“ भारत की बिखरी हुई पीढ़ी के पास बेफिक्र सपने !”
पूनम ने अपनी किताब, ‘ड्रीमर्स’ में लिखा है, "इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे अब खुद को कितनी बद्तर जगह पाते हैं। वे समान विचारधारा वाले लोगों की दुनिया में सबसे बड़ा समूह बनाते हैं, और उनको लगता है कि इस दुनिया को उनके नियमों से ही चलना चाहिए। "
जयपुर, राजस्थान: "आजादी के बाद से यह भारतीयों की सबसे हताश पीढ़ी है, इनमें से 86 फीसदी अपने भविष्य के बारे में चिंतित महसूस करते हैं, लेकिन विश्व पर वर्चस्व की भी उनकी आकांक्षा दिखती है"- ये बातें स्निग्धा पूनम ने अपनी किताब ‘ड्रीमर्स’ में लिखा है। भारत के युवा पुरुषों और महिलाओं की उम्मीदों, आकांक्षाओं और संघर्षों पर हाल ही आई यह पुस्तक महत्वपूर्ण है।
दुनिया के किसी भी देश की तुलना में भारत में सबसे बड़ी युवा आबादी है और 2020 तक, इसकी कामकाजी आबादी में युवाओं की संख्या 869 मिलियन होगी, जो कि संयुक्त राज्य अमेरिका, इंडोनेशिया और ब्राजील की संयुक्त आबादी के बराबर होगी।
पूनम ने अपनी किताब ‘ड्रीमर्स’ में लिखा है, "इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे अब खुद को कितनी बद्तर जगह पाते हैं, वे समान विचारधारा वाले लोगों की दुनिया का सबसे बड़ा समूह बनाते हैं, और वे ऐसा कोई कारण नहीं देखते हैं कि दुनिया को उनके नियमों से क्यों नहीं चलना चाहिए। " 33 वर्षीय पूनम ने चार वर्षों में सैकड़ों युवा पुरुषों और महिलाओं का साक्षात्कार किया, गहराई से उनके जीवन और उपलब्धियों का अध्ययन किया है।
पूनम का जन्म बिहार में हुआ और उत्तर प्रदेश, झारखंड और बिहार के उत्तरी राज्यों के विभिन्न शहरों और कस्बों में बड़ी हुई हैं। पूनम ने अपनी किताब के लिए रिपोर्टिंग यात्रा रांची से शुरु की, जिसे वह घर कहती हैं। पूनम ने ‘द हिंदू’ और ‘द कारवां’ के लिए काम किया है और ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’, ‘द गार्जियन’, ‘ग्रांटा’ और ‘स्क्रॉल’ समेत कई भारतीय और अंतरराष्ट्रीय प्रकाशनों के लिए लिखा है।
उन्होंने अपनी किताब में ‘रांची के पूरे परिवेश में आए बदलावों और युवा अपने आप को और दुनिया में अपनी जगह के बारे में कितनी अलग सोच रखते हैं’, इस संबंध में लिखा है।
“मेरे जैसे युवा के विपरीत उन्हें विश्वास करने में कोई परेशानी नहीं है कि वे बड़ा आदमी होने के लिए पैदा हुए हैं। एक बात यह भी है कि वे अक्सर अपने बारे में जानते हैं। लेकिन उनकी समस्या यह है कि दूसरे परवाह नहीं करते कि वे खुद के बारे में क्या सोच रखते हैं। "
युवाओं के जीवन, उनके सपनों और वास्तविकता के बीच संघर्ष, और भारत के लिए इसका क्या अर्थ है, इस संबंध में इंडियास्पेंड ने पूनम से बात की। प्रस्तुत है संपादित अंश।
रांची में बड़ा होना कैसा था और इतने वर्षों में शहर कैसे बदला है?
कई जगहों पर मेरा बचपन बीता। मैं अपने पिता के साथ-साथ कई जगहों पर रही, जो सरकारी प्रशासन में काम करते थे। रांची उन स्थानों में से एक था। मैं इसे घर कहती हूं, क्योंकि यहां हमारे पास एक मकान है। 1990 और 2000 के दौरान शहर में कई बदलाव हुए हैं, जो इसकी भौतिक उपस्थिति से शुरु होता है। जनसंख्या में काफी विस्तार हुआ। अचानक कई शॉपिंग मॉल, आवासीय परिसर, सिनेप्लेक्स आदि शहर में खुल गए ।
लोग छोटे शहरों के बारे में अलग-अलग सोचने लगे थे। जब हम बड़े हो रहे थे, तो उस जगह को छोड़ने की प्रबल इच्छा थी। एक सोच थी कि हमारी जिंदगी बड़े शहरों में रहने वाले लोगों के जीवन से बहुत अलग है। जो टेलीविजन और इंटरनेट के साथ अधिक से अधिक बदलता चला गया। और जैसे ही आप व्यापक दुनिया से अधिक से अधिक जुड़ते जाते हैं, आप खुद को अकेला महसूस करना कम कर देते हैं। अब जब मैं घर जाती हूं और किसी 18 वर्षीय युवा से बात करती हूं, तो वह बिल्कुल अलग-थलग महसूस नहीं करते। मुझे याद है, 18 साल की उम्र में हमें लगता था कि हम रांची में फंसे हुए हैं।
आपने भारत में युवा पुरुषों और महिलाओं के जीवन पर कैसे लिखना शुरू किया?
मुझे ऐसा करने के लिए कहा गया था। मैं सामान्य रूप से युवा लोगों के बारे में बहुत कुछ लिख रही थी, लेकिन शहरी भारत में डेटिंग जैसी हल्की-फुल्की कहानियां। मुझे लगता है कि इस पुस्तक के जरिए युवा भारतीयों का आकलन करने के लिए उपयोग किए जाने वाले सबसे आम शब्द को अगर सामने रखना हो तो वह है- आकांक्षा।
मुझे बताया गया कि एक छोटे से शहर में जाना और 4-5 युवा लोगों को चुनना और उनसे बात करना है कि वे क्या चाहते हैं। रांची जाना स्वाभाविक था, क्योंकि मैं वहां से हूं। मैंने 2014 में इस पुस्तक पर काम करना शुरू कर दिया था और जब भी मैंने शहर का दौरा किया, तब भी रांची बदल रहा था। मैंने उन जगहों पर जाना शुरु किया जहां वो मुझे मिल सकते थे। मैं रेडियो स्टेशनों पर गई, क्योंकि अचानक वहां बहुत स्टेशन आ गए थे। मैं सभी प्रकार के आयोजनों में जाने लगी, जैसे गायन शो, नृत्य शो, और निश्चित रूप से फैशन शो भी। मैं कॉफी शॉप में गई और युवाओं से बात करने की कोशिश की। मैं कोचिंग संस्थानों में गई, क्योंकि यह एक ऐसा स्थान है जो हमेशा युवा लोगों से भरा होता है। मैंने कम से कम एक साल रांची और झारखंड में लोगों से बात की।
कुछ समय बाद, मैंने रांची के बाहर थोड़ी यात्रा शुरू की। क्योंकि मैं समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए समान तरह के लेखों की रिपोर्ट भी कर रही थी। मैंने अन्य स्थानों पर समान लोगों से मिलना शुरू कर दिया। मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्र नेता से बात की, जिसके बारे में मैंने लिखा है। जब मैं इंदौर गई, तो मैंने एक नई मीडिया कंपनी में जाना सुनिश्चित किया, जो बस वहां शुरु होने वाला था। यह किताब दिल्ली के कॉन कॉल सेंटर से एक कहानी के साथ समाप्त होती है, क्योंकि मैंने यह देखा कि आपको इन कहानियों को खोजने के लिए रांची को आधार बनाने की जरुरत नहीं है। महत्वाकांक्षा वाले युवा दिल्ली या मुंबई जैसे बड़े शहरों के बड़े हिस्से में मौजूद हैं।
आपको कब पता चला कि देश भर में मिले वाले दर्जनों लोगों में कई बातें एक तरह की थीं? ये क्या थीं?
मुझे नहीं पता था कि एक तरह की चीजें मिलेंगी। रिपोर्टिंग के माध्यम से यह कुछ समय बाद पता लगा। पूरी प्रक्रिया में मुझे चार साल लगे, जब मैं दो साल में पुस्तक का पहला मसौदा लिख रही थी। मुझे लगा कि इन छह-सात जगह के लोगों के बीच बहुत सारी चीजें आम हैं, जिन्हें मैंने रेखांकित किया।
' खुद की सहायता' का भाव उनमें था। झारखंड के एक गांव में एक लड़का है, जो किसी भी तरह से अपने परिवार की मजदूर वर्ग की पृष्ठभूमि से बाहर निकलने का फैसला करता है और ठीक से ऊपरी-मध्यम वर्ग बन जाता है।
वह इसे पूरी तरह से खुद करता है – यह देख कर कि दूसरे इसे कैसे कर रहे हैं। झारखंड के एक अन्य गांव से एक लड़का है, जो कहता है कि उसे 17 साल की उम्र में 'एबीसी' नहीं पता था। 27 वर्ष की उम्र में, उनके पास स्पोकन इंलिश की अपनी संस्थान है। उसने किताबें पढ़कर, लोगों को देखकर, सीखने की कोशिश की। इलाहाबाद का एक लड़का है, जो अपने पिता की तरह क्लर्क नहीं बनना चाहता है। वह दिल्ली जाना चाहता है और एक बड़ा आदमी बनना चाहता है । इसलिए वह अपना रास्ता चुनता है। कुछ लोग उस स्थान तक पहुंचने के लिए उचित तरीका लेते हैं, कुछ सफलता के लिए घोटाले का रास्ता चुनते हैं। लेकिन हर कोई यही मानता है कि उन्हें यह सब अकेले करना है।
मैंने यह भी महसूस किया कि इस तरह की आकांक्षा, लोगों में, कम से कम एक वर्ग में क्रोध का कारण बन रहा है। वे वैसे मौकों पर अंदर से नाराज महसूस करते थे, जब उन्हें लगा कि, उन्हें अस्वीकार किया गया है। वे उन अवसरों पर भी नाराज हुए, जब उन्हें लगा कि उनकी बजाए, उनसे कम सक्षम लोगों को मौका दिया गया है। पहचान का संकट और आकांक्षा की उड़ान के बीच उनकी चिंताएं अक्सर धर्म या जाति की दशा- दिशा से जुड़ी दिखती हैं।
स्निग्धा पूनम द्वारा लिखी गई किताब ‘ड्रीमर्स’ का कवर
Cover of the book “Dreamers” by Snigdha Poonam
आपने उल्लेख किया हैं कि लिंग इस पहचान संकट का एक पहलू है, जिससे युवा पुरुष सामना करते हैं। आपने पुस्तक में डेटा का उल्लेख किया है, लेकिन डेटा कहती कि 2004-05 और 2009 -10 के बीच 24 मिलियन से अधिक पुरुष कार्यबल में शामिल हुए, जबकि 21.7 मिलियन महिलाएं इससे बाहर निकल गई हैं। महिलाओं के कार्यबल से बाहर निकलने के कारण क्या हो सकते हैं?
कुल मिलाकर, रिपोर्टिंग के 6 या 7 सालों में मैं सैकड़ों युवा पुरुषों और महिलाओं से मिली होंगी। इस पुस्तक में केवल कुछ कहानियां शामिल की गई हैं, लेकिन अन्य कई कहानियां हैं, जो मैंने समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में लिखी हैं।
पितृसत्ता निश्चित रूप से एक स्पष्ट कारक है। यदि आप एक गांव में एक कौशल केंद्र में जाते हैं तो आप युवा पुरुषों और युवा महिलाओं को कौशल सीखने और अपने जीवन को बदलते, दोनों देखते हैं। लेकिन युवा महिलाएं सुरक्षित कौशल का चयन करेंगी, जिनसे पुरुषों को कोई चुनौती नहीं होगी। महिलाओं को सिलाई मशीन कक्षाओं में भेजा जाता है, जबकि पुरुष टूर गाइडिंग से लेकर मोबाइल मरम्मत तक की पेशकश की जाने वाली किसी चीज के बारे में सीखने के लिए स्वतंत्र हैं।
कई बार महिलाएं इसलिए नहीं करती, क्योंकि उन्हें खुद पर भरोसा कम होता है। कई बार यह शादी या अन्य प्रकार के सामाजिक दबाव की वजह से नहीं हो पाता है। मेरा मतलब यह नहीं है कि युवा महिला महत्वाकांक्षी नहीं हैं या वे हमारे चारों ओर अपने जीवन को नहीं बदल रहे हैं, लेकिन उनमें से बहुत से संघर्ष बुनियादी हैं। वे अपने घर छोड़ने, स्कूल जाने, काम खोजने के लिए, समान वेतन खोजने के लिए, सुरक्षित स्थान खोजने के लिए, अपने पति का चुनाव करने के लिए संघर्ष कर रही हैं। मेरा मतलब है कि, सिर्फ एक जगह पर दिखने के लिए और ऐसी युवा महिलाओं को ढूंढना, जो सभ्यता असंतुलन और समाज की व्यवस्था को ठीक करने की इच्छा रखती हों, बहुत असामान्य सी बात है। युवा पुरुषों और युवा महिलाओं की महत्वाकांक्षाएं काफी अलग-अलग हैं।
इन सभी परिवर्तनों में, पुरुषों और महिलाओं की आकांक्षाएं कैसे प्रभावित होती हैं, वे एक-दूसरे से कैसे जुड़े होते हैं?
युवा पुरुषों ने अपने आस-पास की उन युवा महिलाओं के बारे से मुझसे अधिक स्वतंत्रता से बात की, जिन्होंने अपने जीवन पर नियंत्रण रखना शुरू कर दिया था। इस बारे में वे एक-दूसरे से बात नहीं करते थे, लेकिन उन्हें लगा कि वे मुझसे बातें कह सकते थे कि एक औरत के रूप में मैं समझूंगी। मैं करनाल में गौ रक्षक के साथ बैठी थी और वह इस बारे में बात कर रहे थे कि उसे अपने पड़ोस में हर लड़की द्वारा कैसे खारिज कर दिया गया है। कैसे वे खुद को शिक्षित कर रही हैं, काम ढूंढ रही हैं, और शहरों में अपने लिए पतियों का चयन कर रही हैं । वे उस तरह के बदलाव से पूरी तरह से विचलित महसूस कर रहे हैं। दुनिया के खिलाफ उनके मन में ढेर सारा गुस्सा है और उनकी हिंसा के लिए ट्रिगर उन महिलाओं को देखकर एक असुरक्षा से आया, जो उन्हें योग्य नहीं समझती थीं।
युवा पुरुषों और महिलाओं की विश्व दृष्टि को प्रभावित करने में सोशल मीडिया को क्या भूमिका निभानी है?
जिन लोगों के साथ मैंने मुलाकात की, वे उदारीकरण के बाद पैदा हुए थे। आप जानते हैं कि उनमें से कई इंटरनेट के माध्यम से दुनिया की खोज कर रहे थे और वे फेसबुक और व्हाट्सएप के साथ सोशल मीडिया के साथ खुद को जोड़कर देख रहे थे। यह मेरे लिए आश्चर्यजनक है कि फेसबुक पर 'मेरे बारे में' कॉलम भरने से पहले उनमें से बहुत से लोग खुद के उद्देश्य को नहीं समझते थे। उनमें से कई लोगों ने पहली बार खुद के बारे में सोचना शुरू कर दिया- “मैं क्या हूं, मुझे क्या पसंद है, मैं दुनिया में क्या पेश करना चाहता हूं।”
मैंने जिन लोगों से पहली बार बात की थी उनमें से कई ने व्हाट्सएप पर इश्क करना शुरू किया, क्योंकि वास्तविक जीवन में वे महिलाओं तक नहीं जाएंगे और कॉफी के लिए उनसे नहीं पूछेंगे। व्हाट्सएप पर उनमें से कई ने अपने व्यक्तिव को बदलना शुरु किया...कोई सामाजिक व्यक्तित्व की ओर बढ़ा तो किसी ने धार्मिक व्यक्तित्व बनाना शुरु किया।
मुझे लगा कि सोशल मीडिया उनके जीवन का अब एक बड़ा हिस्सा है। लेकिन मुझे नहीं पता कि सोशल मीडिया द्वारा उनका विश्व दृष्टि कितनी बदली है। क्योंकि उनमें से बहुत सारे अपने वास्तविक और तत्कालिक परिस्थितियों पर भी निर्भर थे।
मेरठ में एक लड़का है जो इस तथ्य से नाराज है कि कोई भी कॉलेज में उसके बारे में ज्यादा परवाह नहीं करता है। वह इसके बारे में बहुत नाराज हो जाता है और दुनिया में मुस्लिमों और बांग्लादेशियों के खिलाफ बहस शुरू करने के लिए फेसबुक का उपयोग करता है। ऐसा नहीं है कि वह वास्तव में जानता है कि बांग्लादेश में क्या हो रहा है?
कुछ लोग ही जानते हैं कि दुनिया में क्या हो रहा है। कम लोग जानते हैं कि संयुक्त राज्य के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प चुने गए। उनमें से कई ने इन चीजों के बारे में भी बात की और अपने राजनीतिक मांग से कुछ गुस्से में भी दिखे। लेकिन मैंने देखा कि ऐसा बहुत कम है।
उनके पास वास्तविक रूप में सबसे मजेदार अवसर हैं। एक लाख भारतीय हर महीने नौकरी बाजार में प्रवेश करते हैं, शायद उनमें से 0.01 फीसदी स्थिर नौकरियां पाएं, लेकिन उनके पास सफलता के बारे में प्रशंसनीय संभावित विचार हैं, जैसा कि आप पुस्तक में लिखती हैं। देश के लिए इसका क्या अर्थ होगा अगर ये युवा पुरुष और महिलाएं अपने सपनों, आकांक्षाओं को प्राप्त नहीं कर पाते हैं?
मैं वास्तव में नहीं जानता कि यह भारत के लिए कैसे बदल रहा है। हर दिन एक विरोध होता है जिसमें युवा लोग केंद्र में होते हैं। मुझे याद है कि इस पुस्तक में मैंने उल्लेख किया है कि 2013 में, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि भारत में किसी भी देश के युवाओं की सबसे बड़ी संख्या है और यदि देश अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने में असमर्थ हैं, तो आगे कई तरह की गड़बड़ी की संभावना है ।
हमने पिछले कुछ सालों में बहुत कुछ देखा है। हमने कोटा दंगे को देखा है। भारत में आज हम जो संघर्ष देखते हैं, जाति या धर्म या लिंग की वजह से, उनमें ज्यादतर सिर्फ इसलिए है कि महत्वाकांक्षाएं निराशा के माहौल में दम तोड़ रही हैं।
महिलाओं के खिलाफ हिंसा की भावना पुरुषों में इस बात से आती है कि कि महिलाएं खुद से आगे बढ़ रही हैं। लिंचिंग के मामले भी मुस्लिमों के ऊपर बढ़ने की भावना से हो रही है, जिससे गांव या शहर में बहुसंख्यक समुदाय में असुरक्षा बढती है। दलितों के खिलाफ बढ़ती हिंसा के पीछे एक तथ्य यह भी है कि गांवों की प्रमुख जाति महसूस करती है कि ये दलित लड़के और लड़कियां शिक्षित हो रहे हैं, शहरों तक जा रहे हैं, नौकरी ढूंढ रहे हैं और फिर वापस आ रहे हैं और खुद के लिए एक नई परिस्थिति बना रहे हैं।
मुझे याद है, जब पिछले साल राम रहीम दंगे हुए थे, बड़ी भावना यह थी कि ये लोग एक पागल-उग्र पंथ का हिस्सा हैं, जो अपने जेल गए नेता के लिए पंजाब और हरियाणा में दंगे कर रहे हैं। लेकिन उनमें से कई से बात करते हुए, मैंने पाया कि वे इस बात पर भी चिंतित थे कि राम रहीम डेरा ने उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से या सीधे नियोजित किया था और वे अपनी नौकरियां खो रहे थे।
साथ ही, मैं भारत में महसूस करती हूं कि हम इतने विभाजित हैं कि मुझे सच में संदेह होता है कि सरकार के खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध भी होने जा रहा है। लेकिन हम असंतोष के इन अलग-अलग और हिंसक अभिव्यक्तियों को देखते हैं।
भारत में छह और 18 साल की उम्र के बीच 295 मिलियन बच्चे हैं । आबादी का 24.6 फीसदी । सरकार क्या कर सकती है, जिससे भविष्य की पीढ़ियों को उनकी आकांक्षाओं और वास्तविकता के बीच अंतर का सामना न करना पड़े?
सरकार कई चीजें कर सकती है और उनमें से कई पहले ही निर्धारित कर चुकी है। मेरे पास अधिक समाधान नहीं हैं, लेकिन पुस्तकें लिखने के दौरान मुझे वासत्व में कुछ चीजें मिली हैं। जैसे कि निश्चित रूप से शिक्षा एक ऐसा क्षेत्र है, जिसे हमें ठीक करने की आवश्यकता है। भारत के बड़े हिस्सों में लोग स्कूलों और कॉलेजों में ये सोचते हुए जाते हैं कि इस शिक्षा से कुछ भी नहीं निकलने वाला। यह देखना निराशाजनक है। गुणवत्ता में सुधार और सेवा बुनियादी ढांचे को मजबूत बनाने की जरूरत है। हमारे पास सपने और हकीकत के बीच की खाई को भरने के लिए कोई रोडमैप नहीं है। लेकिन मुझे लगता है कि सरकार इसके जनसांख्यिकीय लाभांश को देखते हुए ऐसा कर सकती है।
आप जिन लोगों से मिले थे, उनमें से कौन सी सबसे ज्यादा दिलचस्प कहानी आपको मिली?
पुस्तक पर प्रतिक्रिया देने वाले अधिकांश लोगों की तरह, मुझे पूरी तरह से रिचा सिंह की कहानी सबसे ज्यादा दिलचस्प लगी। वह युवा औरत थी और एक औरत के रूप में, कभी उसकी हिम्मत खत्म नहीं हुई। उनकी लड़ाई मेरे लिए दिलचस्प थी और मुझे नहीं लगता कि मैंने किताब में किसी और के लिए ऐसी भूमिका बनाई, जैसा मैंने रिचा सिंह के लिए लिखा।
क्या आप अभी से उन लोगों के संपर्क में हैं ?
हां, हम संपर्क में रहते हैं। रिचा सिंह ने अभी फुलपुर उप-चुनाव के लिए प्रचार किया और उसने काफी अच्छा काम किया। वह मुझे मुख्य बातें बताती रहती है। लोग समय-समय पर व्हाट्सएप संदेश भेज देते हैं या उनमें से कुछ मुझे फोन करते हैं। ये रिश्ते कम से कम दो-तीन वर्षों में विकसित हुए हैं और खुद को काटकर आगे बढ़ना वाकई मुश्किल है। साथ ही, पत्रकारिता के दृष्टिकोण से, मैं इन कहानियों के नायकों में से कुछ से यह देखने के लिए संपर्क जारी रखना चाहता हूं कि वे किस तरफ आगे बढ़ते हैं।
पुस्तक लिखने के बाद, क्या आप उन युवा लोगों से मिलीं, जिनके जीवन की कहानियां एक तरह की हैं?
हां, मैं कहानियों को खोजने के लिए छोटे शहरों और गांवों की यात्रा करती रहती हूं और उनमें से कई एक ही विषय के चारों ओर घूमती हुई कहानियां हैं। मैंने जो आखिरी रोचक कहानी देखी-सुनी, वह इलाहाबाद में कौशम्बी से थी, जिसे ‘नकल की मंडी’ कहा जाता था, जिसे मैंने ‘मार्केट फॉर एक्जाम चिटिंग’ कहा। यहां एक विशाल धोखाधड़ी के आसपास बनाई गई पूरी अर्थव्यवस्था है, और उस शहर में हर कोई इससे जुड़ा है।मैं कई उन युवा पुरुषों से मिली, जो कॉलेजों से बाहर आए और कोई नौकरी उन्हें नहीं मिली। वे उत्तर प्रदेश में 'सॉल्वर्स' कहलाते हैं। वहां यह बहुत सामान्य सी बात है कि वे आपको यह बताने में संकोच नहीं करते कि वे पैसे के लिए दूसरों के लिए परीक्षा पत्र हल करते हैं। यह सिर्फ कुछ ऐसा है, जो वे करते हैं, सिर्फ इसलिए कि उनके पास कोई अन्य अवसर नहीं है। इसलिए उन्हें इसका कोई अफसोस भी नहीं है।
(खेतान लेखक / संपादक हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं।)
यह साक्षात्कार मूलत: अंग्रेजी में 29 अप्रैल, 2018 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।
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