर्ट किए गए थे और सौ से ज़्यादा बच्चों की जान चली गई थी। इस साल बच्चों में चमकी बुख़ार के काफ़ी कम मामले रिपोर्ट हुए हैं। इस साल चमकी बुख़ार के 92 मामले पता चले हैं, जिनमें से 11 बच्चों की मौत हुई है, बिहार के स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों के अनुसार।
जानकारों का कहना है कि लोगों में जागरूकता, मौसम में नरमी और सरकार की तैयारियों के कारण इस साल चमकी बुख़ार पर नियंत्रण करना संभव हो पाया। कुछ जानकार ये भी कहते हैं कि लॉकडाउन की वजह से भी चमकी बुख़ार के मामलों में कमी दर्ज की गई।
क्या है चमकी बुख़ार
चमकी बुख़ार दरअसल एक्यूट इंसेफ़ेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) है। एईएस के तहत कई तरह की बीमारियां आती हैं, जिनमें हाइपोग्लाइसेमिया भी एक है। इसमें बच्चों के शरीर में ग्लूकोज़ की मात्रा कम हो जाती है, जिससे बच्चों का मस्तिष्क क्षतिग्रस्त हो जाता है और उनके शरीर में झटके (चमकी) आने लगते हैं। झटके आने के कारण आम बोलचाल की भाषा में इसे चमकी बुख़ार कहा जाता है।
मुज़फ़्फ़रपुर के एसकेएमसीएच में चमकी बुख़ार से पीड़ित सबसे ज़्यादा बच्चे भर्ती किए जाते हैं। फ़ोटो: उमेश कुमार राय
बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर, शिवहर, वैशाली, सीतामढ़ी, समस्तीपुर, पूर्वी चम्पारण और पश्चिमी चम्पारण ज़िलों में कमोबेश हर साल जनवरी से जुलाई के बीच इसका प्रकोप देखा जाता है। कुपोषण, अधिक गर्मी, रात का खाना नहीं खाना, कच्ची लीची का सेवन चमकी बुख़ार के कारक हैं, मुज़फ़्फ़रपुर में शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ अरुण शाह ने इंडियास्पेंड को बताया।
“अगर कुपोषित बच्चे ख़ाली पेट कच्ची लीची खा लेते हैं, तो उससे भी ग्लूकोज़ का स्तर कम होता है क्योंकि कच्ची और सड़ी-गली लीची में ऐसे रसायन ज्यादा होते हैं, जो ग्लूकोज़़ का लेवल घटा देते हैं। मुज़फ़्फ़रपुर में लीची का उत्पादन बड़े पैमाने पर होता है और यहां ग़रीबी-कुपोषण भी है, इसलिए मुज़फ़्फ़रपुर में चमकी बुख़ार के मामले सबसे ज्यादा होते हैं”, डॉ शाह बताते हैं।
मुज़फ़्फ़रपुर के ग्रामीण इलाकों में 5 साल से कम उम्र के 48% बच्चों में बौनापन है और 56% बच्चों का वज़न सामान्य से कम है। 17.5% बच्चे सामान्य से दुबले-पतले और 5.7% बच्चे सामान्य से बहुत ज़्यादा दुबले-पतले हैं, नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे -4 के अनुसार।
इस साल कम रिपोर्ट हुए चमकी बुख़ार के मामले
बिहार में चमकी बुख़ार का पहला मामला मुज़फ़्फ़रपुर में 1995 में सामने आया था। लेकिन, 2005 के बाद से हर साल चमकी बुख़ार से बच्चों के मरने की ख़बरें आने लगीं। इसको लेकर कई शोध भी हुए जिनके आधार पर बिहार सरकार ने चमकी बुख़ार से निपटने के लिए साल 2016 में एसओपी (स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर) तैयार किया था।
एसओपी को लागू करने के बाद साल 2017 में चमकी बुख़ार से 11 और साल 2018 में महज़ 7 बच्चों की मौत के मामले रिपोर्ट किए गए थे, लेकिन पिछले साल बिहार में 598 बच्चे चमकी बुख़ार से बीमार पड़े थे। इनमें से 130 बच्चों की मौत हो गई थी, राज्य के स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों के अनुसार।
डॉ अरुण शाह इसका कारण लोकसभा चुनाव को बताते हैं। "पिछले साल लोकसभा के चुनाव के चलते बिहार सरकार एसओपी लागू नहीं कर पाई, जिससे बहुत सारे बच्चों की मौत हो गई", उन्होंने कहा।
लेकिन, इस साल चमकी बुख़ार से पीड़ित बच्चों की संख्या और इस बीमारी से मौत के इस साल बहुत कम सामने आए। इस साल कुल 92 मामले सामने आए, जिनमें से 11 बच्चों की मौत हो गई, बिहार के स्वास्थ्य विभाग से मिले आंकड़ों के अनुसार।
ग्रामीण इलाकों में जागरूकता
मुज़फ़्फ़रपुर शहर में स्थित श्रीकृष्णा मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल में कई ज़िलों के मरीज़ आते हैं। चमकी बुख़ार से पीड़ित बच्चे भी इलाज के लिए यहीं लाए जाते हैं।
इस साल चमकी बुख़ार से पीड़ित 92 बच्चों में से 76 बच्चों को इस अस्पताल में भर्ती कराया गया था, जिनमें से 10 को नहीं बचाया जा सका, अस्पताल से मिले आंकड़ों के मुताबिक।
“इस बार मार्च से ही लोगों में जागरूकता अभियान चलाया गया। इसके साथ ही प्राइमरी हेल्थ सेंटर्स को भी मज़बूत किया गया। कई बच्चे बीमार पड़े, तो प्राइमरी हेल्थ सेंटर में ही उनका प्राथमिक इलाज किया गया। बाद में वे अस्पताल में आए, तो बच गये,” एसकेएमसीएच के अधीक्षक डॉ सुनील शाही ने इंडियास्पेंड को बताया।
“हम लोग 24 घंटे अलर्ट पर थे और हेल्थ सेंटर में पर्याप्त ढांचा विकसित किया गया था। इस सेंटर में बुख़ार से पीड़ित एक बच्चा आया था, तो हमने प्राथमिक इलाज कर एसकेएमसीएच भेज दिया। वहां वह पूरी तरह स्वस्थ हो गया,” मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले के मोतीपुर ब्लॉक के प्राइमरी हेल्थ सेंटर के प्रमुख डॉ एसके सुधांशु ने इंडियास्पेंड से कहा।
“स्वास्थ्य विभाग की तरफ से मार्च में ही हमें आदेश मिला था कि चमकी बुख़ार को लेकर जागरूकता फैलानी है,” आशा वर्करों के संगठन आशा संघर्ष समिति की प्रमुख मीरा सिन्हा ने बताया।
राघो राय ने भी बताया कि आशा वर्कर ने उनके गांव में जागरूकता अभियान चलाया था। “मार्च में आशा दीदी आई थी। उन्होंने हमें बताया कि रात में बच्चों को खाना खिलाकर ही सोने देना है और दिन में चीनी और नमक का घोल देना है। गर्मी बढ़ने पर दिन में दो-तीन बार बच्चों को नहलाने की भी सलाह दी थी। हमने इसका पालन किया। एक पर्चा भी हमें दिया गया था, जिसमें लिखा था कि हमें क्या क्या करना चाहिए ताकि बच्चों को चमकी बुख़ार न पकड़े,” राघो राय ने बताया।
मौसम और लॉकडाउन का असर
पिछले साल जब चमकी बुख़ार के कारण बिहार में 150 बच्चों की मौत हुई थी, तो इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के डॉक्टरों की टीम ने इन मौतों का विश्लेषण किया था। “गर्म और ह्यूमिड मौसम तथा कुपोषण का बच्चों की मौत में बहुत योगदान था,” बिज़नेस स्टैंडर्ड की इस ख़बर में टीम ने कहा था।
दक्षिण बिहार सेंट्रल यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ अर्थ, बायोलॉजिकल एंड एनवायरमेंटल साइंस से जुड़े प्रो. प्रधान पार्थसारथी ने चमकी बुख़ार और मौसम के संबंधों पर शोध किया है। “हमने शोध में पाया कि जिस वक़्त गर्मी और ह्यूमिडिटी अधिक रहती है, उस वक्त चमकी बुख़ार का प्रकोप ज्यादा रहता है,” उन्होंने इंडियास्पेंड से कहा।
पिछले साल बिहार में भीषण गर्मी पड़ी थी और स्वास्थ्य विभाग की तरफ से जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक, जून महीने में महज़ चार दिन में ही बिहार में 142 लोगों की मौत लू लगने से हो गई थी। गर्मी का कहर इतना बढ़ गया था कि बिहार में धारा 144 लगाने की नौबत आ गई थी, द वायर की इस ख़बर के मुताबिक।
इस साल पिछले साल जैसी गर्मी नहीं पड़ी। “ह्यूमिडिटी गर्मी बढ़ाती है। इस बार बहुत जल्दी बारिश हुई और लगातार होती रही। इससे ह्यूमिडिटी भी कम रही और तापमान भी। ये एक बड़ी वजह रही कि इस साल एईएस के मामले ज्यादा नहीं हुए”, प्रो. प्रधान पार्थ सारथी ने इंडियास्पेंड से कहा।
भारतीय मौसम विज्ञान विभाग ने भी इस साल फरवरी में पूर्वानुमान जारी कर कहा था कि बिहार में गर्मी का मौसम इस साल सामान्य रहेगा, टाइम्स ऑफ इंडिया की इस ख़़बर के मुताबिक।
डॉ अरुण शाह लम्बे समय से बच्चों पर काम कर रहे हैं। उनका कहना है कि कुपोषण चमकी बुख़ार का सबसे बड़ा कारण है। फ़ोटो: उमेश कुमार राय
कोविड-19 को लेकर केंद्र सरकार ने 24 मार्च को पूरे देश में लॉकडाउन की घोषणा की थी। इसके तहत दुकानें खोलने से लेकर वाहनों के परिचालन तक पर सख्त पाबंदियां लगाई गई थीं। लॉकडाउन के कारण लोग अपने घरों में बंद रहे।
एईएस के मामले कम होने के पीछे जानकार लॉकडाउन को भी वजह मान रहे हैं। “कोरोना के कारण ग्रामीण इलाकों में परिवार के लोगों ने अपने बच्चों को घर से नहीं निकलने दिया, जिसका लाभ ये हुआ कि बच्चे न तो लीची के बागानों में जा पाए और न ही धूप में निकल सके। कोरोना से पहले ही स्वास्थ्य विभाग गंभीर था और कोरोना के वक्त सक्रियता और बढ़ी, तो एईएस को नियंत्रित करने में भी इसका फायदा मिला,” बिहार के स्टेट हेल्थ एंड फैमिली वेलफ़ेयर इंस्टीट्यूट के एसोसिएट प्रोफ़ेसर डॉ विजय कुमार ने इंडियास्पेंड को बताया।
मुज़फ़्फ़रपुर जिले के मुसहरी ब्लॉक के रघुनाथपुर जगदीश गांव के रहने वाले राकेश महतो की बेटी प्रीति कुमारी पिछले साल चमकी बुख़ार की चपेट में आ गई थी, लेकिन ठीक हो गई थी।
“लॉकडाउन के कारण तीन महीने तक हम लोग घर से नहीं निकले। जब कभी बहुत ज़रूरी काम था, तो मैं ही घर से निकलता था, अपनी बेटी को तो कोरोनावायरस के डर से बिल्कुल भी घर से बाहर नहीं निकलने दिया”, राकेश महतो ने डॉ विजय कुमार की बातों से सहमति जताते हुए इंडियास्पेंड से कहा।
(उमेश, पटना में स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
हम फीडबैक का स्वागत करते हैं। कृपया respond@indiaspend.org पर लिखें। हम भाषा और व्याकरण की शुद्धता के लिए प्रतिक्रियाओं को संपादित करने का अधिकार सुरक्षित रखते हैं।